नई दिल्ली: उत्तर प्रदेश के ब्राह्मण बाहुबली अमरमणि त्रिपाठी, जो एक हत्यकांड में वर्षों से कौद थे, अब आज़ाद है. लेकिन उनका दो दशक पुराना मामला ट्रेडमार्क राजनीतिक खींचतान और दबाव को लेकर एक उदाहरण बन गया था जो वीआईपी अपराधियों के द्वारा एक खेल खेला गया था. इस खेल के किरदारों में यूपी की सीएम और बीएसपी सुप्रीमो मायावती, ईमानदार आईपीएस अधिकारी और टेलीफोन विभाग शामिल था जिसने बाद में अपने पैर खींच लिए थे.
राजनीतिक खींचतान के केंद्र में दो आईपीएस अधिकारी थे जिसमें एक थे यूपी के पूर्व डीजी महेंद्र लालका और दूसरे थे एसपी अमिताभ यश. दोनों को निलंबन और तबादले जैसी मुश्किलों से गुजरना पड़ा था.
चार बार यूपी के विधायक और 2002 की मायावती सरकार में कैबिनेट मंत्री अमरमणि त्रिपाठी और उनकी पत्नी पर 9 मई 2003 को युवा और तेजतर्रार कवयित्री मधुमिता शुक्ला की हत्या का आरोप लगाया गया था. जब लखनऊ में उनकी गोली मारकर हत्या कर दी गई, तब वह गर्भवती थीं. उस समय लखनऊ पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई का निर्वाचन क्षेत्र था.
यह एक सनसनीखेज मामला था जिसने तुरंत राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियां बटोरीं. पुलिस जांच में भी खूब ड्रामा हुआ.
स्थानीय पुलिस, खासकर SHO अजय कुमार चतुर्वेदी ने पीड़ित के घर से साक्ष्य सुरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. लेकिन बीजेपी और बीएसपी दोनों ही त्रिपाठी को बचाने की कोशिश कर रहे थे और चतुर्वेंदी को आसानी से उनके प्रभार से मुक्त कर दिया गया था.
लेकिन बात यहीं ख़त्म नहीं हुई. मायावती ने मामले को स्थानीय पुलिस से ले लिया और इसे सीबी-सीआईडी, जो राज्य की विशेष जांच इकाई थी, को सौंप दी. उन्होंने जांच के लिए 30 दिनों की सख्त समय सीमा तय की.
टीम में रह चुके एक सूत्र ने बताया कि पुलिस अधिकारियों को परेशान करने के लिए कई अजीब तरह के बहाने ढूंढे गए. 30वें दिन एक वरिष्ठ अधिकारी ने एक पुलिस अधिकारी को बुलाया और एक विचित्र प्रश्न पूछा: मुझे टीम के सभी सदस्यों के नाम बताओ. पुलिस अधिकारी को एक सदस्य का पूरा नाम याद नहीं था.
उन्होंने कहा, “आपको जांच दल के सभी अधिकारियों के पूरे नाम याद नहीं हैं.” और सिर्फ इसलिए उस अधिकारी को वरिष्ठ सरकारी अधिकारी द्वारा निलंबित कर दिया गया.
उस दिन, 17 जून को मायावती ने लालका और यश को निलंबित कर दिया और पांच जूनियर अधिकारियों का तबादला कर दिया. फिर उन्होंने केस को सीबीआई को ट्रांसफर कर दिया.
प्रथम दृष्टया, जो कारण बताए गए, वे जांच में देरी के कारण थे. मायावती ने उस समय कहा था, “एजेंसी ने न तो अपनी रिपोर्ट सौंपी और न ही विस्तार की मांग की. हमने इसे बहुत गंभीरता से लिया है.”
इससे राज्य में आईएएस और आईपीएस कैडरों में हलचल मच गई और उन्होंने सरकार को अपनी नाराजगी से अवगत कराया. अमिताभ यश, जो अब एडीजीपी, स्पेशल टास्क फोर्स हैं, ने कहा, “सीबी-सीआईडी को जांच पूरी करने के लिए 30 दिन का समय दिया गया था. निलंबन 30 दिन की अवधि के बाद आया. मेरा निलंबन रद्द कर दिया गया और 40 दिनों के भीतर सभी आरोप हटा दिए गए. कोई भी एजेंसी को 30 दिनों में एक जटिल जांच पूरी करने के लिए बाध्य नहीं कर सकता. सीबी-सीआईडी में संसाधन सीमित थे.”
यश को एसपी मानवाधिकार के पद पर बहाल किया गया. ललका की बहाली में थोड़ा और वक्त लगा.
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राजनीतिक संरक्षण
त्रिपाठी, जिनके खिलाफ कई और मामले दर्ज थे, उस समय 20 साल के करियर के साथ एक राजनीतिक गुर्गे थे. उनका कांग्रेस, समाजवादी पार्टी, बीएसपी और बीजेपी से जुड़ाव था और वह एक समय यूपी के पूर्वांचल क्षेत्र के सबसे बड़े और सबसे प्रभावशाली ब्राह्मण चेहरों में से एक थे. 2002 में वह बीजेपी समर्थित मायावती सरकार में मंत्री थे. अमरमणी 1997 में कल्याण सिंह, 1999 में राम प्रकाश गुप्ता और 2000 में राजनाथ सिंह के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकारों में भी मंत्री बने.
सबूतों के बावजूद- जांच के पहले दिन मिली मधुमिता की डायरी- अमरमणि और मधुमिता के रिश्ते और हत्या के मकसद का परत खोलती थी. जांच टीमों को कई अन्य मुश्किलों का भी सामना करना पड़ा. मूलत: ऐसा लग रहा था कि जांच में तेजी लाने का दबाव था, और साथ ही अमरमणि और उनकी पत्नी को आरोपी के रूप में नामित न करने और उनका नाम हटाने और सबूतों पर ध्यान न देने का दबाव था.
एक पुलिस सूत्र ने कहा, “अमरमणि का राजनीतिक समर्थन और राजनीतिक रसूख खेल पुलिस बल के चेहरे पर एक तमाचे की तरह आया. शुरुआत से ही, जांच टीमों को पहले दिन से ही सबूतों की मौजूदगी के बावजूद उसे खोए हुए दिखने के लिए मजबूर होना पड़ा.” लालका (अब सेवानिवृत्त) ने अपने निलंबन पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
पूरे मामले और जिस तरीके से इसे यूपी सरकार ने संभाला, उसने पुलिस बल को हतोत्साहित कर दिया, जो पहले से ही उन लोगों के बीच विभाजित था जो जांच को बंद करने की पूरी कोशिश कर रहे थे और जो राजनीतिक ताकतों के आगे झुक रहे थे.
मामले से परिचित एक पुलिस सूत्र ने कहा, “उस समय एक भी कॉल डिटेल रिकॉर्ड प्राप्त करना एक कार्य था. टेलीफोन एजेंसियां कागजी कार्रवाई और अनुमति के नाम पर टालमटोल करती रहेंगी.”
उन्होंने कहा कि जांच 30 दिन की समय सीमा से लगभग दो दिन पहले ही खत्म हो गई थी. केस की फाइलें तैयार थीं, सिर्फ अमरमणि त्रिपाठी से पूछताछ बाकी थी. लेकिन अविश्वास इतना ज्यादा था कि टीम ने फाइलें सरकार को नहीं सौंपीं.
सूत्र ने कहा, “कानूनी तौर पर जांच टीम को सरकार को कुछ भी प्रस्तुत नहीं करना पड़ता है. केस डायरी और फाइलें तैयार की जाने वाली चार्जशीट का हिस्सा होंगी.”
उन्होंने कहा कि सरकार जटिल और संवेदनशील मामलों में जांच के लिए कोई सख्त समय सीमा तय नहीं कर सकती- 30 दिन बहुत छोटी अवधि थी- और आरोप पत्र हमेशा अदालत में ही जमा किया जाता है. हालांकि, सरकार मामले में अपडेट मांग सकती है.
निष्कर्षों में अमरमणि को मुख्य आरोपी बताया गया.
और तभी समय सीमा के दूसरे आखिरी दिन पूछताछ शुरू हुई.
एडीजीपी यश कहते हैं, “प्रारंभिक निष्कर्षों में तकनीकी के साथ-साथ वित्तीय साक्ष्य भी शामिल थे जो मधुमिता और अमरमणि के बीच संबंध दर्शाते थे. शुरू में अमरमणि ने जांच में सहयोग नहीं किया.”
पहले तो अमरमणि टाल-मटोल करता रहा और हर बात से इनकार करता रहा.
एक अन्य सूत्र ने कहा, “हमने मधुमिता से उनके रिश्ते के बारे में जो भी पूछा, वह इनकार करते रहे. उनके वकीलों ने उन्हें तैयार किया था. अधिकांश प्रश्नों के उत्तर में उन्होंने कहा कि उन्हें कोई जानकारी नहीं है. जब हमने उनसे कॉल रिकॉर्ड के बारे में पूछा, तो उन्होंने बताया कि उनके घर में बहुत सारे नौकर और लोग आते जाते रहते हैं, इसलिए कोई भी ये कॉल कर सकता था.”
जांचकर्ताओं ने मधुमिता के घर के पास के फोन बूथ से रजिस्टर भी जब्त किए थे. हत्या से एक रात पहले शूटरों ने फोन बूथ से त्रिपाठी के आवास पर कॉल की थी.
लेकिन जब जांचकर्ताओं ने उनसे वित्तीय लेनदेन के बारे में पूछना शुरू किया तो अमरमणि टूट गए.
दूसरे सूत्र ने कहा, “वह एक सफेद कुर्ता पायजामा पहने बैठा था, पैर क्रॉस किए हुए, उसे पूरा विश्वास था कि वह टूटेगा नहीं. जब टीम ने वित्तीय लेनदेन को सूचीबद्ध करना शुरू किया- मधुमिता के घर में 8,000 रुपये का एक फ्रिज था. पैसे का एक हिस्सा चेक से और बाकी नकद में दिया गया. यह चेक अमरमणि से जुड़े एक एनजीओ से जारी किया गया था. जब हमने उसे सबूत दिखाए और वित्तीय लेनदेन का पता लगाना शुरू किया तो उसे पसीना आने लगा. अगले पांच मिनट के भीतर, वह पसीने से भीग गया.”
फिर ललका और यश का निलंबन हुआ. जून के अंत तक मामले की फाइलें मायावती के कार्यालय के साथ-साथ मीडिया तक पहुंच गईं.
दूसरे सूत्र ने कहा, “स्थिति उन सभी के लिए घबराहट भरी थी जो अमरमणि को क्लीन चिट देने की कोशिश कर रहे थे. उन्हें किसी पर दोष मढ़ने की ज़रूरत थी और अधिकारियों के नाम एक प्लेट पर परोस दिए गए.”
स्थानीय पुलिस और सीबी-सीआईडी द्वारा कोई गिरफ्तारी नहीं की गई. शूटर भाग गए थे और अधिकारी हत्या के पीछे के मकसद का पता लगाने और साजिश के पहलू को स्थापित करने की कोशिश में लगे हुए थे. लेकिन सीबी-सीआईडी टीम और स्थानीय पुलिस दोनों का अपना निष्कर्ष था- सभी सबूत अमरमणि त्रिपाठी की ओर इशारा कर रहे थे.
आखिरकार सितंबर 2003 में सीबीआई ने अमरमणि को गिरफ्तार कर लिया और उसी साल दिसंबर में उनकी पत्नी, दो शूटरों और उनके चचेरे भाई रोहित चतुर्वेदी सहित सभी आरोपियों के खिलाफ आरोप पत्र दायर किया गया.
जेल में रहते हुए अमरमणि ने 2007 के यूपी विधानसभा चुनाव में एक स्वतंत्र उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की. वह एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित कर रहे थे जब सीबीआई उनके पास गिरफ्तारी वारंट लेकर आई थी.
ऊपर उद्धृत पुलिस अधिकारी ने याद करते हुए कहा, “हम सबूतों के प्रत्येक टुकड़े को इकट्ठा करने के लिए संघर्ष कर रहे थे, सीमित संसाधनों के साथ जर्नल प्रविष्टियां बनाना काफी कठिन काम था, खासकर क्योंकि शायद ही कोई जांच में सहयोग करना चाहता था. कई गवाहों ने अपने बयान बदल दिए, वरिष्ठ अधिकारी राजनीतिक दबाव में आ गए और अमरमणि के आसपास की गांठ को ढीला करने के लिए नियमित रूप से अप्रत्यक्ष धमकियां दी गईं. बहुत सारे दस्तावेज़ और कागज़ात भी चोरी हो गए. केवल हम ही जानते थे कि हम उन दिनों किस तरह के दबाव में काम कर रहे थे.”
(संपादन: ऋषभ राज)
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