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Saturday, 7 September, 2024
होमफीचरतीन तलाक के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट के गुज़ारा भत्ता फैसले को सराहा

तीन तलाक के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली शायरा बानो ने सुप्रीम कोर्ट के गुज़ारा भत्ता फैसले को सराहा

शायरा बानो के लिए सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला कि मुस्लिम महिलाओं को सीआरपीसी की धारा-125 के तहत गुज़ारा भत्ता मांगने की अनुमति देना ‘ऐतिहासिक’ और ‘नई शुरुआत’ है.

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नई दिल्ली: मुस्लिम महिलाओं को आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा-125 के तहत अपने पतियों से गुज़ारा भत्ता मांगने की अनुमति देने वाले सुप्रीम कोर्ट के फैसले का अलग-अलग लोगों के लिए अलग-अलग मतलब है, लेकिन तीन तलाक के खिलाफ आवाज़ उठाने वाली शायरा बानो के लिए, यह “उन महिलाओं की लंबी लड़ाई का अंत है, जिनकी ज़िंदगी तलाक के बाद आर्थिक कठिनाइयों के कारण दयनीय हो जाती है.”

बुधवार के फैसले ने शाह बानो मामले में 1985 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले की यादें भी ताज़ा कर दीं, जिसमें मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का समर्थन किया गया था, लेकिन बाद में कानून द्वारा इसे खारिज कर दिया गया था.

शाह बानो ने करीब 45 साल पहले तलाक के बाद अपने और अपने बच्चों के लिए गुज़ारा भत्ता मांगा था, वहीं शायरा बानो ने 2016 में तीन तलाक के खिलाफ लड़ाई में एक नया अध्याय शुरू किया था, जब उनके पति ने उन्हें टेलीग्राम के जरिए तलाक दे दिया था.

38-वर्षीय शायरा बानो ने कहा, “यह (गुज़ारा भत्ता का फैसला) आने वाले समय में एक बड़ा बदलाव लाएगा. जिस तरह तीन तलाक पर प्रतिबंध लगाया गया और पति अपनी पत्नी को किसी भी संदेश, पत्र या मौखिक रूप से तलाक नहीं दे सकते हैं, उसी तरह अब अलग होने के बाद मुस्लिम महिलाएं अपने लिए गुज़ारा भत्ता मांग सकती हैं और अपने अधिकारों का दावा कर सकती हैं.”

बानो की लड़ाई के कारण 2019 का अधिनियम निकला, जिसने तत्काल तलाक को अपराध बना दिया. सुप्रीम कोर्ट का गुज़ारा भत्ता का फैसला व्यक्तिगत कानूनों के क्षेत्र में एक और बड़ा सुधार है, जिसे 21वीं सदी के भारत में परखा जा रहा है. विवाहित मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों के लिए यह संघर्ष अब धीरे-धीरे आगे बढ़ रहा है, इसे शुरू हुए करीब 40 साल हो चुके हैं.

सीआरपीसी की धारा-125 के धर्मनिरपेक्ष प्रावधान के तहत मुस्लिम महिलाओं के लिए गुज़ारा भत्ते का मुद्दा 1985 में राजनीतिक विषय बन गया था, जब मोहम्मद अहमद खान बनाम शाह बानो बेगम मामले में संविधान पीठ ने सर्वसम्मति से फैसला सुनाया था कि मुस्लिम महिलाएं गुज़ारा भत्ता पाने की हकदार हैं.

इस फैसले ने मुस्लिम पति के 3 महीने की ‘इद्दत’ अवधि से परे गुज़ारा भत्ता देने के दायित्व पर विवाद खड़ा कर दिया, जिसके दौरान महिला किसी दूसरे पुरुष से शादी नहीं कर सकती. इसके बाद राजीव गांधी सरकार ने मुस्लिम महिला (तलाक पर अधिकारों का संरक्षण) अधिनियम 1986 पारित किया, जिसने गुज़ारा भत्ता मांगने वाली मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों को 90-दिन की इद्दत अवधि तक सीमित कर दिया.

यह 2019 का तीन तलाक कानून था जिसने 1986 के इस कानून को खत्म कर दिया.

शायरा बानो ने दिप्रिंट से कहा, “यह हर मुस्लिम महिला और पूरे समुदाय के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है. अब पुरुष तलाक जैसा बड़ा फैसला लेने से पहले दो बार सोचेंगे.”

बानो ने इस बात पर भी जोर दिया कि मुस्लिम महिलाओं को अक्सर अपने अधिकारों के लिए लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है और कई सामाजिक और आर्थिक कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है.

वे एक देश एक कानून नीति के पक्ष में हैं — उन्होंने कहा, अगर देश में सभी के लिए कानून समान हैं, तो अपने अधिकारों की मांग करना आसान होगा.

बानो ने कहा, “हम सभी एक ही देश में रहते हैं, इसलिए सभी के लिए समान कानून और न्याय होना महत्वपूर्ण है.”

बदलाव का दौर

1985 के शाह बानो मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सीआरपीसी की धारा-125, जो गुज़ारा भत्ता से संबंधित है, सभी नागरिकों पर लागू होती है, चाहे उनका धर्म कुछ भी हो.

कोर्ट ने बुधवार को अपने फैसले में कहा, “अगर मुस्लिम महिला मुस्लिम कानून के तहत विवाहित है और तलाकशुदा है, तो सीआरपीसी की धारा-125 के साथ-साथ 1986 के अधिनियम के प्रावधान भी लागू होंगे. मुस्लिम तलाकशुदा महिलाओं के पास दोनों कानूनों में से किसी एक या दोनों के तहत उपाय करने का विकल्प है.”

बानो ने कहा कि, ऐसे सभी फैसलों की तरह, महिलाओं को अपने अधिकारों का दावा करने में समय लगेगा.

बानो ने कहा, “शुरुआत में महिलाएं किसी भी तरह की कानूनी परेशानी से बचने के लिए अपने पतियों के खिलाफ मामला दर्ज करने के लिए आगे नहीं आ सकती हैं, लेकिन धीरे-धीरे इसमें भी बदलाव आएगा. महिलाओं द्वारा इस फैसले का स्वागत करना दिखाता है कि समाज में इसकी कितनी ज़रूरत थी.”

बुधवार का फैसला एक याचिका पर आया, जिसमें एक आदेश को चुनौती दी गई थी, जिसमें तेलंगाना के एक मुस्लिम व्यक्ति को तलाक के बाद अपनी पत्नी को मासिक भत्ते के रूप में 20,000 रुपये देने को कहा गया था.

यह फैसला जस्टिस बी.वी. नागरत्ना और ऑगस्टीन जॉर्ज मसीह की पीठ ने सुनाया. फैसले में जस्टिस मसीह ने बताया कि धारा-125 सामाजिक न्याय का एक उपाय है जो व्यक्तिगत कानूनों की परवाह किए बिना कमजोर वर्गों की रक्षा करता है.

बानो ने स्पष्ट रूप से कहा कि तीन तलाक और गुज़ारा भत्ता पर इद्दत की सीमा दोनों ही सामाजिक बुराइयां हैं.

उन्होंने कहा, “हर सामाजिक बुराई को खत्म होने में समय लगता है, लेकिन इसका अंत एक नई शुरुआत लाता है.”

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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