नई दिल्ली: एक मंदी रोशनी वाले, खचाखच भरे हॉल में, स्क्रीन पर एक वीडियो चल रहा था. एक युवा दर्शकों से बात कर रहा था और एक उदाहरण दे रहा था—अगर एक ओलंपियन और एक नौसिखिया एक ही स्थान से दौड़ शुरू करें, तो नतीजा पहले से ही तय होगा. समान अवसर सुनिश्चित करने के लिए जरूरी है कि नौसिखिया खिलाड़ी को कुछ आगे से शुरूआत करे. यही असली समानता पाने का एकमात्र तरीका है.
इस वीडियो ने देश के दूसरे सबसे बड़े धार्मिक समुदाय और मोदी सरकार की सबका साथ, सबका विकास नीति पर चर्चा की शुरुआत की.
“मुस्लिम समुदायों के सापेक्ष हाशिए पर होने को मापने के लिए एक धर्मनिरपेक्ष मानदंड की जरूरत है, ताकि उन्हें मौजूदा आरक्षण व्यवस्था में समायोजित किया जा सके,” पॉलिसी पर्सपेक्टिव फाउंडेशन की एसोसिएट रिसर्च फेलो नाज़िमा परवीन ने कहा. वह Affirmative Action for Muslims in Contemporary India (समकालीन भारत में मुसलमानों के लिए सकारात्मक कार्रवाई) नामक रिपोर्ट के लॉन्च कार्यक्रम में बोल रही थीं.
इस रिपोर्ट को सेंटर फॉर डेवलपमेंट पॉलिसी एंड प्रैक्टिस (CDPP) ने रिलीज़ किया है, जो 2014 के बाद भारत में कल्याणकारी नीतियों का अध्ययन करती है. इसे हिलाल अहमद (सहायक प्रोफेसर, सेंटर फॉर दि स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसाइटीज), मोहम्मद संजीर आलम (एसोसिएट प्रोफेसर, सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डिवेलपिंग सोसाइटीज) और नाज़िमा परवीन ने लिखा है. रिपोर्ट में मुस्लिम समुदायों के सामाजिक समावेशन और हाशिए पर जाने की गहरी पड़ताल की गई है.
इंडिया इंटरनेशनल सेंटर में हुए इस लॉन्च इवेंट के बाद एक पैनल चर्चा आयोजित की गई, जिसमें जेएनयू के प्रोफेसर अमिताभ कुंडू, स्वराज अभियान के संस्थापक सदस्य योगेंद्र यादव, लेखक और वरिष्ठ पत्रकार ग़ज़ाला वहाब, और पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की कार्यकारी निदेशक पूनम मुत्तरेजा शामिल थीं.
मुसलमानों की स्थिति पर रिपोर्ट के आंकड़ों के आधार पर प्रोफेसर अमिताभ कुंडू ने शिक्षा और रोजगार के पैमानों पर मुसलमानों की तुलना हिंदुओं, अनुसूचित जातियों (SC), अनुसूचित जनजातियों (ST) और अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) से की. 2013 में सच्चर कमेटी की सिफारिशों को लागू का आकलन करने वाली समिति के अध्यक्ष के रूप में काम करने वाले कुंडू ने मुसलमानों के साथ होने वाले भेदभाव पर विशेष ध्यान दिया.
कुंडू ने कहा, “इनइक्वलिटी (गैरबराबरी) और इक्विटी दो अलग चीजें हैं, लेकिन भेदभाव एक वास्तविकता है, जिसे हमने इस रिपोर्ट में मापने की कोशिश की है.”
उन्होंने भेदभाव को परिभाषित करते हुए बताया कि यह अलग-अलग रूपों में सामने आता है, जैसे असमान रोजगार के अवसर या वेतन में अंतर. हालांकि, ये अंतरशिक्षा या अनुभव के आधार पर भी हो सकते हैं. लेकिन असली भेदभाव को पहचानने के लिए एक ही शिक्षा और अनुभव वाले व्यक्तियों की तुलना करनी होगी और फिर उनकी आय या संपत्ति में अंतर को मापना होगा. कुंडू ने कहा कि इन अंतरालों को देखकर साफ पता चलता है कि मुसलमानों के साथ भेदभाव एक कड़वी सच्चाई है.
मुसलमान और मिथक
कुंडू ने प्रोजेक्टर पर स्लाइड बदली, और अधिक संख्याएं दिखाईं. सावधानी से, उन्होंने सभी का ध्यान एक टेबल की ओर आकर्षित किया. उस पर उसमें “कभी नामांकन नहीं कराया” (महिला-पुरुष का अंतर) के आंकड़े थे. हिंदुओं के लिए, 5.83 प्रतिशत, मुसलमानों के लिए, 4.97 प्रतिशत और ईसाइयों के लिए, 0.85 प्रतिशत. वर्तमान में उपस्थित होने वाले (पुरुष-महिला) के लिए, अंतर है: हिंदू – 4.99 प्रतिशत, मुस्लिम – 5.32 प्रतिशत और ईसाई – 1.29 प्रतिशत. उन्होंने इन नंबरों का इस्तिमाल इस मिथक का खंडन करने के लिए किया कि मुसलमान महिलाओं को शिक्षा प्राप्त करने की अनुमति नहीं देते हैं.