जयपुर: पांच साल पहले अंकिता शर्मा ने कॉलेज में एक सफाईकर्मी को अपनी शादी शुदा जिंदगी से बाहर निकलने के लिए संघर्ष करते हुए देखा था. उसने राजस्थान के भरतपुर जिले के एक ऐसे व्यक्ति से शादी की थी, जो उसके साथ लगातार मारपीट और गाली-गलौच करता रहता था. ग्रेजुएशन कर रही अंकिता उस महिला की मदद तो करना चाहती थी लेकिन कर नहीं पाई. तब उसे यह एहसास हुआ कि वह इस तरह के मामलों, अदालतों और संविधान के बारे में कितना कम जानती है.
तब उसने ठाना की वह इसे सुधारने के लिए काम करेगी. पहले उसने राजस्थान के एक निजी कॉलेज से कानून की डिग्री ली और अब वह जज बनने की परीक्षा देने की तैयारी कर रही है. अब वह 25 साल की हो चुकी है और उसे आज कानून की बारीकियों के बारे में न केवल जानकारी है बल्कि आपको उसके बारे में बता सकती हैं, विभिन्न अधिनियमों की धाराओं की व्याख्या कर सकती है. समाज में बदलाव लाने का ये उसका अपना तरीका है.
अंकिता उत्तर भारतीय राज्य में हजारों महिला जज उम्मीदवारों में से एक हैं. यह संकेत है कि युवा भारतीय महिलाएं अब आम जनता से जुड़े विशेष क्षेत्र में सेंध लगा रही हैं और महिलाओं की सुरक्षा व उनके अधिकारों के मामले में बदलाव लाने की कवायद में लगी है. शर्मा कहती हैं, ‘गांवों और कस्बों में इस तरह के मामले आम हैं. लेकिन इन महिलाओं को अपने अधिकारों के बारे में कोई जानकारी नहीं है. वह अपने को असहाय महसूस करती हैं.’
भारत की पेचीदा कानूनी व्यवस्था की अपनी समझ के साथ जयपुर की इस 25 साल की लॉ ग्रेजुएट ने कई महिलाओं की मदद की है, जिनमें से लगभग सभी दुर्व्यवहार की शिकार थीं. जयपुर के राजस्थली लॉ इंस्टीट्यूट में ज्यूडिशियल कोचिंग क्लास ले रही शर्मा के पास इस महिला कैडर में शामिल होने के एक से ज्यादा कारण हैं. वह बताती हैं, ‘ये मामले आपके सामने आते रहते हैं और अगर आप खुद सशक्त नहीं हैं तो फिर आप उनकी किसी भी तरह मदद नहीं कर पाएंगे.’
शर्मा बिलकिस बानो मामले पर एक समाचार क्लिप की ओर इशारा करती हैं, जिसमें दोषियों को गुजरात सरकार ने अपनी छूट नीति के तहत रिहा करने वाली खबर छपी थी.
वह कहती हैं, ‘यह सब मुझे गुस्सा दिलाता है.’
राजस्थान विश्वविद्यालय में विधि संकाय की डीन संजुला थानवी के मुताबिक, कानून की डिग्री पाने वाली इन लड़कियों में से कुछ खुद घरेलू हिंसा का शिकार हो चुकी हैं या फिर अन्य पारिवारिक मामलों में उनके अधिकारों का हनन किया गया है. थानवी ने कहा, ‘और कुछ अंकिता की तरह हैं. दरअसल कानूनी क्षेत्र में आने की महिलाओं की तीव्र इच्छा की वजह अपनी मौजूदा स्थिति में बदलाव लाना है.’
सुप्रीम कोर्ट की रिटायर्ड जज ज्ञान सुधा मिश्रा ने टिप्पणी की, ‘हरियाणा और राजस्थान जैसे राज्य जो कभी कन्या भ्रूण हत्या, खाप और पीछे की ओर ले जाने वाली व्यवस्था के लिए सुर्खियों में थे, आज महिलाओं के लिए कानूनी बिरादरी में करियर बनाने और अधीनस्थ न्यायपालिका में उनके बढ़ते प्रतिनिधित्व के लिए उनकी चर्चा की जा रही है. यह निश्चित रूप से एक उत्साहजनक ट्रेंड है.’
उन्होंने कहा कि वर्ष 2021 में राजस्थान हाई कोर्ट में पहली महिला जज को बार से सीधे पदोन्नत होने में लगभग 72 साल लग गए. ‘हमें सुधार के आदर्श स्तर तक पहुंचना बाकी है.’
बिहार के पटना में जन्मीं और पली-बढ़ीं मिश्रा, 1970 के दशक में सुप्रीम कोर्ट में प्रैक्टिस करने के लिए नई दिल्ली चली आईं थी. वह पटना हाई कोर्ट में जज बनीं और बाद में राजस्थान हाई कोर्ट में भी काम किया. 2000 के अंत में वह झारखंड हाई कोर्ट की पहली महिला मुख्य न्यायाधीश बनीं.
वह महिला कैडर के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में बात करते हुए कहती हैं, ‘उच्च न्यायपालिका में सीढ़ी चढ़ना उतनी ही बड़ी चुनौती है जितना कि प्रमोशन द्वारा उच्च न्यायालयों में ऊंचे पदों तक पहुंचना. यह एक आसान काम नहीं है. ज्यादातर महिला वकील जिले में मध्य स्तर में फंस कर रह जाती हैं.’ पर साथ ही वह इस बात पर भी जोर देती हैं कि इन सबके बावजूद बदलाव का यह सिलसिला रुकेगा नहीं.
‘जब मैं झारखंड के मुख्य न्यायाधीश पद पर थी, तब मैंने एक जिला न्यायाधीश को एक असाइनमेंट दिया था. टास्क पूरा न कर पाने पर उन्होंने भोजपुरी में कमेंट किया, ‘नहरानी से गच्ची कटइतई? (क्या एक नेल कटर एक पेड़ को काट सकेगा?)’ वह आगे कहती हैं कि इसके बाद मैंने उसका तबादला कर दिया, लेकिन आप देख सकते हो कि पुरूष कैसे अपनी सूपेरियारिटी का मजा लेते हैं.’
मिश्रा ने कहा कि ऊंचे पदों पर महिलाओं के आने से उनकी मानसिकता में मामूली बदलाव आया है. ‘लेकिन ये भेदभाव हमेशा मौजूद रहता है. एक महिला के तौर पर आप इसे महसूस कर सकती हैं.’
उन्होंने याद करते हुए बताया कि चीफ जस्टिस के रूप में उनके स्वागत भाषण के दौरान महाधिवक्ता ने उन्हें बहन कहकर संबोधित किया था. वह बताती हैं ‘मुझे याद नहीं है कि मैंने उस समय कैसे प्रतिक्रिया दी थी. लेकिन हम अभी भी महिलाओं को उनके पदों के आधार पर स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं. इसलिए उनके लिए महिलाएं हमेशा माताओं और बहनों वाली शख्सियत होती हैं.’
मिश्रा ने कहा कि हाल के बैचों की युवा महिलाओं ने जिला अदालतों के जूनियर डिवीजनों में सिविल जज के रूप में अपना करियर शुरू किया है. आने वाले समय में महिला जिला न्यायाधीशों की एक सेना तैयार होने की उम्मीद है. वह कहती हैं, ‘लेकिन उच्च न्यायपालिका में ये बदलाव दिखाई नहीं दे रहा है.’
नई पीढ़ी को प्रेरणा
ज्यूडिशियल सर्विस परीक्षा के आंकड़ों में यह ट्रेंड साफ नजर आ रहा है. हाल के राजस्थान न्यायिक सेवा (आरजेएस) 2022 के परिणाम बताते हैं कि महिलाएं न सिर्फ परीक्षा में टॉप पर हैं, बल्कि पुरुषों से कहीं आगे निकल गईं हैं.
‘महिलाओं ने एक बार फिर बाजी मारी, आरजेएस में टॉप के 10 उम्मीदवारों में से आठ महिलाएं’: इस तरह की खबरों ने इस साल अगस्त में हिंदी अखबारों के पहले पन्ने पर सुर्खियां बटोरीं.
शहर में लगे बड़े-बड़े होर्डिंग में लैक्मे मस्कारा, लक्ज़री और ज्वैलरी विज्ञापनों वाली मॉडल्स के साथ-साथ अब न्यायिक परीक्षा की टॉपर्स महिलाओं ने भी जगह बना ली है. महिला जजों के नए बैच की घोषणा करने वाले विशाल होर्डिंग्स पर अब सफल महिला उम्मीदवारों की भी तस्वीरें लगी हैं. कुल मिलाकर इन तस्वीरों ने ग्लैमर के अर्थ का विस्तार करते हुए हजारों युवा लड़कियों के लिए बार को उससे थोड़ा ऊपर बना दिया है.
राजस्थान उच्च न्यायालय के आंकड़ों से पता चलता है कि इस साल न्यायपालिका के लिए चुने गए 120 उम्मीदवारों में से 71 महिलाएं थीं.
बैच दिसंबर में न्यायिक प्रशिक्षण शुरू करेगा, लेकिन उनकी सफलता की कहानियां पहले से ही सोशल मीडिया पर प्रसारित होने लगी हैं. इनसे नई पीढ़ी की युवा महिलाओं और स्कूली लड़कियों को प्रेरणा मिली है.
30 फीसदी आरक्षण, CLAT और खाली पद
उत्तर भारत के छोटे शहरों में चुपके से एक मूक क्रांति की लहर चल पड़ी है. लॉ कॉलेज में जाने की मांग को लेकर बेटियां मां-बाप से भिड़ रही हैं. वे अपने भाइयों और बड़ों के मजाक बनाने वाले तर्कों का विरोध करती हैं, स्कूल जाने वाली लड़कियां भी जज बनने का सपना देख रही हैं, यहां तक अपमानजनक संबंधों से बाहर निकलकर आने वाली महिलाएं भी अब कानूनी शिक्षा की ओर जाकर अपनी ताकत हासिल कर रही हैं.
इतनी तेजी से इस ओर आने का क्या कारण है? लोकप्रिय संस्कृति अभी तक इस प्रवृत्ति को समझ नहीं पाया है, लेकिन कानूनी विशेषज्ञों का कहना है कि राजस्थान के मामले में, न्यायपालिका में महिलाओं के लिए आरक्षण ने इस ट्रेंड को गति दी है.
राजस्थान में महिलाएं न्यायपालिका में 30 प्रतिशत आरक्षण की हकदार हैं. इसमें से एक तिहाई आरक्षण उन महिलाओं को दिया जाता है जिन्होंने अपने पति को खो दिया या फिर जिनका तलाक 80/20 के अनुपात में हुआ है.
इसने दूर दराज के क्षेत्रों में उन महिलाओं के लिए रास्ते तैयार कर दिए जो अपने परिवार में शिक्षा पाने वाली पहली पीढ़ी हैं. इसने लिंग असंतुलन को झुका दिया और क्लास रूम में विविधता की शुरुआत की.
कोचिंग सेंटर चलाने वाली महिलाओं ने कहा, कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट या क्लैट को अपनाने के साथ-साथ हर साल निकलने वाली न्यायिक रिक्तियों और एक निष्पक्ष परीक्षा प्रणाली ने भी महिलाओं की भारी संख्या में इस ओर आने के लिए योगदान दिया है. ये सभी कारक कानूनी शिक्षा में ‘उछाल’ के लिए जिम्मेदार हैं.
एक जिला न्यायाधीश ने कहा, ‘एक कहावत थी कि जो कुछ नहीं कर पाता, वह लॉ कर लेता है. आमतौर पर यह भटके हुए लोगों का कोर्स था, एक ऐसा कोर्स जिसपर पुरुषों का दबदबा था. लेकिन क्लैट के बाद से जिलों में कॉलेजों की संख्या बढ़ गई और ज्यादा से ज्यादा महिलाओं ने कानून जैसी पेशेवर डिग्री के लिए नामांकन करना शुरू कर दिया.’
नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी (NLSIU) ने 2008 में पहली बार CLAT का आयोजन किया था. जिला न्यायाधीश ने कहा, ‘इसके साथ, राष्ट्रीय लॉ कॉलेजों ने भी इसका पालन किया.’ सबसे पहले कोचिंग सेंटर और शिक्षण संस्थानों ने इस ट्रेंड को नोटिस किया और फिर अचानक से लॉ एक हॉट टॉपिक बन गया.
एक और बड़ा बदलाव 2016 में हुआ जब राजस्थान लोक सेवा आयोग के बजाय राजस्थान उच्च न्यायालय ने आरजेएस का संचालन अपने हाथ में ले लिया. इस बदलाव की वजह से अपारदर्शी चयन प्रक्रिया कहीं पीछे छूट गई. अब पहले से कहीं ज्यादा ट्रांसपेरेंसी है.
चुरू जिले में एक कोचिंग सेंटर चलाने वाले जेबी खान ने कहा, ‘जब तक ये आरपीएससी के हाथ में था, अनियमित रिक्तियां (कभी-कभी 4-5 साल का अंतराल) और चयन प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण थी.’ वह गर्व से बताती हैं कि उनकी भाभी उस 2006 बैच का हिस्सा थीं, जिसने आरपीएससी की चयन प्रक्रिया को उच्च न्यायालयों में चुनौती दी थी. वह वर्तमान में जिला अदालत में एडीजे रैंक पर है.
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आगे आती महिलाएं
जयपुर के गोपालपुरा बाईपास मेन रोड पर ट्रैक पैंट, ट्राउजर और सलवार-कमीज पहनें महिलाओं की अच्छी-खासी भीड़ दिखाई दे रही है. वो एक खास मकसद से यहां आई हैं. एक हाथ में कानून की किताबें, दूसरे हाथ में टिफिन और पानी की बोतल उठाए, वे सड़क के किनारे स्थित विभिन्न कोचिंग सेंटरों की ओर जा रही हैं.
गलियां बड़े-बड़े होर्डिंग्स से पटी पड़ी हैं, जिनमें टॉप रैंक पाने वाले छात्रों की तस्वीरें लगी हैं. और इनमें ज्यादातर फोटो महिलाओं की हैं. जयपुर के इन कोचिंग हब के ये बैनर अच्छी रैंक, बेहतर शिक्षक और गारंटी से सफलता का वादा करते हैं. इस इलाके में 7 आरजेएस-समर्पित लॉ कोचिंग सेंटर हैं. और अभी कुछ नए सेंटर हाल-फिलहाल में खुलने वाले हैं.
कोचिंग संस्थानों की दुनिया में कोटा के किंग ‘एलन’ भी आरजेएस उम्मीदवारों के अपने पहले बैच को ‘लॉन्च’ करने के लिए तैयार हैं.
एक कोचिंग सेंटर के मालिक ने कहा, ‘यह बड़ा है. महिलाओं की सफलता की कहानियां हर जगह पहुंच रही हैं.’
शर्मा जिस संस्थान में नामांकित हैं, उसमें 120 उम्मीदवार तैयारी कर रहे हैं. इनमें से 80 फीसदी महिलाएं हैं. कुछ चार्टर्ड एकाउंटेंट हैं तो कुछ इंजीनियर. सभी के पास कानून की डिग्री है और अब वे जज बनना चाहती हैं.
क्लास में प्रियंका गोयनका, दिव्या शर्मा और सोनाक्षी पारिक के साथ शर्मा सबसे आगे वाली लाइन में बैठी हैं. वे लेक्चर के महत्वपूर्ण प्वाइंट को नोट करते हुए, अपनी किताबों में महत्वपूर्ण पैराग्राफ को हाइलाइट करने में लगी हुई हैं. क्लास तक पहुंचने के उनके मुश्किल सफर उनके आत्मविश्वास को डगमगाने नहीं देता है.
लगभग सभी लड़कियों के पास बताने के लिए अपनी एक कहानी है. जब ऊंची जाति में शुमार सीकर समुदाय की इस लड़की ने कहा कि वह कानून की पढ़ाई करने जा रही है और जज बनने की कोशिश कर रही हैं, तो उसके माता-पिता हैरान रह गए. उन्हें बताया गया कि परिवार की किसी भी महिला ने ऐसा करने की हिम्मत नहीं की है.
कोचिंग सेंटर में क्लास ले रही एक छात्रा ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, ‘ मुझसे कहा गया कि जितना चाहती हो उतना पढ़ लो. लेकिन तुम्हें नौकरी करने की इजाजत नहीं है. मेरे भाई ने मुझे बताया कि हमारे समुदाय में महिलाओं को ऐसे प्रोफेशन में नहीं जाने दिया जाएगा, जहां उसे अपराधियों का सामना करना पड़ता है.’
अलवर की एक अन्य महिला उम्मीदवार कभी घरेलू हिंसा का शिकार हुई थी. उसने खुद से अपनी स्थिति सुधारने का फैसला किया. वह बताती है, ‘जब मेरी शादी टूटी, तो मानो कहर टूट पड़ा हो. मेरे समुदाय में शादी के अंत का मतलब है जीवन का अंत हो जाना. कलंक से लड़ने के साथ-साथ,मुझे परिवार और समुदाय के भीतर अपने इस प्रोफेशन के लिए भी लड़ाई लड़नी पड़ी, जो अभी भी चल रही है’
आज ये सब लड़कियां भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 के बारे में पढ़ने के लिए एक साथ बैठी हैं.
शर्मा ने अधिनियम में ‘तथ्यों की प्रासंगिकता’ के बारे में अपने डाउट क्लियर करने के लिए अपना हाथ उठाया. उसके टीचर एमके सिंह उसे जवाब देने से पहले उसके आत्मविश्वास की प्रशंसा करते हैं. न्यायिक कोचिंग पाठ्यक्रम में पोक्सो, बलात्कार और भारती लय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 जैसे संवेदनशील विषयों को भी शामिल किया गया है.
सिंह कहते हैं, ‘जब हमने 2008 में (टीचिंग) शुरू की थी तो काफी कुछ अलग था. मैं पहले महिला उम्मीदवारों को सेक्सुअलिटी से निपटने वाले लॉ पढ़ाने में बहुत शर्माता था. लेकिन हम एक लंबा सफर तय कर चुके हैं. आप इन उज्ज्वल और आत्मविश्वास से भरे चेहरों को देख सकते हैं’ उन्होंने 2000 के दशक के अंत में राजस्थानी लॉ इंस्टीट्यूट शुरू किया था.
हर छात्र अपनी नोटबुक के पहले पेज पर लिखता है कि वह किस विषय में विशेषज्ञता हासिल करना चाहता है. कई महिलाओं ने कहा कि वे पोक्सो मामलों से संबंधित असाइनमेंट चाहती हैं, तो वहीं अन्य ने ‘महिलाओं से संबंधित मामलों’ को ज्यादा तरजीह दिए जाने की बात कही.
लेकिन इन सभी को जज बनने के लिए नहीं चुना जाएगा. सीमित संख्या में सीटों के लिए मुकाबला कड़ा है, खासकर जब ज्यादा से ज्यादा लोग परीक्षा में बैठने का प्रयास कर रहे हो.
भरतपुर के एक छोटे से कस्बे कमान में पली-बढ़ी शर्मा जोर देकर कहती हैं कि अगर वह इसे पास नहीं कर पाती हैं तो ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा’ वह कहती हैं, ‘अगर मैं इस एग्जाम को क्लियर नहीं कर पाई, तो मैं एक वकील बन सकती हूं.’
स्टेटस से लेकर कलंक तक
1994 में संजुला थानवी ने उसी विभाग से एलएलबी की डिग्री हासिल की थी जहां वह अब प्रमुख हैं. उस समय भी महिलाओं के लिए चीजें आसान नहीं थीं. कानून स्नातकों के लिए विवाह की संभावनाएं कम थीं. कानून की डिग्री पाने का बाद अगर उन्होंने बड़े शहरों की तरफ रूख नहीं किया तो उनका करियर ज्यादा आगे तक नहीं बढ़ पाता था.
थनवी ने कहा, ‘कुछ नौकरियों को करने का मतलब था कि उन्हें आजीवन अविवाहित रहना होगा. क्योंकि ऐसा कर वह अपने पुरुष समकक्षों की असुरक्षा को बढ़ा देती हैं. पुलिस के लिए भी ऐसा ही माना जाता था. लेकिन पुलिस और प्रशासनिक सेवाओं को लेकर बनी ये सोच अब कहीं दूर पीछे छूट चुकी है. न्यायिक सेवाओं में अब बदलाव देखा जा रहा है.’
महिला वकीलों और जजों के उन्हीं गुणों के लिए उनकी आलोचना की गई, जिनके लिए उनके पुरुष सहयोगियों की प्रशंसा की जाती थी.
थनवी मंद-मंद मुस्कराते हुए कहती हैं, ‘ऊंचे विचार वाले, बहुत सशक्त लोग हमारे बारे में यही कहते थे. और कौन विश्वास करेगा कि मेरे पति को भी उनके रिश्तेदारों ने मुझसे शादी न करने की सलाह दी थी.’
इस तरह की रूढ़िवादिता अभी भी मौजूद है. लेकिन आज तस्वीर थोड़ी सी बदली है. ज्यादातर इलाकों में जहां जज से शादी करना एक शर्म की बात है वहीं छोटे शहरों में यह एक स्टेटस सिंबल बन गया है.
इस साल की आरजेएस परीक्षा में 54वीं रैंक हासिल करने वाली रजनी यादव कहती हैं, ‘सामाजिक तौर पर ही सही, कम से कम आरजेएस पास बहू/बेटी एक स्टेटस तो बना. ’ जयपुर जिले के कोटपुतली नामक एक छोटे से शहर से बीकॉम ग्रेजुएट रजनी को अपने माता-पिता को मनाने के लिए काफी समय लग गया था.
यादव ने कहा, ‘मेरा परिवार टीचिंग के प्रोफेशन में है. उन्हें न्यायपालिका और कानून के बारे में कोई जानकारी नहीं थी. इसलिए जब मैंने एलएलबी की डिग्री हासिल करने की इच्छा जताई तो मेरे पिता ने इसका विरोध किया. उनकी चिंता की कोई सीमा नहीं थी. उनकी नजर में, कानूनी पेशे में एक महिला से कौन शादी करता है.’
हालांकि शुरू में कुछ विरोध के बाद और अपने आश्चर्यजनक रूप से अपने दादा-दादी के समर्थन से उन्हें हार माननी पड़ी.
तीन दशकों में हालात काफी बदले हैं. निचली अदालतें, खासकर जहां महिला जजों की नियुक्ति की जा रही हैं, उनके पास महिला कैडर को देने के लिए बहुत कुछ है.
राजस्थान में प्रैक्टिस करने वाली तीसरी पीढ़ी की वकील सोनिया शांडिल्य कहती हैं, ‘महिलाएं साल 2000 में भी न्यायिक सेवा में शामिल होना चाहती थीं, लेकिन उस समय विकल्प कम थे. अब आपके पास बेहतर बुनियादी ढांचा, सेफ्टी और सिक्योरिटी और अच्छी सैलरी है.’
माता-पिता भी वकीलों की तुलना में अपनी बेटियों के जज बनने पर ज्यादा खुश हैं.
नीमराना ग्राम न्यायालय में प्रैक्टिस करने वाली एक युवा वकील कहती हैं, ‘एक वकील के रूप में खुद को स्थापित करने में सालों लग जाते हैं. इसके अलावा इसे महिलाओं के लिए शोषण के क्षेत्र के रूप में जाना जाता है. ज्यूडिशरी में रहते हुए आप अपने खाली समय में परिवार को देख सकती हैं और अपना करियर भी बना सकती हैं’ वह आरजेएस 2022 कट-ऑफ में दो अंकों से चूक गईं थीं.
लड़कियों के लिए सुबह 10 से शाम 5 की डयूटी वाली सोच अब बदल गई है. अच्छा वेतन, सिक्योरिटी , घर और अन्य लाभ जैसे भत्ते भी एक आकर्षण हैं. शिक्षकों से लेकर लेक्चचर तक, दुकानदारों से लेकर मालिकों और स्थानीय व्यापारियों तक हर मध्यमवर्गीय परिवार के पास इन भत्तों की सूची उनकी उंगलियों पर है.
एमके सिंह अपने छात्रों की जज बनने के उनकी चाह की प्रशंसा करते हुए कहते हैं, ‘आप एक IPS या एक IAS अधिकारी से अधिक पावरफुल हैं. अगर आप एसपी या डीएम हैं, तो भी आपको विधायक और सांसद अपना फेवर करने के लिए किसी भी समय बुला सकते हैं. जिस दिन आप सिविल जज बनेंगे, आपको उनसे कहीं ज्यादा वेतन मिलेगा. कोई भी सीएम और पीएम की आलोचना कर सकता है, लेकिन कोई भी मजिस्ट्रेट पर उंगली नहीं उठा सकता है’ शर्मा के साथ-साथ अन्य छात्र भी उत्साह से सिर हिलाते हैं. उनकी आंखें इस दुनिया में जाने की संभावना से चमक उठती हैं.
कोचिंग सेंटर का मैनेजर रिसेप्शन पर अपने भाई और माता-पिता के साथ खड़ी एक युवा महिला को यही बात दोहराते हुए समझा रहा था.
यादव ने कहा, ‘जो महिलाएं जज बनना चाहती हैं और कोचिंग सेंटर जा रही हैं, वे पहले ही एक लड़ाई लड़ चुकी हैं और उसे जीत चुकी हैं. उनके पास कानून की डिग्री है.’
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यह भारत की निचली अदालतों में महिला जजों पर एक चलाई जा रही सीरीज का हिस्सा है. यहां सभी लेख पढ़ें.
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