फरीदाबाद: हरियाणा के मंगर बानी गांव में साल 2021 में अरावली पर्वत पर चढ़ते हुए सुनील हरसाना ने उपमहाद्वीप में सबसे पुराने पुरापाषाण स्थल की खोज की, जो हज़ारों साल पुराना है. यह पल उनकी ज़िंदगी के साथ-साथ भारतीय इतिहास में भी एक महत्वपूर्ण मोड़ था.
हाथ में एक बांस की छड़ी के साथ खड़े होकर और दिल्ली-हरियाणा बॉर्डर के पास अरावली पर एक रॉक आर्ट मोटिफ, कप्यूल्स की ओर इशारा करते हुए, 35-वर्षीय हरसाना ने कहा, “मैं तेंदुओं पर एक वन्यजीव सर्वेक्षण कर रहा था, जब मेरा सामना पहली बार पुरातत्व से हुआ. तब से, मैंने पुरातत्व के दृष्टिकोण से अरावली का दस्तावेज़ीकरण करना शुरू कर दिया. मेरी खोजों ने भारत के बहुत पुराने इतिहास का पता लगाया है.”
पूरे भारत में शौकिया तौर पर पुरातत्वविदों और खोजकर्ताओं के एक समूह ने केवल जुनून के कारण आश्चर्यजनक खोज की हैं. एक स्कूल शिक्षक, एक मछुआरा, एक इंजीनियर, एक पत्रकार और यहां तक कि एक स्कूल ड्रॉपउआट — इन गुमनाम नायकों ने समृद्ध सांस्कृतिक विरासत को खोजा है और भारत के इतिहास को एक नया रूप दिया है. बिना किसी औपचारिक ट्रेनिंग या फंडिंग के — उन्होंने पश्चिम बंगाल के सुंदरबन, राजस्थान के बूंदी, महाराष्ट्र के कोंकण, हरियाणा की अरावली से लेकर तमिलनाडु के सती मंदिरों और ईलम सिक्कों तक — बीहड़ इलाकों में हिम्मत दिखाई, प्राचीन लिपियों को समझा और छिपे हुए खजानों को उजागर किया.
हरियाणा के सुनील हरसाना, राजस्थान के ओम प्रकाश कुक्की, पश्चिम बंगाल के बिश्वजीत साहू, उत्तर प्रदेश के अमित राय जैन, महाराष्ट्र के सुधीर रिसबुड और तमिलनाडु के वी राजगुरु ने अपनी ज़िंदगी के अहम साल इस उद्देश्य के लिए समर्पित किए हैं. आखिरकार, उन्हें अब कुछ मान्यता मिल रही है.
सार्वजनिक पुरातत्व पर चार दिवसीय राष्ट्रीय सम्मेलन जिसका शीर्षक ‘Archaeology Beyond Academics and Administration’ है, दिसंबर में रत्नागिरी में आयोजित होने वाला है. कोंकण जियोग्लिफ्स और हेरिटेज रिसर्च सेंटर द्वारा आयोजित किया जाने वाला यह पहला ऐसा सम्मेलन होगा जिसमें पुरातत्वविदों, नागरिक शोधकर्ताओं और स्थानीय समुदायों को एक साथ लाया जाएगा.
सम्मेलन के विज्ञापन में लिखा है, “यह देखने का मौका है कि कैसे आम नागरिक हमारी विरासत को संरक्षित करने में असाधारण भूमिका निभा सकते हैं.”
एएसआई की अधीक्षक पुरातत्वविद् शुभ मजूमदार ने कहा, “आंतरिक क्षेत्रों में काम करने वाले ये लोग एएसआई तक पहुंचने से पहले चीज़ों को खोजने वाले पहले व्यक्ति होते हैं.”
हम वह कर रहे हैं जो एएसआई नहीं कर पा रहा है. हम स्थानीय स्तर पर एएसआई को संसाधन उपलब्ध कराते हैं और इसी वजह से सिनौली जैसी खोजें दुनिया के सामने आईं, जिसने भारत के इतिहास को बदल दिया
—अमित राय जैन, उत्तर प्रदेश के इतिहास प्रेमी
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सुंदरबन के एक मछुआरे, एक शौकिया स्कूल शिक्षक
पश्चिम बंगाल के सुंदरबन में 57-वर्षीय मछुआरे बिश्वजीत साहू का घर किसी म्यूज़ियम जैसा है. पांच कमरों में से तीन में 10 हज़ार से ज़्यादा कलाकृतियां हैं, जैसे पत्थर के औज़ार, टेराकोटा की चीज़ें और मिट्टी के बर्तन, जिन्हें उन्होंने 40 सालों से मछली पकड़ते हुए इकट्ठा किया था.
सुंदरबन के गोबरधनपुर इलाके में जन्मे साहू के कलाकृतियां इकट्ठा करने के जुनून ने 16 साल की उम्र में नया मोड़ लिया. अपेंडिसाइटिस के इलाज के लिए कोलकाता के एक अस्पताल में जाने के बाद वे पास के भारतीय संग्रहालय पहुंचे, जहां उन्हें ऐसी चीज़ें मिलीं, जो मछली पकड़ते समय उन्होंने देखी थीं. सुंदरबन लौटने पर, उन्होंने सक्रिय रूप से ऐसे सामान की तलाश शुरू कर दी. उन्हें उनके महत्व और मूल्य का एहसास हो गया था.
चार दशक बाद, उनका घर एक ज़रूरी कलेक्शन प्वाईंट है, जहां प्रोफेसर, पुरातत्वविद और इतिहासकार आते हैं. साहू एक विजिटर्स डायरी रखते हैं. उन्होंने अपने घर को म्यूज़ियम के रूप में रजिस्ट्रेशन भी कराया — गोबरधनपुर सुंदरबन प्रार्थना संग्रह शाला.
कलकत्ता विश्वविद्यालय में प्राचीन भारत इतिहास और संस्कृति विभाग के प्रोफेसर तपन कुमार दास ने कहा, “साहू ने कई मूल्यवान पुरातात्विक कलाकृतियां एकत्र कीं, मुख्य रूप से धानची द्वीप से. उनकी फाइडिंग्स तटीय बंगाल के साथ-साथ पूर्वी भारत के प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.”
दास ने नवंबर 2015 में पहली बार साहू से मुलाकात की थी.
2016 में एएसआई के पूर्व क्षेत्रीय निदेशक (पूर्वी क्षेत्र) पीके मिश्रा अपनी टीम के साथ सुंदरबन गए थे और संयोग से मछुआरे से मुलाकात की. मिश्रा ने केंद्र सरकार को 35 पन्नों की रिपोर्ट सौंपी और डेल्टा में सात स्थलों की पहचान करने के बाद एक्सप्लोरेशन की अनुमति मांगी, जो इस बात के प्रमाण हैं कि इस क्षेत्र का इतिहास मौर्य काल से जुड़ा है.
दास के अनुसार, साहू के कलेक्शन से पता चलता है कि सुंदरबन में मानव बस्ती मेसोलिथिक या नवपाषाण काल से चली आ रही है. उनकी खोजों में मौर्य काल (321-185 ईसा पूर्व) के संकेत देने वाले ब्राह्मी शिलालेख, टेराकोटा आकृतियां, हड्डी से बने औज़ार, मनके, मुहरें, मूर्तियां आदि शामिल हैं.
एएसआई ने अनौपचारिक रूप से सुंदरबन में लगभग 20 स्थलों की पहचान की है, लेकिन अभी तक कोई विस्तृत एक्सप्लोरेशन नहीं हुआ है. साहू का काम ब्रिटिश साम्राज्य द्वारा मुख्यधारा में आने से बहुत पहले के क्षेत्र के इतिहास को समझने में मदद करता है.
तमिलनाडु के रामनाथपुरम जिले के वी राजगुरु को पुरातत्व में कोई औपचारिक ट्रेनिंग नहीं मिली है, लेकिन इस सरकारी स्कूल के शिक्षक ने अपने जिले को राज्य के पुरातात्विक मानचित्र पर ला खड़ा किया है.
2010 में डीएमके सरकार ने स्कूलों में हेरिटेज क्लब बनाने की घोषणा की. जब राजगुरु ने छात्रों को शिक्षित करने के लिए स्थानीय विषय की खोज की, तो उन्हें कुछ भी नहीं मिला. उन्होंने कहा, “इस वजह से मैंने अपने छात्रों की मदद से पुरातात्विक खोज शुरू की, पुरातात्विक निशान, सिक्के और शिलालेखों की तलाश की.” 2015 में उनकी टीम ने सती मंदिरों और राजराजा चोल प्रथम द्वारा जारी किए गए ईलम सिक्कों की खोज की. 2016 में उन्हें नौवीं शताब्दी का एक जैन मंदिर मिला, जिसमें जैन धर्म के 23वें तीर्थंकर पार्श्वनाथ की मूर्तियां और नक्काशीदार पत्थर की छवियां थीं.
उन्होंने कहा, “अब तक मुझे 100 से ज़्यादा नए शिलालेख मिले हैं, जिनमें रामनाथपुरम के पास एक आराधनालय का शिलालेख भी शामिल है.”
राजगुरु के अनुसार, आराधनालय शिलालेख भारत में पहली बार मिला है, जो भारत में रहने वाले यहूदियों के बारे में जानने का एक स्रोत है.
उन्होंने कहा, “जब यह शिलालेख मिला, तो यह पूरे इज़रायल तक पहुंचा और दुनिया भर में इसका ध्यान गया, जिससे मुझे बहुत खुशी हुई.”
उन्होंने आगे कहा कि उन्हें एएसआई से कोई समर्थन नहीं मिला.
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कोंकण जियोग्लिफ्स और पुरातत्व मानचित्र पर पश्चिम उत्तर प्रदेश
1980 के दशक के अंत में सुधीर रिसबुड, जो अब एक इंजीनियर और उत्साही बर्ड वॉचर हैं, ने रत्नागिरी में विभिन्न स्थलों पर फैली चट्टानों पर पैटर्न को पहली बार देखा. उन्हें इस बात का बिल्कुल भी अंदाज़ा नहीं था कि वे 10,000 साल पुराने जियोग्लिफ्स (भू-आकृति) देख रहे हैं.
यूनेस्को ने जियोग्लिफ्स को “पृथ्वी की सतह पर चट्टानों, चट्टानों के टुकड़ों को व्यवस्थित करके या फिर किसी डिज़ाइन को बनाने के लिए चट्टान की सतह के किसी हिस्से को काटकर या हटाकर बनाई गई चट्टान कला” के रूप में वर्णित किया है.
2010 में रिसबुड ने एडगलनावरचे कोंकण (अनएक्सप्लोर्ड कोंकण) नामक एक ग्रुप बनाया, लेकिन असली यात्रा 2012 में स्थानीय लोगों की मदद से शुरू हुई. 2015 में उनकी मुलाकात बारसु सदा में 80-वर्षीय एक चरवाहे से हुई जिन्होंने उन्हें जियोग्लिफ्स खोजने में मदद की.
रिसबुड ने कहा, “हमने उस जगह पर 42 आकृतियां खोजी और ये चीज़ें पहली बार दुनिया के सामने आ रही थीं.” उनकी टीम ने अब तक कोंकण के 250 स्थलों पर 2,500 से ज़्यादा भू-आकृतियां खोजी हैं.
रिसबुड ने कहा, “ये हमारी विरासत हैं, इसलिए इन्हें संरक्षित करना महत्वपूर्ण होने के साथ-साथ चुनौतीपूर्ण भी है.”
2017 में राज्य पुरातत्व विभाग ने इन स्थलों की खोज शुरू की और इस साल अगस्त में महाराष्ट्र सरकार ने महाराष्ट्र प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल और अवशेष अधिनियम 1960 के तहत रत्नागिरी में छह जियोग्लिफ्स साइट्स को संरक्षित स्मारक घोषित किया.
रिसबुड ने कहा कि केवल प्राइड और पैसा (पर्यटन के ज़रिए पैसा) ही विरासत को बचा सकता है. उन्होंने कहा, “इन जियोग्लिफ्स को देखने के लिए 2 लाख से अधिक पर्यटक आ रहे हैं.” उन्होंने कहा कि यह संपूर्ण मानव जाति की खोज है.
“यह इतिहास में अलग पन्नों में दर्ज होने जा रहा है क्योंकि भू-आकृतियों का पैमाना अद्वितीय है, इस आकार की कोई भी चीज़ कहीं और नहीं मिली है.”
रिसबुड Public Archaeology पर आगामी सम्मेलन के कन्वेनर भी हैं. कार्यक्रम के एक कॉन्सेप्ट नोट में लिखा है, “भारतीय पुरातत्व में कुछ सबसे उल्लेखनीय खोजें ऐसे व्यक्तियों द्वारा की गई हैं, जिन्हें इस क्षेत्र में औपचारिक रूप से प्रशिक्षित नहीं किया गया है.”
हालांकि, रिसबुड की रुचि जियोग्लिफ्स में है, लेकिन 46-वर्षीय अमित राय जैन के लिए महाभारत स्थल पर अधिक जानकारी प्राप्त करना मिशन है.
जैन का दावा है कि उनकी खोजों ने पश्चिमी यूपी की संस्कृति और इतिहास पर प्रकाश डाला है. 1994 में उन्होंने बड़ौत में शहजाद राय शोध संस्थान की स्थापना की, जो बागपत में 13,000 मूल्यवान पांडुलिपियों और प्राचीन सिक्कों का भंडार है. उन्होंने इस क्षेत्र के दो महत्वपूर्ण उत्खननों — सिनौली और लाक्षागृह में योगदान दिया.
जैन ने कहा कि संस्कृति मंत्री और एएसआई अधिकारियों के सामने कई वर्षों तक गुहार लगाने के बाद, एएसआई ने 2018 में बरनावा में खुदाई शुरू की, जो कि किंवदंती के अनुसार, महाभारत में वर्णित लाक्षागृह का स्थल है. उत्खनन रिपोर्ट अभी प्रकाशित नहीं हुई है, लेकिन जैन का दावा है कि यहां का सांस्कृतिक क्रम वैसा ही है जैसा कि बीबी लाल ने 1951-52 में हस्तिनापुर में उत्खनन के दौरान पाया था.
20 से अधिक किताबें लिख चुके और पांच विषयों में मास्टर डिग्री रखने वाले जैन ने कहा, “हम वह कर रहे हैं जो एएसआई नहीं कर पा रहा है. हम स्थानीय स्तर पर एएसआई को संसाधन उपलब्ध कराते हैं और इसी वजह से सिनौली जैसी खोजें दुनिया के सामने आईं, जिसने भारत का इतिहास बदल दिया.”
पुरातत्व प्रेमी ने बताया कि उनके संस्थान में मौजूद पांडुलिपियों, सिक्कों और कलाकृतियों के संग्रह पर 80 से अधिक लोगों ने शोध किया है और वर्तमान में करीब 13 हज़ार पांडुलिपियों का डिजिटलीकरण किया जा रहा है.
डिस्कवरी चैनल अपने हिस्ट्री हंटर कार्यक्रम में जैन के योगदान पर एक घंटे का एपिसोड बना रहा है.
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अरावली हिल्स और कैव पेंटिंग
अरावली अपने पुरातात्विक महत्व और दिल्ली से निकटता के बावजूद दशकों से अछूती है, जहां सभी शीर्ष एएसआई अधिकारी बैठते हैं. हरियाणा को हमेशा हड़प्पा सभ्यता की भूमि कहा जाता रहा है, लेकिन अब इससे भी पहले के समय के साक्ष्य सामने आ रहे हैं.
वन और पुरातत्व जगत में मंगर बानी के संरक्षक के नाम से प्रसिद्ध हरसाना ने कहा कि अगर मई 2021 में भारतीय वन्यजीव क्लब द्वारा एक वीडियो नहीं बनाया गया होता, तो यह अछूती रहती — उनके निष्कर्षों के ठीक एक महीने बाद. वीडियो पर 2,000 से भी कम व्यूज़ हैं, लेकिन इसका प्रभाव बहुत बड़ा है.
हरसाना ने YouTube पर वीडियो दिखाते हुए कहा, “उस वीडियो ने सब कुछ बदल दिया. उसके कारण, एएसआई ने पहली बार इन स्थलों पर ध्यान दिया और तब से, आधा दर्जन बार अधिकारियों ने इस स्थल का दौरा किया और इसका दस्तावेज़ीकरण किया.”
हरसाना के पास पत्रकारिता में ग्रेजुएशन की डिग्री है, लेकिन उन्होंने इसे कभी इसे पेशे के रूप में नहीं अपनाया. वे बच्चों को अरावली की जैव विविधता के बारे में पढ़ाने के लिए एक इको-क्लब चलाते हैं. उनकी पुरातात्विक खोज जारी है और इन स्थलों का विस्तृत अध्ययन और संरक्षण करवाने के लिए संघर्ष भी जारी है क्योंकि इनमें से कई खुले स्थान हैं. अरावली मंगर बानी स्थल पर शोध का प्रस्ताव 2021 से स्वीकृति के लिए लंबित है.
हरसाना ने अवैध खनन और विकास से क्षेत्र के संरक्षण के लिए एक दशक से अधिक समय तक काम किया है. प्रागैतिहासिक मूर्तियों, जानवरों और पर्णसमूह का संरक्षण उनका अगला लक्ष्य है और हरसाना खुद को इस काम के लिए तैयार करना चाहते हैं. वे अब इग्नू से ह्यूमन साइंस में डिग्री हासिल कर रहे हैं.
राजस्थान का बूंदी फरीदाबाद से 400 किमी दूर है और चंबल नदी के किनारे अरावली पहाड़ियों से घिरा हुआ है. यह कई प्रागैतिहासिक स्थलों का घर है.
69-वर्षीय हलवाई से शौकिया पुरातत्वविद् बने ओम प्रकाश कुक्की ने राजस्थान के हड़ौती क्षेत्र में 100 से अधिक रॉक पेंटिंग साइट्स की खोज की. उनकी यात्रा 1980 के दशक में सिक्कों की खोज से शुरू हुई और आज भी जारी है. हालांकि, एएसआई की ओर से इन साइट्स के संरक्षण के लिए कोई प्रयास नहीं किया जा रहा है.
ऐसे लोगों को मान्यता देना खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि कई बार ऐसे लोग कलाकृतियों की तस्करी में भी शामिल पाए जाते हैं. इसलिए एएसआई इनसे दूरी बनाए रखता है, लेकिन इनकी गतिविधियों पर नज़र रखता है
— एएसआई अधिकारी, नई दिल्ली
स्कूल छोड़ने वाले कुक्की ने लगभग 40 किलोमीटर के दायरे में सबसे लंबे समय तक चलने वाली रॉक पेंटिंग साइट की खोज की. अपनी खोज में, उन्हें शुतुरमुर्ग के अंडे के छिलके, ताम्र युग के टीले और पत्थर के औज़ार भी मिले हैं. उन्होंने अधिकांश कलाकृतियां कोटा, जयपुर और बूंदी संग्रहालयों को दान कर दीं और उनकी शिकायत है कि उन्हें बूंदी के अलावा कहीं भी क्रेडिट नहीं दिया गया.
अक्टूबर 1997 में तीन साल की खोज के बाद रामेश्वर महादेव क्षेत्र में रॉक पेंटिंग की अपनी पहली खोज को याद करते हुए कुक्की ने कहा, “1995 के बाद मेरे द्वारा खोजी गई रॉक पेंटिंग ताम्रपाषाण, नवपाषाण और मध्यपाषाण काल की हैं.” रामेश्वर महादेव क्षेत्र बूंदी से 16 किमी दूर है.
कुक्की को 1998 में जिला स्तर पर सम्मानित किया गया था.
फेसबुक पर खुद को फ्रीलांस पुरातत्वविद् कहने वाले कुक्की ने कहा, “मैंने यायावरी (खानाबदोश) में सब कुछ खोजा है. बचपन से ही मुझे खंडहर और सुनसान जगहें पसंद हैं. जब भी मुझे मौका मिलता है, मैं नई खोज के लिए निकल पड़ता हूं.” लेकिन कुक्की के लिए यह आसान रास्ता नहीं रहा. कई बार उन्हें अरावली में माफियाओं का सामना करना पड़ा है.
वे प्रोफेसरों, पुरातत्वविदों, इतिहासकारों, प्राणीशास्त्रियों, यूट्यूबर्स और यहां आने वाले पर्यटकों के मार्गदर्शक हैं, जिनकी कैव पेंटिंग में रुचि उन्हें बूंदी खींच लाती है. दिसंबर 2023 में ट्रैवल व्लॉगर हरीश बाली ने कुक्की की विशेषता वाली बूंदी की रॉक पेंटिंग पर एक वीडियो बनाया. इसे 176,000 बार देखा गया.
कुक्की ने कहा, “इस तरह मैं अपना शौक पूरा करता हूं और कुछ पैसे भी कमाता हूं.” उन्होंने आगे बताया कि पिछले चार दशकों से वे लगातार दुनिया भर में पुरातत्व संबंधी सामग्री पढ़ते रहे हैं, खास तौर पर रॉक कैप पेंटिंग के बारे में. उन्होंने कहा, “कोई मां के पेट से नहीं सीखता। मैंने प्रकृति से सीखा है.”
कुक्की ने 2000 की शुरुआत में ऑस्ट्रिया स्थित रॉक पेंटिंग विशेषज्ञ एर्विन न्यूमेयर की यात्रा को याद किया. कुक्की ने कहा, “वे डेक्कन कॉलेज से मेरे बारे में जानते थे और मैं उन्हें अपने बजाज 150 स्कूटर पर सभी जगहों पर ले गया. 90 के दशक के मध्य में प्रकाशित उनकी प्रसिद्ध किताब Lines on the Stone ने मुझे रॉक पेंटिंग के बारे में बहुत अच्छी समझ दी.”
लेकिन कुक्की की सबसे प्रशंसनीय खोज पंच-वृष्णि वीरों की एक पेंटिंग है, जिसे उन्होंने 1999 में खोजा था. पिछले साल एएसआई के जयपुर सर्कल के अधीक्षक पुरातत्वविद् विनय गुप्ता ने आखिरकार उन्हें मान्यता दी.
गुप्ता ने कहा, “जब मैंने फेसबुक पर वह फोटो देखी, तो मुझे तुरंत इसका महत्व समझ में आ गया, जिसे कुक्की ने दो दशकों तक नहीं समझा था.” गुप्ता ने Vṛṣṇis in Ancient Art and Literature शोधपत्र लिखने से पहले कुक्की के साथ उस जगह का दौरा किया था. गुप्ता ने अपने शोधपत्र में कुक्की को मान्यता दी और उन्हें पुरातत्व के प्रति उत्साही बताया.
महाभारत में वृष्णि सबसे महत्वपूर्ण समूहों में से एक है और वृष्णि वह वंश है जिसमें महाकाव्य के सबसे प्रसिद्ध पात्र वासुदेव-कृष्ण का जन्म हुआ था.
हालांकि, अनुभवी पुरातत्वविद् डीवी शर्मा पुरातत्वविद् कौन है और कौन नहीं, इस बारे में एक विशेष दृष्टिकोण रखते हैं.
शर्मा ने कहा, “पुरातत्व एक फील्ड ट्रेनिंग पेशा है और कुक्की और जैन जैसे लोगों को इस श्रेणी में नहीं रखा जा सकता. कुक्की बहुत जानकार हैं, लेकिन वे अपनी खोजों की विशेषताओं को नहीं बता सकते हैं.”
उन्होंने कहा कि उन्हें “संग्रहकर्ता” या “खोजकर्ता” कहना अधिक उपयुक्त होगा.
हालांकि, गुप्ता ने कहा कि सभी बड़ी खोजें परिपक्व या कुशल पुरातत्वविदों द्वारा नहीं की जाती हैं. “अक्सर इन लोगों को श्रेय नहीं मिलता है जो गलत है”.
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सीमित मान्यता, कोई औपचारिक व्यवस्था नहीं
इस साल जुलाई में हरियाणा के पुरातत्व विभाग ने हमारा हरियाणा: प्रागैतिहासिक काल नामक एक कॉमिक बुक प्रकाशित की. किताब के नायक हरसाना हैं जो दो बच्चों को पुरातत्व सिखाते हैं.
हरियाणा के पुरातत्व एवं संग्रहालय विभाग की उप-निदेशक बनानी भट्टाचार्य ने किताब में लिखा है, “वे फरीदाबाद और गुरुग्राम के जंगलों के लिए एक योद्धा की तरह रहे हैं. उनकी वजह से ही आज 500 से अधिक प्रागैतिहासिक स्थल हैं, जिनका दस्तावेज़ीकरण किया जा चुका है.”
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र ने भी हिंदी में एक किताब — फरीदाबाद जिले की रॉक कला का परिचय — प्रकाशित की है और हरसाना को सह-लेखक बनाया गया है.
सुंदरबन के इतिहास पर प्रकाश डालने वाले पुरातात्विक अवशेषों के विशाल संग्रह के लिए साहू को 2017 में एएसआई के कोलकाता सर्कल से उत्कृष्टता का प्रशस्ति पत्र भी मिला.
जबकि कुक्की का काम पिछले कुछ वर्षों में राजस्थान में विभिन्न प्रतियोगी परीक्षाओं का हिस्सा बन गया है. इतिहास के शौकीन को बूंदी के गजेटियर में श्रेय दिया गया और अक्सर सेमिनारों में आमंत्रित किया जाता है, लेकिन कुक्की ने याद किया कि उन्हें बूंदी संग्रहालय को कलाकृति देने का श्रेय पाने के लिए कई सालों तक संघर्ष करना पड़ा और तब जाकर 2017 में उनका नाम छोटे अक्षरों में लिखा गया.
2017 में राजगुरु को थंगम थेन्नारसु द्वारा संरक्षित पांड्या नाडु सेंटर फॉर हिस्टोरिकल रिसर्च की ओर से यंग आर्कियोलॉजिस्ट अवार्ड और 25,000 रुपये का नकद पुरस्कार दिया गया.
लेकिन सभी शौकिया पुरातत्वविदों को मान्यता नहीं मिलती. कुक्की ने कहा, “प्रोफेसर और पुरातत्वविद् मुझसे जानकारी लेते हैं और मुझे श्रेय दिए बिना चले जाते हैं.”
एएसआई के अनुसार, इन पुरातत्व खोजकर्ताओं की संख्या सीमित है और उन्हें एकीकृत करने वाला कोई आधिकारिक समूह नहीं है. एएसआई के मन में अपना डर है.
दिल्ली में एएसआई के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “ऐसे लोगों को मान्यता देना खतरनाक साबित हो सकता है क्योंकि कई बार ऐसे लोग कलाकृतियों की तस्करी में भी शामिल पाए जाते हैं. इसलिए एएसआई उनसे दूरी बनाए रखता है लेकिन उनकी गतिविधियों पर नज़र रखता है.”
लेकिन कुक्की ने एक पुराने हिंदी गीत के बोलों का उपयोग करके अपनी यात्रा का सारांश दिया: “जाते थे जापान पहुंच गए चीन समझ गए ना” — उन्होंने पुरातत्व के लिए कभी योजना नहीं बनाई थी, लेकिन किस्मत उन्हें यहां ले आई.
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