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Sunday, 28 April, 2024
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आज़ादी के समय का राष्ट्रवाद अलग था, आज का राष्ट्रवाद ‘मुसलमानों-दलितों-पिछड़ों के खिलाफ’ है

राष्ट्रवाद सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी प्रचलन में है. इसे आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद या दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद कह सकते हैं.

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नई दिल्ली: पिछली दो शताब्दियों के दौरान राष्ट्रवाद एक ऐसे सम्मोहक राजनीतिक सिद्धांत के रूप में उभरा है जिसने इतिहास को बनने में बड़ा योगदान दिया है, लेकिन आज जिस राष्ट्रवाद की बात की जाती है, वह उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद से कईं अर्थों में भिन्न है.

जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की प्रोफेसर ज़ोया हसन कहती हैं, “आज का राष्ट्रवाद संकीर्ण नज़र आता है, उसमें विविधता नहीं है, जिस उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद ने हमें आज़ादी दिलाई थी उसमें और वर्तमान प्रचलित राष्ट्रवाद में बहुत फ़र्क है. राष्ट्र और देश दोनों के अलग-अलग मतलब हैं, उसी तरह राष्ट्रवाद और देशभक्ति में भी अंतर है.”

सोमवार को दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर और राजकमल प्रकाशन समूह की साझा पहल विचार-बैठकी की मासिक शृंखला ‘सभा’ की दूसरी कड़ी में ‘‘राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद’’ विषय पर दिलचस्प परिचर्चा के दौरान ये बातें की गईं.

आज के राष्ट्रवाद के बारे में इतिहासविद् डॉ. रतनलाल कहते हैं, “आज का उग्र राष्ट्रवाद सिर्फ मुसलमानों के ही नहीं बल्कि दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के भी खिलाफ है.”

उन्होंने कहा कि राष्ट्रवाद के बारे में अगर हमें अपनी समझ बनानी हो तो इसे ऐसे समझें कि देश की विविधिता ही असली राष्ट्रवाद है.

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गौरतलब है कि वर्तमान समय में जिस राष्ट्रवाद का शोर मचाया जाता है वो उस समावेशी राष्ट्रवाद से एकदम उलट है जिसकी परिकल्पना हमारे स्वतंत्रता आंदोलन के नायकों-नायिकाओं ने की थी.

इस परिचर्चा में राजनीतिशास्त्री प्रो. ज़ोया हसन, आधुनिक इतिहासकार एस. इरफान हबीब, लेखक विचारक अपूर्वानंद, समाजशास्त्री बद्री नारायण और इतिहासविद रतनलाल ने विस्तार से चर्चा की.


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‘ये राष्ट्र नहीं देश है’

हैबिटेट सेंटर के गुलमोहर हॉल में इतिहास प्रेमियों, जानकारों, स्टूडेंट्स के बीच राजनीतिशास्त्री प्रो. ज़ोया हसन ने अपनी बात रखते हुए कहा, “इस समय जो सरकारी राष्ट्रवाद प्रचलन में है, वो जंग-ए-आज़ादी के राष्ट्रवाद से अलग है.”

दो तरह के राष्ट्रवादों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा — “पहला है एंटी-कोलोनियल और दूसरा बहिष्करणीय आयाम (Exclusionary Dimension).”

यह राष्ट्रवाद सिर्फ भारत में ही नहीं बल्कि दूसरे देशों में भी प्रचलन में है. हसन कहती हैं, “इसे आप सांस्कृतिक राष्ट्रवाद, बहुसंख्यकवादी राष्ट्रवाद या दक्षिणपंथी राष्ट्रवाद कह सकते हैं.”

आधुनिक इतिहासकार एस. इरफान हबीब ने अपनी किताब ‘भारतीय राष्ट्रवाद: एक अनिवार्य पाठ’ की भूमिका में लिखा है कि आज भारत में राष्ट्रवाद और संस्कृति की अवधारणा का जैसा इस्तेमाल किया जा रहा है वह विकृत है. अब यह राष्ट्र या संस्कृति के बारे में गंभीर चिंतन का मसला नहीं बल्कि एक लोकप्रिय बहुसंख्यकवादी अलगाववाद द्वारा उछाला गया एक नारा-भर है.

19वीं सदी और वर्तमान राष्ट्रवाद की तुलना करते हुए हसन ने कहा कि इस समय के राष्ट्रवाद में दूसरों के लिए जगह ही नहीं है, बल्कि उपनिवेश विरोधी राष्ट्रवाद में ऐसा नहीं था.

उन्होंने कहा, “इस वक्त का राष्ट्रवाद नागरिकों से देश के लिए बलिदान देने की उम्मीद करता है.”

हबीब ने 19वीं सदी के राष्ट्रवाद के भारतीयकरण के बारे में कहा, “राष्ट्रवाद हमारे लिए बहुत नई अवधारणा है जिसे हमने 19वीं सदी में यूरोप से अपनाया, लेकिन जिस तरह से यूरोपीय सेकुलरिज्म को हमने अपने अनुसार ढाला उसी तरह राष्ट्रवाद का भी हमने भारतीयकरण किया है.”

आज़ादी से पहले और वर्तमान राष्ट्रवाद की तुलना करते हुए समाजशास्त्री और प्रोफेसर बद्री नारायण राष्ट्र की अवधारणा को राष्ट्र की आकांक्षा की क्षमता से जोड़ते हैं.

उन्होंने कहा, “राष्ट्र की अवधारणा उनके पास हैं जो आर्थिक रूप से दैनंदिन चिंताओं से ग्रसित नहीं हैं, जो लोग इस देश में पायदान पर सबसे नीचे हैं उनमें राष्ट्र को परिकल्पित करने की क्षमता विकसित होनी है.”

बद्री का मानना है कि राष्ट्र की अवधारणा दो तरीके से आती है, और जब यह आती है तो यह आपको भी सशक्त करती है और भी राष्ट्र को सशक्त करते हैं. इसे सब पर लागू कर देना गलत है. चाहे वो पक्ष हो या विपक्ष हो.

राष्ट्र शब्द के बजाये नारायण ने “देश” पर अधिक ज़ोर दिया.

नारायण ने भिखारी ठाकुर के नाटकों और कथाओं का संदर्भ देते हुए कहा कि पहले तो लोगों के लिए कलकत्ता भी विदेश हो जाता है. भोजपुरी में कई नाटक, कथा, कहानी आदि इस पर आधारित है, लेकिन “गांव में किसी को जनतंत्र मालूम नहीं है”.

रमाशंकर के सवाल पर कि जो इस देश के दलित हैं वो भारत नामक राष्ट्र को कैसे परिकल्पित करते हैं, उनके लिए देश की धारणा क्या है, प्रोफेसर नारायण ने कहा, “राष्ट्र की अवधारणा उनके लिए हैं जिनके पास ‘Capacity To Aspire For The Nation’ है.”

उन्होंने कहा, “अगर जनतंत्र की ही बात करें तो आज गांव में लोग जानते ही नहीं कि डेमोक्रेसी है क्या. दलित क्या है तो लोग वो भी नहीं जानते हैं. अधिकतर लोग अपनी जाति के नाम से खुद को संबोधित करते हैं.”

'राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद' विषय पर चर्चा के दौरान वक्ता और श्रोता | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट
‘राष्ट्र, राष्ट्रीयता और राष्ट्रवाद’ विषय पर चर्चा के दौरान वक्ता और श्रोता | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

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‘दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के खिलाफ राष्ट्रवाद’

वर्तमान समय में चल रहे राष्ट्रवाद को इतिहासविद रतनलाल मुसलमानों के अलावा दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के खिलाफ बताते हैं. देश में दो तरह के राष्ट्रवाद हैं एक समावेशी और दूसरा है गैर-समावेशी.

प्रोफेसर रतनलाल ने कहा, “वर्तमान में जिस तरह का उग्र राष्ट्रवाद देश में प्रचलित है वह धर्म आधारित राष्ट्रवाद नहीं, बल्कि वर्णाश्रम धर्मशास्त्र आधारित राष्ट्रवाद है.”

उन्होंने कहा, “ऊपरी तौर पर देखने में यह राष्ट्रवाद सिर्फ मुसलमानों के खिलाफ लगता है, लेकिन यह उससे कहीं ज्यादा दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के खिलाफ है.”

आंबेडकर के लेखन के सवाल पर रतनलाल ने कहा कि 1930 के दशक में जो सवाल उठाए वो आज भी प्रासंगिक है. गोलमेज सम्मेलन का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, “आज अगर आंबेडकर होते तो UAPA के तहत जेल में होते”.

उन्होंने कहा, “आंबेडकर के सवाल आज भी प्रासंगिक हैं. देश आज भी उसी द्वंद में है, उस समय एक समूह था जो अपने आप को बहिष्कृत महसूस कर रहा था और वह आज भी खुद को उपेक्षित महसूस कर रहा है.”

अल्पसंख्यकों के लिए राष्ट्रवाद के बारे में रमाशंकर सिंह के सवाल पर प्रो. अपूर्वानंद ने कहा कि मुसलमानों को राष्ट्रवादी मुसलमान होने को महसूस करवाना पड़ता है.

उन्होंने कहा, “अल्पसंख्यक क्या सोचते हैं इसका जवाब खुद उन्हीं के पास है.”

अपूर्वानंद ने कहा, “देश में अल्पसंख्यकों को अपने बारे में बोलने का अधिकार नहीं दिया जाता है. अगर वो बोलते हैं तो उन्हें सांप्रदायिक कहा जाता है और उनके पक्ष में बोलने वाले को धर्मनिरपेक्ष कहा जाता है. इसलिए, अल्पसंख्यक क्या सोचते हैं इसका जवाब खुद उन्हीं को देना चाहिए.”

आज हर वर्ग राजनीतिक रूप से इतना सचेत हैं कि वो अपना प्रतिनिधित्व खुद कर सकता है.

अपूर्वानंद ने कहा, “दलित भी अपना हक मांग सकते हैं, इसे कोई नकार भी नहीं सकता, लेकिन केवल अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) को यह अधिकार नहीं दिया जा रहा है.”

भारत में दो तरह के मुसलमानों का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, “आज मुसलमानों को बताना पड़ता है कि वो राष्ट्रवादी मुस्लिम हैं क्योंकि उनके पूर्वजों ने 1947 में यहां रहना तय किया था, लेकिन हिंदू को किसी प्रमाण की ज़रूरत नहीं है उसके लिए बस यहां रहना काफी है.”

उन्होंने कहा कि पंडित जवाहरलाल नेहरू राष्ट्रवाद की ताकत और नुकसान दोनों से अच्छी तरह से परिचित थे. यह उनके विपुल लेखन में देखा जा सकता है. वे जानते थे कि राष्ट्रवाद की परिभाषा को बहुसंख्यक ही निर्धारित करेंगे. वे राष्ट्रवाद के दोनों रूपों से परिचित थे.

अपूर्वानंद ने कहा, “एक इसकी भयावहता से जो देश के लोगों को दो हिस्सों में बांट सकता है और दूसरा जो लोगों को जोड़कर एकजुट कर सकता है.”

‘राष्ट्रवाद 19वीं सदी की पैदावार’

प्रोफेसर एस इरफान हबीब से सवाल करते हुए रमाशंकर सिंह ने पूछा कि राष्ट्रवाद पर आपका क्या निष्कर्ष क्या है, देश के नौजवानों को जब राष्ट्रवाद के बारे में राय बनानी चाहिए तो उन्हें क्या ध्यान रखना चाहिए.

हबीब ने कहा, “राष्ट्रवाद की परिभाषा हमारे लिए वो नहीं है जो यूरोप में है.” उन्होंने कहा, “आज का राष्ट्रवाद धर्म केंद्रित है, राष्ट्रवाद और देशभक्ति अलग-अलग नहीं है, नौजवानों को देशभक्त बनने की ज़रूरत है न कि एक राष्ट्रवादी.” मद्रास का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा, “हिंदू राष्ट्र हमारे देश में संभव नहीं है.”

आगे उन्होंने अपनी किताब ‘भारतीय राष्ट्रवाद : एक अनिवार्य पाठ’ पर बात करते हुए कहा, “इस किताब को लिखने का मकसद यही था कि राष्ट्रवाद को लोगों तक उन लोगों की जुबान से पहुंचाया जाए. जिन्होंने हमें राष्ट्रवाद दिया वे सब इस किताब में हैं. किताब बताती है कि राष्ट्रवाद की विरासत हमें किन लोगों से मिली है. यह किताब हमें एक रास्ता दिखा सकती है.”

वर्तमान समय में प्रचलित राष्ट्रवाद के बारे में हबीब ने कहा कि आज के समय में खान-पान, पहनावे तक को राष्ट्रवाद से जोड़कर देखा जाता है जो कि बहुत हास्यास्पद है.

उन्होंने कहा, “मेरी कोशिश रही है कि नौजवानों को राष्ट्रवाद की असली अवधारणा के प्रति आगाह किया जाए, जिससे उन्हें राष्ट्रवाद को समझने में मदद मिले. आज के राष्ट्रवाद में विविधता नहीं है. आज का राष्ट्रवाद संकीर्ण है जिसमें केवल अपनी ही बात होती है, इसमें दूसरों के लिए जगह ही नहीं है. मैं मानता हूं कि देश की विविधता ही असली राष्ट्रवाद है.”


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