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Tuesday, 19 November, 2024
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पाठक को क्या पसंद है: हिंदी के लेखकों के लिए उनके पाठक कितने ज़रूरी?

यह विचार बैठकी 75 मिनट से अधिक समय तक चली. इसने कई मुद्दों को छुआ — पाठकों की परिभाषा, बाज़ार की ताकतें और साहित्यिक मूल्य और पाठक लेखकों से क्या चाहते हैं.

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राष्ट्रीय राजधानी में हिंदी लेखकों का हालिया जमावड़ा एक-दूसरे के मत को हराने का मंच बन गया, जहां पैनलिस्ट नाम-पुकारने और यह तय करने में लगे हुए थे कि कौन लेखक है और कौन नहीं और इस लगभग विवादित बहस में, उन्होंने कुमार विश्वास और पीयूष मिश्रा जैसे लोगों को साहित्य जगत से बाहर का करार दिया, यह कहते हुए कि उन्हें लेखक या कवि नहीं कहा जा सकता. इंडिया हैबिटेट सेंटर में राजकमल प्रकाशन समूह की विचार-बैठकी की मासिक शृंखला ‘सभा’ की पांचवीं कड़ी में इस पर चर्चा होनी थी कि ‘हिन्दी पाठक को क्या पसन्द है’ — वक्ता आत्ममुग्ध बने रहे.

आईएचसी का गुलमोहर हॉल, जो लेखकों, प्रोफेसरों, स्टूडेंट्स, पत्रकारों और हिंदी प्रेमियों से खचाखच भरा हुआ था, इस दौरान पाठकों की पसंद को सबसे पिछली सीट पर रखा गया. पैनलिस्टों ने इस बात पर जोर दिया कि लेखक अपने काम के बारे में पाठकों की धारणा पर चिंता करने के बजाय लेखन के प्रति प्रतिबद्धता को प्राथमिकता दें.

यह विचार बैठकी 75 मिनट से अधिक समय तक चली. इसने कई मुद्दों को छुआ — पाठकों की परिभाषा, बाज़ार की ताकतें और साहित्यिक मूल्य और पाठक लेखकों से क्या चाहते हैं. पैनल में लेखक अशोक कुमार पांडे, हृषिकेश सुलभ और गीता श्री और कवि और संपादक अविनाश मिश्रा शामिल थे. वार्ता का संचालन राजनीतिक उपन्यासकार नवीन चौधरी ने किया.

पाठकों का बदलता स्वभाव

वक्ता केवल एक बात पर सर्वसम्मत थे कि अगर लेखक अपनी रचनाओं में जान डाल सकें तो उन्हें खूब पढ़ा जाएगा.

अशोक कुमार पांडेय ने कहा, “हिंदी का लेखक समाज पाठक की चाहना से बहुत डरा हुआ है. कोई भी लेखक यह नहीं जानता कि उसका पाठक वास्तव में उससे क्या चाहता है. लेखन एक यात्रा है जो लेखक और पाठक दोनों को मिलाकर पूरी होती है.” उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि लेखक जो लिखे उस पर वह (पाठक) भरोसा कर सकें.

उन्होंने कहा, हिंदी का लेखक अपने आप को ज़रूरत से ज्यादा एलीट समझने लगा है, लेकिन वास्तव में “वह ज़रूरत से ज्यादा पिछड़ा हुआ है”.

कार्यक्रम के आयोजक राजकमल प्रकाशन ने पिछले महीने आयोजित विश्व पुस्तक मेले के दौरान 5,000 पाठकों के बीच एक सर्वे किया था. प्रतिभागियों से पूछा गया कि उन्हें किस तरह की किताबें पसंद हैं. सर्वे में शामिल 74 फीसदी पाठकों ने छपी हुई किताबों को अपनी पहली पसंद बताया. इसी तरह किताबें खरीदने के लिए 34 फीसदी पाठकों ने सबसे सुविधाजनक ज़रिया पुस्तक मेलों को, 31 फीसदी पाठकों ने बुक स्टोर और 29 फीसदी पाठकों ने ऑनलाइन माध्यमों को बताया है.

नवीन चौधरी ने लेखकों और उनके दर्शकों के बीच बढ़ती दूरी पर प्रकाश डालते हुए कहा, “मुझे यह भी महसूस हुआ कि बहुत से पाठक लेखक समाज से नाराज़ है.”

हृषीकेश सुलभ ने कहा, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि लेखक विश्वसनीयता अर्जित नहीं कर सकते. उन्होंने कहा, अगर लेखक रचनात्मकता के साथ हमारे समय की सच्चाई का सामना कर सकते हैं, तो वे निश्चित रूप से पाठकों को आकर्षित करेंगे.

अविनाश मिश्रा ने कहा, पिछले कुछ साल में ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया और ई-बुक्स के आने से पाठक की परिभाषा बहुत बदली है. उनके अनुसार, आधुनिक पाठकों को “यूज़र” की तरह देखा जाता है. आज लोग सिर्फ यह दिखाने के लिए किताबें खरीदते हैं कि उनके घर पर किताबें हैं.”

राजकमल प्रकाशन के संपादक सत्यानंद निरुपम ने एक और बात कही: “लेखक अब बहुत अधिक उजागर हो चुका है, उनकी अत्यधिक उपस्थिति पाठकों द्वारा उनकी पुस्तकों की स्वीकार्यता में बाधा डाल रही है.”


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‘महबूब और बेवफा’

आईएचसी का गुलमोहर हॉल अपने विश्वदृष्टिकोण को थोपने और पाठकों के साथ अलग-थलग व्यवहार करने वाले शुद्धतावादियों से भरा हुआ दिखाई दिया. लेखकों ने अपने संदर्भ दिए और इस बात पर जोर दिया कि पाठक के पास कोई अधिकार नहीं है. गीता श्री ने वरिष्ठ हिंदी लेखिका मन्नू भंडारी के हवाले से कहा, “पाठक की भूमिका तब शुरू होती है जब किताब उसके हाथ में आ जाती है.”

हालांकि, श्री को अपनी बात रखने के लिए थोड़ा सुर ऊंचा करना पड़ा. उन्होंने घोषणा की, “यह मेरा राजनीतिक बयान है: मैं बिना किसी एजेंडे के नहीं लिखती.” उन्होंने कहा, “अगर पाठक इसे (मेरे काम को) मेरी शर्तों पर स्वीकार करते हैं, तो वे मेहबूब हैं और अगर नहीं, तो वे बेवफा हैं.” इस दौरान हॉल में हंसी के तेज़ ठहाके लगे.

लेकिन चौधरी ने श्री को अपनी बात से दूर नहीं जाने दिया. यह कहते हुए कि पाठक नहीं चाहते कि लेखक अपना एजेंडा आगे बढ़ाएं. श्री ने कहा, पाठक को इतना निर्दोष क्यों मानें. उन्होंने कहा, “बच्चे के जन्म के साथ ही राजनीति तय हो जाती है. कोई लेखक क्या लिख रहा है, यह पाठक तय नहीं कर सकते. जब लेखक कुछ लिख रहा होता है तो उसके सामने कोई नहीं होता, उस समय कोई दबाव उस पर नहीं होना चाहिए.”

एक जिज्ञासु श्रोता ने पैनलिस्टों को एक सवाल में बांधने का फैसला किया और जोर देकर कहा कि वे केवल एक शब्द में उत्तर दें — “हिंदी का लेखक पाठक को क्या देना चाहता है.”

वक्ताओं ने बताया, भले ही इसका अर्थ एक से अधिक शब्दों का उपयोग करना हो — ‘साहस’, ‘साहित्यिक स्वाद’,‘सच्चाई को नए तरीके से प्रस्तुत करना’, ‘किसी को ज़िंदगी के अनुभव देना’.

हॉल अंत तक खचाखच भरा रहा और दर्शक गरमागरम बातचीत को सुनते रहे. आख़िरकार, यह उनके बारे में था — पाठकों की पसंद के बारे में.

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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