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Saturday, 16 November, 2024
होमफीचरअंदरूनी कलह, सुधारों की मांग और UCC — कभी शक्तिशाली रहा AIMPLB अब संकटों से घिरा

अंदरूनी कलह, सुधारों की मांग और UCC — कभी शक्तिशाली रहा AIMPLB अब संकटों से घिरा

समान नागरिक संहिता ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के लिए अस्तित्व की लड़ाई है. ‘अगर यह देश में लागू होता है, तो बोर्ड खत्म हो जाएगा’.

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नई दिल्ली: ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (AIMPLB) के संस्थापक सदस्य कासिम रसूल इलियास के सामने एक बहुत बड़ा काम है. वे बोर्ड की ओर से ईसाइयों, सिखों और आदिवासी नेताओं से प्रस्तावित समान नागरिक संहिता (यूसीसी) के खिलाफ एकजुट होने के लिए अभूतपूर्व प्रयास कर रहे हैं.

यह प्रयास AIMPLB के लिए एक महत्वपूर्ण मोड़ पर आया है. बाबरी मस्जिद के लिए अपनी लंबी लड़ाई में हार के बाद, बोर्ड की गति कम होती दिखाई दे रही है. मुस्लिम समुदाय में हाल के वर्षों में उनके खिलाफ नफरत की लहर को रोकने में इसकी कमज़ोर भूमिका के बारे में चर्चा हो रही है. बोर्ड के भीतर सुधारों की मांग बढ़ रही है. अब, यूसीसी के अस्तित्व के खतरे के साथ, एआईएमपीएलबी असहमति और नेतृत्व संघर्षों से जूझ रहा है और किसी भी ऐसे क्षेत्र में घुसने का व्यापक डर है जो हिंदुत्व समूहों को लाभ पहुंचा सकता है.

लेकिन यूसीसी एक ऐसी लड़ाई है जिससे वह मुंह नहीं मोड़ सकते.

कुछ हफ्तों में एआईएमपीएलबी यूसीसी के खिलाफ अपने धर्मों की रक्षा के लिए एक एकीकृत रणनीति विकसित करने के लिए अन्य धार्मिक संगठनों के साथ एक गोलमेज सम्मेलन आयोजित करने की योजना बना रहा है. इन दिनों अकेले ऐसी लड़ाई लड़ना बड़े जोखिमों से भरा है.

इलियास ने कहा, “बोर्ड के सामने सबसे बड़ी चुनौती यूसीसी है. यह हमारे धर्म का पालन करने और उसका प्रचार करने के संवैधानिक अधिकारों को कमज़ोर करता है. एक राष्ट्र, एक कानून का नारा बेतुका है. यहां तक ​​कि हर राज्य में कानून भी अलग-अलग हैं. मनुष्य द्वारा बनाया गया कोई भी कानून जो देश की विविधता को खत्म करता है और प्रथागत कानूनों में हस्तक्षेप करता है, हमें स्वीकार्य नहीं है.”

AIMPLB के साथ कई मुसलमानों में असंतोष भारत की बदलती राजनीति के साथ पूरी तरह से जुड़ने की इसकी कथित अनिच्छा से उपजा है, लेकिन बोर्ड के सदस्यों का तर्क है कि वह हर मुद्दे पर कूदने के बजाय अपनी प्रतिक्रियाओं को मापना चाहते हैं.


यह भी पढ़ें: ‘विरोध करने का इरादा नहीं’ — 4 साल पहले CAA के खिलाफ शाहीन बाग गरजा था, अब वहां बेचैनी भरी शांति है


मुसलमानों में ‘असंतोष’

पिछले एक साल में AIMPLB के नेतृत्व को लेकर सवाल तेज़ हो गए हैं, साथ ही भाई-भतीजावाद को लेकर नाराज़गी भी बढ़ रही है.

पिछले जून में खालिद सैफुल्लाह रहमानी अपने चाचा मौलाना सैयद राबे हसनी नदवी की जगह बोर्ड के अध्यक्ष बने, जो 2002 से अप्रैल 2023 में अपनी मृत्यु तक इस पद पर रहे.

एक दशक से बोर्ड के बारे में लिख रहे स्वतंत्र पत्रकार शकील अहमद ने कहा, “बोर्ड के नेतृत्व में भाई-भतीजावाद के कारण समुदाय में अंसतोष है.”

उन्होंने कहा कि एक समय में शक्तिशाली रहा बोर्ड पिछले एक दशक में मुस्लिम समुदाय को परेशान करने वाले कई मुद्दों पर बात करने में अनुपस्थित रहा है, जिससे समुदाय के भीतर “काफी असंतोष” पैदा हुआ है. वह अपनी भूमिका को केवल शरिया कानून की व्याख्या तक सीमित रखते हैं.

ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 14 जुलाई को अपनी कार्यसमिति की बैठक की. इसने उत्तराखंड के यूसीसी कानून को अदालत में चुनौती देने का संकल्प लिया है | फोटो: फेसबुक/@All India Muslim Personal Law Board
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने 14 जुलाई को अपनी कार्यसमिति की बैठक की. इसने उत्तराखंड के यूसीसी कानून को अदालत में चुनौती देने का संकल्प लिया है | फोटो: फेसबुक/@All India Muslim Personal Law Board

अहमद ने कहा, “पहले बोर्ड का नेतृत्व मंत्रियों और नेताओं से मिलता था. अब वो केवल प्रेस बयान जारी करते हैं.”

उनके अनुसार, बोर्ड की वर्तमान चुप्पी का एक कारण सरकार द्वारा इस्लामी धर्मशास्त्रियों के संगठन जमीयत उलेमा-ए-हिंद से जुड़े एनजीओ के लिए विदेशी फंडिंग पर की गई कार्रवाई है.

उत्तर प्रदेश के पूर्व मंत्री मोहसिन रजा जैसे भाजपा नेताओं ने भी पहले एआईएमपीएलबी के फंडिंग पर सवाल उठाए हैं — जिसे भारत में मुस्लिम पर्सनल लॉ की रक्षा के लिए 1973 में एक गैर-सरकारी संगठन के रूप में स्थापित किया गया था. हालांकि, बोर्ड ने इस मामले पर कोई टिप्पणी नहीं की है.

आंतरिक रूप से एआईएमपीएलबी ने अपनी स्थापना के बाद से 51 साल से कोई बड़ा संरचनात्मक बदलाव नहीं देखा है. आलोचकों का दावा है कि बोर्ड विभिन्न मुस्लिम संप्रदायों को खुश करने पर बहुत अधिक केंद्रित है और इस प्रकार निर्णायकता के बजाय संकोच के साथ काम कर रहा है.

बोर्ड चुपचाप नहीं बैठा है. चीज़ों को धीरे-धीरे संभाला जा रहा है. आग में घी डालने के बजाय, शांतिपूर्वक तरीके से मामले को सुलझाने की कोशिश की जा रही है

— एआईएमपीएलबी प्रवक्ता कमाल फारुकी

दिल्ली अल्पसंख्यक आयोग (डीएमसी) के पूर्व अध्यक्ष ने शिकायत की, “वे सभी मदरसों को संतुष्ट करने की कोशिश करते हैं.”

पांच दशक पुराना राष्ट्रीय बोर्ड हर तीन साल में एक नए अध्यक्ष का चुनाव करता है, जिसे 251 आम सभा के सदस्य चुनते हैं, जो 45 सदस्यीय कार्यकारी निकाय का भी चयन करते हैं. यह पांच उपाध्यक्षों की नियुक्ति करता है और चार सचिवों के साथ एक महासचिव का चुनाव करता है. बोर्ड का अध्यक्ष हमेशा हनफी स्कूल से होता है, जो सुन्नी संप्रदाय में सबसे पुराना है, क्योंकि देश में उनकी आबादी सबसे ज़्यादा है, लेकिन उपाध्यक्ष अलग-अलग वैचारिक पृष्ठभूमि से आते हैं.

AIMPLB graphic
ग्राफिक: प्रज्ञा घोष/दिप्रिंट

बाबरी जैसे मुद्दों ने बोर्ड को एकजुट किया, लेकिन इस विविधता का मतलब है कि आम सहमति पर पहुंचना हमेशा आसान नहीं होता.

शरिया से जुड़े विभिन्न मुद्दों को लेकर AIMPLB का रवैया मिला-जुला रहा है. हालांकि, बोर्ड ने तीन तलाक के बचाव में कड़ा रुख अपनाया, लेकिन हिजाब विवाद पर उसकी प्रतिक्रिया बहुत नरम रही.

AIMPLB की मौजूदा सदस्य और इसकी महिला शाखा की पूर्व संयोजक अस्मा ज़ेहरा तैयबा के लिए यह एक दुखद बिंदु है. उन्होंने कर्नाटक हाई कोर्ट द्वारा शैक्षणिक संस्थानों में हिजाब पर प्रतिबंध लगाने के फैसले से पहले बोर्ड की निष्क्रियता की आलोचना की, इस आधार पर कि यह इस्लाम का अनिवार्य हिस्सा नहीं है. उन्होंने कहा कि छात्राओं को खुद ही अपना बचाव करने के लिए छोड़ दिया गया.

तैयबा ने कहा, “AIMPLB ने हिजाब के मुद्दे को गंभीरता से नहीं लिया. लड़कियां कर्नाटक हाई कोर्ट गईं, जहां न्यायाधीश उनसे पूछ रहे थे कि क्या यह इस्लाम के लिए ज़रूरी है? यहीं पर वे असफल रहीं और केस हार गईं. छात्राओं को खुद ही सभी कोशिशें करनी पड़ीं. राष्ट्रीय संगठन ने उनकी उपेक्षा की.”

बोर्ड के सीमित हस्तक्षेप, जैसे कर्नाटक सरकार से हिजाब संबंधी आदेश वापस लेने का अनुरोध करना, मुस्लिम लड़कियों की शिक्षा को प्रभावित करने वाले इस कदम के बारे में बयान जारी करना और सुप्रीम कोर्ट में अपील करना, कई लोगों के लिए बहुत कम और बहुत देर से किया गया.

तैयबा ने आगे आरोप लगाया कि सरकार न केवल मुस्लिम परिवार संरचना और कानूनों को बल्कि अन्य समुदायों में समान दरों के बावजूद उच्च प्रजनन दर के लिए महिलाओं को भी निशाना बनाती है. उन्होंने यह भी बताया कि मुस्लिम और हिंदू भी मुद्रास्फीति और बेरोज़गारी सहित समान आर्थिक समस्याओं से जूझते हैं.

उन्होंने कहा, “एआईएमपीएलबी ने इस पर कोई बयान नहीं दिया है.”

अस्मा ज़ेहरा तैयबा, एआईएमपीएलबी सदस्य और इसकी महिला शाखा की पूर्व संयोजक | फोटो: एक्स/@AsmaZehradr
अस्मा ज़ेहरा तैयबा, एआईएमपीएलबी सदस्य और इसकी महिला शाखा की पूर्व संयोजक | फोटो: एक्स/@AsmaZehradr

हिजाब विवाद एकमात्र ऐसा मुद्दा नहीं है जिसके बारे में एआईएमपीएलबी अपेक्षाकृत शांत रहा है. आलोचकों के अनुसार, बाबरी पर उनके रुख की तुलना में ज्ञानवापी मस्जिद और पूजा स्थल अधिनियम (PWA) 1991 के प्रति उनकी प्रतिक्रिया भी अपेक्षाकृत फीकी रही है.

हालांकि, इसने 2022 में PWA को चुनौती देने वाली याचिकाओं का विरोध करने के लिए सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था — जो 15 अगस्त 1947 को पूजा स्थलों के चरित्र को पुनः प्राप्त करने या बदलने के लिए मुकदमों पर रोक लगाता है — वाराणसी की एक अदालत ने तब से हिंदुओं को ज्ञानवापी मस्जिद तहखाने में प्रार्थना करने की अनुमति दे दी है.

AIMPLB ने अभी तक सुप्रीम कोर्ट में इसे चुनौती देने के अपने संकल्प का पालन नहीं किया है.

मुस्लिम समुदाय की निगाहें अब बोर्ड पर हैं कि वे इस साल की शुरुआत में लागू किए गए उत्तराखंड समान नागरिक संहिता सहित नवीनतम सुर्खियां बटोरने वाले मुद्दों को कैसे देखते हैं.

UCC अभी उनका सबसे बड़ा एजेंडा है. अगर यह निर्णायक रूप से कार्य करने में विफल रहता है, तो इसका कोई भविष्य नहीं हो सकता. यूसीसी के तहत शरिया कानून स्वीकार्य नहीं होगा.

तैयबा ने कहा, “अगर देश में UCC लागू हो जाता है, तो बोर्ड खत्म हो जाएगा.”

शाहबानो से लेकर तीन तलाक संघर्ष तक, महिलाओं के अधिकारों पर बोर्ड के रुख़ की व्यापक रूप से आलोचना की गई है और इसे पितृसत्तात्मक और अन्यायपूर्ण बताया गया है और अब ज़्यादातर महिलाएं न्याय के लिए अदालतों का दरवाज़ा खटखटा रही हैं.

मोदी से संवाद?

सीमित राजनीतिक प्रतिनिधित्व के कारण, मुसलमान अक्सर अपनी चिंताओं को दूर करने के लिए वकालत करने वाले संगठनों की ओर रुख करते हैं. AIMPLB के साथ असंतोष भारत की बदलती राजनीति के साथ पूरी तरह से जुड़ने की इसकी कथित अनिच्छा से उपजा है, लेकिन बोर्ड के सदस्यों का तर्क है कि वो हर मुद्दे पर कूदने के बजाय अपनी प्रतिक्रियाओं को मापना चाहते हैं.

AIMPLB के प्रवक्ता कमाल फारुकी ने कहा, “हम कोई राजनीतिक पार्टी या एनजीओ नहीं हैं”. AIMPLB के आधिकारिक सोशल मीडिया हैंडल पर इसे एक एनजीओ के रूप में संदर्भित किए जाने के बावजूद. उनके अनुसार, बोर्ड के काम को दीर्घकालिक दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए और बिना सोचे-समझे प्रतिक्रिया देना ठीक नहीं है.

फारुकी ने कहा, “जब भी कोई नई टीम आती है, तो चीज़ों को समझने में समय लगता है. रहमानी साहब उथल-पुथल के बीच अध्यक्ष बने. लोगों को इस बात पर विचार करना चाहिए कि क्या हर फैसले से समाज का फायदा होगा. बोर्ड चुपचाप नहीं बैठा है. चीज़ों को धीरे-धीरे संभाला जा रहा है. आग में घी डालने के बजाय, चीज़ों को शांतिपूर्ण तरीके से हल करने का प्रयास किया जा रहा है.”

AIMPLB राजनीति से दूर रहता है. हम खुद को शरिया कानून तक सीमित रखते हैं. अगर कोई हमारे शरिया कानून में दखल देता है, तो हम उसके खिलाफ कानूनी रास्ता अपनाते हैं

— मौलाना खालिद सैफुल्लाह रहमानी, एआईएमपीएलबी अध्यक्ष

फारूकी ने आक्रामक विरोध प्रदर्शनों के जरिए भाजपा के सांप्रदायिक एजेंडे को बढ़ावा देने के खिलाफ भी चेतावनी दी.

उन्होंने कहा, “हम सड़कों पर उतरकर इस उत्पीड़न के खिलाफ प्रदर्शन कर सकते हैं, लेकिन वो चाहते हैं कि हम ऐसा करें और फिर हमें पीटना शुरू कर दें और अपना वोट बैंक बढ़ाएं. इसका मतलब होगा कि हम उनके जाल में फंस गए हैं.”

डीएमसी के पूर्व अध्यक्ष ने सहमति जताई कि बोर्ड रणनीतिक रूप से वर्तमान में विवाद से बचता है, जबकि पिछले अध्यक्ष समुदाय से संबंधित सामाजिक मुद्दों को उठाते थे, अब ध्यान शरिया कानून पर वापस आ गया है.

हालांकि, हाल के लोकसभा चुनावों में भाजपा को कमजोर जनादेश मिलने से मुस्लिम समुदाय का आत्मविश्वास बढ़ा है. एआईएमपीएलबी भी जवाबी कदम उठाने पर विचार कर रहा है.

फारूकी ने कहा, “बोर्ड इस बात पर विचार कर रहा है कि सरकार के साथ बातचीत कैसे और कब शुरू की जाए.” उन्होंने न केवल यूसीसी बल्कि अल्पसंख्यक समुदायों को प्रभावित करने वाले अन्य मुद्दों का भी ज़िक्र किया.

राजनीति नहीं, केवल शरिया

बोर्ड की आधिकारिक लाइन स्पष्ट है: इसका काम शरिया कानून को बनाए रखना है, राजनीति में शामिल होना नहीं.

AIMPLB के अध्यक्ष मौलाना रहमानी ने दिप्रिंट से कहा, “AIMPLB राजनीति से दूर रहता है. हम खुद को शरिया कानून तक ही सीमित रखते हैं. अगर कोई हमारे शरिया में हस्तक्षेप करता है, तो हम उसके खिलाफ केवल कानूनी रास्ता अपनाते हैं.”

इस क्षेत्र में भी, यह अपनी लड़ाई सावधानी से लड़ता है.

उदाहरण के लिए हिजाब मामले पर, AIMPLB ने विवाद को कर्नाटक तक सीमित रखने का लक्ष्य रखा और सावधानी से काम लिया. मौलाना ने अप्रैल 2022 में कहा कि दिसंबर 2021 में, जब एक कॉलेज ने हिजाब पहनने वाली छात्राओं पर रोक लगा दी, तो बोर्ड ने संज्ञान लिया, लेकिन हितधारकों से परामर्श करने के बाद, इसे “स्थानीय” मुद्दे के रूप में देखने का फैसला किया.

हालांकि, स्थिति जल्दी ही एक राष्ट्रीय विवाद में बदल गई, जिसके कारण राज्य सरकार ने “समान ड्रेस कोड” लागू करने का आदेश दिया और विभिन्न संस्थानों ने हिजाब पर प्रतिबंध लगा दिया. कर्नाटक हाई कोर्ट में इसे चुनौती देने वाली छात्राओं ने तर्क दिया कि हिजाब उनके धार्मिक अभ्यास के लिए ज़रूरी है, लेकिन वो अपना केस हार गईं.

The protesting students of the Udupi Women’s PU College | Photo: Anusha Ravi | ThePrint
हिजाब पर बैन के खिलाफ कर्नाटक में प्रदर्शन कर रही छात्राएं | फोटो: अनुषा रवि सूद/दिप्रिंट

इस अंतिम चरण में ही एआईएमपीएलबी ने कार्रवाई की और सुप्रीम कोर्ट का रुख किया. इसने कहा कि यह फैसला “स्पष्ट रूप से पक्षपातपूर्ण और सांप्रदायिक” था और इस्लाम के सभी प्रमुख स्कूल इस बात पर सहमत थे कि हिजाब न पहनना “गुनाह” है.

बोर्ड के सदस्यों का कहना है कि इस मामले में सावधानी से काम लेना समझदारी भरा कदम था. इलियास ने कहा कि राजनीतिक मुद्दों पर अधिक मुखर रुख संगठन की विविधतापूर्ण सदस्यता के कारण उसे अस्थिर कर सकता है. बोर्ड का लक्ष्य शरिया पर आम सहमति बनाना है, भले ही व्याख्याएं अलग-अलग हों और इसमें समय लगे.

AIMPLB के सचिव डॉ. यासीन अली उस्मानी ने बताया कि तीन तलाक के मुद्दे पर अहल-ए-हदीस स्कूल का मानना ​​है कि एक बार में तीन तलाक देने से तलाक नहीं होता, जबकि बोर्ड का मानना ​​है कि इससे तलाक होता है. असहमति के बावजूद, वो बोर्ड के साथ खड़े रहे.

उन्होंने कहा, “हमें संघर्ष का सामना नहीं करना पड़ता क्योंकि सभी के बीच बुनियादी सहमति है. हम सभी शरिया कानून को बनाए रखना चाहते हैं और, हम एक-दूसरे के रीति-रिवाज़ों में हस्तक्षेप नहीं करते हैं.”

2016 में जब पांच मुस्लिम महिलाओं ने तीन तलाक के खिलाफ अपनी लड़ाई सुप्रीम कोर्ट में लड़ी, तो AIMPLB ने इस प्रथा की वैधता का जोरदार बचाव किया. उन्होंने तर्क दिया कि इस प्रथा को बंद करने से पुरुष लंबी कानूनी कार्यवाही से बचने के लिए अपनी पत्नियों की “हत्या या ज़िंदा जलाने” की कोशिश कर सकते हैं.

अगले साल AIMPLB ने केंद्र सरकार से मुस्लिम महिलाओं को तत्काल तीन तलाक के खिलाफ कानूनी सुरक्षा प्रदान करने वाले विधेयक (अब एक अधिनियम) को वापस लेने का आग्रह किया. उन्होंने कहा कि यह शरिया कानून का उल्लंघन है और मुस्लिम पुरुषों से तलाक के अधिकार छीनने की एक “खतरनाक” साजिश है.

तब से, AIMPLB कम मुखर रहा है. फारुकी ने कहा कि बोर्ड भावनात्मक फैसले नहीं ले रहा है और कार्रवाई करने से पहले ज़मीनी हकीकत पर विचार नहीं कर रहा है.

उन्होंने कहा कि बोर्ड पीएम मोदी के मुसलमानों के खिलाफ बयानों, घृणा अपराधों, मस्जिदों पर हमलों पर बारीकी से नज़र रख रहा है और याचिकाओं, ज़मीनी स्तर के अभियानों और सरकार और विपक्ष दोनों के नेताओं के साथ बैठकों जैसे जवाबी उपायों पर विचार कर रहा है, लेकिन उन्होंने अभी तक कोई फैसला नहीं लिया है.

फारुकी ने कहा, “हम समुदाय के अधिकारों को लेकर गंभीर हैं.”

अंदरूनी दरार

बोर्ड की अक्सर महिलाओं के अधिकारों के खिलाफ रुख़ अपनाने के लिए आलोचना की जाती है. इसने हाल के वर्षों में इस धारणा पर बात करने की कोशिश की है, लेकिन यह कुछ हद तक उतार-चढ़ाव भरा रहा है.

नवंबर 2016 में दिवंगत बोर्ड अध्यक्ष मौलाना नदवी ने मुस्लिम महिलाओं के बीच सामाजिक सुधारों को बढ़ावा देने के लिए पहली महिला विंग का गठन किया. यह तीन तलाक पर बढ़ती राष्ट्रीय बहस के साथ मेल खाता है.

नई विंग ने एक हेल्पलाइन जारी की, इस्लाम और संविधान के भीतर महिलाओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता अभियान चलाए और तीन तलाक जैसे मुद्दों पर प्रेस कॉन्फ्रेंस की.

हालांकि, 11 अक्टूबर 2022 को, महिला विंग को अचानक “निलंबित” कर दिया गया और इसके सोशल मीडिया अकाउंट हटा दिए गए.

2019 में तीन तलाक बिल के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान AIMPLB की महिला विंग | फोटो: एक्स/@AIMPLB_Official
2019 में तीन तलाक बिल के खिलाफ प्रेस कॉन्फ्रेंस के दौरान AIMPLB की महिला विंग | फोटो: एक्स/@AIMPLB_Official

तैयबा, जो उस समय विंग की प्रमुख थीं, ने याद किया कि खालिद सैफुल्लाह रहमानी ने उन्हें एक पत्र भेजा था जिसमें उर्दू शब्द “तहलील” का इस्तेमाल किया गया था, जिसका अर्थ है ‘विघटित होना’. उन्होंने आरोप लगाया कि यह आदेश महिला विंग की हिजाब विवाद में सक्रिय भूमिका निभाने की इच्छा के बाद दिया गया था.

उन्होंने कहा, “बोर्ड के सदस्य इस मुद्दे को राज्य तक सीमित रखने के बारे में दृढ़ थे, लेकिन महिला विंग ने तर्क दिया कि सोशल मीडिया के कारण यह पहले ही राष्ट्रीय मुद्दा बन चुका है.”

हिजाब की सुनवाई के दौरान, कर्नाटक हाई कोर्ट ने AIMPLB से लिखित इनपुट मांगा, लेकिन तैयबा के अनुसार, हालांकि महिला विंग ने इस्लामी स्कॉलर्स के संदर्भ के साथ एक व्यापक प्रतिक्रिया की वकालत की, लेकिन बोर्ड ने चल रही कानूनी कार्यवाही के कारण इससे परहेज किया.

जब महिला विंग ने कर्नाटक की लड़कियों के साथ अपनी “एकजुटता” व्यक्त करते हुए एक बयान जारी किया तो तनाव बढ़ गया.

तैयबा ने कहा, “बोर्ड के सदस्यों ने इस पर आपत्ति जताई क्योंकि यह उनके रुख से मेल नहीं खाता था. फिर उन्होंने कहा कि अतिरिक्त सोशल मीडिया अकाउंट की कोई ज़रूरत नहीं है क्योंकि बोर्ड के पास पहले से ही एक आधिकारिक अकाउंट है. इसलिए उन्होंने विंग से ट्विटर और इंस्टाग्राम पर अपने अकाउंट बंद करने को कहा.”

महिला विंग को आखिरकार फरवरी 2022 में बहाल किया गया, लेकिन तैयबा ने अनुचित व्यवहार और उचित प्रक्रिया की कमी का हवाला देते हुए 23 अक्टूबर 2023 को AIMPLB कार्य समिति से इस्तीफा दे दिया.

हमारा समुदाय एक दमनकारी सरकार और अशिक्षा-गरीबी के बीच फंसा हुआ है. हमें पीक स्थितियों का इंतज़ार नहीं करना चाहिए.

—अस्मा ज़ेहरा तैयबा, AIMPLB सदस्य

इस बीच, बोर्ड ने असहमति के कारण महिला विंग को निलंबित करने से इनकार किया है. इलियास ने दावा किया कि AIMPLB आम तौर पर नए निकायों के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करता है, लेकिन महिला विंग के लिए एक अपवाद बनाया, जो तत्कालीन महासचिव वली रहमानी के तहत सात साल तक बिना किसी औपचारिक संरचना के संचालित हुई.

इलियास ने कहा कि अप्रैल 2021 में वली की मृत्यु के बाद, बोर्ड ने एकरूपता बनाने के लिए विंग को भंग कर दिया और इसके अंतिम पुनरुद्धार का पता लगाने के लिए एक समिति का गठन किया.

इस पर पलटवार करते हुए तैयबा ने कहा कि वली ने महिला विंग को एक अलग सोशल मीडिया अकाउंट रखने का निर्देश दिया था, क्योंकि यह एक पूरी तरह से अलग इकाई है. उन्होंने बोर्ड के तीन तलाक के रुख के साथ विंग के संरेखण को मजबूत किया, लेकिन कहा कि हिजाब के मुद्दे ने बहुत नाखुशी पैदा की है.

उन्होंने कहा, “समुदाय की महिलाओं को निराश महसूस हुआ और वे अभी भी इसे महसूस कर रही हैं. AIMPLB से उम्मीदें बहुत हैं. हम एक एकजुट मंच हैं और हमें समुदाय को संदेश भेजने की ज़रूरत है.”

बोर्ड का दावा है कि उसने महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाया है.

इस साल 29 मई को देश भर से AIMPLB के संयोजक हैदराबाद के गुलाबी अल महादुल आली अल इस्लामी मदरसा में एकत्र हुए और इसके सदस्यों के बीच कार्य वितरित किए. उन्होंने बोर्ड में और अधिक महिलाओं को भी शामिल किया.

पहले, बोर्ड में 24 महिला सदस्य थीं. अब, AIMPLB के 251 सदस्यों में से 30 महिलाएं हैं, जिनमें से 51-सदस्यीय कार्यकारी समिति में चार महिलाएं हैं.

AIMPLB के अध्यक्ष रहमानी ने कहा, “हमने महिला विंग का काफी विस्तार किया है. हमने पहले की तुलना में महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व दिया है.”

उन्होंने विंग को फिर से स्थापित करने में देरी के लिए इसके नियमों और विनियमों को विकसित करने की सावधानीपूर्वक प्रक्रिया को जिम्मेदार ठहराया.

AIMPLB के सचिव डॉ यासीन अली उस्मानी ने कहा कि बोर्ड हिंदुत्व संगठनों द्वारा निशाना बनाए जाने के बारे में उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए मुस्लिम महिलाओं तक अपनी पहुंच बढ़ा रहा है. एक अन्य लक्ष्य शरिया कानून के तहत महिलाओं के अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाना है.

राजस्थान के टोंक में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा आयोजित ‘शरीयत को समझें’ कार्यक्रम, जुलाई में होने वाले ऐसे कार्यक्रमों की श्रृंखला में से एक है | फोटो: फेसबुक/@All India Muslim Personal Law Board
राजस्थान के टोंक में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा आयोजित ‘शरीयत को समझें’ कार्यक्रम, जुलाई में होने वाले ऐसे कार्यक्रमों की श्रृंखला में से एक है | फोटो: फेसबुक/@All India Muslim Personal Law Board

महिला विंग की नई संयोजक जलीसा सुल्ताना ने कहा, “बहुसंख्यकों की संस्कृति और कानून हम पर थोपे जा रहे हैं. हमें व्यक्तिगत कानूनों के बारे में जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत है.”

सुल्ताना के अनुसार, इस्लामी स्कॉलर्स और बोर्ड के पूर्व सदस्यों सहित महिला विंग के नए सदस्य दहेज प्रथा को खत्म करने, बाल विवाह को रोकने और महिलाओं के संपत्ति अधिकारों को सुरक्षित करने जैसे अन्य मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.

ये प्रयास शरिया कानूनों के अनुसार समुदाय के भीतर सुधार लाने के बोर्ड के चल रहे प्रयासों का हिस्सा हैं.

काम को सुव्यवस्थित करने और जिम्मेदारियों को वितरित करने के लिए, AIMPLB ने विभिन्न उप-समितियों का गठन किया है. पहले केवल पुरुषों वाली इस्लाह-ए-मुआशरा (सामाजिक सुधार), तफ़हीम ए शरीयत (शरिया समझ) और दारुल कज़ा (न्यायपालिका बोर्ड) उप-समितियों में अब महिलाएं भी शामिल हैं. हैदराबाद की बैठक में इस्लाह-ए-मुआशरा में तीन महिलाओं को, तफहीम ए शरीयत में दो को और दारुल कज़ा में एक महिला को नियुक्त किया गया.

AIMPLB ने अभी तक यह तय नहीं किया है कि अन्य समुदायों से किन हितधारकों को शामिल किया जाए, लेकिन सिख, पारसी, ईसाई, बौद्ध और आदिवासी संगठन पहले से ही UCC का विरोध कर रहे हैं.

5 दशकों से पनप रहा डर

AIMPLB का गठन 52 साल पहले समान नागरिक संहिता के गहरे डर के आधार पर हुआ था. यह खौफ आज भी उतना ही प्रबल है जितना तब था.

बोर्ड का गठन संसद में 1972 के दत्तक ग्रहण विधेयक के पेश होने के बाद हुआ था, जिसमें गोद लिए गए बच्चों को विरासत का अधिकार दिया गया था. यह शरिया कानून के विपरीत था और मुसलमानों में व्यापक चिंता का कारण बना, लेकिन इससे भी बड़ी बात यह थी कि तत्कालीन कानून मंत्री एचआर गोखले ने इस विधेयक को किस तरह से परिभाषित किया. उन्होंने इसे यूसीसी की ओर पहला कदम बताया.

मुस्लिम स्कॉलर्स और नेताओं ने इस विधेयक का काफी विरोध किया और फिर दिसंबर 1972 में मुंबई में पर्सनल लॉ सम्मेलन में इस मामले पर चर्चा करने के लिए एक साथ आए. बैठक का समापन AIMPLB के गठन के साथ हुआ.

बहुमत की संस्कृति और कानून हम पर थोपे जा रहे हैं. हमें पर्सनल लॉ के बारे में जागरूकता बढ़ानी होगी

— जलीसा सुल्ताना, AIMPLB की महिला शाखा की संयोजक

कुछ महीने बाद, अप्रैल 1973 में हैदराबाद में एक सम्मेलन में आधिकारिक तौर पर बोर्ड की स्थापना की गई, जिसके पहले अध्यक्ष मौलाना कारी मोहम्मद तैयब थे. AIMPLB के नेतृत्व में मुस्लिम समुदाय के एकजुट होने के बाद, सरकार ने 1978 में गोद लेने के बिल को वापस ले लिया — जो बोर्ड की पहली बड़ी जीत थी.

लेकिन उसी साल एक और चुनौती सामने आई, इस बार समुदाय के भीतर से. अप्रैल 1978 में 62-वर्षीया महिला शाह बानो ने अपने पूर्व पति से गुज़ारा भत्ता के लिए मुकदमा दायर किया, जिसने आपत्ति जताई कि मुस्लिम पर्सनल लॉ इसकी अनुमति नहीं देता है. 1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाह बानो के पक्ष में फैसला सुनाया, जिससे मुसलमानों में तुरंत आक्रोश और विरोध शुरू हो गया. जैसे-जैसे दबाव बढ़ता गया, राजीव गांधी सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के फैसले को रद्द करते हुए विवादास्पद मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम, 1986 पारित किया.

इलियास का दावा है कि शाह बानो पर AIMPLB के रुख के बारे में एक “झूठी कहानी” गढ़ी गई थी.

उन्होंने कहा, “हमने शाह बानो के पति द्वारा उन्हें आजीवन गुज़ारा भत्ता देने का विरोध नहीं किया, लेकिन हमने इसे कानून बनने पर आपत्ति जताई. हम शरिया कानून में हस्तक्षेप करने वाले किसी भी फैसले को स्वीकार नहीं कर सकते. यह हमें स्वीकार्य नहीं.”

Muslim women celebrate after the triple talaq bill was passed in Parliament in 2019 | Photo: Suraj Singh Bisht | ThePrint
2019 में संसद में तीन तलाक बिल पारित होने के बाद मुस्लिम महिलाएं जश्न मनाती हुईं | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

तीन तलाक पर, उन्होंने कहा कि पुरुषों को गलत कानूनी सलाह मिलने के कारण मामले अधिक प्रचलित हुए.

उन्होंने कहा, “वकीलों की वजह से तीन तलाक के मामलों की संख्या बढ़ी. वो किसी को भी तीन तलाक देने की सलाह देते हैं.”

लेकिन शाह बानो से लेकर तीन तलाक संघर्ष तक, महिलाओं के अधिकारों पर बोर्ड के रुख की व्यापक रूप से आलोचना की गई है, जिसे पितृसत्तात्मक और अन्यायपूर्ण बताया गया है और अब अधिक महिलाएं न्याय के लिए अदालतों का दरवाजा खटखटा रही हैं.

जुलाई की शुरुआत में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुनाया कि एक मुस्लिम महिला जिसे तीन तलाक के माध्यम से अवैध रूप से तलाक दिया गया है, वह व्यक्तिगत कानूनों की परवाह किए बिना सीआरपीसी की “धर्म-तटस्थ” धारा 125 के तहत गुज़ारा भत्ता की मांग कर सकती है.

दिल्ली में 14 जुलाई की बैठक में AIMPLB ने अदालत के फैसले को चुनौती देने का संकल्प लिया और अपने अध्यक्ष को “सभी संभव कानूनी, संवैधानिक और लोकतांत्रिक उपाय” लागू करने के लिए अधिकृत किया. उनके तर्क तीन तलाक पर उनकी आपत्तियों को दोहराते हैं — महिलाओं के लिए एक और समस्या.

हालांकि, तीन तलाक की पैरोकार शायरा बानो का अलग दृष्टिकोण था: “हम सभी एक ही देश में रहते हैं, इसलिए सभी के लिए एक ही कानून और न्याय होना महत्वपूर्ण है.”


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बाबरी समिति से लेकर यूसीसी समिति तक

आंतरिक चुनौतियों के अलावा, AIMPLB पर बाहरी दबाव भी बढ़ रहा है.

बाबरी मस्जिद मामले में बोर्ड ने कानूनी लड़ाई को मजबूती से लड़ा, भले ही वह वादी न हो. इसके तत्कालीन सचिव, दिवंगत वकील जफरयाब जिलानी, मुस्लिम पक्ष के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक थे. हिंदू पक्ष के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट के फैसले को स्वीकार करने के बावजूद, बोर्ड इस बात पर अड़ा हुआ है कि यह जगह एक मस्जिद है और कयामत के दिन तक मस्जिद ही रहेगी.

अब, हिंदू संगठन अन्य मस्जिदों पर ऐतिहासिक दावे कर रहे हैं — वाराणसी के ज्ञानवापी से लेकर मथुरा के शाही ईदगाह और मध्य प्रदेश के धार में भोजशाला परिसर तक.

अयोध्या फैसले पर AIMPLB सचिव उस्मानी ने कहा, “बोर्ड ने इस नाजुक समय में अपनी जिम्मेदारी निभाई, जो कोई आसान काम नहीं था. हर दिन मस्जिदों पर दावा करना गलत है. वो हर मस्जिद को दूसरी बाबरी में बदल रहे हैं और हमें उनकी रक्षा करनी है.”

दिवंगत अधिवक्ता जफरयाब जिलानी एआईएमबीएलबी के सचिव और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक थे. मई 2023 में अपनी मृत्यु तक वे एआईएमपीएलबी के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक थे | फोटो: फेसबुक/@Zafaryab Jilani
दिवंगत अधिवक्ता जफरयाब जिलानी एआईएमबीएलबी के सचिव और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के संयोजक थे. मई 2023 में अपनी मृत्यु तक वे एआईएमपीएलबी के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक थे | फोटो: फेसबुक/@Zafaryab Jilani

हालांकि, बोर्ड ने अभी तक इस बात पर चर्चा नहीं की है कि इन मस्जिदों की सुरक्षा के लिए विशेष रूप से एक समिति बनाई जाए या नहीं.

लेकिन यूसीसी के मामले में यह तेज़ी से आगे बढ़ रहा है और इसने सात-सदस्यीय समिति का गठन किया है. 14 जुलाई की बैठक में बोर्ड ने उत्तराखंड के यूसीसी कानून को अदालत में चुनौती देने का संकल्प लिया.

बैठक के बाद फारुकी ने कहा, “संविधान हमें अपने धर्म का पालन करने की पूरी आज़ादी देता है. हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई और अन्य लोग अपने धर्म का पालन कर सकते हैं.”

एआईएमपीएलबी ने अभी तक यह तय नहीं किया है कि अन्य समुदायों के किन हितधारकों को शामिल किया जाए, लेकिन सिख, पारसी, ईसाई, बौद्ध और आदिवासी संगठन पहले से ही यूसीसी का विरोध कर रहे हैं, उनका तर्क है कि यह उनके धर्म का पालन करने और व्यक्तिगत कानूनों का पालन करने के संवैधानिक अधिकार का उल्लंघन करता है.

रहमानी ने कहा कि बोर्ड यूसीसी के खिलाफ उसी तरह लड़ेगा जैसे वो बाबरी मस्जिद और तीन तलाक के खिलाफ लड़ा था.

तैयबा ने बताया कि तीन तलाक की लड़ाई के दौरान, उनका कैलेंडर साल के 365 दिन सामुदायिक जागरूकता कार्यक्रमों से भरा रहता था. एआईएमपीएलबी के भविष्य के लिए वह इसी तरह के समर्पण और एकता की उम्मीद कर रही हैं.

उन्होंने कहा, “समुदाय दमनकारी सरकार और निरक्षरता-गरीबी के बीच फंसा हुआ है. हमें पीक स्थितियों का इंतज़ार नहीं करना चाहिए. यूसीसी का विरोध करना एक साझा चिंता है और हम इस रुख पर एकजुट हैं.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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