नई दिल्ली: लक्ष्मीबाई कॉलेज की प्रिंसिपल प्रत्युष वत्सला का गायों और गोबर से लगाव कोई नई बात नहीं है. 2015 में दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेज में शामिल होने के कुछ ही महीनों बाद, उन्होंने कैंपस में एक “गोकुल क्षेत्र” स्थापित किया — एक ऐसी जगह जिसमें मिट्टी के फर्श वाला एक छोटा तालाब और दो गायें भी थीं, जिनकी देखभाल कथित तौर पर उनकी देखरेख में की जाती थी.
हाल ही में, वत्सला ने गायों के प्रति अपनी भक्ति को क्लास तक पहुंचा दिया, जब क्लास नहीं चल रही थीं, तो उन्होंने क्लास की दीवारों को गाय के गोबर से लेप दिया. वीडियो पर कैद किए गए इस प्रकरण की काफी आलोचना की गई — साथ ही “पारंपरिक, पर्यावरण-अनुकूल प्रथाओं” को बढ़ावा देने के लिए कुछ लोगों ने इसकी प्रशंसा भी की. कुछ दिनों बाद, दिल्ली यूनिवर्सिटी स्टूडेंट यूनियन (DUSU) के अध्यक्ष रौनक खत्री ने विरोध में अपने कार्यालय की दीवारों पर गाय का गोबर लगाया, उनका तर्क था कि ‘कमरे को ठंडा रखने के लिए’ ऐसे प्रयोग उनके घर पर किए जाने चाहिए थे.
लक्ष्मीबाई कॉलेज की टीचर जो 18 साल से वहां पढ़ा रही हैं, ने कहा, “जिस दिन से प्रिंसिपल मैडम कॉलेज में आई हैं, उन्होंने इसे अपनी निजी संपत्ति की तरह माना है. वह बिना किसी फैकल्टी कंसल्टेशन, आधिकारिक बैठकों या पूर्व सूचना के फैसले लेती हैं और कार्रवाई शुरू कर देती हैं और जो कोई भी उनके खिलाफ आवाज़ उठाने की हिम्मत करता है, उसे परिणाम भुगतने पड़ते हैं.”
वत्सला ने दिप्रिंट के कॉल और मैसेज का जवाब नहीं दिया.
2015 में प्रिंसिपल नियुक्त की गईं वत्सला इससे पहले 15 साल तक देहरादून में डीबीएस पीजी कॉलेज की वाइस-प्रिसिंपल थीं. वह अक्सर कॉलेज के प्रोग्राम, स्वच्छता अभियानों और बाकी को-करिकुलर गतिविधियों में शामिल होती थीं और कैंपस में हवन भी करवाती रही हैं, जिसे वह सोशल मीडिया पर शेयर भी करती हैं.
उनके सहकर्मियों और छात्रों के अनुसार, वत्सला हमेशा पर्यावरण के मुद्दों पर मुखर रही हैं और इसके कारण उन्हें अक्सर आलोचना का सामना करना पड़ा है. फरवरी 2023 में, उन्होंने एक्स पर पोस्ट किया, जिसमें लोगों को वेलेंटाइन डे पर किसी जानवर या प्रकृति के साथ कोई तस्वीर शेयर करने के लिए प्रोत्साहित किया गया.
मानवाधिकार से लेकर बुनियादी अधिकार तक
उत्तर प्रदेश के बलिया की रहने वाली वत्सला ने अंग्रेज़ी साहित्य में पीएचडी की है. उनकी रचनाएं विभिन्न राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं और उन्होंने कई किताबों का संपादन या योगदान दिया है, जिसमें ऑक्सफोर्ड के इंटरडिसिप्लिनरी प्रेस द्वारा प्रकाशित एक ई-बुक भी शामिल है. उनकी रुचि के क्षेत्र भारतीय काव्यशास्त्र, शैक्षिक प्रशासन, मानवाधिकार और युवाओं में मूल्य विकास हैं.
उनकी लिखी गई कृतियों में महिला हिंसा का अंत: कल, आज और कल (मुमकिन है!), जाने अनजाने (हिंदी कविता संग्रह), मानवाधिकार और दलित कथा, मानवाधिकार शिक्षा: मुद्दे और चुनौतियां, समानता और सामाजिक न्याय: मुद्दे और चिंताएं और मानवाधिकार और लैंगिक मुद्दों पर चुप्पी तोड़ना शामिल हैं.
वत्सला ने अपनी 2016 की किताब ह्यूमन राइट्स एजुकेशन: इश्यूज एंड चैलेंजेज में लिखा है, “भारत में मानवाधिकार संगठनों की उत्पत्ति, इतिहास, वैचारिक अभिविन्यास और हस्तक्षेप की रणनीतियों में भिन्नता है, लेकिन वह जानकारी एकत्र करने और राज्य या सरकार द्वारा मानवाधिकारों के कार्यान्वयन को प्रभावित करने के लिए एक ही मूल दृष्टिकोण साझा करते हैं. उन्होंने भारतीय राजनीति में अपने लिए सफलतापूर्वक एक जगह बना ली है. मानवाधिकार आंदोलन लगभग 70 साल पुराना है, फिर भी इसका विकसित और परिपक्व होना जारी है.”
मानवाधिकारों पर किताबें लिखने के बावजूद, स्टूडेंट्स का कहना है कि उनके काम हमेशा उनकी लेखन को प्रतिबिंबित नहीं करते हैं. थर्ड इयर की एक स्टूडेंट ने कहा, “वह अधिकारों के बारे में लिखती हैं, लेकिन जब हम साफ पानी या शौचालय सुविधाओं तक पहुंच जैसे मुद्दे उठाते हैं, तो वह नहीं सुनती हैं.”
एक प्रिंसिपल, कई शिकायतें
दिप्रिंट से बात करने वाले कई स्टूडेंट्स और फैकल्टी मेंबर्स ने कहा कि वत्सला को अक्सर कैंपस में घूमते हुए प्रोफेसरों और स्टूडेंट्स से विनम्रता से बात करते हुए देखा जा सकता है. वह लेक्चर में रुकावट डालने के लिए भी जानी जाती हैं, लेकिन, छात्रों का कहना है कि उन्हें ढूंढना मुश्किल नहीं है — जब तक कि आपको कोई शिकायत न करनी हो.
बीकॉम थर्ड इयर की स्टूडेंट ने कहा, “प्रिंसिपल बहुत आराम से बात करती हैं और अक्सर स्टूडेंट्स से मिलती हैं. हालांकि, जब हम पीने के पानी की कमी या क्लास में पंखे नहीं होने जैसी समस्याओं के लिए उनके पास जाते हैं, तो वह या तो सुनती नहीं हैं या महीनों तक कोई कार्रवाई नहीं करती हैं.”
जिस क्लास की दीवारों को वत्सला ने गोबर से लिपा है, उसमें पंखा काम नहीं करता है. स्टूडेंट्स ने कहा कि गोबर परेशानी को ठीक करने का उनका तरीका है.
खत्री ने कहा, “प्रिंसिपल का काम स्टूडेंट्स की चिंताओं को सुनना और हल ढूंढना है, न कि क्लास में एक्सपेरिमेंट करना और अगर वह क्लास को ठंडा करने के लिए ऐसा कर रही हैं, तो उनके दफ्तर को सबसे ज़्यादा ठंडक की ज़रूरत होगी.”
प्रिंसिपल के दफ्तर में गोबर पोतकर उनके विरोध प्रदर्शन को सोशल मीडिया पर खूब सराहा गया.
डूसू अध्यक्ष ने दावा किया कि हाल के महीनों में कॉलेज के बुनियादी ढांचे, साफ पानी और शौचालय की सुविधाओं के बारे में कई शिकायतें मिली हैं, लेकिन प्रशासन ने कोई कार्रवाई नहीं की है.
उन्होंने कहा, “प्रिंसिपल स्टूडेंट्स की शिकायतें सुनती हैं और फिर चली जाती हैं.”
खत्री ने स्टूडेंट्स से मिले ईमेल शेयर किए, जिसमें बुनियादी ढांचे के मुद्दों और प्रशासन की निष्क्रियता को उजागर किया गया था.
हिंदी विभाग के एक फैकल्टी मेंबर ने कहा, “दिल्ली यूनिवर्सिटी को पूरी दुनिया में जाना जाता है और किसी भी प्रिंसिपल द्वारा प्रशासन या फैकल्टी के साथ बिना किसी सूचना या परामर्श के ऐसा कुछ करना कॉलेज की गरिमा के खिलाफ है.”
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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