नई दिल्ली: तुलसी विरानी सिर्फ एक बहू नहीं थीं — वे उस दौर की परिभाषा थीं, जब भारतीय टेलीविज़न पर ‘आदर्श नारी’ और ‘संयुक्त परिवार’ का सपना जिया जाता था. करोड़ों लोगों के लिए वे एक आदर्श महिला और परिवार की प्रतीक बन गई थीं. अब करीब 20 साल बाद ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ और इसकी नायिका तुलसी एक बार फिर टीवी पर लौट रहे हैं. संस्कारों और पारिवारिक मूल्यों की गर्माहट इस शो की पहचान रही है, लेकिन इसे आधुनिक जीवनशैली की चमक-धमक के साथ जिस तरह पेश किया गया, उसने दर्शकों को और भी जोड़े रखा. अब देखना ये है कि क्या इस बार शो बदला है या फिर वही पुराना जादू दोहराया जाएगा.
फिल्म क्रिटिक भावना सोमाया, जो एक साल तक एकता कपूर के साथ इस शो में क्रिएटिव कंसल्टेंट के तौर पर जुड़ी थीं, बताती हैं, “यह शो एक साथ पीछे ले जाने वाला भी था और आगे बढ़ाने वाला भी. इसने पारंपरिक मूल्यों को भावनात्मक ड्रामा के साथ मिलाकर लोगों से जुड़ाव बनाया.”
पिछले हफ्ते जब स्मृति ईरानी का तुलसी वाले किरदार में पहला लुक सामने आया, तो सोशल मीडिया पर उत्साह की लहर दौड़ गई. ज्यादातर लोगों ने कहा—सास-बहू सीरियल्स के पुराने अच्छे दिन लौट आए हैं. यह शो 29 जुलाई को रात 10:30 बजे स्टार प्लस पर फिर से शुरू हो रहा है. इसमें अमर उपाध्याय, हितेन तेजवानी और गौरी प्रधान जैसे पुराने चेहरों की वापसी हो रही है.
2000 से 2008 तक चले इस शो के 1,800 से भी ज़्यादा एपिसोड्स थे और इसने भारत में संयुक्त परिवार की सोच को मेनस्ट्रीम टेलीविजन पर एक खास पहचान दिलाई थी.
लेकिन इस शो की लोकप्रियता के पीछे एक जटिल और कभी-कभी परेशान करने वाली सांस्कृतिक तस्वीर भी छिपी थी. ‘Prime Time Soap Operas on Indian Television’ की लेखिका प्रोफेसर शोमा मुंशी का कहना है कि इस शो ने महिलाओं की उस प्रगतिशील छवि से दूरी बना ली थी जो दूरदर्शन के जमाने के शो तारा या उड़ान में दिखती थी.
उन्होंने कहा, “क्योंकि सास भी कभी बहू थी ने जिस परिवार की छवि बनाई, वह एक आदर्श हिंदू व्यवसायिक संयुक्त परिवार की थी—जैसे उस दौर के शो ‘कहानी घर घर की’ में भी दिखता था.”
मुंशी बताती हैं कि ये शो भारतीय टीवी पर प्राइम टाइम दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाए गए पहले बड़े धारावाहिकों में से थे. “इनकी कामयाबी की कुंजी थी—दमदार दृश्य प्रभाव और भरपूर मेलोड्रामा. ये धारावाहिक असली ज़िंदगी के मुद्दों को छूते ज़रूर थे, लेकिन उन्हें जिस तरह से पेश किया जाता था, वह हकीकत से कहीं ज़्यादा नाटकीय और अलंकृत होता था.”
आदर्श परिवार या पीछे ले जाने वाला सपना?
‘काटेलाल एंड सन्स’, ‘पेशवा बाजीराव’ और ‘कुल्फी कुमार बाजेवाला’ जैसे शोज़ से जुड़ी रहने वालीं स्क्रिप्ट राइटर स्वेक्षा भगत ने कहा, ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ भारतीय समाज का आईना कम और एक साफ-सुथरी, आदर्श कल्पना ज़्यादा थी.
उन्होंने कहा, “क्योंकि” से पहले तक भारतीय टीवी पर ‘हम पांच’ जैसे कॉमेडी शो, ‘ब्योमकेश बख्शी’ जैसे थ्रिलर और ‘शांति’, ‘तारा’ जैसे आधुनिक ड्रामा हावी थे. यह वह दौर था जब उदारीकरण के बाद भारत में परिवार छोटे हो रहे थे और लोगों की सोच वैश्विक हो रही थी.”
इस बदलते सामाजिक माहौल में, स्वेक्षा के मुताबिक एकता कपूर ने एक ‘नॉस्टैल्जिया गैप’ को पहचाना और उसी पर अपना टेलीविजन साम्राज्य खड़ा कर दिया. ‘क्योंकि’ केवल एक लोकप्रिय धारावाहिक नहीं बना, बल्कि इसने ‘आदर्श भारतीय महिला’ की परिभाषा ही बदल दी.
स्वेक्षा ने कहा, “अचानक ही आत्मनिर्भर, करियर-ओरिएंटेड महिलाएं—जैसे शांति—की जगह ले ली तुलसी जैसी चरित्रवान और त्याग की मूर्ति बहुओं ने, जिनकी दुनिया सिर्फ उनके परिवार के इर्द-गिर्द घूमती थी.”
हालांकि, इस बदलाव को हर कोई नकारात्मक रूप में नहीं देखता.
लेखिका शाबिया वालिया के लिए क्योंकि “काफी हद तक रियलिस्टिक” था. उनके मुताबिक, “संयुक्त परिवार भारतीय समाज का हिस्सा रहे हैं, भले ही आज उनकी संख्या कम हो रही हो. शो में 15-20 लोगों के साथ रहने वाला घर दिखाया गया था, जो मेरे जैसे छोटे न्यूक्लियर परिवार में पली-बढ़ी लड़की के लिए एक सपना जैसा था. मेरे लिए यह शो बहुत ‘एस्पिरेशनल’ था.”
वालिया कहती हैं कि शो ने यह खूबसूरती से दिखाया कि कैसे एक बहू—जो शुरुआत में उस घर में अजनबी होती है—धीरे-धीरे अपने संस्कारों, प्रेम और समझदारी से उस घर का भावनात्मक केंद्र बन जाती है.
उन्होंने आगे कहा, “इस शो ने पीढ़ियों के बदलते रिश्तों को भी दर्शाया—कैसे एक बहू वक्त के साथ खुद सास बनती है. बहुत से दर्शकों के लिए तुलसी वह आदर्श थीं, जो पूरे परिवार को एकजुट रखती हैं—जैसे हर माता-पिता उम्मीद करते हैं कि उनके बच्चे बड़े होकर ऐसा ही कुछ करेंगे.”
‘धीरे-धीरे दिमाग में उतरते गए ये संदेश’
भले ही ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ को एक पारिवारिक ड्रामा के तौर पर सराहा गया, लेकिन इसमें घरेलू जीवन का ऐसा संस्करण पेश किया गया जिसमें महिलाओं की भूमिकाएं बेहद सीमित और तयशुदा थीं. समस्याएं तीखे मेलोड्रामा से सुलझती थीं, मतभेदों को दबा दिया जाता था और परंपराओं को इस हद तक महिमामंडित किया जाता था कि प्रगति कहीं पीछे छूट जाती थी.
इस आदर्श महिला की परिभाषा थी—जो खाना बनाए, पूजा करे, बच्चे पैदा करे, बुजुर्गों की सेवा करे और बिना शिकायत किए त्याग करती जाए. अगर उसकी बुद्धिमत्ता को स्वीकार भी किया जाता, तो सिर्फ परिवार की सेवा में—न कि अपने आत्म-विकास के लिए.
फिल्म समीक्षक भावना सोमाया ने कहा, “आप पहले कहानी को परंपरा से बांधते हैं और फिर नायिका को नायक बना देते हैं.”
इस तरह के किरदारों और कथाओं ने एक नया सांस्कृतिक दबाव बनाया. लेखिका शाबिया वालिया, जो शो के प्रसारण के समय 25 साल की थीं, उनका मानना है कि इसने पीढ़ियों के रिश्तों और सोच पर गहरा असर डाला.
वालिया ने कहा, “शो ने तय कर दिया कि एक ‘अच्छी’ बहू कैसी होनी चाहिए और वही छवि लोगों के ज़ेहन में छप गई.”
शाबिया वालिया ने कहा, “मैं नियमित दर्शक भी नहीं थी, फिर भी शो के संदेश धीरे-धीरे मेरे अवचेतन में उतरते चले गए. तुलसी, खासकर, एक तरह की रोल मॉडल बन गईं. वे बुज़ुर्गों का सम्मान करती थीं, छोटे सदस्यों से प्यार से पेश आती थीं और हर किसी की ज़रूरतों का ध्यान रखती थीं, लेकिन सबसे खास बात ये थी कि पारंपरिक मूल्यों को जीते हुए भी उनके पास अपनी एक सोच और आवाज़ थी.”
वालिया आगे बताती हैं कि दिल के किसी कोने में वे भी “तुलसी जैसी बनना चाहती थीं” — ज़रूरी नहीं कि बहू के रूप में, लेकिन एक ऐसी शख्सियत के रूप में जो सबका दिल जीत सके, सबकी प्यारी हो और बिना गुस्से या विद्रोह के अपनी बात कह सके.
हालांकि, शो में सशक्त सासों की जो छवि दिखाई गई, वह हर बार सशक्तिकरण का प्रतीक नहीं थी. इन किरदारों ने पारिवारिक मर्यादा बनाए रखने के नाम पर घर में कठोर अनुशासन लागू किया—खासतौर पर बहुओं के लिए. वहीं पुरुष पात्रों की खामियों पर शायद ही कभी सवाल उठते थे या उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाता था.
मुंशी मानती हैं कि ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ में कुछ प्रगतिशील पहलू थे, लेकिन उन्हें पारंपरिक ढांचे में इस तरह पिरोया गया था कि पूरा परिवार उसे एक साथ बैठकर देख सके. यह उस दौर की बात है जब ज्यादातर घरों में एक ही टीवी होता था और मोबाइल फोन आम नहीं थे.
उन्होंने कहा, “आज की तेज़ी से बदलती दुनिया—जहां तकनीक हावी है, देखने की आदतें बिखरी हुई हैं और ओटीटी पर कंटेंट की भरमार है—ऐसे समय में ‘क्योंकि…’ जैसे शो का दोबारा आना वाकई दिलचस्प होगा. हमें याद रखना चाहिए कि यह धारावाहिक स्मार्टफोन युग से पहले आया था.”
(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: घर की दीवारों में कैद होकर भी राससुन्दरी देवी ने कैसे लिखी अपनी कहानी