डॉ. एल.एस. शशिधर की सबसे पहली प्राथमिकता विज्ञान और अनुसंधान जगत अलग-थलग काम करने की प्रथा को खत्म करना है, और राष्ट्रीय जैविक विज्ञान केंद्र (नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज- एनसीबीएस) के भीतर और बाहर इस बारे में सहयोग को प्रोत्साहित करना है. एनसीबीएस के नए निदेशक के रूप में ऐसा करने के लिए बिल्कुल उपयुक्त हैं.
दिप्रिंट के साथ एक बातचीत में प्रोफ़ेसर शशिधर ने कहा, ‘हमें विज्ञान के बारे में काम करने के अपने तरीके को बदलने की जरूरत है. आज के दिन में विज्ञान अधिक वैश्विक, अधिक सहयोगी और अधिक टीम वर्क के बारे में है. इसलिए हमें एक समान लक्ष्य के लिए एक साथ काम करने वाले लोगों वाली संस्कृति तैयार करने की जरूरत है.’
और इसकी शुरूआत वे अपने घरेलू मैदान से ही करने जा रहे हैं. एनसीबीएस तीन अन्य संस्थानों – डिपार्टमेंट ऑफ़ बायो टेक्नॉलजी (डीबीटी) के इंस्टीट्यूट फॉर स्टेम सेल साइंस एंड रीजेनरेटिव मेडिसिन (इनस्टेम), सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर प्लेटफॉर्म या सी-सीएएमपी, और टाटा इंस्टीट्यूट फॉर जेनेटिक्स एंड सोसाइटी (टीआईजीएस-इंडिया), के परिसर से सटा हुआ है. और ये सभी संस्थान एक साथ मिलकर 1,300 एकड़ के विशाल परिसर वाले कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय (गांधी कृषि विज्ञानं केंद्र- जीकेवीके) के भीतर बैंगलोर लाइफ साइंस क्लस्टर (बीएलआईएससी) का निर्माण करते हैं.
शशिधर ने कहा, ‘यहां का इको सिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) सबसे अच्छे इको सिस्टम्स में से एक है और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त है. मेरे कामकाज के क्रम सबसे पहली चीज डॉ. के. विजयराघवन और डॉ. सत्यजीत मेयर जैसे पिछले निदेशकों द्वारा स्थापित की गई गुणवत्ता को बनाए रखना है.‘ बता दें कि शशिधर ने इसी साल 21 फरवरी को डॉ. सत्यजीत मेयर, जिनके कार्यकाल में एनसीबीएस ने बहु-संस्थान सहयोग में काफी बढ़ोत्तरी देखी थी, से एनसीबीएस के निदेशक के रूप में पदभार ग्रहण किया है.
इस संस्थान के लिए शशिधर की दूरदृष्टि और उसकी दिशा को इसके पूर्व निदेशकों का भरपूर समर्थन प्राप्त है.
केंद्र सरकार के पूर्व प्रमुख वैज्ञानिक सलाहकार विजयराघवन, जो इस संस्थान के पूर्व निदेशक भी रहे हैं, ने कहा, ‘जमीन पर दौड़ना शुरू करने लिए हर किसी को यह जानना होगा कि वह जमीन आखिर है कहां . शशिधर इस सारे परिदृश्य को बड़ी अच्छी तरह से जानते हैं, इसके अंदर (उन्होंने एनसीबीएस को विकसित होते देखा है और इसके बोर्ड के सदस्य हैं) और बाहर, दोनों तरह से.’
विजयराघवन ने इस बात को और समझाते हुए कहा कि इस तरह की नेतृत्व वाली भूमिकाएं ऊर्जावान लेकिन अनुभवी नेतृत्वकर्ताओं को ही दी जाती है. उन्होंने कहा, ‘सबसे महत्वपूर्ण बात यह होती है कि उनमें जीवन विज्ञान अनुसंधान और विकास के बहुत ही रोमांचक मगर जटिल एवं चुनौतीपूर्ण भविष्य से निपटने के लिए सभी को एक साथ लाने की क्षमता हो.’
शशिधर तत्काल उपयोगिता के वास्तविक एवं मूर्त परिणामों को सुनिश्चित करने के हेतु इन संस्थानों के सहयोग से एप्लाइड (अनुप्रयुक्त) और ट्रांसलेशनल (स्थानांतरीय) शोध पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं- या तो एक अच्छे उद्यम के लिए या सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए, जो पुरे देश के लिए और साथ ही बाकी दुनिया के लिए भी हो.
उन्होंने कहा कि इस तरह के अंतर्विषयी (इंटरडिसिप्लिनरी), बहु-विषयी (मल्टीडिसप्लीनरी), बहु-संस्थान सहयोग गुणवत्ता में सुधार करेंगे, उत्पादकता और लाभ को बढ़ाएंगे और साथ ही परिणामों को जटिल बनाने के बजाय विविधता भी प्रदान करेंगे.
पिछले कीर्तिमान और प्रतिष्ठा
अकादमिक समुदाय में सिर्फ शशि के नाम से जाने जाने वाले, इन आणविक जीवविज्ञानी और विज्ञान संचारक (साइंस कम्यूनिकेटर) ने आईआईएसईआर-पुणे को एकदम शुरुआत से स्थापित करने में मदद की है. वह विज्ञान संचार और नीति निर्माण से जुड़े मुद्दों में भी शामिल रहे हैं, और साथ ही तीनों प्रमुख भारतीय विज्ञान अकादमियों – भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, भारतीय विज्ञान अकादमी और राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी, भारत – के सदस्य भी हैं.
उन्होंने पादप एवं पशु आनुवंशिकी तथा आणविक जीव विज्ञान पर काम किया हुआ है, और फ्रूट फ्लाई पर अपने शोध और उनके अंग विकास को समझने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने कैंसर अनुसंधान में भी अपना योगदान दिया है और दिल्ली, पुणे तथा मुंबई में शोधकर्ताओं एवं चिकित्सकों के एक ऐसे बड़े सहयोगी नेटवर्क का हिस्सा हैं, जो ‘ट्रिपल नेगटिव ब्रैस्ट कैंसर’ पर काम कर रहे हैं और यह समझना चाह रहे हैं कि भारतीय उपमहाद्वीप में इसकी वजह से होने वाली मृत्यु की दर असंगत रूप से इतनी अधिक क्यों है?
शशिधर की एनसीबीएस के निदेशक के रूप में हुई नियुक्ति के प्रति न केवल उनके सहकर्मियों बल्कि छात्रों ने भी उत्साह दिखाया है. उनके पूर्व छात्रों ने उन्हें सुलभ, मिलनसार और खुले दिमाग वाला शख्स बताया.
एनसीबीएस के एक शोध छात्र, जिन्होंने शशिधर के कार्यकाल के दौरान ही आईआईएसईआर-पुणे से स्नातक की पढ़ाई की थी, ने कहा, ‘एक अंडरग्रेजुएट छात्र के रूप में भी, शिक्षा या छात्रों से जुड़े मामलों के संबंध में शशि से संपर्क करना काफी आसान था. चूंकि वह अपने करियर के शुरुआती शोध करने वाले शोधकर्ताओं (रिसर्च फेलो) के साथ भी विभिन्न गतिविधियों में शामिल होते रहे हैं, अतः उनके अनुभव और संपर्कों से पूरे कैंपस (परिसर) में सभी को बहुत फायदा होगा.‘
यह भी पढ़ेंः बेंगलुरू का एक ग्रुप घुटने तक गंदे पानी में डूबा हुआ है—भविष्य की बीमारियों के रहस्यों की तलाश कर रहा है
धारवाड़ से कैम्ब्रिज और फिर वहां से वापस आने का सफर
अगर विज्ञान और कला के बीच कहीं कोई खाई है, तो शशिधर उसे बड़ी आसानी से पाट सकते हैं. उनका जन्म कर्नाटक के एक छोटे से शहर धारवाड़ के एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो साहित्य और संगीत से बेहद प्यार करता था.
प्रसिद्ध कन्नड़ कवि डीआर बेंद्रे के प्रति अपने प्रेम को याद करते हुए उन्होंने कहा, ‘मेरे पिता हमें शास्त्रीय संगीत के संगीत समारोहों और प्रसिद्ध लेखकों के व्याख्यानों में ले जाते थे, जो पूरे कर्नाटक से आते थे और साहित्य के बारे में बाते किया करते थे.’
उन्हें कन्नड़ साहित्य और इतिहास से इतना प्यार हो गया था कि एक समय में उन्होंने इन दोनों में किसी एक ही को अपने करियर के विकल्प के रूप में चुनने का मन बनाया था. वे कहते हैं, ‘वे ही दो ऐसी चीजें थीं जिन्होंने मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित किया था.’
लेकिन उनका परिवार विज्ञान से भी प्यार करता था. शशि ने अपने कई ऐसे रिश्तेदारों की सूची गिनाई जो गणित और विज्ञान के प्रोफेसर या इंजीनियर रहे थे. शुरू में, उन्होंने इंजीनियरिंग के आजमाए और परखे हुए रास्ते को चुना था. लेकिन भाग्य के एक और चक्र के तहत जिस इंजीनियरिंग कॉलेज में वह जाना चाहते थे उसमें दाखिले के लिए उनका बुलावा तब आया जब वह इसके कई हफ्ते पहले हीं कृषि विज्ञान विश्वविद्यालय, धारवाड़ में विज्ञान की डिग्री के पाठ्यक्रम की पढाई शुरू कर चुके थे और इसमें उनकी अत्यधिक रुचि भी पैदा ही चुकी थी.
वे कहते हैं, ‘वह पाठ्यक्रम बहुत ही समग्र था. पहले के एक या दो सेमेस्टर में अंग्रेजी साहित्य, समाजशास्त्र, कृषि का इतिहास और यहां तक कि अर्थशास्त्र भी शामिल था.’
शशिधर ने आनुवंशिकी और आणविक जीव विज्ञान के साथ-साथ विकासवाद का भी अध्ययन किया, जो 1985 के स्नातक बैच के लिए अत्याधुनिक विषय थे. उन्होंने आनुवंशिकी और पादप प्रजनन (प्लांट ब्रीडिंग) का अध्ययन करना जारी रखा, जिसमें उन्होंने उसी संस्थान से परा-स्नातक (मास्टर्स) डिग्री हासिल की.
फिर उन्होंने एक साल तक धारवाड़ में ही अध्यापन का काम किया, जिसके बाद वह अपनी पीएचडी और क्लोरोफिल बायोसिंथेसिस में पोस्ट-डॉक्टरेट की डिग्री के लिए कैंब्रिज यूनिवर्सिटी चले गए.
शशि हंसते हुए कहते हैं, ‘उन दिनों, ‘जीन’ के बारे में ज्यादा कुछ नहीं पता था. स्वाभाविक रूप से आण्विक जीव विज्ञान ही सामने आया.’
और यह उन्हें डीएनए और विकासवादी जीव विज्ञान की ओर ले गया.
वे कहते हैं, ‘चूंकि मैं इन सभी विषयों के प्रति बहुत अधिक रोमांचित था, अतः मेरे लिए पौधों से जानवरों तक जाने वाले बिंदुओं को जोड़ना तुलनात्मक रूप से आसान था.’
शशि ने ‘होक्स जीन’ का अध्ययन करने में विशेषज्ञता हासिल की और इस बात का अध्ययन किया कि कैसे वे एक भ्रूण की शुरुआती कोशिकाओं को अंगों के रूप में बदलने में मदद करते हैं.
ये जीन कोशिका विकास के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं क्योंकि वे उस प्रोटीन को कूटबद्ध करते हैं जो भ्रूण के विकास के ‘मास्टर रेगुलेटर’ (प्रमुख नियामक) होते हैं.
उन्होंने बड़ी नेकदिली के साथ समझाया, ‘हम सभी एक ही कोशिका के साथ ही अपनी शुरुआत करते हैं. फिर भी हम सभी की दो आंखें हमारे चेहरे पर बिल्कुल एक ही जगह पर होते हैं. शिशुओं के रूप में भी, हमारे पास दसियों खरब कोशिकाएं होती हैं. वे कैसे जानते हैं कि उन्हें किस प्रकार की कोशिकाओं में विकसित होना है?’
उन्होंने एनसीबीएस, जहां वे कैंब्रिज में 15 महीने बिताने के बाद साल 1993 में वापस लौटे थे, में ड्रोसोफिला मेलानोगास्टर (फ्रूट फ्लाई) में इन जीनों का बड़े पैमाने पर अध्ययन किया. उन्होंने याद करते हुए कहा, ‘उस समय, कोई ईमेल नहीं होता था, इसलिए मैंने उन चुनिंदा प्रयोगशालाओं को पत्र लिखा जहां मैं यह काम कर सकता था, और साल 1993 में दिल्ली से सीधे बेंगलुरु स्थित एनसीबीएस चला गया.’
29 साल की उम्र में, शशिधर विजयराघवन की उस प्रयोगशाला में शामिल हो गए, जो उस समय ड्रोसोफिला पर व्यापक रूप से काम कर रही थी.
उन्होंने कहा, ‘विजय बहुत उदार व्यक्ति थे और उन्होंने मुझे अपनी परियोजनाओं पर काम करने की अनुमति दी. मैं भाग्यशाली था कि जब मैं वहां का फैकल्टी मेंबर (संकाय सदस्य) नहीं था, तब भी मुझे अनुदान मिला.’
उस शोध ने उन्हें यह समझने के लिए प्रेरित किया कि कुछ खराब कोशिकाएं कैसे विकसित होती हैं: फिर उन्होंने मनुष्यों में होने वाले ‘कोलन कैंसर’ के लिए एपीसी जीन की भूमिका का अध्ययन किया.
उन्होंने कहा, ‘कैंसर और बिना-कैंसर वाली कोशिकाओं के बीच का अंतर विकास के दौरान पैदा होता है, सामान्य कोशिकाओं में विकास नियंत्रित होता है, लेकिन ट्यूमर वाली कोशिकाओं में ऐसा नहीं होता. इसी वजह से मुझे वास्तव में कैंसर अनुसंधान में दिलचस्पी हुई और शैक्षणिक रूप से यह एक सहज परिवर्तन था.’
साल 1995 से 2007 तक, उन्होंने सेंटर फॉर सेल्युलर एंड मॉलिक्यूलर बायोलॉजी (सीसीएमबी), हैदराबाद में एक वैज्ञानिक के रूप में कार्य किया, जिसके बाद उन्हें अब काफी प्रतिष्ठित हो चुके भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान (इंडियन इंस्टीटूट्स ऑफ़ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च -आईआईएसईआर) की स्थापना और उसका संचालन शुरू करने के लिए पुणे स्थानांतरित कर दिया गया. उनके इस तरह से जगह बदलने बावजूद, उनकी प्रयोगशाला को अगले कुछ वर्षों तक काम करते रहने की अनुमति दी गई.
उसी समय, उन्हें भारतीय राष्ट्रीय विज्ञान अकादमी के एक फेलो के रूप में भी चुना गया था.
यह भी पढ़ेंः 2022 की बड़ी, सफल अंतरिक्ष कहानियां: स्पेस टूरिजम में बड़ी छलांग और यूनीवर्स जो पहले कभी नहीं देखा
IISER और उससे आगे
आईआईएसईआर संस्थानों का गठन संसद के एक अधिनियम द्वारा अपने स्वयं के पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति के साथ स्थापित संस्थानों की एक नई पीढ़ी के रूप में किया गया था, और इसने उन्हें अपने विषयों को यथासंभव बहु-विषयक बनाने का अवसर दिया.
शशिधर ने इस समय काल को अपने जीवन की एक सबसे रोमांचक अवधि के रूप में वर्णित किया, जिसके दौरान उन्होंने इमारतों की वास्तुकला तय करने, पाठ्यक्रम को डिजाइन करने से लेकर शैक्षणिक विधियों को तय करने तक, हर चीज में अपना योगदान दिया. बाद में उन्होंने अशोका विश्वविद्यालय के विज्ञान विभाग के लिए भी ऐसा ही किया. उस दौरान, वह विज्ञान नीतियों के निर्माण में भी शामिल थे.
शशि कहते हैं, ‘नीतियां महत्वपूर्ण होती हैं और वैज्ञानिक ज्ञान तथा डेटा पर आधारित होनी चाहिए. समाज कल्याण की नीति भी वैज्ञानिक होनी चाहिए.’
वह अशोका विश्वविद्यालय और जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस्ड साइंटिफिक रिसर्च में मानद प्रोफेसर बने हुए हैं तथा अभी भी औपचारिक रूप से सीसीएमबी और आईआईएसईआर -पुणे के साथ जुड़े हुए हैं. इंटरनेशनल यूनियन ऑफ बायोलॉजिकल साइंसेज (आईयूबीएस) के शताब्दी वर्ष के दौरान हुई इसकी तैंतीसवीं महासभा में उन्हें इसका अध्यक्ष चुना गया था.
शशिधर को पिछले दो दशकों में प्रसिद्ध शांति स्वरूप भटनागर पुरस्कार सहित कई प्रतिष्ठित विज्ञान पुरस्कारों से भी नवाजा गया है.
यदि विज्ञान का ‘क्या और क्यों’ उन्हें लुभाता है, तो ‘कैसे’ वह पहलू है जो उन्हें गतिमान बनाये रखता है.
वे कहते हैं, ‘जो बात अधिक महत्वपूर्ण है, वह यह नहीं है कि हम क्या विज्ञान में क्या करते हैं, बल्कि अहम यह है कि हम इसे कैसे करते हैं.‘
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ेंः हमारे मस्तिष्क में छिपे हैं कई राज- गहरी रिसर्च के जरिए नित नए रहस्यों से पर्दा उठा रहे वैज्ञानिक