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गुरूवार, 5 जून, 2025
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इलाहाबाद हाई कोर्ट में कुछ तो गड़बड़ है और हर कोई इस बारे में जानना चाहता है

इलाहाबाद हाई कोर्ट द्वारा दिए गए कई संदिग्ध आदेशों ने सुप्रीम कोर्ट को नाराज़ कर दिया है. महिला अधिकार संगठन खफा हैं. वकील इसके पीछे के कारण की तलाश में लगे हैं.

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प्रयागराज: उत्तर प्रदेश के कासगंज में 18 साल की एक लड़की के लिए सड़क पर चलना एक बुरा सपना है. जब वे बाहर निकलती हैं, तो लोग उनका मज़ाक उड़ाते हैं और उन पर हंसते हैं, जबकि उनके अपराधी खुलेआम घूम रहे हैं और उन्हें डराते-धमकाते रहते हैं. चार साल पहले, इस ओबीसी लड़की पर उनके गांव के ऊंची जाति के लोगों ने हमला किया था, जिन्होंने कथित तौर पर उनके स्तनों को छुआ और राहगीरों द्वारा रोके जाने से पहले उनके पायजामे की डोरी तोड़ दी थी. लड़की ने न्याय की मांग की, लेकिन इलाहाबाद हाई कोर्ट में जो हुआ, उसने उनकी हिम्मत तोड़ दी.

न्यायाधीश को इस बात में कोई दिलचस्पी नहीं थी कि क्या हुआ; इसके बजाय उन्होंने तौर-तरीकों पर ध्यान केंद्रित किया — क्या पायजामा नीचे खींचा गया था? क्या पेनिट्रेशन हुआ था?

कोर्ट के अनुसार, लड़की के स्तनों को पकड़ना, उनके पायजामे की डोरी तोड़ना और उन्हें गटर में खींचने की कोशिश करना उनके अपराधियों पर बलात्कार का आरोप लगाने के लिए काफी नहीं था.

न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने 17 मार्च को फैसला सुनाया था, “पीड़िता पर बलात्कार करने की उनकी कथित इच्छा को बढ़ावा देने के लिए उनके (आरोपी) द्वारा कोई अन्य कार्य नहीं किया गया.” इस फैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी थी क्योंकि उसने इसे “कानून के सिद्धांतों से पूरी तरह से अनभिज्ञ” और साथ ही “असंवेदनशील और अमानवीय” बताया था.

इलाहाबाद हाई कोर्ट ने हाल ही में बहुत से लोगों को निराश किया है. कई संदिग्ध आदेशों ने सुप्रीम कोर्ट को भी नाराज़ कर दिया है. शहर के कानून के छात्र निराश हैं और महिला अधिकार संगठन खफा हैं. वकील इसके पीछे के कारणों की तलाश में लगे हैं और हर कोई — सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीशों सहित — पूछ रहा है: इलाहाबाद हाई कोर्ट में आखिर हो क्या रहा है?

कई लोगों के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट अब अपने गौरवशाली अतीत की एक फीकी और दुर्भाग्यपूर्ण छाया मात्र रह गया है. 159 साल पुराने इस कोर्ट की एक अलग ही प्रतिष्ठा है. मोतीलाल नेहरू ने यहीं वकालत की थी. सुप्रीम कोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़, तेज बहादुर सप्रू और मार्कंडेय काटजू ने यहां सेवा की. एक ऐसी कोर्ट जिसके पास कभी प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की सरकार गिराने की शक्ति थी, आज अपने वकीलों और वादियों में उतना भरोसा नहीं करता. वास्तव में, इसके अजीबोगरीब और प्रतिगामी फैसले आज भारतीय न्यायालयों में बार गपशप का विषय बन गए हैं.

बलात्कार पीड़िताओं पर यह आरोप लगाने से कि “उसने खुद मुसीबत को आमंत्रित किया” से लेकर यह दावा करने तक कि “वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि गाय एकमात्र ऐसा जानवर है जो ऑक्सीजन लेती है और छोड़ती भी है” ज़मानत आदेशों में और यहां तक ​​कि कमज़ोर जोड़ों को “समाज का सामना करने” और सुरक्षा के लिए अदालत का दरवाजा न खटखटाने के लिए कहना, कुछ आदेशों की भाषा अदालत की न्याय वितरण प्रणाली में विश्वास पैदा करने में विफल रही.

हाई कोर्ट के अंदर भी बेचैनी साफ देखी जा सकती है. वकील भारत के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश के इस प्राथमिक न्यायालय में भाई-भतीजावाद, दिल्ली-आयात और पक्षपात और एक प्रमुख उच्च-जाति, भाई-संस्कृति के बारे में फुसफुसाते हैं. इससे भी बुरी बात यह है कि इस न्यायालय में लंबित मामले और रिक्तियां भारत में सबसे अधिक हैं.

एक पूर्व न्यायाधीश ने कहा, “क्या एक दिन में 15,000 मामलों पर फैसला करने में सक्षम होना मानवीय कार्य है? क्या आप जानते हैं कि यह कितना दबाव है?”

इलाहाबाद हाई कोर्ट देश का चौथा सबसे पुराना और देश का सबसे बड़ा कोर्ट है. प्रयागराज में 64 और लखनऊ पीठ में 23 जज हैं. यह देश का सबसे अधिक बोझ वाला न्यायालय है, जहां प्रत्येक न्यायाधीश पर औसतन प्रतिदिन 15,000 से अधिक मामलों की सुनवाई का बोझ है. इंडिया जस्टिस रिपोर्ट 2025 के अनुसार, 50.6 प्रतिशत के साथ, इलाहाबाद हाई कोर्ट में रिक्तियां सबसे अधिक हैं. न्यायालय की केस निपटान दर वर्तमान में सबसे खराब है, जो मात्र 78 प्रतिशत है. इसी रिपोर्ट के अनुसार, यह 2022 में दर्ज 102 प्रतिशत केस निपटान दर से गिर गई है.

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता राजीव धवन ने कहा, “न्यायाधीशों की बड़ी संख्या और वकीलों की विशाल सेना के साथ इलाहाबाद हाई कोर्ट में अन्य न्यायालयों के विपरीत सामंजस्य की कमी है. जाति, धर्म और कट्टरवाद ने न्यायिक नियुक्तियों में बड़ी भूमिका निभाई है, जिसके लिए हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम जिम्मेदार हैं.”

उन्होंने कहा, “प्रेरित वादियों और वकीलों की वजह से, जिन पर न्यायाधीशों का विशेष ध्यान होता है, समस्या और भी गंभीर हो जाती है और कई फैसले लिए जाते हैं. एक महान न्यायालय ने अपनी प्रतिष्ठा और प्रभावशीलता खो दी है.”

इलाहाबाद हाई कोर्ट में लाइब्रेरी | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
इलाहाबाद हाई कोर्ट में लाइब्रेरी | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

संदिग्ध फैसले

पीड़िता ने कहा, “अगर आज के दौर में एक महिला को कोर्ट में इस तरह से अपमानित किया जाता है, तो न्याय देने की व्यवस्था का क्या मतलब है?”

2021 के नवंबर की एक ठंडी शाम को, आशा देवी अपनी बेटी के साथ घर जा रही थीं, जब दो ग्रामीणों ने उनकी 14 साल की बेटी को अपनी बाइक पर लिफ्ट देने की पेशकश की. आशा सहमत हो गई, लेकिन वह लोग नाबालिग को घर नहीं ले गए. इसके बजाय, बेटी के साथ उन दोनों ने छेड़छाड़ की, जिन्होंने उनके स्तनों को पकड़ा और कथित तौर पर उनके पायजामे की डोरी तोड़कर उन्हें एक पुलिया के नीचे ले जाने की कोशिश की.

ये डोरी इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले से मेल खाती है और यही बात देश में कई लोगों को चौंका गई.

एक पुनरीक्षण याचिका पर सुनवाई करते हुए न्यायमूर्ति राम मनोहर नारायण मिश्रा ने कहा था कि गवाहों के हस्तक्षेप के कारण, अभियुक्त ने लड़की के ‘निचले वस्त्र’ को नीचे करने की कोशिश की और उसकी डोरी तोड़ दी, लेकिन यह तथ्य यह साबित करने के लिए काफी नहीं था कि अभियुक्त बलात्कार करना चाहता था.

आदेश में कहा गया है, “आकाश (आरोपी) के खिलाफ विशेष आरोप यह है कि उसने पीड़िता को पुलिया के नीचे खींचने की कोशिश की और पायजामे की डोरी तोड़ दी. गवाहों ने यह भी नहीं बताया कि आरोपी के इस कृत्य के कारण पीड़िता नग्न हो गईं या उनके कपड़े उतर गए. ऐसा कोई आरोप नहीं है कि आरोपी ने पीड़िता के खिलाफ यौन उत्पीड़न करने की कोशिश की.”

इसमें आगे कहा गया, “आरोपी पवन और आकाश के खिलाफ लगाए गए आरोप और मामले के तथ्य शायद ही मामले में बलात्कार के प्रयास का अपराध बनाते हैं. बलात्कार के प्रयास का आरोप लगाने के लिए अभियोजन पक्ष को यह स्थापित करना होगा कि यह तैयारी के चरण से आगे निकल गया था.”

पीड़िता के लिए इस मामले को अदालत तक ले जाना भी एक बहुत बड़ा काम था. कथित तौर पर गांव के उच्च जाति के “ठाकुरों” द्वारा किए गए हमले के बाद से, नाबालिग और उसके परिवार, जो ओबीसी हैं, उनके लिए ज़िंदगी पहले जैसी नहीं रही.

उनके पिता महावीर यादव ने कहा, “उच्च जाति के लोग हमें लगातार धमकाते हैं और हमसे उनके खिलाफ लगाए गए आरोप वापस लेने के लिए कहते हैं, वह हमारे घर में घुस जाते हैं और हमें डराते हैं. हम असुरक्षित महसूस करते हैं.”

कासगंज की झोपड़ी जहां बलात्कार पीड़िता चार साल से फंसी हुई हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
कासगंज की झोपड़ी जहां बलात्कार पीड़िता चार साल से फंसी हुई हैं | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

इससे बहुत दर्द और डर पैदा हुआ.

लेकिन परिवार को कोर्ट पर भरोसा था और उसने सभी बाधाओं, धमकियों और ग्रामीणों की धमकियों के बावजूद मामले को आगे बढ़ाने का साहस किया. इसलिए जब इलाहाबाद हाई कोर्ट का आदेश आया, तो लड़की टूट गई. चार साल का साहस बेकार था.

उन्होंने कहा, “अगर आज के वक्त में एक महिला को कानून की अदालत में इस तरह अपमानित किया जाता है, तो न्याय वितरण प्रणाली का क्या मतलब है? मैं ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’ और महिला सशक्तिकरण की भावना में विश्वास करती हूं…लेकिन जब ऐसी बातें अदालत में कही जाती हैं…तो इससे हर महिला की हिम्मत टूट जाती है.”

इस फैसले की सुप्रीम कोर्ट ने आलोचना की और इसे “पूरी तरह से असंवेदनशील” बताया और इलाहाबाद हाई कोर्ट से न्यायमूर्ति मिश्रा के खिलाफ कार्रवाई करने को कहा.

लेकिन हाल के वर्षों में यह पहली या आखिरी बार नहीं था जब हाई कोर्ट ही सुप्रीम कोर्ट के लिए चिंता का विषय बन गया.

न्यायमूर्ति संजय कुमार सिंह ने कहा कि गुरुग्राम की एक महिला ने शराब पीकर और स्वेच्छा से आरोपी के घर जाकर “मुसीबत को आमंत्रित” किया. उन्होंने कहा, “पीड़िता एमए की छात्रा हैं, इसलिए वह एफआईआर में बताए गए अपने कृत्य की नैतिकता और महत्व को समझने में सक्षम थीं.” जनवरी 2025 में एक अन्य मामले में आरोपी को ज़मानत देते वक्त, उसी न्यायाधीश ने कहा था कि “पीड़िता ने आवेदक द्वारा सहमति देकर खुद का यौन शोषण होने दिया था.”

हाई कोर्ट के न्यायाधीश व्यापक टिप्पणियों में समाज को किस तरह देखते हैं, इस बारे में वाक्पटुता से बात करते रहे हैं. न्यायमूर्ति अरुण मिश्रा ने आधुनिक रिश्तों में ‘पवित्रता और गंभीरता’ की कमी पर चिंता जताई है.

उन्होंने कहा, “अस्थायी और अप्रतिबद्ध रिश्तों का प्रचलन, जो अक्सर अपनी इच्छा से बनते और टूटते हैं, व्यक्तिगत जिम्मेदारी और कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग के बारे में गंभीर सवाल उठाते हैं, खासकर जब ऐसे रिश्ते खराब हो जाते हैं.” आदेश का मुख्य बिंदु था: “ब्रेकअप का एफआईआर में बदलना”. जबकि न्यायमूर्ति सौरभ श्रीवास्तव ने अपने माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध विवाह करने वाले जोड़ों पर नाराज़गी जताते हुए उन्हें यह सिखाया कि उन्हें “समाज का सामना करना सीखना चाहिए”.

पद्मा सिंह ने कहा, “हाई कोर्ट द्वारा दिए जा रहे महिला विरोधी फैसले उन सवालों को फिर से खोल रहे हैं, जिन्हें महिला आंदोलन द्वारा पहले ही सुलझा लिया गया था.”

पिछले साल जुलाई में न्यायमूर्ति रोहित रंजन अग्रवाल ने इस बात पर चिंता व्यक्त की थी कि अगर धार्मिक सभाओं में धर्मांतरण को नहीं रोका गया तो इस देश का बहुसंख्यक ‘एक दिन’ में अल्पसंख्यक बन जाएगा.

सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इलाहाबाद हाईकोर्ट की टिप्पणी ‘अनावश्यक’ थी और इसे किसी अन्य मामले में उद्धृत नहीं किया जाना चाहिए.

प्रयागराज में रसायन विज्ञान की लेक्चरर और महिला अधिकार कार्यकर्ता पद्मा सिंह ने पूछा, “हाईकोर्ट द्वारा दिए जा रहे महिला विरोधी फैसले उन सवालों को फिर से खोल रहे हैं, जिन्हें महिला आंदोलन ने पहले ही सुलझा लिया था. इससे यह सवाल उठता है कि क्या यह सड़ांध व्यवस्थागत है या उत्तर प्रदेश की मिट्टी में कोई वैचारिक समस्या है?”

उन्होंने कहा, “यह न्यायाधीशों की पूरी तरह से असंवेदनशीलता और हमारी न्यायपालिका में दक्षिणपंथी हमले को दर्शाता है. पहले पुलिस, अदालतों, वकीलों और न्यायाधीशों के लिए लैंगिक संवेदनशीलता प्रकोष्ठ, कार्यशालाएं हुआ करती थीं, लेकिन यह सब बंद हो गया है. उन्हें फिर से शुरू करने की ज़रूरत है.”

हाईकोर्ट के पूर्व न्यायाधीशों का भी तर्क है कि विवादास्पद फैसले ‘एक बार के’ मामले हैं और वह जिस बोझ के नीचे खुद को पाते हैं उसे ‘अमानवीय’ कहते हैं.

एक पूर्व न्यायाधीश ने कहा, “क्या एक दिन में 15,000 मामलों पर फैसला लेना मानवीय कार्य है? क्या आप जानते हैं कि कितना दबाव है?”

अन्य न्यायाधीशों का तर्क है कि नियुक्तियों में राजनीतिक हस्तक्षेप योग्य लोगों को न्यायाधीश बनने से रोक रहा है.

सेवानिवृत्त न्यायाधीश सुधीर सक्सेना ने कहा, “इलाहाबाद हाई कोर्ट हमेशा केंद्र और राज्य के बीच एक चट्टान की तरह खड़ा रहा है, लेकिन अब, रिक्तियों के परिणामस्वरूप, न्यायाधीश बहुत दबाव में हैं और राज्य भी लोगों को फंसाने के लिए अपनी सभी एजेंसियों का दुरुपयोग कर रहा है.”

सक्सेना ने कहा, “लेकिन इस दबाव में, जब भी हम आदेश देते हैं, तो कभी-कभी हमारे अंदर की बात भी बाहर आ जाती है और अगर मामले बड़ी संख्या में होते हैं तो हम उन्हें ठीक करने में विफल हो जाते हैं.”

उन्होंने यह भी कहा कि कॉलेजियम द्वारा अनुशंसित नामों को मंजूरी न देकर “राजनीतिक दल अब फैसले ले रहे हैं.” उन्होंने कहा, “सरकार जो भी नियुक्ति (न्यायाधीशों की) चाहती है, वह चुनती है और उन न्यायाधीशों की नियुक्ति की जाती है.”

जब उनसे पूछा गया कि क्या सरकारी प्रभाव उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की गुणवत्ता को प्रभावित कर रहा है, तो सेक्साना ने कहा: “क्या ऐसा नहीं है?”


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शहर की अंतरात्मा

हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल तिवारी ने कहा, “न्यायाधीश खुद को भगवान मानते हैं और सही तरीके से व्यवहार नहीं कर रहे हैं”.

शायद हाई कोर्ट के सबसे विवादित जज जस्टिस शेखर यादव हैं, जिन्होंने गाय चोरी के आरोपी एक व्यक्ति को ज़मानत देने से इनकार करते हुए कहा कि वैज्ञानिकों का मानना ​​है कि गाय ही एकमात्र ऐसा जानवर है जो ऑक्सीजन छोड़ता है. एक अन्य मामले में वह चाहते थे कि राम, कृष्ण, महर्षि वाल्मीकि और वेद व्यास को राष्ट्रीय सम्मान दिया जाए.

2024 की सर्दियों में जस्टिस यादव ने कोर्ट की लाइब्रेरी से सांप्रदायिक टिप्पणी भी की. विश्व हिंदू परिषद (VHP) द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में, जज ने मुस्लिम समुदाय के खिलाफ अपमानजनक शब्द का इस्तेमाल किया. सुप्रीम कोर्ट ने उनके खिलाफ जांच शुरू कर दी है.

जस्टिस यादव की टिप्पणी का बाद में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने समर्थन किया.

डीवाई चंद्रचूड़ ने सुप्रीम कोर्ट में सेवारत रहते हुए जज की नियुक्ति का विरोध किया था. उन्होंने ‘अपर्याप्त कार्य अनुभव’ और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से मजबूत संबंधों तथा भाजपा के एक राज्यसभा सदस्य से निकटता का हवाला दिया था.

हाईकोर्ट बार एसोसिएशन (एचसीबीए) के निवर्तमान अध्यक्ष अनिल तिवारी ने कहा, “न्यायाधीशों ने कोर्ट में अनौपचारिक टिप्पणी करने की आदत बना ली है और उनमें से कुछ अपने आदेशों में भी चूक कर देते हैं. न्यायाधीश खुद को भगवान समझते हैं और सही तरीके से व्यवहार नहीं कर रहे हैं.”

हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल तिवारी | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल तिवारी | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

न्यायिक कोचिंग संस्थानों में जब ऐसे आदेशों पर चर्चा होती है, तो छात्राएं इस पेशे में शामिल होने के बारे में और भी चिंतित हो जाती हैं. इलाहाबाद के लिए जहां हर दूसरी कार पर ‘एडवोकेट’ लिखा होता है और न्यायिक कोचिंग की भरमार होती है, महान हाईकोर्ट की छवि एक प्रभामंडल के रूप में अंकित है और यह शहर की अंतरात्मा की तरह है.

कोचिंग संस्थान की एक 25-वर्षीय छात्रा ने कहा, “वकील के तौर पर इलाहाबाद में किसी महिला के लिए प्रैक्टिस करना आसान नहीं है, यहां तक ​​कि अदालतों में भी वकील महिला जजों को धमकाते हैं, लेकिन जब हम पढ़ते हैं कि हाईकोर्ट के जज अपने आदेशों के बारे में क्या सोचते हैं, तो हमारा दिल टूट जाता है.” वह अपने परिवार की पहली पीढ़ी की वकील हैं.

वरिष्ठ अधिवक्ता केके रॉय के लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट का फैसला समाज में एक बड़े रूढ़िवादी बदलाव को भी दर्शाता है. उन्होंने यह भी बताया कि कभी-कभी जज की जातिगत राजनीति से फैसले प्रभावित हो सकते हैं.

इलाहाबाद हाईकोर्ट में ठाकुर और ब्राह्मण जजों के साथ-साथ अधिवक्ताओं का भी दबदबा है. रॉय का अनुमान है कि 1960 और 1970 के दशक में एसएन मिश्रा के साथ ब्राह्मणों का दबदबा मजबूत हुआ, जो एक मजबूत नेता थे, जिसे वीसी मिश्रा ने आगे बढ़ाया, जिन्होंने कई बार हाईकोर्ट बार काउंसिल की शक्ति हासिल की.

​​रॉय ने कहा, “जातिगत राजनीति की बात करें तो वीसी मिश्रा काफी खतरनाक व्यक्ति थे.” उन्होंने कहा कि ब्राह्मण कोर्ट में सबसे मजबूत जाति लॉबी बने हुए हैं.

महिलाएं और अनुसूचित जातियां भी न्यायालय की राजनीति के केंद्र में नहीं हैं, वह हाशिये से सामाजिक सीढ़ी पर चढ़ने की कोशिश कर रहे हैं.

पिछले पांच साल में न्यायालय ने अंतरधार्मिक या अंतरजातीय जोड़ों को सुरक्षा प्रदान करने के अपने दृष्टिकोण में भी तीव्र बदलाव देखा है. न्यायालय लगातार सुरक्षा देने से इनकार कर रहा है. यह कुछ ऐसा है जिसे लेकर वकील न्यायालय के गलियारों में मज़ाक करते हैं.

गलियारों में एक वरिष्ठ वकील ने टिप्पणी की, “बहुत सारे समलैंगिक जोड़े हाई कोर्ट से सुरक्षा की मांग कर रहे हैं. उनकी याचिकाएं आमतौर पर खारिज कर दी जाती हैं. मेरा कहना है कि उन्हें लागत के साथ खारिज किया जाना चाहिए!”

कानूनी विद्वान यह नहीं बता सकते कि क्या इलाहाबाद हाई कोर्ट में कुछ अनोखा चल रहा है या यह केवल एक बड़े राष्ट्रीय मूड का प्रतिबिंब है, लेकिन NALSAR यूनिवर्सिटी ऑफ लॉ के कुलपति फैज़ान मुस्तफा ने कहा कि इलाहाबाद को विवादास्पद फैसलों वाला एकमात्र कोर्ट बताना गलत होगा.

मुस्तफा ने कहा, “कुछ फैसलों से हमें यह सवाल उठता है कि क्या हमारे हाई कोर्ट के न्यायाधीश वास्तव में कानून जानते हैं. यह उनकी घोर अज्ञानता को दर्शाता है, लेकिन यह केवल इलाहाबाद हाई कोर्ट तक ही सीमित नहीं है. हर अदालत की तरह, इसमें भी रूढ़िवादी न्यायाधीशों के साथ-साथ प्रगतिशील न्यायाधीश भी हैं.”

अदालत में ‘अनौपचारिक’ टिप्पणियां

इलाहाबाद हाई कोर्ट के कॉरिडोर में वकील | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
इलाहाबाद हाई कोर्ट के कॉरिडोर में वकील | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

जस्टिस यादव के कथित पक्षपात की चर्चा जहां खुलेआम हो रही है, वहीं अन्य न्यायाधीशों की राजनीतिक प्रवृत्तियों के बारे में गलियारों में चर्चा जोरों पर है. दिप्रिंट द्वारा इंटरव्यू किए गए लगभग सभी अधिवक्ताओं ने बताया कि विवेकपूर्ण अदालतों में राजनीतिक रूप से आरोपित ‘अनौपचारिक टिप्पणियों’ की घटनाएं बढ़ गई हैं. केके रॉय, अनिल तिवारी और फरमान नकवी जैसे वरिष्ठ अधिवक्ताओं ने भी ऐसी टिप्पणियों में वृद्धि की ओर इशारा किया.

एक वकील ने कहा, एक सुनवाई में एक न्यायाधीश ने मुझसे कहा था ‘लाल पीला कर देंगे’.

ये टिप्पणियां देश में जातिगत राजनीति से लेकर वर्तमान राजनीतिक माहौल और विकसित होते समाज तक हो सकती हैं. न्यायाधीश अक्सर ऐसे मामलों के बारे में उत्साह व्यक्त करते हैं जो उनके राजनीतिक झुकाव के अनुकूल हो सकते हैं.

इलाहाबाद के अधिवक्ता और अधिवक्ता मंच के अध्यक्ष राजवेंद्र सिंह ने कहा, “एक न्यायाधीश ऐसे हैं जो गोहत्या के मामलों में कभी ज़मानत नहीं देते हैं, इसलिए वकील अपने मामलों को उनके सामने सूचीबद्ध होने से बचाते हैं और हमेशा अदालत से सुनवाई के लिए आगे की तारीखें दिलवाते हैं.”

2022 में जब संस्कृत शिक्षक की नियुक्ति से जुड़ा मामला कोर्ट नंबर 7 में पहुंचा तो अधिवक्ता राजवेंद्र सिंह मौजूद थे. कार्यवाही के दौरान न्यायाधीश ने अनौपचारिक रूप से ऐसा मामला मिलने पर खुशी जताई.

अधिवक्ता राजवेंद्र सिंह ने कहा, “न्यायाधीश ने कहा, ‘मैं ऐसे मामले की तलाश में था, डबल इंजन सरकार के तहत संस्कृत के साथ ऐसा घोर अन्याय बर्दाश्त नहीं करूंगा’.”

और जबकि न्यायाधीश वकीलों के साथ सख्त होने के लिए जाने जाते हैं, कुछ न्यायाधीश थोड़े बहुत कठोर हो सकते हैं. इस पर हाई कोर्ट बार एसोसिएशन ने भी न्यायाधीशों के व्यवहार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया, जिसमें बार अध्यक्ष ने कहा, ‘जज भगवान नहीं हैं’.

दलित वकील महाप्रसाद ने दिप्रिंट से कहा, “एक सुनवाई में एक जज ने मुझसे कहा था कि ‘लाल पीला कर देंगे’. वे हमें हमेशा डांट सकते हैं और बता सकते हैं कि हमें क्या करना है, लेकिन क्या इस तरह की भाषा शालीन है?”

इलाहाबाद हाई कोर्ट के परिसर में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था है और अंदर क्या होता है, इसके बारे में जनता को बहुत कम जानकारी है, सिवाय आदेशों में लिखी बातों के. हालांकि, न्यायपालिका में पारदर्शिता तेज़ी से बढ़ रही है, सुप्रीम कोर्ट और देश भर के कई हाई कोर्ट कार्यवाही की लाइव स्ट्रीमिंग का विकल्प चुन रहे हैं, लेकिन इलाहाबाद में, स्ट्रीमिंग अभी भी प्रगति पर है, जहां न्यायाधीशों का कहना है कि उच्च न्यायालय के ‘प्रशासनिक’ पक्ष को इस पर फैसला लेना है.

राजवेंद्र सिंह ने कहा कि 2020 में एक न्यायाधीश ने अधिवक्ताओं के लिए टिकट भी खरीदे और उन्हें अजय देवगन की फिल्म तानाजी देखेने के लिए प्रोत्साहित किया.

यह फिल्म तानाजी मालुसरे के बारे में है, जो मुगल बादशाह द्वारा कोंढाणा किले पर कब्ज़ा करने के बाद औरंगज़ेब के खिलाफ अभियान शुरू करता है.

वरिष्ठ अधिवक्ता केके रॉय ने कहा, “जब भी अतिक्रमण के मामले न्यायालय में लाए जाते हैं, तो मैंने एक न्यायाधीश को यह कहते हुए कई बार सुना है कि चूंकि लोगों को शौचालय, सब्सिडी और अन्य सुविधाएं जैसे कई मुफ्त लाभ मिल रहे हैं, इसलिए उनके पास कोई काम नहीं है, इसलिए वह कोर्ट में मामले दायर कर रहे हैं!”

न्यायालय के नोटिस बोर्ड पर, अखिल भारतीय अधिवक्ता परिषद (एबीएपी) द्वारा आयोजित कार्यक्रमों को अक्सर प्रदर्शित किया जाता है, जहां बैठे न्यायाधीश स्वामी विवेकानंद से लेकर बीआर आंबेडकर के जीवन तक विभिन्न मुद्दों पर बातचीत करते हैं, लेकिन कोर्ट के नोटिस बोर्ड पर इन नोटिसों को लगाना सिंह जैसे वकीलों को आपत्तिजनक लगता है, उनका तर्क है कि ‘निजी निकायों’ को न्यायालय के नोटिस बोर्ड पर अपने नोटिस लगाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए.

उन्होंने कहा, “यह (एबीएपी) एकमात्र संगठन है जिसे कोर्ट के नोटिस बोर्ड पर पोस्टर लगाने की अनुमति है, जो कोर्ट के बारे में परिचालन संबंधी जानकारी के लिए होते हैं.”

एबीएपी का मुख्यालय नई दिल्ली में दीन दयाल उपाध्याय मार्ग पर स्थित है. संगठन एक त्रैमासिक पत्रिका न्याय प्रवाह भी प्रकाशित करता है, जो अदालतों को परेशान करने वाले विभिन्न मुद्दों, बहस किए जा रहे अधिनियमों और उन दर्शनों से निपटता है जिनका पालन किया जाना चाहिए. अपने अक्टूबर-दिसंबर तिमाही अंक में, पत्रिका ने वक्फ अधिनियम को ‘भारत के विनाश के लिए एक टाइम बम’ कहा, और एक राष्ट्र, एक चुनाव का मामला बनाया.

परिषद का दर्शन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से बहुत जुड़ा हुआ है, लेकिन इसके उपाध्यक्ष एसपी राय आरएसएस के किसी भी शासन से इनकार करते हैं. उन्होंने कहा कि संगठन समाज के कमज़ोर वर्गों को न्याय दिलाने और राष्ट्रीय मुद्दों के बारे में जागरूकता पैदा करने पर काम करता है.

राय ने कहा, “अदालतों के नोटिस बोर्ड पर नोटिस के बारे में वकीलों द्वारा कोई शिकायत नहीं की गई है. कोई भी व्यक्ति बोर्ड पर नोटिस लगा सकता है.”

एबीएपी द्वारा आयोजित कार्यक्रमों में बोलने वाले न्यायाधीश बहुत से वकीलों को असहज कर रहे हैं.

बीआर आंबेडकर अधिवक्ता परिषद के अध्यक्ष बीएम सिंह ने कहा, “जब आप किसी विशेष संगठन के संपर्क में होते हैं, तो आप उस न्यायाधीश से निष्पक्षता की उम्मीद कैसे कर सकते हैं?”


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वकील-जज गतिरोध

“इलाहाबाद हाईकोर्ट कोई कूड़ादान नहीं है!” इलाहाबाद हाईकोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष अनिल तिवारी ने 5 अप्रैल को सुबह-सुबह जस्टिस यशवंत वर्मा के शपथ ग्रहण के बाद दहाड़ लगाई थी.

दिल्ली में आग लगने की घटना के बाद वर्मा के घर से कथित तौर पर 15 करोड़ रुपये की जली हुई नकदी बरामद हुई थी, जिसके बाद उनका तबादला इलाहाबाद कर दिया गया था. उनकी नियुक्ति के खिलाफ हाईकोर्ट बार एसोसिएशन ने हड़ताल कर दी थी, जो करीब एक हफ्ते तक चली.

यह नाटकीय विरोध वर्मा के शपथ ग्रहण समारोह के “गुप्त” तरीके के खिलाफ था, जो “बार की पीठ पीछे” हुआ था. सैकड़ों वकीलों ने हाईकोर्ट के सामने धरना दिया और यशवंत वर्मा को वापस बुलाने की मांग की.

इस नियुक्ति के बाद बार ने देश में जजों की नियुक्तियों में पारदर्शिता की मांग करते हुए एक अभियान शुरू किया है. तिवारी ने प्रयागराज में एक सम्मेलन आयोजित किया, जिसमें देश भर के बार सदस्यों ने अदालतों में जातिवाद, भाई-भतीजावाद और भ्रष्टाचार के बारे में बात की.

HCBA ने हाईकोर्ट के जजों को ‘योर लॉर्डशिप’ कहने से भी इनकार कर दिया है और इसके स्थान पर ‘सर’ शब्द का इस्तेमाल किया है. साथ ही, उसने अपने सभी सदस्यों से भी ऐसा ही कहने की मांग करते हुए एक प्रस्ताव पारित किया है.

तिवारी ने कहा, “न्यायाधीशों का व्यवहार बिल्कुल हास्यास्पद है. वह भगवान नहीं हैं. इसलिए हाई कोर्ट बार ने उन्हें आपका आधिपत्य कहकर संबोधित नहीं करने का फैसला किया.” हालांकि, यह प्रस्ताव कागज़ों पर ही रह गया.

पिछले साल जुलाई में HCBA ने जस्टिस रोहित रंजन अग्रवाल के खिलाफ ‘अपमानजनक’ टिप्पणी के लिए एक ज्ञापन भी पारित किया था. HCBA ने यह भी कहा था कि जज के व्यवहार को लेकर पूरे ‘बार’ में नाराज़गी बढ़ रही है.

जब कोर्ट में जजों की नियुक्ति की बात आती है तो कोर्ट को प्रतिरोध का सामना करना पड़ रहा है, जिसे एक समस्याग्रस्त अभ्यास के रूप में देखा जाता है, जहां जजों के रिश्तेदारों को नियुक्तियों में पहली वरीयता मिलती है.

दिप्रिंट द्वारा पहले की गई जांच में पाया गया था कि इलाहाबाद हाई कोर्ट के 79 में से 36 जज (25 मार्च 2025 तक) वकीलों या जजों से जुड़े थे. 45 प्रतिशत के साथ, यह देश के किसी भी अन्य हाई कोर्ट की तुलना में काफी अधिक था.

अनिल तिवारी ने कहा कि उन्हें डर है कि मेरठ में एक बेंच के लिए एक मजबूत मामला बनाने के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट को कमजोर किया जा रहा है.

फिर, कई लोग ‘दिल्ली आयात’ कहते हैं.

अब, दिल्ली के वकीलों की ‘घुसपैठ’, जिन्हें न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत किया जा रहा है, वकीलों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा कर रही है. इलाहाबाद हाई कोर्ट में न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत होने की अफवाह वाले 15 वकीलों की अनौपचारिक सूची ने कोर्ट के कॉरिडोर में भागदौड़ कर रहे वकीलों को परेशान कर दिया है.

तिवारी ने कहा, “अगर किसी वकील ने कभी हाई कोर्ट के अंदर कदम नहीं रखा है, तो एक न्यायाधीश उनकी क्षमताओं का मूल्यांकन कैसे करेगा? दिल्ली के वकीलों को यहां न्यायाधीश के पद पर पदोन्नत नहीं किया जाना चाहिए.”

उन्होंने कहा कि इलाहाबाद में न्यायाधीश का पद योग्यता से नहीं, बल्कि नेटवर्क से तय होता है. उन्होंने सवाल किया, “क्या न्यायाधीशों के बेटे और भतीजे को न्यायाधीश के संवैधानिक पद पर रहने का अधिकार है? क्या एक अलग या साधारण पृष्ठभूमि से आए वकील को कभी न्यायाधीश बनने का मौका नहीं मिलेगा?”

तिवारी को डर है कि मेरठ में पीठ के लिए मजबूत मामला बनाने के लिए इलाहाबाद हाई कोर्ट को कमज़ोर किया जा रहा है. मेरठ बेंच दशकों से विवाद का विषय रही है-वकील इसे नहीं चाहते, उन्हें डर है कि ‘दिल्ली के वकील’ इसे अपने कब्जे में ले लेंगे और उनका खुद का व्यवसाय खत्म हो जाएगा.

इलाहाबाद हाई कोर्ट की कैंटीन | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
इलाहाबाद हाई कोर्ट की कैंटीन | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

प्रतिनिधित्व का अभाव

इलाहाबाद में उत्तर मध्य क्षेत्र सांस्कृतिक केंद्र का हॉल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा, जब दर्शकों में बैठे वकीलों ने बार काउंसिल ऑफ इंडिया, दिल्ली के एनएन त्रिपाठी का उत्साहवर्धन किया, जिन्होंने इलाहाबाद हाई कोर्ट में बेटा-भतीजावाद पर प्रकाश डाला.

“आधे वकील राजनीतिक दलों से जुड़े हैं, बाकी आधे चुप हैं और बाकी ब्राह्मणवाद और लालावाद में फंसे हुए हैं!” त्रिपाठी ने न्यायालयों में भ्रष्टाचार के बारे में बात करते हुए दहाड़ लगाई.

वे न्यायाधीशों की नियुक्ति में ‘पारदर्शिता’ पर HCBA द्वारा आयोजित एक सम्मेलन में बोल रहे थे. आठ बार एसोसिएशनों के सदस्यों ने भारत की न्यायपालिका के बढ़ते राजनीतिकरण, वकीलों और न्यायालयों पर दबाव के बारे में बात की और न्यायिक प्रणाली में जनता का विश्वास बहाल करने के लिए ‘संकल्प’ लिया.

“ज़ोर से बोलो!” दर्शकों में से एक वकील ने अपनी बेंच से लगभग उछलते हुए कहा. उन्होंने बाद में दिप्रिंट से कहा, “कोई भी हमारे न्यायालय में जाति की जड़ें जमने के बारे में बात नहीं करता है, न्यायालय में जातिवाद उन लोगों के लिए अवसरों को कम करता है, जिनके पास कनेक्शन नहीं हैं.”

हाईकोर्ट के चैंबर के गलियारे त्रिपाठी, शुक्ला, श्रीवास्तव, सिंह जैसे उपनामों वाले टेबल और चैंबर से सजे हैं — वकील जो एक साथ समूहों में बैठते हैं.

केके रॉय ने कहा, “वकीलों को भूल जाइए, यहां तक ​​कि इस न्यायालय में न्यायाधीशों पर भी हमेशा ब्राह्मणों और कायस्थों का वर्चस्व रहा है.” उन्होंने कहा, “दलित कोशिश कर रहे हैं, लेकिन बाहर गलियारों में कोर्ट के अंदर उनकी कोई उपस्थिति नहीं है.”

पूर्व न्यायाधीश भी हाई कोर्ट में जड़ जमाए हुए जाति व्यवस्था की निंदा करते हैं, जो इसकी राजनीति पर हावी है. सेवानिवृत्त न्यायाधीश जनार्दन देसाई ने कहा, “उच्च न्यायालय का बार बहुत जाति से भरा हुआ है और चीज़ें उनकी योग्यता के आधार पर तय नहीं होती हैं, ज्यादातर समय जाति की भावना एक बड़ी भूमिका निभाती है.”

2022 से कोर्ट में केवल एक अनुसूचित जाति का न्यायाधीश नियुक्त किया गया है. वरिष्ठ अधिवक्ताओं का कहना है कि न्यायालय में केवल एक एससी न्यायाधीश है.

दलित वकीलों का कहना है कि जब वह ‘कुमार’ सरनेम का यूज़ करते हैं, तो हाई कोर्ट में अन्य वकीलों के लिए यह कभी काफी नहीं होता. वह हमेशा मुस्कुराते हुए अपना ‘असली’ सरनेम पूछते हैं.

महाप्रसाद ने कहा, “जब उन्हें पता चलता है कि हम दलित समुदाय से हैं, तो वह हमसे हाथ मिलाने से इनकार कर देते हैं.” एक अन्य वकील ने कहा कि दलितों के लिए अपने समुदाय से भी मुवक्किल पाना मुश्किल है, क्योंकि ऐसी धारणा है कि केवल ठाकुर और ब्राह्मण ही अच्छे और योग्य वकील बनते हैं.

धवन ने कहा, “जबकि इस देश की किसी भी अन्य अदालत में जाति की राजनीति की समस्या है, उत्तर प्रदेश और बिहार में यह और भी तीखी है और इस पर गौर किया जाना चाहिए.”

वकील चैंबर में जाति की पहचान पर चुटकुले सुनाए जाते हैं. चैंबर के अंदर हर जाति की रूढ़िवादिता पर लिखी कविताएं सुनाई जाती हैं और लोग हंसते हैं. ये कविताएं व्यापक रूढ़िवादिता के आधार पर विभिन्न जाति और धार्मिक समूहों का मज़ाक उड़ाती हैं — मुसलमानों, जाटवों और भूमिहारों के बारे में बहुत ही अपमानजनक तरीके से. जातिगत ब्लॉक अलग-अलग काम करते हैं और ज़्यादातर वकील दूसरी जातियों के लोगों से घुलते-मिलते नहीं हैं.

ओडिशा हाईकोर्ट के पूर्व मुख्य न्यायाधीश एस मुरलीधर ने भी इलाहाबाद हाईकोर्ट में जाति व्यवस्था को उजागर किया. उन्होंने एक जज का उदाहरण दिया जिसने अपने चैंबर को गंगाजल से ‘शुद्ध’ किया क्योंकि उसमें आखिरी व्यक्ति दलित थे, जो कथित तौर पर न्यायिक अधिकारी थे.

वकीलों को यह नहीं पता कि मौजूदा जजों में से कोई अनुसूचित जाति समुदाय से है या नहीं. हाल ही में सार्वजनिक की गई सुप्रीम कोर्ट की कॉलेजियम लिस्ट के अनुसार, 2022 से कॉलेजियम ने एक जज को नियुक्त किया है जो एससी समुदाय से है.

एक वकील ने कहा, “न तो हमने किसी नामित वरिष्ठ महिला वकील के बारे में सुना है और न ही हमने उन्हें देखा है.”

हाईकोर्ट में महिलाओं का प्रतिनिधित्व भी मामूली है, लेकिन लगातार बढ़ रहा है. महिला वकीलों के लिए समर्पित चैंबर रूम बनाए गए हैं, जो पुरुष वकीलों से अलग बैठती हैं और स्कूल के बाद अपने बच्चों की देखभाल भी करती हैं. कई फैसले, खास तौर पर महिलाओं को चोट पहुंचाने वाले, हाईकोर्ट से आते हैं, जहां महिलाओं की राजनीति में कोई खास आवाज नहीं होती.

इलाहाबाद हाईकोर्ट में महिला चैंबर | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट
इलाहाबाद हाईकोर्ट में महिला चैंबर | फोटो: शुभांगी मिश्रा/दिप्रिंट

एक अन्य वकील फातिमा अंजुन ने कहा, “न तो हमने किसी नामित वरिष्ठ महिला वकील के बारे में सुना है, न ही हमने उन्हें देखा है. रामोदेवी गुप्ता एकमात्र नामित वरिष्ठ वकील थीं. इससे पता चलता है कि बार और अदालत में एक निश्चित पूर्वाग्रह है.” रामोदेवी गुप्ता एक पूर्व वरिष्ठ वकील हैं, जिनका सितारा आज भी अदालत में चमकता है, जैसा कि कई लोग उन्हें याद करते हैं.

अत्यधिक बोझ से दबी अदालत

एक वकील ने कहा, “नियुक्तियों में हर किसी का अपना एजेंडा होता है, यही वजह है कि रिक्तियां इतनी अधिक हैं.”

पिछले पांच सालों से 26-वर्षीय अवधेश सिंह पंजाब के लुधियाना से प्रयागराज के लिए ट्रेन पकड़ रहे हैं, लेकिन अभी तक उन्हें जज का चेहरा नहीं देखने को मिला है. उनकी सुनवाई लगातार टलती जा रही है. पांच साल और कई वकीलों के बाद, अवधेश भूमि विवाद मामले से हार मानना ​​चाहते हैं, जो उन्हें बार-बार अदालत में घसीटता है, लेकिन उनके दादा की अंतिम इच्छा उन्हें बार-बार उस भूलभुलैया वाली अदालत में आने के लिए मजबूर करती है, जहां उनकी कहानी या उनके दादा की कहानी कभी हल नहीं हो सकती.

सिंह ने कहा, “मैंने अपने दादा से उनकी मृत्युशैया पर वादा किया था कि मैं उनकी ज़मीन के लिए लड़ूंगा. हमारी कृषि भूमि विवादित है और भले ही हमें 1998 में जिला अदालत से अनुकूल आदेश मिला था, लेकिन हम इसका कभी उपयोग नहीं कर पाए.”

भारत की अदालतों में लंबे समय से लंबित मामलों की भीड़ में अवधेश एक और नाम है.

वकीलों की शिकायत है कि नए मामले दायर करने में भी छह महीने से एक साल तक का समय लग रहा है, जबकि कोविड-19 से पहले यह काम तीन दिन में पूरा हो जाता था.

नए मामले दायर करने में देरी की शिकायत सभी वकीलों की ओर से आ रही है. बार एसोसिएशन के अध्यक्ष तिवारी ने कहा कि 2020 के बाद फाइलिंग का डिजिटलीकरण सुचारू नहीं रहा है, जिससे बहुत देरी हो रही है.

वरिष्ठ अधिवक्ता सतीश त्रिवेदी ने न्यायालय में जनहित याचिका (पीआईएल) दायर की है, जिसमें कहा गया है कि “यह माननीय न्यायालय इतिहास के सबसे गंभीर संकटों में से एक का सामना कर रहा है”. 50 प्रतिशत से अधिक पद रिक्त हैं.

जब न्यायाधीशों की नियुक्ति की बात आती है, तो कई राज्य इस प्रक्रिया के अत्यधिक राजनीतिक होने के कारण गतिरोध में हैं.

सुप्रीम कोर्ट की वेबसाइट बताती है कि हाई कोर्ट के न्यायाधीशों की नियुक्ति प्रक्रिया कितनी जटिल है. कॉलेजियम में हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश के साथ दो वरिष्ठतम न्यायाधीश शामिल होते हैं, जो नामों पर फैसले लेने से पहले हाई कोर्ट बार के प्रतिष्ठित सदस्यों और अन्य न्यायाधीशों से परामर्श करते हैं.

ये नाम राज्य के मुख्यमंत्री को भेजे जाते हैं और राज्यपाल, केंद्रीय विधि एवं न्याय मंत्री और सुप्रीम कोर्ट के कॉलेजियम को अग्रिम प्रतियां भेजी जाती हैं, जो न्यायाधीश के बारे में खुफिया सूचनाओं के आधार पर और इंटरव्यू के आधार पर एक संयुक्त फैसले लेते हैं.

एक अधिवक्ता ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “नियुक्तियों में देरी न्यायाधीश-राज्य-केंद्र गठजोड़ के कारण होती है. नियुक्तियों में हर किसी का अपना एजेंडा होता है, यही कारण है कि रिक्तियां इतनी अधिक हैं.”

इस राजनीतिक रूप से आवेशित स्थान में यादव और सिंह जैसे वादी अपनी समस्याओं के समाधान की तलाश में आते हैं.

लेकिन जब हाई कोर्ट के भव्य लकड़ी के न्यायालयों में एक मामले की सुनवाई होती है, जहां न्यायाधीश सिंहासन जैसी सागौन की लकड़ी की बेंचों पर बैठते हैं और लाखों लोगों के भाग्य का फैसला करते हैं — तब भी एक 18 वर्षीय युवक को अब विश्वास है कि इससे कुछ नहीं होगा.

उन्होंने कहा, “मेरे साथ दुर्व्यवहार करने वाले मुझे कहते रहते हैं कि मुझे न्याय नहीं मिलेगा. वह न्यायालयों और सरकार के मालिक हैं. मेरे अनुभव से पता चला है कि वह सही हैं.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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