बेवां/सीकर: अरावली की पहाड़ियों में एक भरा-पूरा इतिहास छिपा है. राजस्थान के पाटन से कुछ किलोमीटर दूर ऊबड़-खाबड़ रास्ता जंगल-झाड़ से होते हुए एक ऐसी जगह पर जाकर रुकता है जहां हजारों सालों का इतिहास दफन है. तपता सूरज यहां की वनस्पतियों को मुरझा देता है वहीं अरावली की इन झाड़ियों में जहां-तहां पशुओं के अवशेष देखे जा सकते हैं. लेकिन कभी ये जगह मानव सभ्यता का हिस्सा रही होगी, इसकी तलाश के लिए यहां भारतीय पुरातत्व विभाग (एएसएआई) ने उत्खनन शुरू किया है.
सीकर स्थित पाटन के बेवां गांव में 18 जनवरी से उत्खनन शुरू हुआ है. ये गांव ऊंचे टीले पर स्थित है जिसके चारों ओर ऊंची-ऊंची पहाड़ियां है जिसमें तांबा और लोहा प्रचूर मात्रा में है. लेकिन इस जगह को पहली बार पुरातात्विक महत्व के नजरिए से देखा जा रहा है.
सीकर में हो रहे उत्खनन का नेतृत्व आर्कियोलॉजिस्ट विनय गुप्ता कर रहे हैं. उन्होंने बताया, “ये क्षेत्र कॉपर स्मेलटिंग बेल्ट रहा है. यहां के पत्थर में तांबा और लोहा काफी मात्रा में है. यहां से पास में ही खेतड़ी है जो कि तांबा के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध है. इसलिए ये जगह पुराने समय में भी उपमहाद्वीप के लिए सप्लाई करता होगा. साथ ही इस जगह की अपनी एक पहचान होगी जिस पर इस क्षेत्र का प्रभाव होगा.”
एएसआई ने फरवरी में एक सूची जारी की थी जिसमें देश भर के अलग-अलग राज्यों में 31 स्थानों पर उत्खनन को मंजूरी दी गई थी. राजस्थान में सीकर और भीलवाड़ा में उत्खनन किया जा रहा है. भीलवाड़ा में पहले भी उत्खनन हो चुका है लेकिन सीकर के बेवां गांव में पहली बार उत्खनन हो रहा है.
एएसआई की तरफ से कई सालों बाद इतने बड़े स्तर पर पूरे देश भर में उत्खनन की मंजूरी दी गई है. एएसआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया, “संस्कृति मंत्रालय के सचिव के प्रयासों के बाद ही इतने बड़े स्तर पर उत्खनन को मंजूरी मिली है. वरना बीते कुछ सालों में एएसआई ने बहुत कम ही उत्खनन किए हैं.”
सीकर में चल रहे उत्खनन का लक्ष्य पहले की संस्कृतियों और कल्चरल डिपोजिट्स का अध्ययन करना है. गुप्ता ने बताया, “इस उत्खनन का लक्ष्य यहां की सबसे पुरानी संस्कृति का पता लगाना है वहीं समय-समय पर जितनी भी संस्कृतियां यहां रही उसकी क्रोनोलॉजी समझना है.”
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इस जगह को क्यों चुना गया
उत्खनन स्थान तक जाने के लिए पथरीले रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है. यहां के स्थानीय लोगों का कहना है कि आजादी के 75 सालों बाद भी गांव तक जाने के लिए बेहतर पक्की सड़क नहीं बन पाई है. लेकिन इन विषम स्थितियों में भी एक सरकारी स्कूल के ठीक सामने के एक प्लॉट में रहकर पुरातत्व विभाग की एक छोटी टीम इस जगह के ऐतिहासिक महत्व को खोजने में बीते डेढ़ महीने से लगी है.
गांव के ही व्यक्ति ने एएसआई को किराए पर अपनी जमीन रहने के लिए दी है, जहां बहुत थोड़े संसाधनों में टीम काम कर रही है. इसी प्लॉट में एक पोटरी यॉर्ड बनाया गया है जहां उत्खनन से निकल रही पोटरीज को अलग-अलग क्वाड्रेंट में सुरक्षित रखा जाता है.
एएसआई अधिकारियों का कहना है कि कई लोगों ने पहले भी इस जगह के पुरातात्विक महत्व के बारे में लिखा है लेकिन इस जगह पर कभी गहराई से काम नहीं हुआ. हालांकि बेवां गांव से करीब 15-16 किलोमीटर दूर स्थित गणेश्वर जरूर इस पूरे इलाके का सबसे प्रमुख और पुरातत्व के हिसाब से महत्वपूर्ण स्थान रहा है.
विनय गुप्ता ने कहा कि 1980 के दशक में उत्खनन के दौरान गणेश्वर पोटरी मिली थी जिस आधार पर गणेश्वर संस्कृति नाम दिया गया था. उन्होंने कहा, “उस समय उसकी डेटिंग 2800 बीसी दर्ज की गई थी जो कि हड़प्पा के शुरुआती वक्त के समकालीन है लेकिन इस संस्कृति पर ज्यादा काम हो नहीं पाया, जिस वजह से इसे लेकर हमारी जानकारी बहुत कम है.”
2021 में एंसिएंट एशिया जर्नल में प्रकाशित ईशा प्रसाद और रवींद्र नाथ सिंह के रिसर्च पेपर के अनुसार गणेश्वर-जोधपुरा संस्कृति उत्तर-पूर्वी राजस्थान में झुंझुनूं, सीकर, जयपुर, टोंक, भीलवाड़ा, सवाई-माधोपुर और भरतपुर जैसे वर्तमान जिलों में फैली हुई ताम्रपाषाण संस्कृति है.
“गणेश्वर जोधपुर संस्कृति से जुड़े अध्ययनों में एक बड़ी कमी ये है कि गणेश्वर स्थल से मिली डेटिंग पर्याप्त नहीं है.”
धरती के नीचे छिपे इतिहास को खोजने के लिए आर्कियोलॉजिस्ट की टीम बीते डेढ़ महीने से बेवां गांव में कैंप लगाकर रह रही है. विनय गुप्ता की टीम में अन्य आर्कियोलॉजिस्ट भी है जिनमें 5 ट्रेनी हैं और 2-3 अन्य स्टाफ हैं. हर दिन सुबह 8 बजे से ये लोग टी-स्क्रैपर, एल-स्क्रैपर, ब्रश, पिकेट्स, खुरपी से काम में लग जाते हैं और शाम ढलने तक काम करते हैं.
लोलिंब राज मिश्रा कुछ हफ्ते पहले ही इस टीम के साथ जुड़े हैं. आर्कियोलॉजी की पढ़ाई कर चुके मिश्रा 2017 में हुई पुराना किला की खुदाई का भी हिस्सा रह चुके हैं. उन्होंने बताया, “अलग-अलग ट्रेंच अलग-अलग व्यक्ति संभाल रहा है. शाम में काम खत्म होने के बाद जब हम साथ बैठते हैं तब दिन भर खुदाई में मिली चीज़ों के बारे में चर्चा करते हैं और जानकारी साझा करते हैं कि उनकी ट्रेंच किस तरह बिहेव कर रही है.”
देश के अलग-अलग हिस्सों से आकर काम कर रहे इन ट्रेनीज़ की उम्र 20-30 साल के बीच है लेकिन अब ये सभी दोस्त बन चुके हैं और अब ये दिन का उजाला और रात का अंधेरा अरावली की इन्हीं सूखी पहाड़ियां में एक साथ देखते हैं. लेकिन राजस्थान में मार्च महीने से ही गर्मी बढ़नी शुरू हो गई है और चिलचिलाती धूप आर्कियोलॉजिस्ट के सामने चुनौती पेश कर रही है.
गुप्ता ने बताया कि हमारी कोशिश रहती है कि दिवाली के आसपास से खुदाई का काम शुरू कर दिया जाए लेकिन पेपर वर्क में समय लगने के कारण देरी हो जाती है. उन्होंने कहा, “हम खुदाई के लिए 3-4 महीने का समय लेकर चलते हैं लेकिन गर्मी बढ़ती है तो काम करना मुश्किल हो जाएगा.”
“गणेश्वर और जोधपुरा के आसपास की कई साइट्स समय के साथ खत्म होती चली गई. ये जगह भी खत्म हो जाती. चूंकि ये बहुत ऊंचा टीला है तो यहां पूरी तरह गांव नहीं बसा है, इसलिए यह बची रह गई है.”
बेवां गांव को चुनने के पीछे की वजह बताते हुए गुप्ता कहते हैं, “जिस तरह का एलिवेटिड माउंड यहां पर है, वो मिलना बहुत दुर्लभ है. ये दुर्लभ फीचर है इस जगह की. इसके अलावा 65-70 किलोमीटर दूर खेतड़ी के पास माउंड्स हैं. ये दो ही जगह हैं जहां हाई राइज़ माउंड्स हैं. राजस्थान के इस हिस्से में इस तरह के माउंड्स नहीं है जिसपर मेजर कल्चरल डिपोजिट मिले. ये पूरे एरिया का सबसे ज्यादा डिपोजिट वाला माउंड है.”
दोपहर होते-होते इस इलाके में तपिश बढ़ जाती है. गुप्ता ने अपने साथियों से इसका हल निकालने के लिए पास में कुछ पेड़ों के आसपास एक ट्रेंच खोदने का कहा है जो कि माउंड के स्लोप पर है. आपस में बातचीत करते हुए उन्होंने कहा, “इससे स्लोप पर ट्रेंच भी तैयार हो जाएगी और गर्मी बढ़ने के वक्त पेड़ की छांव भी मिल जाएगी.”
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इतिहास की पड़ताल
इस जगह के ऐतिहासिक महत्व को समझने के लिए 9 ट्रेंच पर एक साथ काम चल रहा है. हर ट्रेंच 10 मीटर लंबा और 10 मीटर चौड़ा है जिसे 4 क्वाड्रेंट्स में बांटा गया है.
गुप्ता की टीम में काम करने वाले तरुण पुरी पहले भी कुछ उत्खनन का हिस्सा रह चुके हैं. उन्होंने कहा, “गणेश्वर-जोधपुरा कल्चर को सोचते हुए हमने यह जगह चुनी है. और यहां ट्रेंच डाली है. लेकिन स्लोप पर जो ट्रेंच है वहां हम ऐतिहासिक पीरिए़ड यानि की कुषाण और मौर्य काल तक पहुंच चुके हैं.”
गुप्ता ने कहा, “कुछ जगह पर स्ट्रकचर्स ज्यादा आ रहे हैं जिस कारण खुदाई मुश्किल हो रही है. इसलिए माउंड के स्लोप पर भी खुदाई की जा रही है. अगर यहां संभव नहीं हो पाता है तो कोई और जगह तलाशी जाएगी. अगर आसपास के किसी खेत में शुरुआती दौर की पोटरी मिल जाती है तो वहां पर एक ट्रेंच लेकर खुदाई की जा सकती है.”
अभी तक के उत्खनन में स्लिंग बॉल, स्टोन, ब्रोकन स्पीयर, स्प्रिंकलर, पोट शर्ड्स, पोट लीड नोब, वेशल नोब, चूड़ियां, चारकोल सैंपल्स, फर्नेस, कुषाण काल का टेरीकोटा मिले हैं. साथ ही मध्यकाल की कई पोटरीज भी मिली हैं.
गुप्ता ने बताया कि मध्य काल के समय की जो यहां पर पोटरीज मिली है उसमें उत्तर भारत के बाकी हिस्सों के मुकाबले काफी अंतर है. उन्होंने कहा, “इस क्षेत्रीय वैरिएशन को भी समझने का हम प्रयास कर रहे हैं कि यहां की पोटरीज में इतना फर्क क्यों है.”
विनय गुप्ता ने कहा, “यहां की पोटरीज पर हड़प्पा काल का प्रभाव नजर आता है जो कि मध्य काल तक की पोटरीज पर दिखता है. लेकिन इस बात की अभी पुष्टि नहीं की जा सकती है कि ऐसा क्यों है.”
हालांकि ये साफ तौर पर कहा जा सकता है कि ये क्षेत्र तांबा और लोहे का लंबे समय से आयातक रहा है. इस कारण यहां समय-समय पर दूसरी जगहों के लोगों का भी आना-जाना काफी रहा होगा.
गुप्ता ने बताया, “हम यहां के कल्चर को स्टडी करना चाहते हैं और कैसे-कैसे पोटरी और डिपोडिट में बदलाव आ रहा है. साथ ही इस क्षेत्र के सबसे निचले हिस्से तक भी पहुंचना चाहते हैं.”
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गावं वालों की आशंकाएं बढ़ी
गांव के स्थानीय लोगों ने बताया कि यहां पर बलबन काल के सिक्के मिले हैं. बेवां गांव के निवासी जगदीश प्रसाद गुर्जर का घर उत्खनन स्थान से कुछ ही दूरी पर है. अपने घर से लाकर बलबन काल के सिक्कों को दिखाते हुए उन्होंने कहा, “एक दिन नीम के पेड़ के पास जमीन के नीचे मुझे ये सिक्के मिले. यहां पर लोगों को समय-समय पर ऐसे सिक्के और पुरानी चीज़ें मिलती रही है.”
गुप्ता भी इससे सहमित जताते हैं कि बलबन काल के दौरान ये जगह काफी महत्व की रही होगी. उन्होंने कहा, “यहां पर लोगों को बलबन के समय के होर्ड्स मिले है. इसका मतलब है कि यहां पर उस जमाने में टक्साल रही होगी.”
हालांकि गांव में चल रही खुदाई ने एक तरफ तो लोगों में उत्सुकता पैदा की है वहीं दूसरी तरफ आशंकाएं और अफवाहें भी जन्म लेने लगी हैं. स्थानीय लोगों में अफवाहें फैल रही है कि बाहर से आए पुरातत्व विभाग के लोग सोना-चांदी ढूंढने के लिए आए हैं वहीं अगर कोई महत्वपूर्ण चीज़ें मिल जाती हैं तो गांव वालों को यहां से हटा दिया जाएगा.
हालांकि इस उत्खनन ने स्थानीय लोगों को रोजगार भी दिया है. बेवां गांव के तकरीबन 45 पुरुष और महिलाएं उत्खनन साइट पर मजदूरी का काम कर रहे हैं जिन्हें पुरातत्व विभाग की तरफ से मजदूरी दी जाती है.
लेकिन गांव के बच्चों और मजदूरों के बच्चे यहां अक्सर खुदाई देखने आते हैं. विनय गुप्ता की टीम में काम करने वाले आर्कियोलॉजिस्ट इन बच्चों को खुदाई के बारे में जानकारी देते हैं.
उत्खनन साइट से करीब 25 किलोमीटर दूर नीम का थाना स्थित एसएनकेपी कॉलेज के छात्रों को भी कुछ दिनों पहले इस जगह को दिखाने के लिए लाया गया था.
एसएनकेपी कॉलेज के इतिहास विभाग के एचओडी और आर्कियोलॉजिस्ट राजीव रंजन ने कहा, “अगर यहां से कोई सभ्यता के चिन्ह मिलते हैं तो इससे इतिहास का नया द्वार खुलेगा.”
खुदाई का एकमात्र मकसद पास्ट को रीक्रिएट करने का होता है. उत्खनन कर रहे आर्कियोलॉजिस्ट का कहना है कि इस जगह की ऐतिहासिकता को नकारा नहीं जा सकता है.
गुप्ता ने कहा, “बड़ी-बड़ी खोजें बड़ी जगहों पर नहीं होती, वो आमतौर पर ऐसी ही किसी पेरिफेरल एरिया में होती है.”
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