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Saturday, 2 November, 2024
होमफीचर‘अस्पतालों पर भरोसा नहीं’, मलेरिया, डेंगू से ज़्यादा सांप के काटने से होती है भारतीयों की मौत

‘अस्पतालों पर भरोसा नहीं’, मलेरिया, डेंगू से ज़्यादा सांप के काटने से होती है भारतीयों की मौत

भारत में सांप के काटने को ज़्यादातर ग्रामीण, गरीब लोगों की समस्या मानकर नज़रअंदाज़ कर दिया जाता है. हालांकि, आंकड़ा चौंका देने वाला है, लेकिन कहानी पौराणिक कथाओं, अंधविश्वास और सार्वजनिक स्वास्थ्य के खस्ताहाल ढांचे में लिपटी है.

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नई दिल्ली: जब सुबोध की मां को एक पतले और बमुश्किल एक फुट लंबे सांप ने काटा, तो उनके दिमाग में पहला खयाल उन्हें अस्पताल ले जाने का नहीं था. इसके बजाय, वो उन्हें मुराद नगर में एक ओझा के पास ले गए, जहां उनकी कलाई पर छड़ी से वार किया गया — भले ही सांप ने काटा पैर पर था.

गाजियाबाद के राज नगर एक्सटेंशन के मोरटा गांव में अपने कॉर्नर वाली दुकान को संभालते हुए उन्होंने कहा, “हम अस्पतालों पर भरोसा नहीं करते. हम ओझाओं, जड़ी-बूटियों और आयुर्वेद पर भरोसा करते हैं.”

भारत में सांप के काटने को ग्रामीण, गरीब लोगों की समस्या मानकर अनदेखा कर दिया जाता है, लेकिन असल आंकड़ा चौंका देने वाला है. बाकी सभी वन्यजीव मुठभेड़ों की तुलना में सांप के काटने से अधिक भारतीयों की मौत होती है और मरने वालों की संख्या डेंगू और मलेरिया से होने वाली मौतों से ज़्यादा है, जिस पर सरकार मिशन-मोड में ध्यान देती है. भाजपा सांसद राजीव प्रताप रूडी ने पिछले हफ्ते संसद में बताया कि हर साल सांप के काटने से 50,000 लोग मरते हैं, हालांकि, सर्वेक्षणों से पता चलता है कि यह संख्या 58,000 के करीब है.

भारत दुनिया में सबसे ज़्यादा प्रभावित देश होने के बावजूद यह मुद्दा शायद ही कभी सुर्खियों में आता है. 2020 के राष्ट्रीय मृत्यु दर अध्ययन के डेटा से पता चलता है कि 94 प्रतिशत सांप के काटने की घटनाएं ग्रामीण इलाकों में होती हैं और 77 प्रतिशत मौतें अस्पतालों के बाहर होती हैं.

यह पौराणिक कथाओं, अंधविश्वासों और खराब सार्वजनिक स्वास्थ्य ढांचे में लिपटी कहानी है. प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल केंद्रों में समय पर सांप के काटने का इलाज करने के लिए ज़रूरी संसाधन या प्रशिक्षित डॉक्टर नहीं हैं.

सुबोध की मां सांप के काटने से बच गईं — यह ज़हरीला सांप नहीं था — लेकिन परिवार ने उनके ठीक होने का श्रेय बाबा को दिया.

सुबोध ने कहा, “सांप तो सांप ही होता है, चाहे उसमें कितना भी ज़हर क्यों न हो. चाहे वो छोटा हो या बड़ा, उसका असर एक जैसा ही होता है.”

गाजियाबाद का मोरटा गांव | फोटो: अंतरा बरुआ/दिप्रिंट
गाजियाबाद का मोरटा गांव | फोटो: अंतरा बरुआ/दिप्रिंट

जागरूकता की इस कमी ने भारत में जानलेवा सर्पदंश की समस्या को और बढ़ा दिया है. गांवों में जहां सर्पदंश की घटनाएं बहुत होती हैं, लोग डॉक्टरों के बजाय धार्मिक बाबाओं पर भरोसा करते हैं.

इस साल की शुरुआत में सरकार ने सर्पदंश की रोकथाम और नियंत्रण के लिए राष्ट्रीय कार्रवाई शुरू की, जिसका लक्ष्य 2030 तक मृत्यु दर को आधा करना है. स्नेकबाइट हीलिंग एंड एजुकेशन सोसाइटी की संस्थापक डॉ. प्रियंका कदम के अनुसार, यह समय सीमा महत्वाकांक्षी है. केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय ने पीड़ितों को “तत्काल मदद, मार्गदर्शन और सहायता” प्रदान करने के लिए सर्पदंश हेल्पलाइन भी शुरू की.

हालांकि, इन नीतिगत बदलावों ने मृत्यु दर को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करने के लिए बहुत कम काम किया है. राज्य पर्याप्त मुआवजा देना जारी रखे हुए हैं — अकेले मध्य प्रदेश ने 2020 और 2022 के बीच 231.16 करोड़ रुपये का भुगतान किया.

नीति कार्यान्वयन में एक बाधा मिथकों और लोकप्रिय संस्कृति में सांपों का स्थान है, जो लोगों को डॉक्टरों के बजाय ओझाओं/सोखाओं और झाड़-फूंक वाले इलाज की ओर धकेलता है. सामाजिक रूप से मान्य अंधविश्वास, जैसे कि सांपों द्वारा बदला लेना, बुरे सपने देखना, लोगों को मेडिकल इलाज से दूर कर देता है.

कदम ने कहा कि यह सर्पदंश का काट (एंटी-वेनम) की कमी नहीं है, बल्कि वितरण नेटवर्क में खामियां और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों में अत्यधिक काम करने वाले कर्मचारियों की वजह से ऐसी व्यवस्था बन गई है जो इससे निपट नहीं पा रही है. एंटी-वेनम प्राप्त करने का एक साफ-सुथरा, अधिक कुशल तरीका होना चाहिए. 2015 के सरकारी आंकड़ों के अनुसार, 55.69 प्रतिशत मामलों में काटने के 4 घंटे के भीतर अस्पतालों में इलाज की मांग की गई, जबकि मरीज डरे हुए थे, “कोई स्थानीय या प्रणालीगत लक्षण” दिखाई नहीं दिए थे.

डॉ. कदम ने कहा, “भारत धार्मिक आस्थाओं का देश है. हम कई शिक्षित लोगों से मिलते हैं जो सोचते हैं कि इसका समाधान आस्था के इलाज से होगा. अगर लोग सांपों की पहचान करने में सक्षम हैं, तो आधा काम हो जाएगा.”

ग्राफिक : वासिफ खान/दिप्रिंट
ग्राफिक : वासिफ खान/दिप्रिंट

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सांपों को बचाने वाले

शहरों में सांपों के काटने की घटना ग्रामीण इलाकों में चर्चा का विषय नहीं है, लेकिन शहरी इलाकों में सांपों पर ज़्यादा ध्यान दिया जाता है. तुरंत घबराहट होती है, डर बहुत ज़्यादा लगता है – और फोन कॉल ज़रूर ही.

हैदराबाद में सांप पकड़ने वाले अन्नकन्ना, जो दो दशकों से सांपों को रेस्क्यू कर रहे हैं, ने कहा, “चाहे सांप सड़क पार कर रहा हो या उनके बेडरूम में बैठा हो, वो हमें फोन ज़रूर करेंगे.”

अन्नकन्ना फ्रेंड्स ऑफ स्नेक्स नामक स्वयंसेवी समूह का हिस्सा हैं, जिसे हर दिन 200 से 300 कॉल आते हैं. अब तक, समूह ने अकेले हैदराबाद में 10,000 से ज़्यादा सांपों को बचाया है और तेलंगाना वन विभाग के सहयोग से उन्हें आस-पास के जंगलों में छोड़ दिया है.

अन्नकन्ना ने कहा, “यह बैंडिकूट या कृंतक आबादी की वजह से है. वो सांपों के एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाने के लिए चैनल बना रहे हैं. उनके आंकड़ों की सटीकता की पुष्टि करने वाले एक लेख के बाद, फ्रेंड्स ऑफ स्नेक्स को सबसे ज़्यादा सांपों को बचाने के लिए गिनीज़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में सूचीबद्ध किया जाना तय है. अनकन्ना ने गर्व के साथ कहा कि कोई भी संगठन उनके जैसे पैमाने पर काम नहीं करता.”

अपने इतने ज्यादा अनुभव के बावजूद, हालांकि, उन्हें कईं बार काटा गया लेकिन कभी भी किसी ज़हरीले सांप ने उन्हें नहीं डंसा.

सांपों के दीवाने इस समूह ने, जिसमें दर्जनों फ्रीलांसर सदस्य हैं, उसने 2014 में अपने गौरव के क्षण देखे, जब उन्होंने हैदराबाद के बाहरी इलाके से एक Indian Egg-eater को बचाया. माना जाता है कि यह हानिरहित, पीला-काला सांप 1969 में विलुप्त हो गया था.

अनकन्ना ने कहा, “अगर हमने इसे नहीं बचाया होता, तो इसे मार दिया जाता.”

समूह ने सांप को शोध के उद्देश्य से ले लिया और फिर उसे तुरंत पास के जंगल में छोड़ दिया, जहां उसकी निगरानी जारी रखी जा सकती है.

ग्राफिक : वासिफ खान/दिप्रिंट
ग्राफिक : वासिफ खान/दिप्रिंट

ग्रामीण समस्या, उपेक्षित बीमारी

2013 में सूची से हटाए जाने के बाद, 2017 में ही विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) ने सर्पदंश को उपेक्षित उष्णकटिबंधीय बीमारी के रूप में वर्गीकृत किया था. विशेषज्ञों का कहना है कि एक समय गरीबों की समस्या मानी जाने वाली सर्पदंश की समस्या अब हाशिये पर ही रह गई है जो कभी-कभार ही मुख्यधारा की चर्चा में आती है.

डॉ. कदम ने कहा, “इसका असर समाज के सबसे कमज़ोर तबके पर पड़ता है. इसलिए इतने सालों तक इसे उपेक्षित रखा गया है. गरीब लोगों के अधिकारों के लिए कौन लड़ेगा? जिन लोगों के पास मेडिकल की अच्छी सुविधा नहीं है, वे भाग्यवादी हैं. उन्हें नहीं लगता कि यह इलाज योग्य स्थिति है.”

कदम पिछले 14 सालों से सर्पदंश पीड़ितों के साथ काम कर रही हैं.

राज्य सरकारें आपदा प्रबंधन अधिनियम के तहत मुआवज़ा देती हैं – और पीड़ित को जंगली जानवर द्वारा मारे जाने की स्थिति में मिलने वाले मुआवज़े से लगभग आठ गुना कम मुआवज़ा मिलता है. इंडिया डेवलपमेंट रिव्यू की एक रिपोर्ट के अनुसार, सर्पदंश को प्राकृतिक आपदा के रूप में “गलत तरीके से वर्गीकृत” किया गया है.

मार्च में कर्नाटक सांप के काटने को एक अधिसूचित बीमारी के रूप में वर्गीकृत करने वाला पहला राज्य बन गया. इसका मतलब है कि काटने की सूचना एकीकृत रोग निगरानी कार्यक्रम (आईएसडीपी) के तहत दी जानी चाहिए. इस कदम का बेहतर दस्तावेज़ीकरण की दिशा में एक कदम के रूप में स्वागत किया गया है. 2020 की एक स्टडी में सामने आया कि राजस्थान और गुजरात में 2001 से 2014 तक सबसे अधिक सांप के काटने की घटनाएं दर्ज की गईं. 2016 में स्वास्थ्य मंत्रालय के एक दस्तावेज़ ने इस बात पर प्रकाश डाला कि उत्तर प्रदेश को सबसे गंभीर संकट का सामना करना पड़ा, जहां हर साल 8,700 मौतें होती हैं.

ह्यूमन सोसाइटी ऑफ इंडिया के एक निदेशक ने कर्नाटक के इस फैसले को “स्नोबॉलिंग इफेक्ट” की शुरुआत बताया, उम्मीद है कि अन्य राज्य भी इसी तरह के उपाय अपनाएंगे.

मोरटा के लोगों के लिए सांप उनकी ज़िंदगी का एक हिस्सा हैं. वो उनसे सावधान रहते हैं, लेकिन उनकी उपस्थिति को अपरिहार्य मानते हैं और असंगत वित्तीय मुआवज़े से निराश हैं, जो राज्य के अनुसार अलग-अलग है. उत्तर प्रदेश में आपदा प्रबंधन प्राधिकरण मृत्यु की स्थिति में परिवारों को 4 लाख रुपये मिलते हैं. 2019 से 2023 के बीच 3,348 लोगों की सांप के काटने से मौत हुई.

मोरटा की 19-वर्षीय एक महिला, जिनका परिवार नाम नहीं बताना चाहता था, को चारपाई पर लेटे हुए सांप ने काट लिया. सांप उनके कूलर में घुस गया था और उन्हें पता ही नहीं चला कि क्या हुआ.

उनकी बहन ने कहा, “एक साल हो गया है. हमने खुद ही इलाज करवाया और सरकार से कुछ नहीं मिला.”

पिछले महीने मध्य प्रदेश के छिंदवाड़ा जिले के एक गांव धनोरा गुसाई में दो बच्चों को सोते समय एक आम करैत ने काट लिया था. पांच साल की बच्ची को शुरू में मच्छर के काटने की गलती से नागपुर के सरकारी मेडिकल कॉलेज में मृत घोषित कर दिया गया. हालांकि, दस साल का लड़का बच गया.

दिप्रिंट के साथ साझा किए गए डेटा के अनुसार, अकेले 2024 के पहले आठ महीनों में, नागपुर अस्पताल ने 200 सांप के काटने के मामले दर्ज किए और दो मौतें हुईं.

हालांकि, सटीक डेटा प्राप्त करना और सर्पदंश की घटनाओं से होने वाली मौतों को अधिसूचित करना मुश्किल है क्योंकि कई मामले रिपोर्ट नहीं किए जाते हैं.

डॉ. कदम ने बताया, “कोई भी संख्या विश्वसनीय नहीं है. हमारे सिस्टम पूरी तरह से स्वचालित नहीं हैं. अगर कोई अस्पताल पहुंचने से पहले मर जाता है, तो उसकी मौत दर्ज नहीं की जाती है.”

कानूनी तौर पर, मौतों की सूचना स्थानीय पुलिस स्टेशन को दी जानी चाहिए, लेकिन पोस्टमार्टम और मृत्यु प्रमाण पत्र जैसी नौकरशाही बाधाएं अक्सर परिवारों को रोकती हैं. कई लोग अनिश्चित हैं कि क्या सांप के काटने से मौत हुई भी है?

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित 2019 के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में सर्पदंश से होने वाली 97 प्रतिशत मौतें ग्रामीण इलाकों में होती हैं.

भंडाकर ने कहा, “सरकार अभी भी नहीं जागी है. हम जागरूकता कार्यक्रम आयोजित करने के लिए स्कूल और कॉलेजों में जाते हैं, लेकिन सरकार से कोई समर्थन नहीं मिलता है. उन्हें और अधिक जागरूक होना होगा.”

जागरूकता कार्यक्रम बुनियादी बातों पर ध्यान केंद्रित करते हैं — चूहों को दूर रखना क्योंकि वे सांपों को आकर्षित करते हैं. ग्रामीणों को यह सुनिश्चित करने के लिए कहा जाता है कि घरों और ज़मीन के बीच कोई अंतराल न हो और फसल की उपज घरों के अंदर संग्रहीत न हो.


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ओझाओं का उदय

नागपुर के पास कट्टा गांव में स्थानीय एनजीओ के स्वयंसेवकों ने एक स्टिंग ऑपरेशन किया. उन्होंने सांप के काटने के घाव का नाटक किया और एक मंदिर में गए, जहां एक ओझा (सोखा/हकीम/वैध) था.

पहुंचने पर, उन्हें इंतज़ार करने के लिए कहा गया. मंदिर से एक व्यक्ति उभरा, जो उनकी ओर सरकता हुआ आगे बढ़ा और अपनी बाजुओं के जरिए आगे बढ़ा.

एनजीओ चलाने वाले नितेश भंडकर ने दिप्रिंट को बताया, “व्यक्ति ने कहा कि उसके शरीर में एक सांप है. लाल बनियान पहने उस व्यक्ति ने फिर उसके पैर को चूसना शुरू कर दिया — माना जाता है कि वो ज़हर निकाल रहा था. वो सांप था और ज़हर को उसके मूल स्थान पर वापस भेजा जा रहा था.”

उस व्यक्ति पर तब से महाराष्ट्र मानव बलि और अन्य अमानवीय, दुष्ट और अघोरी प्रथाओं की रोकथाम और उन्मूलन और काला जादू अधिनियम (2013) के तहत मामला दर्ज किया गया है और वो वर्तमान में जेल में है.

इन घरेलू, सामाजिक रूप से स्वीकृत ओझाओं के पक्ष में जो बात काम करती है, वो है बिना ज़हर वाले सांपों का सामना करने की अधिक संभावना. भारत में 300 सांप प्रजातियों में से, केवल 17 को “चिकित्सकीय रूप से महत्वपूर्ण” माना जाता है, जो दृष्टि हानि, अत्यधिक रक्तस्राव या गुर्दे फेल होने जैसी गंभीर नुकसान का कारण बनते हैं. यह, अपर्याप्त मेडिकल बुनियादी ढांचे के साथ मिलकर डॉक्टरों के प्रसार के लिए एक आदर्श इनक्यूबेटर बनाता है.

मोर्टा में जहां निवासी अक्सर सांपों को देखते हैं, उनकी पहचान कौशल आकार और आकृति तक ही सीमित है. वो अपने घरों, खेतों और दुकानों वाली सड़कों पर सांपों का सामना करते हैं. सांपों के दिखने और काटने की कहानियां एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक पहुंचती हैं — एक लड़की को उसकी कक्षा में काटा गया; एक महिला को शौचालय जाते समय काटा गया. मानसून के मौसम में सांपों के दिखने की घटनाएं अक्सर होती हैं.

निकटतम सरकारी अस्पताल लगभग 20 मिनट की ड्राइव दूर है, लेकिन जब पिछले साल 19-वर्षीय महिला को एक विषैले सांप ने काटा, तो परिवार ने दावा किया कि अस्पताल में ज़हर की काट नहीं थी. उन्हें इलाज के लिए 40 किलोमीटर दूर दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल जाना पड़ा.

ग्रामीणों और अस्पतालों के बीच विश्वास की कमी ने ओझाओं पर निर्भरता को और बढ़ा दिया है, जो लगातार फल-फूल रहे हैं.

डॉ. कदम के अनुसार, यहां तक ​​कि “बिग फोर” विषैले सांपों में से एक, चश्माधारी कोबरा भी “सूखा काट” ​​सकता है, लेकिन ज़हर नहीं डालता. अगर कोई स्पष्ट लक्षण नहीं हैं, तो इलाज करने वाले आसानी से ठीक होने का श्रेय ले सकते हैं.

नागपुर के एक पूर्व ओझा गोलू को एक विषैले सांप के काटने के बाद अपनी गलती का एहसास हुआ.

गोलू ने कहा, “मैंने दर्जनों लोगों को जड़ी-बूटियां और पेड़ों से बना पेस्ट दिया है. उनका करियर अचानक खत्म हो गया जब उन्हें रसेल वाइपर ने काट लिया और उन्हें पॉलीवेलेंट एंटी-वेनम के साथ इलाज के लिए अस्पताल ले जाना पड़ा, जो बिग फोर विषैले सांपों के काटने का इलाज करता है.”

उन्होंने कहा, “मैं शायद गैर विषैले काटने का इलाज कर रहा था. अब मुझे (फर्क) समझ में आ गया है.”

सबसे बड़ी लड़ाई अंधविश्वास

सांपों को पौराणिक कथाओं में पिरोया गया है और उनकी प्रशंसा की गई है — हालांकि, ज़्यादातर मामलों में उन्हें शैतान की तरह पेश किया गया है. जागरूकता कार्यकर्ताओं के लिए, उनकी मुख्य लड़ाई अंधविश्वास के खिलाफ है.

सांपों को चालाक, दुर्भावनापूर्ण और एक ऐसी शक्ति के रूप में चित्रित किया जाता है जिसे हराना ज़रूरी है. पंचतंत्र की लोककथाओं से प्रेरित रुडयार्ड किपलिंग की रिक्की-टिक्की-टैवी में एक नेवले को मनुष्यों से नाराज़ कोबरा को हराते हुए दिखाया गया है. कहानी का अंत नेवले द्वारा यह सुनिश्चित करने के साथ होता है कि कोई भी सांप वापस न आए.

पीड़ितों को शिक्षित करने और उपचार की सुविधा प्रदान करने के लिए गैर सरकारी संगठनों के साथ काम करने वाले भंडकर कहते हैं कि ग्रामीणों को पहले अस्पताल जाने के लिए राज़ी करना मुश्किल काम है. पिछले कुछ सालों में, उन्हें अजीबो-गरीब सपने और स्वाद में अचानक बदलाव की विचित्र शिकायतें मिली हैं, जिसे ग्रामीण ज़हर के फैलने का कारण मानते हैं. ये लक्षण, हालांकि, अलग-अलग होते हैं, अक्सर डर से प्रेरित और मनोदैहिक हो सकते हैं.

भंडकर ने कहा, “यह फिल्मों की वजह से है. सांपों को लेकर बहुत ज़्यादा अंधविश्वास है. सांपों को मनोरंजन के लिए खिलौने में बदल दिया गया है. हम 2024 में हैं.”

अक्सर ऐसा होता है कि समय पर मेडिकल हस्तक्षेप महंगा हो सकता है. पिछले हफ्ते जब नागपुर के पास के एक गांव की किसान की पत्नी कविता सेलोकर को कपास के खेतों में काम करते समय रसेल वाइपर ने काट लिया, तो उनके परिवार ने स्थानीय सरकारी अस्पताल में जाने से पहले एक प्राइवेट मेडिकल सुविधा में मदद मांगी.

उनके पति दशरथ सेलोकर ने कहा, “मैं ग्रेजुएट हूं, मेरी पत्नी भी ग्रेजुएट है है, और हमारे बच्चे भी ग्रेजुएट हैं. हम ओझाओं पर विश्वास नहीं करते. मैं उसे तुरंत अस्पताल ले गया.”

एक प्राइवेट सुविधा में शुरुआती इलाज के बाद, उन्हें 40,000 रुपये का बिल मिला — जो परिवार के बस के बाहर था. कविता अब नागपुर के एक सरकारी अस्पताल में इलाज करा रही हैं, जहां उन्हें तेज़ बुखार है. डॉक्टरों ने दस इंजेक्शन दिए हैं और एक महीने के भीतर पूरी तरह ठीक होने का अनुमान है.

इस बीच, मोर्टा में निवासी केवल सांपों वाले एनजीओ की अवधारणा से हैरान हैं. उनके लिए सांप कोई समस्या नहीं बल्कि जीवन का एक स्वाभाविक हिस्सा हैं.

एक निवासी ने कहा, “यहां कुत्तों की वजह से बहुत परेशानी होती है. हम मुश्किल से ही अपने घरों से बाहर निकल पाते हैं.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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