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Wednesday, 12 February, 2025
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NCPCR का मदरसों के ख़िलाफ़ अभियान—हिंदू बच्चों को बचाने की लड़ाई

सुप्रीम कोर्ट ने सवाल उठाया है कि NCPCR सिर्फ मदरसों को लेकर ही क्यों चिंतित है और क्या वह सभी समुदायों के प्रति समान व्यवहार करता है.

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नई दिल्ली: राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग (NCPCR) में अपने कार्यकाल के दौरान मदरसों के खिलाफ अभियान चलाने के बाद, प्रियंक कानूनगो को अब दिल्ली में अपने तिलक मार्ग स्थित घर-कार्यालय में शांति से रिटायरमेंट को इंजॉय करना चाहिए था. लेकिन वह अभी भी नहीं रुके हैं. अब वह मदरसों पर एक किताब लिख रहे हैं — एक ऐसा टॉपिक जो उनके लिए प्रमुख है.

“जो मदरसे अनमैप्ड, अनरजिस्टर्ड हैं और जिनका देश भर में दुरुपयोग हो रहा है, वे मदरसा बोर्ड की आड़ में छुपे हुए हैं,” उन्होंने कहा.

NCPCR ने पहले कभी भारत के मदरसों पर इतनी गहरी निगाह नहीं डाली थी. उसके ध्यान का केंद्र POCSO, बाल तस्करी और कानून के साथ संघर्ष कर रहे बच्चों पर था. लेकिन 2015 के बाद से, इस वैधानिक निकाय ने अपनी रुचियों का विस्तार किया और यह भारत की राजनीतिक व्यवस्था से जुड़ गया.

कानूनगो ने सरप्राइज इंस्पेक्शन किए. 2018 से 2024 तक उनके कार्यकाल के दौरान 7,000 से अधिक होम केयर निरीक्षण (इंस्पेक्शन) किए गए. पूर्व NCPCR प्रमुख ने कहा कि मदरसे बुनियादी शैक्षिक मानकों को पूरा करने में विफल हो रहे हैं. उनके अनुसार, मदरसों में RTE एक्ट 2009 के अनुरूप सिलेबस नहीं चलाते और राष्ट्रीय शिक्षक शिक्षा परिषद द्वारा अनिवार्य योग्य शिक्षकों की कमी है. उन्होंने कहा कि ये मदरसे मनमानी तरीके से काम करते हैं, धर्मनिरपेक्ष सिद्धांतों की अनदेखी करते हैं, और हिंदू और अन्य गैर-मुस्लिम बच्चों को इस्लामी शिक्षा में डुबोकर छात्रों को उग्रवादी बना रहे हैं. कानूनगो के अनुसार, मदरसे फंड्स का दुरुपयोग करते हैं और जुवेनाइल जस्टिस एक्ट 2015 का उल्लंघन करते हैं, जिससे बच्चों के अधिकारों और जिम्मेदारी की चिंता पैदा होती है.

मदरसा बोर्ड और मुस्लिम संगठनों ने कानूनगो के आरोपों का खंडन करते हुए कहा कि उनके कार्य राजनीतिक रूप से प्रेरित हैं और यह सत्तारूढ़ बीजेपी के वोट बैंक को मजबूत करने के उद्देश्य से किए गए हैं.

मदरसों के कार्यों पर कानूनगो का ध्यान मुस्लिम समुदाय और संगठनों के साथ सीधे टकराव का कारण बना. मुस्लिम संगठनों ने उनके दृष्टिकोण की आलोचना की, निरीक्षण और सर्वे विधियों पर सवाल उठाया और NCPCR पर मदरसों को निशाना बनाने के कारण बच्चों के बुनियादी अधिकारों को शिक्षा में हस्तक्षेप करने का आरोप लगाया.

उनकी असामान्य ध्यान केंद्रित करने के कारण, 22 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट ने NCPCR के मदरसों के खिलाफ अभियान पर सवाल उठाया, पूछा कि क्या उसने बच्चों को मठों, पाठशालाओं या समान संस्थानों में जाने से रोकने के लिए कोई निर्देश जारी किया था, और क्या वहां विज्ञान और गणित जैसे विषय अनिवार्य थे.

सुप्रीम कोर्ट ने यह सवाल भी पूछा कि NCPCR “सिर्फ मदरसों के लिए ही क्यों चिंतित है” और क्या यह “सभी समुदायों के साथ समान व्यवहार कर रहा है.”

उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षण आयोग (UCRPC) की अध्यक्ष गीता खन्ना ने कहा कि यह न तो उनका, न ही कानूनगो  का उद्देश्य मदरसे पर ध्यान केंद्रित करना था, बल्कि बच्चों पर था. NCPCR यह भी देख रहा था कि मदरसे बच्चों को क्या परोस रहे हैं.

NCPCR के पूर्व प्रमुख प्रियांक कानूनगो.

अगस्त 2024 में, UCRPC की अध्यक्ष खन्ना ने अल्पसंख्यक मंत्रालय को पत्र लिखकर उत्तराखंड में गैरकानूनी रूप से चल रहे बिना पंजीकरण वाले मदरसों के खिलाफ कार्रवाई की अपील की. उन्होंने प्रशासन की निष्क्रियता को अधिकारियों में इच्छाशक्ति की कमी के कारण बताया.

उन्होंने कहा कि मदरसे बच्चों के बौद्धिक विकास में योगदान नहीं कर रहे हैं. उनके अनुसार, मदरसा शिक्षा विभाजन, निराशा, उत्पीड़न और भिन्नता का अहसास पैदा करती है. और उनका कार्य इसके खिलाफ है.

“मदरसों द्वारा जो कुछ भी परोसा जा रहा है, वह बच्चों के समग्र, सकारात्मक संज्ञानात्मक विकास के लिए बिल्कुल भी सहायक नहीं है,” खन्ना ने कहा. “किसी भी बच्चे को मुख्यधारा से अलग करना ग़लत है.”

लेकिन कानूनगो ने दावा किया कि उन्होंने NCPCR में अपने नौ साल के कार्यकाल में मदरसों पर केवल 10 प्रतिशत समय ही ध्यान दिया और 90 प्रतिशत समय बच्चों से संबंधित कामों पर ध्यान केंद्रित किया.

“हमने इतने सारे मदरसों का दौरा नहीं किया,” उन्होंने कहा.


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NCPCR का काम: एक्टिविज्म या अतिक्रमण?

मई 2024 में, बिहार के सारण जिले में एक मदरसे का दौरा करते हुए, कानूनगो ने दावा किया कि यह अनधिकृत था. वे पुलिसकर्मियों के साथ सफेद कुर्ता-पजामा पहने हुए उन्होंने निरीक्षण शुरू किया, जिसके दौरान पुलिस अधिकारियों ने बंद गेट को तोड़ा और एक कमरे में प्रवेश किया, जहां उन्हें पिन, विस्फोटक और छर्रे (पेलट्स) मिले. कानूनगो ने आरोप लगाया कि बम बनाए जा रहे थे. पूरी जांच का वीडियो रिकॉर्ड कर सोशल मीडिया पर साझा किया गया.

“ये (सामग्री) बम बनाने के लिए उपयोग की जाती हैं. इनका क्यों बनाया जा रहा था, या ये बच्चों को सीखाने के लिए इस्तेमाल हो रही थीं,” उन्होंने पुलिस को सामग्री सौंपते हुए जांच का आदेश दिया.

पिछले साल बिहार में एक मदरसे के निरीक्षण के दौरान कानूनगो.

नवंबर 2015 में, कानूनगो ने NCPCR में शिक्षा विभाग के सदस्य के रूप में कार्यभार संभाला था. 2011 की जनगणना डेटा के आधार पर, आउट-ऑफ-स्कूल बच्चों को स्कूल में लाने और उनकी पहचान करने के लिए उन्होंने काम किया, जिसमें मदरसे में पढ़ने वाले बच्चे भी शामिल थे. कानूनगो ने दावा किया कि उन्हें मदरसों से जुड़ी समस्याओं और समाधान को समझने में पांच साल लगे.

“हमें संबंधित डेटा, रिसर्च, स्टडी, मामले, ऐतिहासिक दृष्टिकोण और व्यावहारिक कार्यान्वयन की जांच करनी थी. हमने 2021 से 2024 तक इस पर काम किया,” उन्होंने कहा. “पांच सालों में यह पाया गया कि भारत में 1.25 करोड़ बच्चे मदरसों में हैं, जो आउट-ऑफ-स्कूल बच्चों का सबसे बड़ा हिस्सा है.”

अपने कामों को लेकर विवाद के बारे में कानूनगो ने मीडिया को दोषी ठहराया, आरोप लगाया कि “मदरसा से जुड़े मुद्दे को सनसनीखेज” बनाया गया.

कानूनगो का मदरसों के खिलाफ अभियान मीडिया में हाइलाइट हो गया, जिसमें कुछ टीवी चैनल और सोशल मीडिया पर  सांप्रदायिक और मदरसों के बारे में प्रचलित धारणाओं को बढ़ावा देने वाला कंटेंट प्रसार किया गया. प्रियंक कानूनगो को यूट्यूब पर एक सर्च करने पर उनके इंटरव्यू के वीडियो की लंबी फेहरिस्त सामने खुल जाती है, जिनमें अक्सर थंबनेल पर  टाइटल होते हैं जैसे “गज़वा-ए-हिंद और दारुल उलूम का पूरा सच”, “मदरसों की मोडस ऑपरेंडी”, “हिंदुस्तानी मदरसे में पाकिस्तानी एजेंडा, मजहबी तालीम की दुहाई, कट्टरपंथ पढ़ाई, बिहार के मदरसों पर बड़ा खुलासा” आदि.

काननूगो ने विभिन्न सेमिनारों में मदरसों के इतिहास, पाठ्यक्रम, कार्यप्रणाली और शेड्यूल के बारे में चर्चा की है.

2023 में, कानूनगो को बेंगलुरु में अवैध यतीमखानों की रिपोर्ट मिली. 19 नवंबर 2023 को उन्होंने दारुल उलूम सैयदीया यतीमखाने का दौरा किया. अंदर, उन्होंने देखा कि कई बच्चे एक बड़े मस्जिद हॉल में सो रहे थे. जब उन्होंने पूछा कि क्या बच्चे उस हॉल में रहते हैं, तो यतीमखाने के प्रतिनिधि ने इसकी पुष्टि की.

कानूनगो ने दावा किया कि यह यतीमखाने एक मदरसे के रूप में संचालित हो रहा था.

उन्होंने अपनी एक्स हैंडल पर इस स्थिति को जिक्र करते हुए लिखा कि आठ बच्चे 100 वर्ग फुट के कमरे में रह रहे थे, 40 बच्चे ऐसे पांच कमरों में रहते थे, और 16 बच्चे गैलरी में रहते थे. बाकी 150 बच्चे मस्जिद के दो अलग-अलग हॉल में सोते थे. उन्होंने आगे लिखा कि खाने, आराम करने, या मनोरंजन के लिए कोई और जगह नहीं थी और बच्चों को मस्जिद में रहना पड़ता था.

“ये बच्चे एक मध्यकालीन तालिबानी जैसे जीवन जी रहे हैं; संविधान इन बच्चों के लिए यह जीवन निर्धारित नहीं करता,” उन्होंने अपनी पोस्ट में लिखा.

उन्होंने दावा किया कि यतीमखाने की संपत्ति पर एक स्कूल भी बना था, लेकिन बच्चों को उसमें जाने की अनुमति नहीं थी. उन्होंने संगठन को निर्देश दिया कि इसे बाल न्याय अधिनियम के तहत पंजीकरण करवाना चाहिए.

कर्नाटक पुलिस ने कानूनगो के खिलाफ “मध्यकालीन तालिबानी जीवन” के बारे में बयान देने और अवैध रूप से प्रवेश करने के लिए मामला दर्ज किया. बाद में कर्नाटक हाई कोर्ट ने यह मामला खारिज कर दिया.

बाल न्याय (देखभाल और संरक्षण) अधिनियम 2015 की निगरानी एनसीपीसीआर की जिम्मेदारी है. कानूनगो ने धारा 41 का हवाला देते हुए कहा कि बच्चों को देखभाल या कानून के उल्लंघन में रहने वाले संस्थानों को छह महीने के भीतर पंजीकरण कराना अनिवार्य है. कानूनगो ने कहा कि कानून के अनुसार, अनाथालयों को बच्चों को गोद देने के लिए भेजना चाहिए अगर उनके परिवारों का पता नहीं चलता. हालांकि, कुछ अनाथालय ऐसा नहीं करते ताकि वे उनके नाम पर दान मिलता रहे.

उन्होंने दावा किया कि इस बेंगलुरु अनाथालय के 150 से अधिक बच्चों के परिवारों का पता एनसीपीसीआर ने लगा लिया और उन्हें उनके घर भेज दिया.

दारुल उलूम सैयदीया अनाथालय ने इस मामले पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.

“मुद्दा अब पुराना हो चुका है. अदालत ने अपना फैसला दे दिया है. उन्हें (कानूनगो) जो कुछ भी दावा करना चाहते हैं, उन्हें करने दीजिए,” संगठन के एक वरिष्ठ सहयोगी ने नाम न बताने की शर्त पर कहा.


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निरीक्षण

देहरादून के एक मदरसे के मुफ्ती, जो अपनी पहचान गुप्त रखना चाहते हैं, ने जुलाई की एक सुबह को याद किया, जो एक बुरे सपने में बदल गई. उनके मदरसे में 60-65 बच्चे रहते हैं, जो ज्यादातर गरीब परिवारों से हैं, जो बुनियादी ज़रूरच भी नहीं जुटा सकते. यह मदरसा उन्हें मुफ्त में खाना, आश्रय और शिक्षा देता है. उन्होंने एक घटना याद की, जिसमें लगभग 20 बच्चों को हल्का फूड पॉइजनिंग हो गई थी और उनका इलाज किया गया, लेकिन स्थानीय मीडिया ने इसे सनसनीखेज बना दिया और इसे एक प्रमुख खबर बना दिया.

कुछ दिन बाद, लगभग 20 उत्तराखंड बाल अधिकार संरक्षण आयोग (UCRPC) अधिकारियों की एक टीम पुलिसकर्मियों के साथ मदरसे में निरीक्षण के लिए पहुंची.

“वे निरीक्षण करने के लिए नहीं, मुझे डराने-धमकाने के लिए आए थे,” उन्होंने दिप्रिंट से कहा.

उन्होंने आरोप लगाया कि UCRPC की अध्यक्ष गीता खन्ना ने दावा किया कि मदरसे मानव तस्करी में शामिल हैं. खन्ना ने उनसे संपत्ति के कागजात, NOC, बच्चों के कागजात और अग्निशामक उपकरण जैसी सुविधाएं मांगी.

मदरसा सोसाइटी रजिस्ट्रेशन एक्ट के तहत पंजीकृत है. यहां बच्चे क़ुरान पढ़ते हैं और फिर अपनी शिक्षा के लिए स्कूल जाते हैं, मुफ्ती ने बताया।

खन्ना ने मुफ्ती से पूछा कि मदरसा छोड़ने के बाद बच्चों का शैक्षिक भविष्य क्या होगा. मुफ्ती ने समझाया कि वे बच्चों को एक मौलवी डिग्री देंगे, जिसके बाद वे अपनी शिक्षा जारी रखने के लिए दरुल उलूम में दाखिला ले सकते हैं.

कानूनगो ने सवाल उठाया कि इतनी बड़ी संख्या में मौलवियों और काज़ियों की जरूरत क्यों है.

“जो लोग मदरसों से दीनी तालीम (इस्लामी शिक्षा) की डिग्री लेकर बाहर आते हैं, वे मुफ्ती, मौलवी और काज़ी बन जाते हैं. क्या हम देश में 1,10,00,000 काज़ी मौलवियों को खिलाया जा सकते हैं?” कानूनगो ने कहा.

कानूनगो के अनुसार, मदरसे बच्चों के खिलाफ गंभीर उल्लंघनों का शिकार होते हैं, जिसमें यौन उत्पीड़न, उनकी कमजोरी का शोषण और शारीरिक दंड की खतरनाक प्रथा शामिल है. कानूनगो ने कहा कि इस्लामी उग्र आतंकवाद उन क्षेत्रों में पनपता है जहां ऐसी शिक्षा प्रचलित है, और भारत में स्थिति दिन-ब-दिन खतरनाक होती जा रही है, क्योंकि सरकार के पास ऐसे मदरसों का सही डेटा नहीं है जो उग्रवाद को बढ़ावा देते हैं.

“यह एक ऐसी प्रक्रिया है जो राष्ट्र के भीतर राष्ट्र बनाता है, जो न केवल वर्ग संघर्ष पैदा करता है, बल्कि धार्मिक और जातीय संघर्ष भी उत्पन्न करता है,” उन्होंने कहा.


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मदरसों में हिंदू बच्चे

कानूनगो हिंदू बच्चों के मदरसों में पढ़ाई करने के खिलाफ कड़ा विरोध करते हैं, उनका कहना है कि मॉडर्न मदरसों में इस्लामी शिक्षा उन्हें उग्रवादी बना रही है. अक्टूबर 2024 में उन्होंने एक रिपोर्ट जारी की और सभी राज्यों और संघीय क्षेत्रों को पत्र लिखा, जिसमें उन्होंने मदरसों से गैर-मुस्लिम बच्चों को हटाकर उन्हें स्कूलों में भर्ती करने का आग्रह किया.

NCPCR की अक्टूबर 2024 की रिपोर्ट, गार्जियन्स ऑफ फेथ ऑर ऑपरेसर्स ऑफ राइट्स में मदरसों में पाठ्यक्रम की अनियमितताओं का आरोप लगाया गया है, जिसमें “आपत्तिजनक सामग्री” जैसे दीनीयत किताबों में इस्लाम की श्रेष्ठता की शिक्षा और बिहार मदरसा बोर्ड द्वारा पाकिस्तान में प्रकाशित किताबों को पढ़ाने का आरोप लगाया गया है.

11 अक्टूबर 2024 को एक पत्र में NCPCR ने राज्य के मुख्य सचिवों से आग्रह किया कि वे मदरसों के लिए राज्य फंड्स को रोकें और गैर-मुस्लिम बच्चों को स्कूलों में शिफ्ट करें. आयोग ने बच्चों के मौलिक अधिकारों और अल्पसंख्यक समुदायों के अधिकारों के बीच उत्पन्न होने वाले संघर्ष पर चिंता जताई है.

कानूनगो का कहना है कि केवल धार्मिक संदर्भ में शिक्षा देना, बिना RTE एक्ट 2009 या अन्य संबंधित कानूनों का पालन किए, एक बच्चे के मौलिक अधिकारों का खुला उल्लंघन है.

उन्होंने यह भी दावा किया कि मदरसा बोर्ड अपने उद्देश्य में विफल हो गया है, इसे “आंखों में धूल झोंकने” जैसा करार दिया. उनका कहना है कि मदरसा बोर्ड का उद्देश्य मुस्लिम बच्चों को इस्लामी और मॉर्डन शिक्षा दोनों प्रदान करना था. हालांकि, हिंदू बच्चों को दाखिला देकर बोर्ड ने इस लक्ष्य को संकट में डाल दिया है.

“इस आधार पर, मैं सरकार से आग्रह कर रहा हूं कि वह मदरसों को फंड देना बंद करें,” उन्होंने कहा.

मदरसा बोर्ड ने इन आरोपों को नकारा है. उत्तराखंड मदरसा शिक्षा बोर्ड के अध्यक्ष मुफ्ती शमून कासमी ने कहा कि पूर्व NCPCR अध्यक्ष को या तो मदरसों के बारे में सही जानकारी नहीं है या उन्हें गलत जानकारी दी गई है.

उनके अनुसार, मदरसा बोर्ड NCERT के पाठ्यक्रम का पालन करता है. उत्तराखंड मदरसा बोर्ड दोनों भाषाओं, अरबी और संस्कृत में शिक्षा देता है. उनका मानना ​​है कि इन दोनों भाषाओं में महत्वपूर्ण समानताएं हैं, जो दोनों समुदायों के बच्चों को एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझने में मदद करती हैं.

जमात-ए-इस्लामी के सचिव सैयद तनवीर अहमद ने कानूनगो के आरोपों को मिथक बताया.

“किसी भी निजी मदरसे में एक भी गैर-मुस्लिम बच्चा नहीं है,” उन्होंने दावा किया. “मदरसों के बोर्ड के मदरसों में 1 प्रतिशत से भी कम छात्र हिंदू और अन्य गैर-मुस्लिम हैं.”

हालांकि, NCPCR की रिपोर्ट में यह सामने आया कि मदरसा बोर्डों वाले राज्यों में लगभग 14,819 गैर-मुस्लिम बच्चे मदरसों में पढ़ाई कर रहे हैं.

मुस्लिम संगठनों जैसे जमात-ए-इस्लामी का कहना है कि मदरसे बच्चों को जबरन नहीं भर्ती करते हैं, बल्कि अक्सर कुछ क्षेत्रों में शैक्षिक सुविधाएं नहीं होती हैं. अगर गैर-मुस्लिम बच्चे मदरसों में पढ़ाई कर रहे हैं, तो यह सरकार की विफलता को उजागर करता है, न कि मदरसों या मुस्लिम समुदाय की किसी साजिश को.

सैयद तनवीर अहमद ने कहा कि एक बहुसांस्कृतिक और लोकतांत्रिक समाज में, एक पंजीकृत, सरकारी-स्वीकृत मदरसा किसी भी गैर-मुस्लिम बच्चे को दाखिला देने से मना नहीं कर सकता जो वहां पढ़ाई करना चाहता हो. यह उनका संवैधानिक अधिकार है.

उन्होंने कहा कि जेएनयू, जामिया मिल्लिया इस्लामिया और यहां तक कि ऑक्सफोर्ड जैसे विश्वविद्यालयों में गैर-मुस्लिम अरबी और इस्लाम की पढ़ाई करते हैं. अगर कोई गैर-मुस्लिम बच्चा इस्लाम की शिक्षा हासिल करना चाहता है, तो उसे यह अधिकार होना चाहिए, और सरकार को मदरसों में उनके दाखिले का समर्थन करना चाहिए.


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सर्वे पर सवालिया निशान

मुस्लिम संगठनों का मानना है कि ऐसे संस्थानों के खिलाफ अभियान इस्लामोफोबिक है और यह मदरसों की एक रूढ़िवादी छवि बनाने की कोशिश है. उन्होंने सर्वे और निरीक्षणों के तरीक़ों पर आपत्ति जताई है.

अहमद ने कानूनगो पर बीजेपी के वोट बैंक को मजबूत करने और मुद्दे को ध्रुवीकृत करने का आरोप लगाया. उनके अनुसार, मुसलमानों को एक विपक्षी “पार्टी” के रूप में देखा जा रहा है.

“मदरसों को अलग से निशाना बनाना एक विकासशील देश के लिए अस्वस्थ और अनुपयुक्त है,” अहमद ने कहा.

शिक्षक दिवस के अवसर पर मदरसा छात्रों द्वारा अपने शिक्षकों को फूल मालाओं से सम्मानित करने की फाइल फोटो। एएनआई

उन्होंने यह भी तर्क दिया कि कुछ सर्वे करने वालों पर उनके राजनीतिक जुड़ावों का असर होता है. आजकल, कई सर्वे करने वाले जल्दी परिणाम हासिल करने की कोशिश करते हैं और सर्वे को पर्याप्त समय नहीं देते हैं. उनके अनुसार, सर्वे राजनीतिक रूप से प्रेरित और निर्मित तरीके से किए गए हैं, जो वास्तविकता से दूर हैं. उन्होंने कहा कि एक निजी एजेंसी या एनजीओ को आगे आकर डेटा में पूरी पारदर्शिता सुनिश्चित करनी चाहिए.

उन्होंने यह भी बताया कि RTI के माध्यम से डेटा प्राप्त करना कठिन है, और बिना सही सत्यापन के, सर्वे की प्रभावशीलता को जांचने या इसके मानकों को सुनिश्चित करने का कोई तरीका नहीं है.

अहमद ने यह जोर दिया कि सर्वे या निरीक्षण मानक प्रारूप में किए जाने चाहिए.

“आपको उत्तरदाता (रिस्पोंडेंट) को परेशान नहीं करना है. आपको उत्तरदाता को धमकाना नहीं है. आपको उत्तरदाता पर दबाव नहीं डालना है,” उन्होंने कहा.

“आपको मदरसे से जानकारी प्राप्त करने की कोशिश करनी चाहिए. और लोकतांत्रिक तरीके से और सकारात्मक दृष्टिकोण से सर्वे करना चाहिए.”

उन्होंने यह बताया कि सकारात्मक दृष्टिकोण से लोग ऐसे प्रयासों का समर्थन करेंगे. हालांकि मदरसों में कुछ कमजोरियों को स्वीकार करते हुए, उन्होंने कहा कि सरकारी स्कूलों में और भी अधिक कमियां हैं.

अहमद ने सवाल किया कि क्यों सरकारी स्कूलों का सर्वे नहीं किया जाता, जो उत्तर प्रदेश में राज्य सरकार द्वारा लंबे समय से नहीं किया गया है. उन्होंने पूछा कि क्या राज्य ने बुनियादी सुविधाओं जैसे कक्षाओं, खेल के मैदान, जल आपूर्ति, या शिक्षक की उपलब्धता और कई खाली पदों का मूल्यांकन किया है?

कानूनगो सर्वे के दौरान बल प्रयोग या दबाव बनाने के आरोपों को नकाराते हैं.

“वे झूठ बोल रहे हैं. अपनी ग़लतियों को छिपाने के लिए वे झूठे आरोप लगा रहे हैं,” उन्होंने कहा. “हमारी जांच के दौरान किसी भी बच्चे को कोई कठिनाई नहीं हुई.”

हालांकि, खन्ना ने यह टिप्पणी की कि अगर सरकारी स्कूल समय के साथ कमजोर नहीं होते, तो निजी स्कूलों में विश्वास नहीं बढ़ता. उन्होंने कहा कि लोग यहां तक कि सबसे निचले स्तर के निजी स्कूलों को भी चुनते हैं, यह मानते हुए कि वे अंग्रेजी में शिक्षा देते हैं.

सलमान रहमानी, फर्रुखाबाद, उत्तर प्रदेश के एक ग्राफ़िक डिज़ाइनर, जिन्होंने मदरसे से शिक्षा प्राप्त की, ने मदरसों के  की राजनीति पर अपनी निराशा व्यक्त की. उनका कहना है कि मदरसा छात्र उन अच्छे फाइनेंशियल बैकग्राउंड वाले दोस्ती भी करते हैं जो मुख्यधारा के स्कूलों में पढ़ते हैं, और वे उनके जैसा बनना चाहते हैं. हालांकि, उनकी वित्तीय स्थिति उन्हें ऐसा करने से रोकती है.

“इस तरह की राजनीति से, आप न तो मदरसों का हिस्सा बन सकते हैं और न ही निजी स्कूलों का हिस्सा,” उन्होंने कहा. “यह सब आपके सपनों को तोड़ने का काम करते हैं.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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