scorecardresearch
Sunday, 28 April, 2024
होमशासनकड़वा सच: कोटे के बावजूद, दलित और जनजातियां दिल्ली की सत्ता के गलियारों से अभी भी गायब

कड़वा सच: कोटे के बावजूद, दलित और जनजातियां दिल्ली की सत्ता के गलियारों से अभी भी गायब

Text Size:

यहाँ तक कि उच्च अधिकारी-वर्ग में ओबीसी का प्रतिनिधित्व भी 2.89 प्रतिशत से अधिक नहीं है: सेवानिवृत्त अधिकारियों का दावा है कि दलित और आदिवासियों को अपने करियर में भेदभाव का सामना करना जारी है।

दिप्रिंट दलित मुद्दों पर, दलित ऐताहिसिक महीने के एक भाग के रूप में,लेख प्रकाशित कर रहा है।

नई दिल्लीः दिप्रिंट द्वारा दायर आरटीआई आवेदन पत्र के जवाब में सरकार ने कहा है कि केंद्र सरकार में सचिव रैंक के 81अधिकारी हैं, जिसमें केवल 2 अनुसूचित जाति के और 3 अनुसूचित जनजाति के हैं।

आरटीआई के उत्तर में कहा गया कि कुल मिलाकर, 9 प्रतिशत अधिकारी संयुक्त सचिव और इससे आला दर्जे के पदों पर आसीन हैं जो इन दोनों समुदायों से हैं। यह जानकारी न्यायपालिका और अधिकारी-वर्ग में दलितों तथा आदिवासियों के अभूतपूर्व प्रतिनिधित्व पर एक नई बहस के बीच सामने आई है। सचिव या अपर सचिव स्तर के अधिकारियों में अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) से किसी भी व्यक्ति के न होने के कारण इनकी संख्या एससी/एसटी से भी कम है। वर्तमान में, संयुक्त सचिव स्तर पर 13 ओबीसी अधिकारी हैं,जो उच्च अधिकारी-वर्ग में 3% से भी कम मौजूदगी के साथ ओबीसी का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं।

निम्न प्रतिनिधित्व के पीछे के कारक

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

परंपरागत रूप से, अधिकारी वर्ग में अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति समुदाय का प्रतिनिधित्व निम्न स्तर पर रहा है।
आरटीआई का जवाब दर्शाता है कि संयुक्त सचिव और इससे ऊंचे पदों पर 451 अधिकारी हैं जिसमें 81 सचिव शामिल हैं, 75 अतिरिक्त सचिव और 295 संयुक्त सचिव शामिल हैं। इनमें से केवल 40 अधिकारी अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के समुदायों के हैं।

पिछले साल, राज्यसभा में एक प्रश्न के लिखित उत्तर में कर्मियों, पेंशन और जन शिकायतों के राज्य मंत्री जितेंद्र सिंह ने कहा था कि एससी / एसटी समुदायों के सचिवों की संख्या सिर्फ चार थी।

2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में अनुसूचित जातियों के 20.14 करोड़ लोग थे, जिससे भारत की कुल आबादी में 16.6 प्रतिशत हिस्सा दलितों का रहा। जिसमें एसटी जाति के लोगों की हिस्सेदारी 8.6 प्रतिशत थी।

हालांकि केन्द्रीय स्टाफिंग योजना के तहत पदों में अनुसूचित जातियों/ अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षण का कोई प्रावधान नहीं है, सरकार आम तौर पर यह आग्रह करती है कि समिति में मनोनयन के समय अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति वर्ग के अधिकारियों को शामिल करने के प्रयास किए जाते हैं, यदि आवश्यक हो, तो सामान्य श्रेणी के अधिकारीयों की तुलना में उदार मानकों को अपनाकर भी।

हालांकि, निरंतर नौकरशाही के उच्च विभागों में निचले समुदायों का कम प्रतिनिधित्व कुछ और ही दर्शाता है – ऐसा दलित नौकरशाहों का कहना है।

दलित/आदिवासी अधिकारियों से पक्षपात?

एक सेवानिवृत्त आईएएस अमर सिंह ने कहा कि आरक्षण के माध्यम से सिस्टम में दलित और आदिवासी नौकरशाहों के लिए प्रविष्टि सुनिश्चित की जाती है, फिर भी प्रणाली के भीतर उन्हें भेदभाव का सामना करना पड़ता है,जिससे उच्च स्तर पर निर्णय लेना उच्च जातियों के प्रभुत्व में रहता है।

उन्होंने यह भी कहा, “सिस्टम ने पक्षपात केवल इसलिए नहीं छोड़ा क्योंकि आपने सिस्टम में प्रवेश किया है।”
उन्होंने दावा किया कि दलितों के खिलाफ हो रहा जबरदस्त पक्षपात पोस्टिंग और पदोन्नति के समय प्रकट होता है। जबकि सचिव स्तर पर दलितों की संख्या अपने आप में बहुत कम है, सिंह का तर्क है कि फिर भी उनकी कम संख्या से उत्पन्न बड़ी समस्या किसी की समझ में नहीं आती।

वे कहते हैं “यहां तक कि जब उन्हें वरिष्ठ पदों पर पदोन्नत किया जाता है, तो उन्हें कभी भी विचारपूर्ण, निर्णय लेने वाले मंत्रालयों में शामिल नहीं किया जाता है। उन्होंने कहा”दलितों और आदिवासियों को कभी भी रक्षा, वित्त और अन्य दूसरे उच्च पदों के सचिव नहीं बनाया जाएगा”।

इसलिए योग्य दलित नौकरशाहों के खिलाफ हो रहा भेदभाव एक बड़ी समस्या है, इस समस्या से निपटने के लिए कई लोगों ने मिलकर एक व्हाट्सएप ग्रुप, “कॉमन कॉज” बनाया, जिसमें भेदभाव के अनुभवों और पूर्वाग्रहों को खारिज करने के तरीकों पर चर्चा की जा सके। सिंह कहते हैं कि हालांकि यह व्हाट्सएप ग्रुप,अब बंद हो चुका है, लेकिन इस ग्रुप के सदस्य अभी भी एक साथ एकत्रित होकर ऐसे मुद्दों पर चर्चा करते हैं।

2016 में,जब दलित विद्वान रोहिथ वेमूला ने आत्महत्या की थी, तब पूर्व आईएएस अधिकारी पी. शिवकामी ने कहा कि उसने 2008 में सरकार द्वारा “अछूत” जैसा व्यवहार करने के बाद नौकरी छोड़ दी थी।

“राजनीतिक वर्ग और नौकरशाह दोनों दलितों के खिलाफ काम करते हैं। हालांकि, मेरे कार्यकाल के दौरान उस राज्य में मेरा पद मंत्री के बराबर था, जिस राज्य में मैं सर्विस कर रही थी, मुझे आदिवासियों के मूल अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ा, ” तमिलनाडु में आदि द्रविड़ और जनजातीय कल्याण विभाग के सचिव के रूप में अपने अंतिम पद पर तैनात सिवाकामी ने आईएएनएस को बताया।

“जब मैं उनके कल्याण के लिए काम कर रही थी तो मुझे उन्ही के समुदाय के सदस्य के रूप में करार दिया गया। ऐसा अस्पृश्यता की वजह हुआ था। मुझे एहसास हुआ कि निचले समुदाय के लोगों के लिए एक अलिखित कानून था, “उन्होंने कहा।

जहाँ दलित समूह लंबे समय से पदोन्नति के लिए आरक्षण की मांग कर रहे हैं, केंद्रीय स्तर पर ऐसा कोई प्रावधान नहीं है। पिछले साल, मोदी सरकार ने अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति के लिए सरकारी नौकरियों में पदोन्नति में कोटा देने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी, पदोन्नति में इस तरह के आरक्षण के खिलाफ आयोजित पहले के एक फैसले पर पुनर्विचार के लिए अदालत से आग्रह किया।

वर्ष 2006 में, शीर्ष अदालत ने कहा था कि पदोन्नति में आरक्षण को लागू करने के लिए संबंधित राज्यों को आरक्षण का प्रावधान करने से पहले “प्रत्येक मामले में पिछड़ापन, प्रतिनिधित्व की अपर्याप्तता एवं समग्र प्रशासनिक दक्षता जैसे उचित कारणों को अस्तित्व में दिखाना होगा।

share & View comments