नई दिल्ली: एक हाथ में पक्षियों के लिए दाना और दूसरे हाथ में स्टील की डोलची लिए महिमा चौरसिया हर रोज़ शाम 4 बजे अपने साउथ दिल्ली स्थित घर से निकलती हैं. मसूदपुर रोड चौराहे पर वह कुछ दाने बिखेरती हैं और फुटपाथ पर रोटी के टुकड़े फैला देती हैं. यह उनके रोजमर्रा की दिनचर्या का एक अहम हिस्सा है — एक बार जब वह भूल गईं थीं तो उनके पति का एक्सीडेंट हो गया था.
35-वर्षीय चौरसिया ने कहा, “2019 के उस दिन से, मैं भले ही खुद खाना न खाऊं, लेकिन मैं कबूतरों के लिए दाना डालना कभी नहीं भूलती.”
लेकिन चाहे यह अंधविश्वास हो या सिर्फ अच्छे कर्म, उनके जैसे कईं लोगों का यह रुटीन जल्द ही नागरिक अपराध माना जा सकता है.
बच्चों और बुज़ुर्गों के स्वास्थ्य के लिए इन पक्षियों की बढ़ती आबादी को ज़िम्मेदार ठहराते हुए, दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) कबूतरों को दाना खिलाने पर प्रतिबंध लगाने पर विचार कर रहा है.
कबूतरों को दाना खिलाना भले ही भारत की कर्म संस्कृति में शामिल हो, लेकिन दिल्ली में इसके दुष्प्रभाव हुए हैं. इस आक्रामक प्रजाति की बढ़ती आबादी को शहर से गौरैया को भगाने के लिए आंशिक रूप से जिम्मेदार माना गया. इतना ही नहीं, पूर्व मुख्यमंत्री शीला दीक्षित ने गौरेया को शहर की राज्य पक्षी घोषित किया और इसे बचाने के लिए एक पहल शुरू की. एक दशक बाद, गौरैया के लिए गोरैया ग्राम वन में इसका प्रभाव दिखाई देता है. अब, कबूतरों को खिलाने पर प्रस्तावित प्रतिबंध के साथ, एमसीडी एक नई संस्कृति बनाम सार्वजनिक स्वास्थ्य टकराव के केंद्र में है.
लेकिन चौरसिया नहीं रुकेंगी. उन्होंने दृढ़ता से कहा, “मैं नहीं रुकूंगी — मेरा मानना है कि यह दुर्भाग्य लाता है. हमने कभी नहीं सुना कि इससे बीमारी आती है.”
वे अकेली नहीं हैं. दिल्ली में कबूतरों को खिलाने के लिए बहुत जगहें हैं — फुटपाथ, व्यस्त चौराहे, मंदिरों के बाहर और घर की छतें. पुरानी दिल्ली में, एक कबूतर बाज़ार भी है जहां कबूतर खरीदे जा सकते हैं. कुछ लोग तो मुगलकालीन खेल कबूतरबाजी के लिए भी प्रशिक्षित हैं, जिसमें पक्षियों को छतों से दूर स्थानों पर ‘दौड़ने’ के लिए छोड़ा जाता है और 30 मिनट के भीतर वापस लौट आते हैं — यह कई खूबसूरत बॉलीवुड सीन के लिए भी जाने जाते हैं और कई लोगों के लिए कबूतरों को खिलाना एक आध्यात्मिक अनुष्ठान भी है, जो अच्छे कर्म करने का एक तरीका है.
पीपुल फॉर एनिमल्स (पीएफए) एनजीओ में पब्लिक पॉलिसी की निदेशक श्रीमोई चक्रवर्ती ने कहा, “भारत में कबूतरों को खिलाना सिर्फ एक आदत नहीं है; इसका धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व भी है. जन जागरूकता के बिना बैन के प्रभावी होने की संभावना नहीं है. निर्धारित स्थानों के बजाय, लोग उन्हें अपनी छतों पर या अपने घर के बाहर खिलाना शुरू कर देंगे.”
इस शौक की बदौलत, कबूतर फल-फूल रहे हैं — खैर, थोड़ा बहुत. 2023 स्टेट ऑफ इंडियाज बर्ड्स रिपोर्ट के अनुसार, भारत में रॉक कबूतरों की आबादी में 2000 के बाद से 150 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि हुई है, जो किसी भी पक्षी प्रजाति में सबसे अधिक वृद्धि है. संरक्षणवादियों का तर्क है कि कबूतरों को खिलाने वाले स्थानों ने इसमें काफी योगदान दिया है, जिससे न केवल मनुष्यों के लिए स्वास्थ्य जोखिम पैदा हुआ है — विशेष रूप से सांस लेने संबंधी समस्याओं के रूप में — बल्कि अन्य पक्षियों के लिए भी अस्तित्व का खतरा पैदा हुआ है, जैसे कि दुर्लभ गौरैया.
गौरैया को बचाने के लिए समर्पित एक संरक्षण गैर-लाभकारी संस्था नेचर फॉरएवर सोसाइटी के संस्थापक और अध्यक्ष मोहम्मद दिलावर ने कहा, “नगर निगम को यह विचार बहुत पहले ही प्रस्तावित कर देना चाहिए था. जब एक प्रजाति की आबादी अधिक हो जाती है, तो यह अन्य वन्यजीवों को प्रभावित कर सकती है, क्योंकि वह पारिस्थितिकी तंत्र पर हावी होने लगते हैं. कबूतरों में यह वृद्धि एक प्राकृतिक घटना नहीं है; बल्कि, यह मानवीय क्रियाओं, विशेष रूप से अधिक खिलाने का परिणाम है.”
दिप्रिंट ने कॉल और मैसेज के जरिए MCD से टिप्पणी के लिए संपर्क किया था. अगर उनकी तरफ से कोई प्रतिक्रिया मिलती है तो इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.
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लव बर्ड्स और ‘उड़ते चूहे’
बॉलीवुड का कबूतरों से बहुत पुराना नाता रहा है. फिल्म ‘मैंने प्यार किया’ में अभिनेता सलमान खान प्रेम पत्र देने के लिए सफेद कबूतर का इस्तेमाल करते हैं. ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ फिल्म में अभिनेता शाहरुख खान अपने होने वाले ससुर (अमरीश पुरी) को प्रभावित करने के लिए कबूतरों को दाना खिलाते हैं और फिल्म ‘दिल्ली-6’ का गाना ‘मसाक्कली’ इस पक्षी को खुशी के प्रतीक के रूप में सेलिब्रेट करता है.
कबूतरों को दाना खिलाना दिल्ली और मुंबई जैसे शहरों में और भी ज़्यादा प्रिय है — और फोटो खिंचवाने का पसंदीदा तरीका भी.
दिलावर जिन्होंने 2006 में रॉयल सोसाइटी फॉर द प्रोटेक्शन ऑफ बर्ड्स (RSPB) प्रोजेक्ट पर भी काम किया था, ने कहा, “मुंबई में कबूतरों को दाना डालना सिर्फ मनोरंजन नहीं है — यह एक व्यावसायिक गतिविधि है. पर्यटक स्थलों और ज़्यादा भीड़-भाड़ वाले इलाकों के पास कबूतरों के खाने की जगहें हैं, जहां विक्रेता बड़े पैमाने पर कबूतरों का दाना बेचते हैं. यह संस्कृति और पैसे दोनों से प्रेरित एक प्रणाली है — यह नियंत्रण से बाहर हो गई है.”
लेकिन दूसरी ओर, वास्तविकता बहुत कम आकर्षक है.
अक्सर “उड़ने वाले चूहे” के रूप में संदर्भित, कबूतरों को कई बीमारियों से जोड़ा जाता है — खासतौर पर घनी आबादी वाले शहरी इलाकों में. समय के साथ उनकी बीट जमा होती जाती है, अंततः बारीक कणों में टूट जाती है जो हवा में फैल जाते हैं और सांस लेने से संबंधित समस्याएं पैदा कर सकते हैं. दिल्ली जैसे शहरों में, जहां हवा की गुणवत्ता पहले से ही खराब है, यह काफी चिंता का विषय है.
शालीमार बाग स्थित मैक्स सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल के पल्मोनोलॉजी के वरिष्ठ निदेशक डॉ. इंदर मोहन चुघ ने कहा, “कबूतरों की बीट स्वास्थ्य के लिए बहुत बड़ा जोखिम पैदा करती है, खासतौर पर शहरी इलाकों में जहां वो जमा हो सकती हैं. वो हिस्टोप्लाज्मा और क्रिप्टोकोकस जैसी बीमारियों को आश्रय दे सकते हैं, जिससे गंभीर सांस लेने संबंधी संक्रमण हो सकता है.”
एक बीमारी जो तेज़ी से बढ़ रही है, वह है बर्ड ब्रीडर लंग या हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस — एक ऐसी स्थिति जिसके बारे में कई मरीज़ों को पता ही नहीं होता कि यह कबूतरों से जुड़ी है.
डॉ. चुघ ने कहा, “मरीज हाइपरसेंसिटिविटी न्यूमोनाइटिस के आखिरी चरणों में हमारे पास आते हैं. बार-बार पूछे जाने पर पता चलता है कि वो कबूतरों के मल और पंखों के संपर्क में आए हैं, साथ ही उन्होंने कबूतरों को दाना भी खिलाया है.”
और स्वास्थ्य जोखिम यहीं खत्म नहीं होते.
डॉ. चुघ ने कहा कि कबूतर सिटाकोसिस जैसे संक्रमण भी फैला सकते हैं, जिससे फ्लू जैसे लक्षण होते हैं और साल्मोनेला, जिससे गैस्ट्रोइंटेस्टाइनल बीमारी हो सकती है. वो ऐसे परजीवी भी साथ लाते हैं जो इंसानों को संक्रमित कर सकते हैं.
यहां तक कि जो लोग सक्रिय रूप से कबूतरों को दाना नहीं खिलाते, उनके लिए भी उनके खतरनाक मल से बचना मुश्किल है. दिलावर ने बताया, कबूतरों को खिड़की के किनारों और एसी यूनिट पर “घोंसले” मिलते हैं, जिससे कई बालकनियां कबूतरों के शौचालय में बदल जाती हैं.
डॉ. चुघ ने कबूतरों की बीट साफ करते समय सावधानी बरतने की सलाह दी.
उन्होंने कहा, “हवा में मौजूद कणों को रोकने के लिए सबसे पहले बीट को गीला करें — और हमेशा दस्ताने, मास्क और चश्मा पहनें.”
‘कबूतरों को खिलाना बंद नहीं करेंगे’
दिल्ली में कई लोगों के लिए कबूतरों को खिलाना एक अच्छी आदत है और उनका कहना है कि वह इसे बंद नहीं करेंगे.
महिमा चौरसिया की तरह ही, 50-वर्षीय ऑटो चालक चेतन पाल अपनी दिनचर्या बदलने की संभावना से ही नाराज़ हैं.
उन्होंने कहा, “हिंदू धर्म में अन्न दान (खिलाना) को दान के सबसे बड़े रूपों में से एक माना जाता है. कबूतरों को दाना खिलाना पुण्य का काम है और यह कुछ ऐसा है जो मैंने हमेशा किया है. हम बचपन से ही ऐसा करते आ रहे हैं और हमें कोई बीमारी नहीं हुई है. कबूतरों को खाना खिलाना बंद करना सही नहीं है. वह अपने भोजन के लिए इंसानों पर निर्भर हैं.”
हर सुबह, अपने पहले यात्री को लेने से पहले, वह जवाहरलाल नेहरू फ्लाईओवर पर रुकते हैं, अपने रिक्शा से गेहूं का एक थैली लेते हैं और उसे एक कोने में बिखेर देते हैं, जहां कबूतरों का एक बड़ा झुंड इकट्ठा होता है. पाल के लिए, यह उनकी सुबह की पूजा है.
इस तरह के दृश्य पूरी दिल्ली में आसानी से दिखाई दे सकते हैं. मंडी हाउस मेट्रो स्टेशन के पास, वाहनों की आवाज़ सुनकर एक बड़ा झुंड आसमान में उड़ गया और फिर अपने नाश्ते के खाने पर चोंच मारने के लिए वापस बैठ गया.
दिल्ली के सबसे बड़े कबूतरों को खिलाने वाले स्थानों में से एक जामा मस्जिद में, पक्षियों के दानों के ढेर हज़ारों कबूतरों को आकर्षित करते हैं. यह नज़ारा पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र बन गया है, जो दूर-दूर से लोगों को आकर्षित करता है जो इसे देखने, फोटो लेने और मोटे पक्षियों को दाने डालने आते हैं.
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आबादी को रोकना ज़रूरी
जबकि कुछ लोग कबूतरों को खिलाने पर प्रतिबंध का स्वागत करते हैं, वहीं अन्य का तर्क है कि अधिक नते-तुले दृष्टिकोण की ज़रूरत है.
कड़े प्रतिबंधों के पक्ष में एक पारिस्थितिकीविद् और लेखक सोहेल मदन हैं, जो कबूतरों को खिलाने को एक व्यापक समस्या के हिस्से के रूप में देखते हैं — शहरी वन्यजीवों को इस तरह से खिलाने की प्रवृत्ति जो प्रकृति को असंतुलित करती है.
मदन ने कहा, “वन्यजीवों को खिलाकर, चाहे वह जानवर हों या पक्षी, हम न केवल उनके प्राकृतिक आवासों को नष्ट करते हैं, बल्कि उन्हें मनुष्यों पर निर्भर भी बनाते हैं. उदाहरण के लिए जब लोगों ने कुछ क्षेत्रों में बंदरों को खिलाना शुरू किया, तो बंदर उसी भोजन की तलाश में घरों में घुसने लगे.”
उन्होंने कहा, “लोगों को एमसीडी द्वारा पेश किए गए किसी भी प्रस्ताव का समर्थन करना चाहिए और कबूतरों से होने वाले स्वास्थ्य संबंधी खतरों के बारे में जागरूक होना चाहिए.”
कबूतरों की बढ़ती आबादी केवल दिल्ली की समस्या नहीं है. दुनिया भर के शहरों ने इसी तरह के संघर्षों का सामना किया है और जुर्माने से लेकर पूरी तरह से कबूतरों को मारने तक की हर कोशिश की है — और यह अन्य जगहों पर भी विभाजनकारी रहा है.
उदाहरण के लिए जून में पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के बीच एक “विवाद” हुआ था जब लिम्बर्ग एन डेर लाहन नामक एक जर्मन शहर ने अगले दो वर्षों में अपने पूरे कबूतरों की आबादी को खत्म करने के लिए मतदान किया था — विशेष रूप से उन्हें पीट-पीट कर और उनकी गर्दन तोड़ कर. अन्य अधिकार क्षेत्र अपने कबूतरों की समस्याओं से निपटने में थोड़े कम सख्त रहे हैं. सैन फ्रांसिस्को में सड़कों, फुटपाथों और पार्कों में कबूतरों को खाना खिलाना गैरकानूनी है. सिंगापुर में इसी अपराध के लिए 10,000 डॉलर तक का जुर्माना लगाया जाता है और टोरंटो ने आबादी को नियंत्रित करने के लिए वन्यजीवों को खिलाने के खिलाफ एक उपनियम और कबूतरों के भोजन में जन्म नियंत्रण दोनों को लागू किया है.
घर के करीब, पुणे नगर निगम ने मार्च 2023 में बॉम्बे हाई कोर्ट के आदेश के बाद सार्वजनिक स्थानों पर कबूतरों को खिलाने के लिए नागरिकों पर 500 रुपये का जुर्माना लगाना शुरू कर दिया. फिर भी ऐसे उपायों के बावजूद, कई लोग लगातार पक्षियों को भोजन देने से खुद को रोक नहीं पाते हैं.
हालांकि, संरक्षणवादी चक्रवर्ती के लिए, निषेध और दंड इसका उत्तर नहीं हैं — यह सार्वजनिक जागरूकता और बीच का रास्ता खोजने के बारे में है.
उन्होंने कहा, “केवल भोजन पर प्रतिबंध लगाने से सकारात्मक समाधान नहीं निकलेगा. हमारा शहर कूड़े के ढेरों से त्रस्त है, और चूंकि कबूतर अवसरवादी खाने वाले हैं, इसलिए वह जो कुछ भी पाते हैं उसे खा लेते हैं — चाहे वह मनुष्यों का भोजन हो या सड़कों से निकलने वाला कचरा.”
इसके बजाय, चक्रवर्ती सुझाव देते हैं कि एमसीडी को स्वच्छता में सुधार और निर्दिष्ट भोजन क्षेत्र स्थापित करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए.
चक्रवर्ती ने कहा, “निर्दिष्ट भोजन क्षेत्र और कबूतरखाने बनाए जाने चाहिए, जिससे कबूतरों को वहां रहने के लिए प्रशिक्षित किया जा सके. इन क्षेत्रों को नियमित रूप से साफ करना चाहिए. इसके अतिलावा, अंडों को हटाकर उनकी जगह नकली अंडे लगाना और नर कबूतरों को बांझ बनाना भी ज़रूरी है. यह कबूतरों की आबादी को प्रबंधित करने का एकमात्र मानवीय और प्रभावी तरीका है.”
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