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Friday, 11 October, 2024
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बिहार में ज़मीन सर्वे के काम में कैसे बाधा बन रही है 1000 साल पुरानी कैथी लिपि

बिहार के सिविल इंजीनियर और सर्वेक्षक 2025 की भूमि सर्वेक्षण की समय-सीमा के पहले काम को पूरा करने के लिए सरकार द्वारा अनिवार्य कैथी क्रैश कोर्स कर रहे हैं. ‘इसे सीखे बिना काम नहीं हो सकता.’

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समस्तीपुर (बिहार): बारिश में भीगते हुए 26-वर्षीय अमीन दीपलाल कुमार 20 किलोमीटर बाइक चलाकर बिभूतिपुर ब्लॉक से समस्तीपुर पहुंचे, लेकिन वे किसी की ज़मीन नापने के लिए नहीं गए थे. तकरीबन 1,000 साल पुरानी कैथी लिपि सीखने के लिए गए थे जिसमें राज्य के ज्यादातर ज़मीन के दस्तावेज़ हैं. मशीनों और कम्पास का उपयोग करने के बजाय, हाल ही में बहाल हुए सिविल इंजीनियर बिहार ज़मीन सर्वे के लिए 2025 की निर्धारित समयसीमा तक काम खत्म करने के लिए अब क्लासरूम में लौट आए हैं और कैथी में लिखे पुराने दस्तावेज़ को पढ़ना सीख रहे हैं.

भूमि अभिलेख एवं सर्वेक्षण निदेशालय द्वारा 26 से 28 सितंबर तक आयोजित तीन दिवसीय कैथी प्रशिक्षण सत्र के लिए समस्तीपुर के जिला निबंधन एवं परामर्श केंद्र पर पहुंचे दीपलाल ने कहा, “अधिकांश पुराने रिकॉर्ड कैथी लिपि में लिखे हैं. इसे सीखे बिना ज़मीन पर सर्वे का काम नहीं किया जा सकता है.”

कुमार उन 10,000 सर्वेक्षकों में से एक हैं जिन्हें इस साल बिहार की नीतीश कुमार सरकार ने 45,000 गांवों की मैपिंग करने और राज्य के उलझे हुए ज़मीन अभिलेखों को व्यवस्थित करने के लिए नियुक्त किया है. इसका लक्ष्य दशकों से अव्यवस्थित कागज़ी कार्रवाई को डिजिटल करना और संपत्ति विवादों को कम करना है, जो कथित तौर पर राज्य के 60 प्रतिशत अपराध का कारण बनते हैं. अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने काम पूरा करने के लिए जुलाई 2025 की समयसीमा तय की है, लेकिन अगस्त में जैसे ही ज़मीन सर्वे के दूसरे चरण ने गति पकड़ी, कैथी लिपि रूपी जिन्न बोतल से बाहर आ गया.

यह प्राचीन और लगभग विलुप्त हो चुकी लिपि अब भूस्वामियों से लेकर अधिकारियों तक सभी को परेशान कर रही है और सरकार इससे निपटने के लिए सारी कोशिशें कर रही है.

ग्राफिकः श्रुति नैथानी/दिप्रिंट
ग्राफिकः श्रुति नैथानी/दिप्रिंट

कैथी के बारे में जानकारी न होने के कारण जिला कार्यालयों में निराशा का माहौल है, जहां डेस्क पर धूल फांकते दस्तावेज़ के ढेर लगे हैं और दरवाज़े के बाहर तक लोगों की कतारें लगी हुई हैं. सर्वेक्षक, क्लर्क और ज़मीनों के मालिक बेसब्री से अनुवादकों का इंतज़ार कर रहे हैं, जो उन्हें बुला सकें. विरोध भी तेजी से बढ़ता जा रहा है, अधिकारियों पर भ्रष्टाचार का और सरकार पर जनता की परेशानियों को और ज्यादा बढ़ाने के आरोप लगाए जा रहे हैं. इन सबमें कैथी एक सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित करने की राह में कांटा बनने के साथ-साथ उत्साह का कारण भी बनी है.

लोग एक-एक इंच ज़मीन के लिए जीने-मरने को तैयार हैं. एक बार जब रिकॉर्ड ऑनलाइन हो जाएंगे, तो ज़मीन से जुड़े कई मुद्दे खत्म हो जाएंगे — जय सिंह, सचिव, भूमि अभिलेख और सर्वेक्षण विभाग

इस बाधा से निपटने के लिए बिहार सरकार ने सितंबर में सर्वेक्षणकर्ताओं के लिए कैथी प्रशिक्षण सत्र शुरू किया, पहली बार इस तरह के प्रयास पूरे राज्य में किए गए हैं. अब तक पश्चिमी चंपारण, दरभंगा, समस्तीपुर और सीवान में सेशन रखे गए हैं और अगले दौर की योजना सारण, मुंगेर और जमुई के लिए बनाई गई है, लेकिन एक्सपर्ट्स का कहना है कि कुछ दिनों की ट्रेनिंग से शायद ही कुछ बदलने वाला है.

20 साल के कैथी प्रशिक्षक प्रीतम कुमार ने कहा, “तीन दिनों में लिपि को केवल बुनियादी तरीके से पढ़ा और लिखा जा सकता है. यह इस पुरानी लिपि को पूरी तरह से सीखने की गारंटी नहीं है, जिसने कभी जनता के बीच और अदालतों में बोलबाला था.”

सरकार द्वारा सर्वेक्षणकर्ताओं के लिए तीन महीने से अधिक सत्र आयोजित करने के लिए नियुक्त किए गए, प्रीतम कुमार बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) में इस लिपि में पीएचडी भी कर रहे हैं.

कैथी प्रशिक्षक वकार अहमद (बाएं) और प्रीतम कुमार को अगले तीन महीनों में पूरे राज्य में सर्वेक्षणकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का काम सौंपा गया है. वरिष्ठ कैथी विशेषज्ञ शिव कुमार मिश्रा और भैरव लाल दास की अनुशंसा के आधार पर उनका चयन किया गया है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
कैथी प्रशिक्षक वकार अहमद (बाएं) और प्रीतम कुमार को अगले तीन महीनों में पूरे राज्य में सर्वेक्षणकर्ताओं को प्रशिक्षित करने का काम सौंपा गया है. वरिष्ठ कैथी विशेषज्ञ शिव कुमार मिश्रा और भैरव लाल दास की अनुशंसा के आधार पर उनका चयन किया गया है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

समस्तीपुर सत्र में प्रीतम की मदद करने वाले 20-वर्षीय वकार अहमद थे, जो सर्वेक्षकों को पढ़ाने के लिए नियुक्त एकमात्र अन्य कैथी प्रशिक्षक थे. प्रीतम जहां मूल बातें — अक्षर और सरल वाक्य — सिखाते हैं, वहीं अहमद ज़मीन से जुड़े दस्तावेज़ को पढ़ने पर ध्यान केंद्रित करते हैं.

लेकिन छपरा के रहने वाले जूलॉजी के छात्र और अपने दादा से कैथी सीखने वाले अहमद ने बताया कि ज़मीन के रिकॉर्ड्स को समझने के लिए केवल कैथी ही पर्याप्त नहीं है. कई दस्तावेज़ में उर्दू और फ़ारसी के लफ्ज़ भी मौजूद हैं.

अहमद ने कहा, “कैथी के साथ-साथ इन (उर्दू और फ़ारसी) लफ्ज़ों को जानना ज़रूरी है — तभी सर्वे के काम में तेज़ी आएगी.”

समस्तीपुर जिला न्यायालय परिसर में फोटोकॉपी की दुकान चलाने वाले अरविंद कुमार ने कहा, “कैथी अनुवादक प्रति पृष्ठ 200-300 रुपये लेते थे. अब यह 1,000-1,500 रुपये तक है.”


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कैथी 101

समस्तीपुर के डीआरसीसी के सफेद रंग में रंगे हॉल में स्टेनलेस स्टील की कुर्सियों पर कंधे से कंधा मिलाकर बैठे लगभग 270 ज़मीन सर्वेक्षणकर्ता और जिला राजस्व अधिकारी चाय की चुस्की लेते हुए 44 इंच की एलईडी स्क्रीन को घूर रहे थे. कैथी में यह उनका सरकार द्वारा निर्धारित बूट कैंप था, जिसमें आठ घंटे के तीन सेशन थे.

हर बार जब प्रशिक्षक प्रीतम कुमार अपने डिजिटल पैड पर प्राचीन लिपि का कोई अक्षर बनाते थे, तो वे स्क्रीन पर दिखने  लगता था.

कुमार ने स्टैंड वाले पंखे की आ रही आवाज़ और खराब माइक्रोफोन की खड़खड़ाहट के बीच समूह को बताया, “कैथी को समृद्ध समाज की लिपि नहीं माना जाता है. यह आम लोगों की लिपि रही है — इसलिए इसे जन लिपि कहा जाता था.”

बिहार के समस्तीपुर में ज़मीन के आर्काइव्स और सर्वेक्षण निदेशालय द्वारा आयोजित तीन दिवसीय प्रशिक्षण सत्र के दौरान कैथी लिपि प्रशिक्षक प्रीतम कुमार सर्वेक्षणकर्ताओं को मूल बातें सिखाते हुए | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
बिहार के समस्तीपुर में ज़मीन के आर्काइव्स और सर्वेक्षण निदेशालय द्वारा आयोजित तीन दिवसीय प्रशिक्षण सत्र के दौरान कैथी लिपि प्रशिक्षक प्रीतम कुमार सर्वेक्षणकर्ताओं को मूल बातें सिखाते हुए | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

इसके बाद उन्होंने कैथी में लिखे पुराने ज़मीनों के दस्तावेज़ को निकाला और बताया कि आज़ादी से पहले तक कई लोग इस लिपि को पढ़ने-लिखने में कुशल थे. बिहार में आखिरी बड़ा ज़मीन सर्वे — लगभग 100 साल पहले किया गया था — और यह पूरी तरह से कैथी में था और उसके बाद के कुछ साल तक इस लिपि का उपयोग किया जाता रहा.

सर्वेक्षणकर्ताओं ने नोट्स बनाए, कुछ लोग हैरान दिखे क्योंकि कुमार ने उन्हें कलम और खटिया जैसे सरल शब्दों के बारे में बताया, जो लिपि में लिखे गए थे.

उन्होंने कहा, “कैथी में व्याकरण को ज्यादा महत्व नहीं दिया जाता है और इसमें देवनागरी की तरह संयुक्त अक्षरों का इस्तेमाल नहीं किया जाता.”

प्रीतम कुमार अपने टैबलेट पर कैथी के अक्षर लिखते हैं, जिन्हें प्रशिक्षण सत्र के दौरान सर्वेक्षणकर्ताओं के लिए स्क्रीन पर दिखाया जाता है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
प्रीतम कुमार अपने टैबलेट पर कैथी के अक्षर लिखते हैं, जिन्हें प्रशिक्षण सत्र के दौरान सर्वेक्षणकर्ताओं के लिए स्क्रीन पर दिखाया जाता है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

स्कूल की क्लास की तरह, इसमें भी “बैकबेंचर्स” थे. जब एक ट्रेनी ने कैथी में अपने वरिष्ठ अधिकारियों को पत्र लिखने की बात कही तो सब लोग हंस पड़े. इस दौरान कुछ आपस में बातें कर रहे थे तो कुछ लोग बीच बीच में फोन कॉल्स को भी रिसीव कर रहे थे.

कुछ अन्य, विशेष रूप से महिलाएं, अधिक ध्यान से पढ़ रही थीं, अपने नाम लिखने की प्रेक्टिस कर रही थीं और गर्व से एक-दूसरे को अपना काम दिखा रही थीं.

लेकिन आठ घंटे हो जाने पर लोगों का धैर्य जवाब देने लगा.

नाम न बताने की शर्त पर एक ट्रेनी ने शिकायत करते हुए कहा, “सालों तक पढ़ाई करने के बाद, मुझे नौकरी मिल गई और अब ऐसा लग रहा है कि मैं प्राइमरी क्लास में वापस आ गई हूं. मैंने कभी नहीं सोचा था कि मुझे सैकड़ों साल पुरानी लिपि सीखनी पड़ेगी. यह हमारे लिए एक अतिरिक्त बोझ है.”

कैथी पढ़ने वाले अब बूढ़े हो चुके हैं. इसलिए नए लोगों को आगे लाना ज़रूरी है, ताकि लिपि से जुड़े विवादों को सुलझाया जा सके — प्रोफेसर राम सेवक सिंह, तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय

फिर भी, कैथी से कोई बच नहीं सकता. बिहार में लगभग हर घर में पुराने दस्तावेज़ कैथी में लिखे होते हैं और जैसे-जैसे ट्रेनी सीखते गए वे इसमें रमने लगे.

भूमि सर्वेक्षक आनंद कुमार ने कहा, “कैथी सीखना एक दिलचस्प और अनोखा अनुभव है. इससे ऐसे दस्तावेज़ पढ़ने में मदद मिलती है जिन्हें पहले कभी नहीं पढ़ा गया.”

समस्तीपुर में प्रशिक्षण सत्र के दौरान एक सर्वेक्षक देवनागरी अक्षरों के सामने कैथी लिपि के अक्षरों को नोट करता हुआ | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
समस्तीपुर में प्रशिक्षण सत्र के दौरान एक सर्वेक्षक देवनागरी अक्षरों के सामने कैथी लिपि के अक्षरों को नोट करता हुआ | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

बिहार सरकार के लिए यह ट्रेनिंग ज़मीन सर्वे शुरू होने के बाद पैदा हुए संपत्ति विवादों की नई लहर को सुलझाने की कुंजी है.

ज़मीन से जुड़ी फाइलों के ढेर से घिरे अपने पटना कार्यालय में, भूमि अभिलेख और सर्वेक्षण विभाग के सचिव वरिष्ठ आईएएस अधिकारी जय सिंह ने दिप्रिंट को बताया कि सर्वे के बाद भूमि संबंधी मुद्दों के बारे में जागरूकता बढ़ी है, लेकिन कैथी इसमें एक बड़ी बाधा है.

सिंह ने कहा, “इसलिए, बहुत हंगामा हो रहा है.” सीएम नीतीश कुमार के डिजिटलीकरण प्रोजेक्ट पर वर्षों तक काम करने के बाद, उन्होंने तर्क दिया कि कैथी ट्रेनिंग लंबे समय में लाभदायक होगी.

उन्होंने कहा, “विभाग के पास कैथी से जुड़े अपने संसाधन होंगे. वर्तमान में दिक्कत इसलिए आ रही हैं क्योंकि ज़मीन एक संवेदनशील मुद्दा है. लोग एक-एक इंच ज़मीन के लिए जीने या मरने को तैयार हैं. एक बार रिकॉर्ड ऑनलाइन हो जाने के बाद, ज़मीन विवाद से जुड़ी कई समस्याएं खत्म हो जाएंगी.”

माना जाता है कि कैथी का विकास 6वीं और 10वीं शताब्दी के बीच हुआ था, 16वीं शताब्दी में शेर शाह सूरी के शासनकाल के दौरान इसका स्वर्णिम काल था, जब इसका इस्तेमाल उनके शाही दरबार में किया जाता था और यहां तक कि आधिकारिक मुहरों पर भी इसका इस्तेमाल किया जाता था.


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गौरव से पतन तक

कैथी एक समय में ज़मीन से जुड़े पुराने कागज़ातों के लिए लिपि से कहीं ज़्यादा थी — यह लोकगीतों, मंदिर शिलालेखों और यहां तक कि बिहार के स्वतंत्रता सेनानियों के व्यक्तिगत पत्रों में भी दिखाई देती थी, लेकिन 19वीं शताब्दी के मध्य में इसका पतन शुरू हो गया, जब देवनागरी हिंदी बोलियों की प्रमुख लिपि बन गई.

बिहार विधान परिषद के परियोजना अधिकारी और 2007 में आई पुस्तक कैथी लिपि का इतिहास के लेखक भैरव लाल दास ने कहा, “कैथी बिहार संस्कृति की आत्मा थी. इतिहास में इसके बारे में बहुत कुछ लिखा गया है.” किताब में लिपि के इतिहास का पता लगाया गया है.

कैथी की सटीक उत्पत्ति पर बहस होती है, लेकिन दास, जो एक इतिहासकार भी हैं, ने कहा कि यह 6वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के विघटन के दौरान विकसित हुई थी. जैसे-जैसे नई क्षेत्रीय शक्तियां या क्षत्रप उभरे, स्थानीय लिपियों की आवश्यकता पैदा हुई और 6वीं और 10वीं शताब्दी के बीच कैथी पूरी तरह से विकसित हुई.

कैथी के इतिहास पर किताब के लेखक भैरव लाल दास 15 वर्षों से इस लिपि को पुनर्जीवित करने में मदद करने के लिए कार्यशालाएं आयोजित कर रहे हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
कैथी के इतिहास पर किताब के लेखक भैरव लाल दास 15 वर्षों से इस लिपि को पुनर्जीवित करने में मदद करने के लिए कार्यशालाएं आयोजित कर रहे हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

दास ने कहा, “मंदिर के शिलालेखों, लोकगीतों और भूमि अभिलेखों में इसके प्रमाण मिलते हैं.”

उन्होंने कहा, मगध, भोजपुर, तिरहुत और मिथिला जैसे क्षेत्रों में इस लिपि में थोड़े-बहुत बदलाव हुए हैं. राजस्थान, दिल्ली, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में भी शिलालेख पाए गए हैं.

हालांकि, इसका बहुत-सा हिस्सा अभी भी अध्ययन के दायरे में है. बेगूसराय संग्रहालय के क्यूरेटर और शोध पत्रिका मिथिला भारती के संपादक शिव कुमार मिश्रा ने कहा, “किसी पुरातत्वविद् ने इसके बारे में नहीं लिखा है और इस पर गंभीर शोध होना अभी बाकी है.”

अगर लोग कैथी को सिर्फ ज़मीन के दस्तावेज़ पढ़ने के लिए ही सीखते हैं, तो यह इस लिपि के साथ अन्याय होगा. इतिहास में कहीं भी देखें, आपको वहां कैथी मिलेगी — भैरव लाल दास, लेखक और कैथी विशेषज्ञ

विशेषज्ञ इस बात पर सहमत हैं कि 16वीं शताब्दी में शेर शाह सूरी के शासनकाल में कैथी का स्वर्णिम काल था, जब इसका इस्तेमाल उनके शाही दरबार में किया जाता था और यहां तक कि आधिकारिक मुहरों पर भी इसका इस्तेमाल होता था. मुगलों के शासन में इस लिपि का इस्तेमाल जारी रहा, लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौरान इसका इस्तेमाल कम होने लगा. आज़ादी के समय तक कैथी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से गायब हो चुकी थी.

प्रोफेसर आलोक राय ने 2001 में अपनी किताब हिंदी नेशनलिज़्म में लिखा, “सिर्फ एक सदी पहले, यह लिपि नागरी से ज़्यादा जानी-पहचानी और लोकप्रिय थी.” उन्होंने आगे कहा कि आज हिंदी विशेषज्ञों में भी, ऐसा कोई व्यक्ति मिलना मुश्किल है जो कैथी की एक भी पंक्ति पढ़ या लिख ​​सकता हो.

दास के अनुसार, यह ऐतिहासिक और साहित्यिक शोध के लिए एक नुकसान है. उदाहरण के लिए लिपि पर शोध करते समय, उन्हें राजकुमार शुक्ल की डायरी मिली. राजकुमार शुक्ल वे व्यक्ति थे जो 1917 में महात्मा गांधी को चंपारण लेकर आए थे और जिसके कारण नील किसानों का चंपारण सत्याग्रह शुरू हुआ था.

दास ने कहा, “गांधी के जीवनी लेखक लुइस फिशर ने शुक्ला को अनपढ़ बताया था, लेकिन वे कैथी पढ़ना और लिखना जानते थे और इसी में अपनी डायरी लिखते थे.” उन्होंने इसे हिंदी में भी लिखा.

भैरव लाल दास की किताबों में कैथी लिपि का इतिहास और राजकुमार शुक्ल की लिखित डायरी शामिल है, जो 1917 में गांधी को चंपारण लेकर आए थे | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
भैरव लाल दास की किताबों में कैथी लिपि का इतिहास और राजकुमार शुक्ल की लिखित डायरी शामिल है, जो 1917 में गांधी को चंपारण लेकर आए थे | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

गांधी ने खुद 14 अप्रैल 1917 को अपनी डायरी में कैथी का ज़िक्र किया था, “मुझे हिंदी बोलने में दिक्कत होती है और न ही मैं भोजपुरी जानता हूं, न ही कैथी लिपि, जिसमें सभी दस्तावेज़ हैं.”

दास ने बताया कि बिहार और उत्तर प्रदेश के कई गिरमिटिया मजदूरों ने मॉरीशस, त्रिनिदाद, सूरीनाम और फिजी जैसे स्थानों पर जो पत्र भेजे थे, वे भी कैथी में ही लिखे गए थे.

लेकिन कैथी केवल आम लोगों के लिए नहीं थी. भारत के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने अपनी पत्नी को इसी लिपि में पत्र लिखे थे और प्रसिद्ध भोजपुरी नाटककार भिखारी ठाकुर ने अपने कामों के लिए इसका इस्तेमाल किया था.

जनवरी 1917 की डायरी प्रविष्टियां जो राजकुमार शुक्ल ने कैथी लिपि में लिखी हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
जनवरी 1917 की डायरी प्रविष्टियां जो राजकुमार शुक्ल ने कैथी लिपि में लिखी हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

कैथी के लिए दूसरा काम

जहां ज़मीन सर्वेक्षण ने कैथी को फिर से सुर्खियों में ला दिया है, वहीं दास जैसे भावुक अधिवक्ता वर्षों से चुपचाप इस लिपि को पुनर्जीवित करने के लिए काम कर रहे हैं.

2011 से दास ने बिहार भर में एक दर्जन से अधिक कैथी कार्यशालाएं आयोजित की हैं, जिनमें 1,500 से अधिक लोगों को प्रशिक्षित किया गया है.

समस्तीपुर में ज़मीन का नक्शा. सर्वे की घोषणा के बाद से, लोग रिकॉर्ड की जानकारी प्राप्त करने के लिए अपने ग्राम पंचायतों से नक्शे हासिल करने के लिए कलेक्ट्रेट का दौरा कर रहे हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
समस्तीपुर में ज़मीन का नक्शा. सर्वे की घोषणा के बाद से, लोग रिकॉर्ड की जानकारी प्राप्त करने के लिए अपने ग्राम पंचायतों से नक्शे हासिल करने के लिए कलेक्ट्रेट का दौरा कर रहे हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

लगभग एक दशक से, दास संग्रहालय क्यूरेटर शिव कुमार मिश्रा के साथ मिलकर कार्यशालाएं चला रहे हैं.

2022 में, उन्होंने भागलपुर में एक सप्ताह की कार्यशाला आयोजित की, जिसने तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति को पिछले साल मैथिली विभाग के तहत कैथी में छह महीने का सर्टिफिकेट कोर्स शुरू करने के लिए प्रेरित किया.

पहले बैच में 22 छात्र थे, जबकि तिलका मांझी में 2024 के कोर्स में 40 लोगों ने नामांकन कराया, जिसमें जामिया मिलिया इस्लामिया के पीएचडी उम्मीदवार और स्थानीय समाचार पत्र संपादक शामिल हैं. कैथी में बिहार के भूमि सर्वेक्षणकर्ताओं को प्रशिक्षित करने वाले प्रीतम कुमार भी विश्वविद्यालय में पढ़ाते हैं, जबकि उनके सहयोगी वकार अहमद वहां के छात्र हैं.

शुरू में, भूमि विभाग ने ट्रेनिंग क्लास के लिए मिश्रा और दास से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने अपनी नौकरी के कारण मना कर दिया और इसके बजाय प्रीतम कुमार और अहमद की सिफारिश की.

हालांकि, तिलका मांझी भागलपुर विश्वविद्यालय वर्तमान में बिहार में कैथी पढ़ाने वाला एक मात्र संस्थान है, लेकिन मुंगेर और पटना विश्वविद्यालयों में इसी तरह के कोर्स शुरू करने की योजना 2020 से ही चल रही है. मुंगेर विश्वविद्यालय ने पहले ही पाठ्यक्रम तैयार कर लिया है, लेकिन पाठ्यक्रम अभी शुरू होना बाकी है.

तिलका मांझी में मैथिली विभाग के प्रमुख प्रोफेसर राम सेवक सिंह ने कहा कि कैथी के व्यावहारिक लाभ अंततः स्पष्ट होने लगे हैं. उन्होंने कहा, “जो लोग कैथी पढ़ सकते थे, वे अब बूढ़े हो गए हैं. इसलिए, नए लोगों को तैयार करना ज़रूरी है ताकि लिपि से जुड़े विवादों को सुलझाया जा सके.”


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अड़चन और विरोध

बिहार में ज़मीन सर्वे ने एक तरह से हलचल मचा दी है, पूरे राज्य में कलेक्टरेट, कोर्ट और रिकॉर्ड रूम में लोगों की भीड़ लगी हुई है, जो ज़मीन के मालिकाना हक को साबित करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कैथी अनुवादकों की अचानक से बहुत ज़्यादा मांग है और वे काफी पैसे भी मांग रहे हैं.

समस्तीपुर जिला न्यायालय के जलमग्न और कीचड़ भरे परिसर में 54-वर्षीय दिहाड़ी मजदूर प्रेमचंद चौधरी अपनी 5 बीघा ज़मीन के दस्तावेज़ को समझने के लिए कैथी अनुवादक की तलाश कर रहे थे. कागज़ात पुराने बक्से में रखे थे जिनके बारे में किसी को याद भी नहीं था, लेकिन जब सर्वे शुरू हुआ, तो उन्होंने उन्हें बाहर निकाला तब पता चला कि वे उसका एक शब्द भी नहीं पढ़ सकते हैं, लेकिन कोर्ट में केवल दो अनुवादक हैं और दोनों के पास एक मिनट भी नहीं था.

समस्तीपुर जिला कलेक्ट्रेट में कैथी अनुवादक इंद्रदेव प्रसाद को इन दिनों अपनी सेवाओं के लिए आने वाले अनुरोधों की भीड़ को पूरा करना मुश्किल हो रहा है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
समस्तीपुर जिला कलेक्ट्रेट में कैथी अनुवादक इंद्रदेव प्रसाद को इन दिनों अपनी सेवाओं के लिए आने वाले अनुरोधों की भीड़ को पूरा करना मुश्किल हो रहा है | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

जब चौधरी पहुंचे तो एक अनुवादक घर से काम कर रहे थे, जबकि दूसरे, 58-वर्षीय इंद्रदेव प्रसाद ने उन्हें अगले महीने का समय दिया. प्रसाद पिछले 20 वर्षों से कैथी का अनुवाद कर रहे हैं और उन्हें कभी इतना व्यस्त नहीं होना पड़ा.

परेशान प्रसाद ने अपने टाइपराइटर पर टाइप करते हुए कहा, “पहले कैथी अनुवाद की ज़रूरत सिर्फ अदालती मामलों के लिए होती थी, लेकिन सर्वे के कारण अनुवाद में काफी वृद्धि हुई है. मैं इस मांग को पूरा करने में असमर्थ हूं.”

मांग बढ़ने के साथ ही अनुवाद की लागत भी बढ़ गई है.

कोर्ट परिसर में फोटोकॉपी की दुकान चलाने वाले अरविंद कुमार ने कहा, “कैथी अनुवादक प्रति पेज 200-300 रुपये लेते थे. अब यह 1,000-1,500 रुपये है.”

हताशा में कुछ लोग ऑनलाइन कैथी सीखने लगे हैं. यूट्यूब ट्यूटोरियल लोकप्रिय हो रहे हैं और अनुवादकों के इंटरव्यू सोशल मीडिया पर वायरल हो रहे हैं, लेकिन इससे समस्या का हल नहीं हुआ है.

ज़मीन सर्वे की घोषणा के बाद से समस्तीपुर कलेक्ट्रेट में ज़ेरॉक्स की दुकानें लगातार कमाई कर रही हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट
ज़मीन सर्वे की घोषणा के बाद से समस्तीपुर कलेक्ट्रेट में ज़ेरॉक्स की दुकानें लगातार कमाई कर रही हैं | फोटो: कृष्ण मुरारी/दिप्रिंट

जिला अभिलेखागार भी इसी तरह से व्यस्त हैं. सर्वे से पहले, जिलों में हर हफ्ते औसतन 400-500 दस्तावेज़ के लिए आवेदन आते थे. भूमि विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी के अनुसार, अब यह संख्या बढ़कर 2,500-3,000 हो गई है.

असंतोष अब राजनीतिक मुद्दा भी बन गया है. विपक्षी नेताओं ने सरकार पर सर्वेक्षण में गड़बड़ी करने और भूमि कार्यालयों में भ्रष्टाचार को बढ़ावा देने का आरोप लगाया है. सर्वेक्षण विशेषज्ञ से नेता बने प्रशांत किशोर ने ट्रिपल एस का नारा दिया है — शराबबंदी, सर्वेक्षण और स्मार्ट मीटर. उनका तर्क है कि ज़मीन सर्वे नीतीश कुमार के राजनीतिक करियर की आखिरी कील है.

इस बीच, राजस्व और भूमि सुधार मंत्री दिलीप जायसवाल ने बार-बार लोगों को आश्वस्त किया है कि घबराने की कोई ज़रूरत नहीं है. पिछले महीने के अंत में सरकार ने लोगों को अपने दस्तावेज़ तैयार करने के लिए तीन महीने का समय दिया. विभाग के सचिव जय सिंह ने कहा कि जिलाधिकारियों को भी धोखाधड़ी पर लगाम लगाने का निर्देश दिया गया है.

सरकार के कैथी प्रशिक्षण कार्यक्रम को अब एक चमत्कारी उपाय के रूप में देखा जा रहा है.

समस्तीपुर के बंदोबस्त अधिकारी दिनेश कुमार ने कहा, “इस बारे में जानकारी की कमी के कारण खतियान (ज़मीन के रिकॉर्ड) के बारे में स्पष्टता नहीं है. कैथी ट्रेनिंग से समस्या का काफी हद तक समाधान हो जाएगा.”

लेकिन भैरव लाल दास जैसे विशेषज्ञ चेतावनी देते हैं कि कैथी को केवल ज़मीन से जुड़े विवादों को सुलझाने के साधन के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.

दास ने कहा, “अगर लोग कैथी को केवल ज़मीन संबंधित दस्तावेज़ पढ़ने के लिए सीख रहे हैं, तो यह इस लिपि के साथ अन्याय होगा. अगर इसके सांस्कृतिक आयाम पर ध्यान दिया जाए, तो इतिहास के कई पहलू सामने आएंगे. इतिहास में कोई भी कदम बढ़ाइए, आपको वहां कैथी मिलेगी. जब एक लिपि मर जाती है, तो एक संस्कृति नष्ट हो जाती है.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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