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Friday, 22 November, 2024
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‘तुम्हारा रेट क्या है’ – पूर्वोत्तर की महिलाओं की स्थिति दिल्ली में अभी भी खराब, 9 साल में कुछ नहीं बदला

ओल्ड गुप्ता कॉलोनी में शुक्रवार रात एक बर्थडे पार्टी डरावनी कहानी में बदल गई. पुरुषों ने पूर्वोत्तर की महिलाओं को गालियां दी और अपमानजनक टिप्पणियां कीं.

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नई दिल्ली: 16 लोगों का एक ग्रुप, जिनमें से ज्यादातर असम से और कुछ पश्चिम बंगाल से थे, 17 नवंबर को दिल्ली विश्वविद्यालय के नॉर्थ कैंपस से कुछ ही दूरी पर ओल्ड गुप्ता कॉलोनी में एक जन्मदिन की पार्टी मनाने के लिए इकट्ठा हुए.

उस वक्त किसी को नहीं पता था कि ये पार्टी एक डरावनी रात के वायरल वीडियो में बदलने वाली है.

किराये की बिल्डिंग की पहली मंजिल पर ये सारे युवा गा रहे थे, गिटार बजा रहे थे और एक “छोटे ब्लूटूथ स्पीकर” पर गाना बजाकर इंजाॅय कर रहे थे. जैसे-जैसे शाम गहराती गई, ये पार्टी एक डरावने शो में बदल गई. रात के लगभग 11:30 बजे थे जब सब कुछ बदल गया. तीसरी मंजिल पर रहने वाले 30 वर्षीय जतिन* ने कथित तौर पर नीचे से आ रहे शोर से परेशान होकर दरवाजा खटखटाया. वहां मौजूद एक व्यक्ति के अनुसार, स्थिति तब ज्यादा खराब हुई, जब जतिन ने “महिलाओं के कपड़ों पर टिप्पणी करते हुए” उनके साथ खराब व्यवहार करना शुरू कर दिया.

महिलाओं को “वेश्या” कहे जाने पर दिल्ली पुलिस मौके पर पहुंची, जब लोग उन्हें कह रहें थे, “तुम बिकनी पहन के घूमो, लेकिन अपने घर में.”

दिल्ली की ओल्ड गुप्ता कॉलोनी लंबे समय से देश भर के छात्रों के लिए एक घर रही है, नॉर्थ कैंपस के कॉलेज भारतीय युवाओं के लिए एक ‘salad bowl’ जैसा हैं, जो विविधता का उदाहरण हैं. लेकिन फिर भी, दशकों से, अन्य राज्यों की महिलाओं को दोषी ठहराना, रूढ़िवादिता और गलत नज़रो से उन्हें देखना जारी हैं.


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वह पार्टी जो एक डरावनी कहानी बन गई

असम की 22 वर्षीय स्वतंत्र लेखिका एना*, जो पार्टी में एक दोस्त से मिलने आई थी, पड़ोसी को “लड़ाकू शराबी” कहा. वह बताती है कि पड़ोसी ने पहले भी उनके साथ झगड़ा किया था और इससे पहले भी गलत कहा था, “इतनी सारी वेश्याएं यहां क्यों आती हैं? क्या यहां कोई वेश्यावृत्ति चल रही है?” एना ने इस पूरी “नस्लीय रूप से लक्षित और ज़ेनोफ़ोबिक” घटना के बारे में शनिवार सुबह एक्स पर पोस्ट किया.

इस बारे में बात करते हुए कि कैसे पड़ोसी हर हफ्ते उन्हें गालियां देता है, उन्होंने शुक्रवार की रात को उसके द्वारा किए गए हंगामे को याद किया और नस्लवाद के बारे में बात की जिसका सामना पूर्वोत्तर की महिलाएं हर दिन करती हैं.

उनके ट्वीट्स की श्रृंखला वायरल हो गई, जिन्हें कुछ ही घंटों में लगभग 2,000 बार रीट्वीट किया गया. सोशल मीडिया पर इस घटना के खिलाफ हैरानी और गुस्सा है. कुछ ने अपने अनुभवों के बारे में बात करते हुए अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है, तो एक ने इसे दिल्ली में होने वाली रोजमर्रा की घटना बताया है.

कुछ लोगों ने जतिन के समर्थन में भी ट्वीट किया. एक यूजर ने पोस्ट किया, “घर में गांजा पीना और तेज गाना बजाना, फिर नस्लवाद, स्त्रीद्वेष और उत्पीड़न का रोना आपकी मदद नहीं करेगा.”

शुक्रवार की घटना अपनी तरह की पहली घटना नहीं थी. यह उन उदाहरणों की लंबी सूची में नवीनतम था जहां पूर्वोत्तर की महिलाओं को राष्ट्रीय राजधानी में ज़ेनोफोबिया और नस्लीय उत्पीड़न का शिकार होना पड़ा. नकारात्मक रूढ़िवादिता से निपटने वाली क्षेत्र की महिलाओं की कहानियां, उस समाज द्वारा छोड़े गए घावों को दर्शाती हैं जो उन्हें ‘अन्य’ और ‘विदेशी’ के रूप में देखता है.

लेकिन पूर्वोत्तर की महिलाएं इस रूढ़िवादिता का तोड़ लेकर आई हैं.

असम की 30 वर्षीय बिजनेस सलाहकार चंदना गुरुंग – जो पहली बार 2011 में श्री राम स्कूल ऑफ कॉमर्स (एसआरसीसी) में स्नातक की पढ़ाई के लिए दिल्ली आई थीं, कहती हैं, “मैंने अपना पूरा समय दिल्ली की धारणा से अलग होने के संघर्ष में बिताया. मैंने बेमन से अपने कपड़े पहनने का तरीका बदला, बोलने का तरीका बदला और अपनी हिंदी में सुधार किया.”

वह अपने कॉलेज के दिनों को एक दुख के साथ याद करती है, क्योंकि उन्हें “चिंकी” जैसे शब्दों से बुलाया जाता था.

वह कहती है, “मैंने नॉर्थ कैंपस के छात्र जीवन की गतिविधियों से एक दूरी बनाकर रखी, जैसे, लड़के और लड़कियों का घूमने जाना, पार्टी करना, दोस्तों के यहां रुकना, शराब पीना, क्लब जाना – जिन्हें आमतौर पर ‘कॉलेज लाइफ’ का हिस्सा माना जाता है, लेकिन जब ‘चिंकी’ ऐसा करते हैं, तो उन्हें गतल कहा जाता है.

इसके अलावा, जब किसी चीज़ की शिकायत करने की बात आती है तो भाषा के आधार पर की जाने वाली मतभेद भी एक समस्या बन जाती हैं.

संयुक्त पुलिस आयुक्त पीएन ख्रीमी कहते हैं, ”भाषा बाधाओं में से एक है.” उन्होंने कहा कि पूर्वोत्तर के लोगों को स्थानीय निवासियों के साथ संवाद करने में कठिनाई होती है. अरुणाचल प्रदेश से आने वाले ख्रीमी का कहना है कि अब समय आ गया है कि लोगों को पूर्वोत्तर के बारे में जानना चाहिए और दिल्ली में चीजें बदलने में समय लगेगा.

दिल्ली में काम करने वाली असम की समाजशास्त्री डॉ. रितुपर्णा पाटगिरी का कहना है कि जब पूर्वोत्तर के लोगों की बात आती है तो एक “अन्य बात जो प्रकृति में बहुत नस्लवादी है” भी इसमें शामिल होता है.

वह कहती हैं, “ऐसी धारणा है कि पूर्वोत्तर में सेक्सुअलिटी बहुत ज्यादा है, लोगों को लगता हैं कि पूर्वोत्तर की महिलाएं सेक्सुअली उपलब्ध हैं. वे एक निश्चित तरीके से कपड़े पहनते हैं, उनके रीति-रिवाज भी अलग हैं, जिस तरह की स्वतंत्रता पर हम गर्व करते हैं उसका इस्तेमाल उनके खिलाफ किया जाता है.”

‘आपका रेट क्या है’

जब वह एक युवा वयस्क के रूप में दिल्ली आईं, तो गुरुंग ने हर कदम पर नस्लीय प्रोफाइलिंग और रूढ़िवादिता से लड़ते हुए, राजधानी के ग्लैमर और गंदगी से पार पाने की कोशिश की. यौन उत्पीड़न आम बात थी – यहां तक कि स्कूली बच्चे भी उस पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करते थे. उनकी एक ‘कड़वी’ याद यह थी कि जब भी वह कॉलेज से अपने छात्रावास वापस जाती थी तो डीटीसी बसों में स्कूली बच्चे उन्हें परेशान करते थे.

वह कहती हैं, “एक बार, नई दिल्ली मेट्रो स्टेशन पर, एक आदमी ने मुझे ‘चिंकी चाइनीज’ कहा. मैंने पूर्वोत्तर लोगों के लिए दिल्ली पुलिस की हेल्पलाइन पर कॉल किया; उन्हें पकड़ लिया गया, लेकिन उन्होंने प्रार्थना की कि उन्हें छोड़ दिया जाए क्योंकि वह अपनी पत्नी के साथ थे. मैंने हार मान ली और उन्हें जाने दिया.”

गुरुंग ने 2020 में शिलांग में काम करने के लिए जाने से पहले कुछ समय के लिए दिल्ली में काम किया. राजधानी में उनके कड़वे अनुभवों ने उन्हें पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया. आज, वह कहती है कि कैसे दिल्लीवासियों का उसके प्रति रवैया बदलने के लिए “खुद में कुछ भी बदलना पर्याप्त नहीं था.”

वह कहती हैं, ”केवल एक चीज जिसे मैं नहीं बदल सकी, वह थी मेरा चेहरा.”

गुरुंग ने कसम खाई है कि जब तक “कोई मुझे दैनिक आधार पर होने वाले मेरे उत्पीड़न के लिए मुआवजा देने को तैयार नहीं होगा” तब तक वह कभी भी दिल्ली में काम नहीं करेगी.

ग्रेटर कैलाश के एक निवासी, जिन्होंने 2010 की शुरुआत में सेंट स्टीफन कॉलेज में पढ़ाई की थी और नाम न छापने की शर्त पर बात की, ने आरोप लगाया कि कॉलेज के प्रोफेसर उनके साथ भी भेदभाव करते थे, कथित तौर पर छात्रों की क्षमताओं पर सवाल उठाते थे और टिप्पणी करते थे कि उन्हें कोटा के तहत प्रवेश मिलता है.

लेकिन सबसे गंभीर आघात कक्षा के बाहर पहुंचाया जाता था. जब वह कैंपस में टहलती थी, तो बाइक पर लोग रुकते थे और पूछते थे, “आपका रेट क्या है?” रिक्शेवाले पूछते थे, “पार्टी करने कहां जाते हो?”

तेरह साल बाद, वह इसके बारे में “बेपरवाह तरीके से” बात कर सकती है. हालांकि वह देखती है कि लोग नस्लवाद जैसे मुद्दों के बारे में “जागृत” हैं, फिर भी उन्होंने अपनी सतर्कता कम नहीं की है.

31-वर्षीय कहते हैं, “दिल्ली अभी भी दिल्ली है. मेरी सिक्स सेंस हमेशा सचेत रहती है. मैं कभी भी सुरक्षित महसूस नहीं करती.”

वह उस समय को भी याद करती है जब वह जानबूझकर “अधिक भारतीय” तरीके से कपड़े पहनती थी और ऐसे पुरुषों को डेट करती थी जो पूर्वोत्तर से नहीं थे, यह यहां ‘फिट’ होने की सभी कोशिशों में से एक थी. कुछ ही साल बाद जब वह 25 साल की हो गई तो वह अपनी जातीयता के प्रति और अधिक आश्वस्त हो गई.

30 साल की एक और महिला, जो एक दशक से अधिक समय से दिल्ली में रह रही है, बताती है कि कैसे पुरुष पूर्वोत्तर महिलाओं को बहकाने की कोशिश करते हैं. वह कहती हैं, “उन्हें लगता है कि पूर्वोत्तर महिलाएं डेट करने के लिए अच्छी होती हैं, लेकिन जब शादी की बात आती है, तो वे दो बार सोचते हैं.”


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हमारी अपनी कोई जगह नहीं

उत्पीड़न और रूढ़िबद्धता उस पल शुरू होती है जब पूर्वोत्तर के लोग दिल्ली में आते हैं और रहने के लिए जगह की तलाश शुरू करते हैं. नॉर्थ कैंपस के आसपास के स्थानों में, रियल एस्टेट बाजार का नियंत्रण बाहरी छात्रों द्वारा किया जाता है जो अधिकांश घरों को किराए पर लेते हैं.

रोहन आहूजा, जो पिछले सात वर्षों से रियल एस्टेट ब्रोकर के रूप में काम कर रहे हैं, व्यवसाय की प्रकृति के बारे में विस्तार से बताते हैं. उन्होंने कहा कि मकान मालिक पूर्वोत्तर किरायेदारों को पसंद करते हैं क्योंकि “वे समय पर किराया देते हैं और अच्छे व्यवहार वाले होते हैं.” उन्हें जिन समस्याओं का सामना करना पड़ता है वे अधिकतर अपार्टमेंटों में भीड़भाड़ को लेकर होती हैं.

वे कहते हैं, “खाने की आदतों या लड़कों और लड़कियों के प्रवेश से संबंधित मतभेद हो सकते हैं, लेकिन आमतौर पर शुरुआत में ही इस पर चर्चा की जाती है. वास्तविक समस्या तब होती है जब समझौता दो लोगों के लिए किया जाता है लेकिन पांच लोग आवास में रहने लगते हैं और उपद्रव होता है.”

गुरुंग के अनुभव में, उपद्रव की मात्रा क्या है, यह धारणा पर भी निर्भर करता है. उन्होंने देखा है कि पूर्वोत्तर के लोगों के “शांत, अच्छे व्यवहार वाले स्वभाव” को अक्सर गैर-टकराव वाले रवैये और यहां तक कि कुछ मामलों में कमजोरी के संकेत के रूप में लिया जाता है. और यही कारण है कि मकान मालिक उनका फायदा उठाते हैं, उनके साथ असभ्य होना और उन पर हावी होना आसान लगता है.

एना के अनुसार, “हमें कैसे देखा जाता है और हम क्या खाते हैं, इस पर मकान मालिकों द्वारा बहुत निगरानी रखी जाती है.”

शिक्षा मदद नहीं कर सकती

2014 में, दिल्ली पुलिस ने क्षेत्र के लोगों की शिकायतों को देखने के लिए उत्तर पूर्व क्षेत्र (एसएनयूपीईआर) के लिए एक विशेष पुलिस इकाई शुरू की. यह वही सेल था जिसे गुरुंग ने मेट्रो स्टेशन पर अपने उत्पीड़न के बारे में रिपोर्ट करने के लिए बुलाया था. SNUPER के प्रमुख ख्रीमी का कहना है कि उन्हें मिलने वाली ज्यादातर शिकायतों में मकान मालिक और किरायेदार शामिल होते हैं. जब भी उन्हें विशेष हेल्पलाइन नंबर (1093) पर कॉल आती है, तो तुरंत सहायता भेजी जाती है.

दिल्लीवासियों और पूर्वोत्तर वासियों के बीच मनमुटाव सांस्कृतिक मतभेदों तक सीमित हो जाता है – इसलिए, विविधता का स्वागत करने के बजाय, वे नस्लीय भेदभाव के बिंदु बन जाते हैं.

समाजशास्त्री यह भी टिप्पणी करते हैं कि विदेशीकरण तब परिणामित होता है जब ऐसे मामलों में लिंगवाद और नस्लवाद आपस में जुड़ जाते हैं. और यह भारत तक सीमित प्रथा नहीं है.

वह बताती हैं, “आप इसे पश्चिम में देखते हैं, जहां एशियाई या हिस्पैनिक महिलाओं के साथ एक विदेशी तत्व जुड़ा हुआ है. यह कामुकता से जुड़ा हुआ विचार है.”

यहां तक कि पूर्वोत्तर वासियों की त्वचा और बालों के बारे में लोगों की टिप्पणियां भी इस दृष्टिकोण का लक्षण हैं. पूर्वोत्तर के बारे में बढ़ती ‘जागरूकता’ और क्षेत्र में शैक्षणिक, सामाजिक और लोकप्रिय रुचि के बावजूद – शुक्रवार की रात ओल्ड गुप्ता कॉलोनी में एना का अनुभव एक अनुस्मारक है कि 2023 में भी बहुत कुछ नहीं बदला है.

पाटगिरी के अनुसार जागरूकता बढ़ाना और लोगों को शिक्षित करना केवल सतही समाधान है. समस्या और भी गहरी है. वह कहती हैं, ”यह मानसिकता है जिसे बदला नहीं जा सकता. भारतीय संदर्भ में, पूर्वोत्तर के लोगों को आदिवासियों की ही तरह अलग समझा जाता है. उस मानसिकता से बाहर निकलना बहुत मुश्किल है. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि हमारे पास कैसी भी शिक्षा है, जब तक मानसिकता नहीं बदलेगी, यह सब बहुत मुश्किल होगा. शिक्षा मतभेदों की इतनी सारी परतों को खोलने में मदद नहीं कर सकती.”

(संपादन: अलमिना खातून)
(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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