नई दिल्ली: पिछले 25 सालों से, वीरेंद्र थापर हर साल उस 16,000 फीट ऊंचे युद्धक्षेत्र पर जाते रहे हैं, जहां उनके बेटे की करगिल युद्ध में जान गई थी. लेकिन इस गर्मी, हार्ट सर्जरी के कारण रिटायर्ड कर्नल द्रास नहीं जा पाए. फिर भी वो अपने बेटे कैप्टन विजयंती थापर की याद को ज़िंदा रखने के लिए इंटरव्यू दे रहे हैं और भाषण की तैयारी कर रहे हैं.
“देश को उसे और करगिल के महीनों में उसकी बहादुरी को याद रखना चाहिए, लेकिन हम तो हर दिन उसे याद करते हैं. वो जगह (द्रास में नोल पोस्ट) मेरे लिए तीर्थ स्थल है,” 82 वर्षीय थापर ने नोएडा स्थित अपने घर में कहा, जहां घर के हर कोने में बेटे की यादें बसी हुई हैं.
कैप्टन विजयंती थापर की उम्र सिर्फ 22 साल थी जब उनकी मौत 29 जून 1999 को करगिल युद्ध में हुई थी. ये भारत का पहला युद्ध था जिसे टीवी पर दिखाया गया था. वो 527 भारतीय जवानों में सबसे कम उम्र के अधिकारी थे जिन्होंने वीरगति पाई. वो राजपूताना राइफल्स की दूसरी बटालियन में थे और नोल पोस्ट पर लड़ते हुए शहीद हो गए. उन्हें मरणोपरांत वीर चक्र से सम्मानित किया गया.
लेकिन जिसने उन्हें देश की यादों में खास बना दिया, वो थी एक चिट्ठी जो उन्होंने आखिरी हमले से पहले नीले कागज़ पर अपने परिवार के लिए लिखी थी. अगर वो वापस न लौट पाएं तो उन्होंने वो चिट्ठी हमले वाली जगह पर छोड़ दी थी.
“अगर आप आ सकें, तो ज़रूर उस जगह को देखें जहां भारतीय सेना ने आपके कल के लिए लड़ाई लड़ी,” उन्होंने लिखा था. “जहां तक यूनिट का सवाल है, नए लड़कों को इस बलिदान के बारे में बताया जाना चाहिए. मेरी फोटो ‘ए’ कंपनी के मंदिर में करनी माता के साथ लगाई जाए.”
तब से उनके पिता हर साल उसी जगह जाकर उनकी आखिरी इच्छा पूरी करते हैं. हर साल 26 जुलाई को करगिल विजय दिवस के मौके पर कर्नल थापर द्रास जाते हैं, जहां भारतीय सेना विजयपथ वॉर मेमोरियल पर समारोह आयोजित करती है. वो अपने बेटे की यूनिट द्वारा बनाए गए छोटे मंदिर में भी जाते हैं जो नोल पोस्ट पर है.
लेकिन कैप्टन विजयंती की मां, त्रिप्ता थापर के लिए वो बहुत दर्दनाक है. वो 2003 में एक बार ड्रास गई थीं, लेकिन वो अनुभव इतना भारी था कि फिर कभी नहीं जा सकीं.
“वो जगह सिर्फ उसकी बहादुरी की याद नहीं है. वो हमें उसके और करीब लाती है,” उन्होंने कहा. “लेकिन एक मां के लिए, ये बहुत तोड़ देने वाला है. वहीं वो जगह है जहां मैंने अपना बेटा खोया.”

‘रॉबिन’ को याद करते हुए
नोएडा के सेक्टर 29 की सड़कों तक में कैप्टन विजयंती थापर की बहादुरी की झलक दिखती है. उनके परिवार का घर विजयंती एन्क्लेव में है, और घर के बाहर की सड़क अब विजयंती थापर मार्ग कहलाती है.
घर में कदम रखने से पहले, लोग एक छोटी सी बाहरी गैलरी से गुजरते हैं. वहां तस्वीरें, अवॉर्ड्स और उनकी चिट्ठी की लगभग पांच फुट लंबी फ्रेम की हुई कॉपी लगी है.
लेकिन सिर्फ वर्दी में फोटो या अखबार की कटिंग ही उनकी कहानी नहीं कहतीं. हर जगह एक छोटे पक्षी—रॉबिन—की तस्वीरें भी दिखती हैं.

ये कहानी शुरू होती है 29 दिसंबर 1976 से, जिस दिन विजयंती का जन्म पंजाब के नंगल में हुआ था. कर्नल थापर ने जब पहली बार अपने बेटे को देखा, तो उनके मुंह से पहला शब्द निकला—‘रॉबिन.’
“जब मैंने उसे अस्पताल के पालने में देखा, तो वो हाथ-पैर मार रहा था,” उन्होंने याद किया. “उसे इतना ज़िंदादिल और ऊर्जा से भरा देखकर मेरे मन में सबसे पहले ‘रॉबिन’ नाम आया. और तभी से हमने उसे रॉबिन कहना शुरू कर दिया.”
बाद में उनका नाम विजयंती रखा गया, जो भारतीय सेना के एक टैंक का नाम है. लेकिन ‘रॉबिन’ नाम हमेशा के लिए जुड़ गया. और जब वो इस दुनिया से चले गए, तो घर में वो पक्षी उनकी याद का प्रतीक बन गया.
एक नाज़ुक सी ड्राइंग में रॉबिन को नीले और नारंगी रंगों में एक टहनी पर बैठे दिखाया गया है. लिविंग रूम के एक कोने में रॉबिन की एक ऑयल पेंटिंग है, जो हरे बैकग्राउंड पर है. अंदर की ओर एक छोटा सा फ्रेम है जिसमें असली पत्ते पर रॉबिन उकेरा गया है.

“रॉबिन ने कभी अपना घर नहीं छोड़ा. वो हमेशा हमारे साथ है—उसकी चीज़ों में, उसकी हर निशानी में,” त्रिप्ता थापर ने कहा. “उसकी हर चीज़ एक कहानी कहती है, जो वो था उसकी गूंज बनकर.”
विजयंती ऐसे परिवार से थे जहां चार पीढ़ियों ने भारतीय सेना में सेवा दी है. उन्हें हमेशा पता था कि वो भी उस परंपरा को आगे बढ़ाएंगे. बचपन में वो घर में नकली युद्ध खेलते थे. अपने छोटे भाई को पाकिस्तान बनाते और खुद भारत बनते थे.
कर्नल थापर ने कहा, “हमें कभी उसे सेना में जाने को नहीं कहना पड़ा. उसके चेहरे और आत्मा में देश के लिए लड़ने की भावना साफ दिखती थी.”
यह भावना विजयंती के भीतर अंत तक बनी रही, यहां तक कि जब वो मौत के सामने थे.
उन्होंने अपनी आखिरी चिट्ठी में लिखा, “मुझे कोई अफ़सोस नहीं है. अगर मुझे फिर से इंसान बनकर जन्म मिले, तो मैं फिर सेना में जाऊंगा और देश के लिए लड़ूंगा.”
‘एक अच्छा और दयालु इंसान’
यह एक सैनिक की विदाई है और माता-पिता को बेटे की श्रद्धांजलि भी, लेकिन कैप्टन विजयंती की चिट्ठी यह भी दिखाती है कि वो दुनिया को कैसे देखते थे और अपने पीछे क्या छोड़ जाना चाहते थे.
उनकी आखिरी इच्छाओं में से एक साफ-साफ लिखी थी: “थोड़े पैसे अनाथालय में देना और रुकसाना को हर महीने 50/- रुपये देते रहना.”

भारतीय सैन्य अकादमी से पास होकर दिसंबर 1998 में सेना में नियुक्त होने के बाद, विजयंती को कुपवाड़ा भेजा गया था. गश्त के दौरान उन्होंने देखा कि एक बच्ची रोज़ एक ही जगह चुपचाप खड़ी रहती है. वह करीब पांच या छह साल की थी, कभी मुस्कराती नहीं थी, कभी बोलती नहीं थी. उन्होंने लोगों से पूछा तो पता चला—आतंकवादियों ने उसके पिता को उसके सामने गोली मार दी थी. उसका नाम रुकसाना था.
“जब उसे उस बच्ची की कहानी पता चली, तो उसने उससे बात करना शुरू किया,” त्रिप्ता थापर ने आगे कहा. “एक महीने के भीतर वो बच्ची फिर से बोलने और हंसने लगी.”
उनके बेटे को चिट्ठियां लिखना और मैदान से कहानियां भेजना बहुत पसंद था. कभी-कभी वो अपने माता-पिता से कहता था कि वो जिन लोगों से मिला है, उनकी मदद करें. उनके परिवार ने रुकसाना की मदद करना कभी बंद नहीं की.
एक चिट्ठी में उन्होंने अपने परिवार से कहा था कि रुकसाना को हर महीने 50 रुपये भेजते रहें. जब भी वो लोग द्रास जाते हैं, तो उससे ज़रूर मिलते हैं. उन्होंने उसकी पढ़ाई में भी मदद की और हाल ही में उसकी शादी में भी शामिल हुए.
कर्नल थापर ने कहा, “एक अच्छा सैनिक बनने के लिए क्या चाहिए? अगर आप एक अच्छे और दयालु इंसान हैं, तो आप एक अच्छे सैनिक भी होंगे.”
उन्होंने याद किया कि उनका बेटा हमेशा दूसरों की मदद के लिए तैयार रहता था और किसी को तकलीफ में देख नहीं सकता था.

“बचपन से ही अगर किसी को ज़रूरत होती, तो वो अपनी पॉकेट मनी दे देता,” उन्होंने कहा. “वो बहुत दयालु था. और उसकी यही दयालुता उसे न सिर्फ सबसे बहादुर, बल्कि सबसे अच्छा सैनिक बनाती थी.”
25 मई 1999 को, कैप्टन विजयंती की यूनिट को आदेश मिला कि वो द्रास पहुंचे और टोलोलिंग, टाइगर हिल और आस-पास की ऊंचाईयों पर बैठे पाकिस्तानी सैनिकों से भिड़े. उन्हें अपनी पलटन के साथ थ्री पिम्पल्स, नॉल और लोन हिल पर कब्जा करने की ज़िम्मेदारी दी गई. उन्होंने एक जबरदस्त लड़ाई के बाद नॉल पर कब्जा कर लिया, लेकिन इस हमले के दौरान दुश्मन की गोली लगने से कैप्टन विजयंती थापर की जान चली गई. उनके साथ उनके ऑर्डरली जगमाल सिंह और कंपनी कमांडर मेजर पद्मपाणि आचार्य भी इस हमले में शहीद हो गए.
बेडरूम म्यूजियम में तब्दील हुआ
इस साल, कैप्टन थापर के छोटे भाई विजेंदर, जो एक इंजीनियर हैं, अपने बीमार पिता की जगह द्रास गए.
अपने फोन की गैलरी में विजयंती की तस्वीरें देखते हुए त्रिप्ता थापर ने कहा, “हर साल उस जगह पर लौटना आसान नहीं होता जहां आपने अपने किसी करीबी को खोया हो. लेकिन साथ ही, यह हमारे जीवन के सबसे गर्व के पलों में से एक होता है.”
हर साल मई से जुलाई के बीच, थापर परिवार को ढेरों कॉल्स और मैसेज आते हैं—इंटरव्यूज़, निमंत्रण, कार्यक्रमों के अनुरोध. वे स्कूल, कॉलेज और निजी कार्यक्रमों में जाते हैं और अपने वीर बेटे की कहानी सुनाते हैं.
“हम सिर्फ एक सैनिक या बेटे की कहानी नहीं सुनाते—हम एक बहादुर और दयालु इंसान की कहानी सुनाते हैं ताकि देश और उसके युवाओं को प्रेरणा मिल सके,” कर्नल थापर ने कहा. “यह ज़रूरी है कि युवा लोग बहादुर और ईमानदार बनें, चाहे वे किसी भी क्षेत्र में काम करें.”

वो विजयंती के पुराने कमरे में गए, जो अब उसकी यादों का म्यूजियम बन चुका है.
वो हनुमान जी के बहुत बड़े भक्त थे, जिनकी तस्वीरें अब भी दीवारों पर लगी हैं. उन्हें तैरना बहुत पसंद था, और उनकी पीली गॉगल्स अब भी रखी हैं—जो उन्होंने 50 लैप्स पूरे करने के बाद क्लासेस के लिए ली थीं, यह एक चुनौती थी जो उनके पिता ने दी थी. उनका पसंदीदा गाना था “संदेसे आते हैं” फिल्म बॉर्डर से. उनका काला कैसेट प्लेयर और टेप्स अब भी सही हालत में हैं.
कर्नल थापर ने धीरे से बेटे की सेना की जैकेट को छुआ जो दीवार पर टंगी थी, फिर एक कैमरा उठाया.
“एक बार उसने मुझसे कैमरा मांगा था, लेकिन मैंने मना कर दिया था,” उन्होंने कहा. “हालांकि, जिस दिन वो कुपवाड़ा जा रहा था, मैंने उसे कैमरा दिया और वो बहुत खुश हुआ.”
उन्होंने कुछ देर रुककर अपने लैपटॉप पर विजयंती की तस्वीरें देखीं—एक मुस्कराते हुए छोटे बच्चे से लेकर आर्मी यूनिफॉर्म में एक समझदार नौजवान तक.
उन्होंने धीरे से कहा, “वो सच में बहुत हैंडसम था.”
2020 में, कर्नल थापर ने अपने बेटे पर एक जीवनी प्रकाशित की, विजंयती एट कारगिल, जिसे नेहा द्विवेदी के साथ मिलकर लिखा गया था. नेहा एक और कारगिल शहीद मेजर सीबी द्विवेदी की बेटी हैं. यह किताब विजयंती के बचपन, उसकी ट्रेनिंग और उन लोगों की यादों को साझा करती है जिन्होंने उसे करीब से जाना था.
“लिव लाइफ किंग साइज” यानी “जिंदगी को शाही अंदाज़ में जियो” — ये थे विजयंती की चिट्ठी के आखिरी शब्द. उनके माता-पिता अक्सर इस वाक्य को दोहराते हैं.
“उसने अपनी ज़िंदगी शाही अंदाज़ में जी, जो करना चाहा, किया,” कर्नल थापर ने कहा. “और अब हम भी उसी तरह जी रहे हैं, जैसा उसने हमसे कहा था.”
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