राखीगढ़ी: हरियाणा के हिसार जिले में स्थित राखीगढ़ी में ये अप्रैल की एक तेज़ धूप वाली दोपहर है और पांच लोगों का एक परिवार सिंधु घाटी सभ्यता से संबंधित पुरातात्विक स्थल पर पहुंचा है. दिल्ली से उनकी 170 किलोमीटर की यात्रा एक समय उत्साह से भरी थी, इतिहास में पीछे जाना, उस नदी के सबूत देखना जिसकी तलाश भारत दो सौ सालों से अधिक समय से कर रहा है — ‘सबसे महत्त्वपूर्ण’ नदी सरस्वती.
लेकिन जैसे ही वे खुदाई किए गए मुख्य भाग यानी की टीले के पास पहुंचे, उनका उत्साह समाप्त हो गया. जिस चीज़ ने उनका स्वागत किया वह सरस्वती नदी का गौरवपूर्ण इतिहास नहीं बल्कि ग्रामीण जीवन की नीरसता थी — गोबर के ढेर, बदबू, गधे, भैंस और बैल वहां चर रहे थे. इन ऐतिहासिक स्थलों पर अब घनी ग्रामीण बसावट का कब्ज़ा हो गया है जिसे पुरातात्विक भाषा में अतिक्रमण कहा जाएगा. जिन पुरातात्विक स्थलों का अध्ययन भारत के इतिहास की दिशा बदलने की क्षमता रखता है, उनके प्रति पूरी तरह से उदासीनता बरती जा रही है और लगभग 4,000-5,000 साल पहले सूख चुकी नदी, सरस्वती की पहचान करने और खोजने का प्रोजेक्ट लगभग डूब रहा है क्योंकि जिन स्थलों के बारे में पहले सर्वे में रिपोर्ट किया गया था उनमें से 60 प्रतिशत से अधिक स्थल लुप्त हो गए हैं.
पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में नदी की पुरातात्विक वाहिकाओं या धाराओं (Paleochannels) के किनारे स्थित स्थान सबसे बड़े पुरातात्विक साक्ष्य हो सकते हैं जो सरस्वती की कहानी को फिर से उजागर कर सकते हैं, लेकिन जिस खतरनाक दर से नदी का तल (Riverbed) नष्ट हो रहा है, वह उत्तर हड़प्पा काल और वैदिक काल को जोड़ने वाले तथ्यों की तलाश में उत्खनन करने वालों के लिए अच्छा संकेत नहीं है.
और इस अतिक्रमण के मूल में एक महत्वपूर्ण प्रश्न छिपा हुआ है – कि ज्यादा महत्वपूर्ण क्या है, इतिहास या आजीविका?
“हमारी कई पीढ़ियां यहां रह रही हैं. अब यह राष्ट्रीय महत्व का स्थान बन गया है, हम खुश हैं लेकिन हमारी देखभाल कौन करेगा? हम ही असली निवासी हैं. हमें यहां से हटाने की बात हो रही है. हमारे पास मवेशी भी हैं, हम उन्हें कहां रखेंगे,” कीकर के पेड़ के नीचे बांस की खाट पर बैठे दिहाड़ी मजदूर राजेश सिरोही ने पूछा. राजेश संरक्षित टीला संख्या-3 पर रहते हैं. एक मंजिला ईंट की संरचना टीले के कोने में स्थित है. और इसकी संरचना में किसी भी बदलाव के लिए एएसआई की मंजूरी की आवश्यकता होती है.
विरासत बनाम आजीविका
इतिहास को नष्ट करने में सिर्फ जीवित लोगों का ही हाथ नहीं है बल्कि पिछले साल ग्रामीणों ने एक शव का दाह संस्कार करने के लिए टीला नंबर एक का ताला तोड़ दिया था. और यह पहला मौका नहीं था जब स्थानीय लोगों और उन्हें रोकने की कोशिश कर रहे एएसआई के बीच झगड़ा देखा गया हो.
40 वर्षीय राजेश ने टीले पर फैले मिट्टी के बर्तनों को दिखाते हुए कहा, “दुनिया भर से लोग हमारे गांव को देखने और हमारे इतिहास को जानने के लिए यहां आते हैं लेकिन इससे हमारे जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है. यहां तक कि सरकार भी हमें यहां से हटा रही है.”
लेकिन एएसआई के अधिकारी स्थानीय लोगों के इस दृष्टिकोण को एक चुनौती के रूप में देखते हैं और विरासत के संरक्षण को एक सतत प्रक्रिया मानते हैं. एएसआई के संयुक्त महानिदेशक टी.जे. एलोन ने यह बताते हुए कि ग्रामीणों ने रातों-रात टीलों को समतल कर दिया है; कहा, “यह एक दिन की बात नहीं है. प्राचीन स्मारक और पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम (AMASRA) के तहत, राज्य और केंद्र दोनों ने इन स्थलों की सुरक्षा की जिम्मेदारी ली है. एएसआई की केवल संरक्षित स्थलों को लेकर जिम्मेदारी है.”
पिछले दशक में सरस्वती नदी परियोजना में महत्वपूर्ण सरकारी निवेश के बावजूद; भगवानपुरा, तरखानवाला डेरा, दौलतपुरा, काशीथल जैसे स्थल पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हैं. सतलज-यमुना लिंक नहर से आई बाढ़ से हरियाणा में जोगने खेड़ा क्षतिग्रस्त हो गया है. इसी तरह, राजस्थान में बालू, मिताथल और बरोर जैसी साइटें, जो सरस्वती के पुरातात्विक वाहिकाओं के किनारे स्थित हैं, वे विलुप्त होने के खतरे का सामना कर रही हैं.
राजस्थान के गंगानगर जिले की अनूपगढ़ तहसील में तारखानवाला डेरा साइट के बारे में एएसआई की वेबसाइट पर कहा गया है,”अब टीले को समतल कर दिया गया है और उस पर खेती की जा रही है.”
पहले टीले पर स्थित छोटा प्रदर्शनी हॉल साइट के इतिहास और हाल की खोजों के बारे में जानकारी प्रदान करता है. डिस्प्ले बोर्ड पर मौजूद तस्वीरों में से एक में राखीगढ़ी में हड़प्पा के टीलों और प्राचीन दृषद्वती नदी के सूखे तल को दिखाया गया है जो कभी इन टीलों के पास बहती थी. हॉल में रखे एक विज़िटर हैंडबुक में एक टिप्पणी में लिखा है, “भारत के सनातन संस्कृति को निकट से जानने का अविस्मरणीय संयोग.”
इस साल मार्च में, एएसआई ने 18 केंद्रीय संरक्षित स्मारकों को सूची से हटा दिया क्योंकि वे डेवलेपमेंट, अतिक्रमण या उपेक्षा के कारण नष्ट हो गए थे.
एएसआई के संयुक्त महानिदेशक ने कहा, यह जमीन ग्रामीणों के पूर्वजों की है.
चंडीगढ़ सर्कल के अधीक्षक पुरातत्वविद् कामेई अथेलियू काबोई ने कहा, “हम लगातार स्थलों की सुरक्षा करने की कोशिश कर रहे हैं और इसके लिए हम ग्रामीणों को पुरातात्विक स्थलों पर खेती न करने के लिए सचेत भी करते हैं. हमने सुरक्षा के तहत और अधिक स्थलों को जोड़ने के लिए मुख्यालय [एएसआई] को प्रस्ताव भी भेजा है, जिसमें मिताथल और राखीगढ़ी का टीला नंबर 7 भी शामिल है,”
इस नुकसान में योगदान देने वाला एक अन्य कारक जमीन का मालिकाना हक है क्योंकि कुछ पुरातात्विक स्थल निजी भूमि पर हैं. एलोन ने इस बात पर जोर देते हुए कहा कि लोगों को उनकी पुरातात्विक विरासत के बारे में जागरूक करने की जरूरत है, जमीन ग्रामीणों के पूर्वजों की है. ऐसे मामलों में, यह मुश्किल हो जाता है,”
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इतिहास को दोष देना
अन्य कलाकृतियों के अलावा मिट्टी के बर्तन, चूड़ियां बड़े भूभाग के एक टुकड़े पर फैली हुई हैं, जिस पर एक ट्यूबवेल जैसी संरचना खड़ी है. इस जमीन के पास से एक सड़क गुजरती है, जिसका कुछ हिस्सा ऊंचा हो गया है और ग्रामीण यहां मरे हुए जानवर और कूड़ा-कचरा फेंक देते हैं, जिससे हर वक्त असहनीय दुर्गंध निकलती रहती है.
किसान इस भूमि का उपयोग अपनी फसलें इकट्ठा करने के लिए करते हैं. स्थानीय लोगों ने कीकर के पेड़ पर लाल कपड़े बांधे हैं, जिसके नीचे ईंटों से बने एक ऊंचे मंच पर भगवान हनुमान और राधा कृष्ण की तस्वीरें रखी हैं. यह किसी गांव के पीछे का हिस्सा नहीं है. यह भूमि बालू नाम के साइट पर ऐतिहासिक टीला है जो गांव से बमुश्किल 1.5 किमी दूर स्थित है और सरस्वती नदी के पुरातात्विक वाहिका (पैलियोचैनल) के साथ फैले सबसे प्रमुख पुरातात्विक स्थलों में से एक है. कैथल जिले के छोटे स्थलों में से एक बालू, राखीगढ़ी से सिर्फ 55 किमी दूर है. यह अब विलुप्त होने के कगार पर है और टीले का अधिकांश भाग अब नष्ट हो चुका है.
इस स्थल की खुदाई 1979 में की गई थी और इसमें हड़प्पा संस्कृति से जुड़े 4.50 मीटर मोटे डिपॉज़िट का पता चला है. अब इस स्थल के एक बड़े हिस्से को काट कर कृषि क्षेत्र बना दिया गया है और किसान यहां गेहूं की खेती करते हैं.
चार दशक पहले, जब खुदाई की गई तो लोगों में काफी उत्साह था क्योंकि एएसआई ने ग्रामीणों को काम पर रखा था.
82 वर्षीय राजेंद्र कुमार ने 1979 की खुदाई को याद करते हुए कहा, “उस समय, हम केवल टीले के बारे में जानते थे, इस बात से अनजान थे कि इस जगह का इतिहास हजारों साल पुराना है. ग्रामीणों ने खुदाई स्थल को घेर लिया था,”
अपने गांव के घर में एक खाट पर लेटे हुए, कुमार ने कहा कि लेकिन साइट को लेकर आसपास उत्साह बहुत पहले ही खत्म हो गया था.
बालू साइट के ख़िलाफ़ जो बात थी वह यह थी कि यह संरक्षित श्रेणी में नहीं आता है.
कुमार ने कहा, “यह टीला गांव से दूर, कृषि वाला क्षेत्रों के बीच है. दशकों से इसकी ऊंचाई और क्षेत्रफल दोनों ही कम होते जा रहे हैं. जिन लोगों के पास टीले के बगल में खेत हैं, वे इसे काटकर अपना बुआई क्षेत्र बढ़ा रहे हैं,”
संरक्षण के लिए उठाए गए कदम
ऋग्वेद में 70 से अधिक बार सरस्वती का उल्लेख “सबसे महान माता, सबसे महान नदी और सबसे महान देवी” के रूप में किया गया है. वर्षों से किए गए विभिन्न अध्ययनों में दावा किया गया है कि इसकी उत्पत्ति गढ़वाल में बंदरपूंछ ग्लेशियर से हुई थी, जो हिमाचल प्रदेश में आदि बद्री से बहती हुई और गुजरात में खंभात की खाड़ी में समुद्र तक पहुंचने से पहले पंजाब, हरियाणा और राजस्थान से होकर गुजरती है.
यह नदी हजारों साल पहले विलुप्त हो गई थी. अब इसका प्रमाण भी उसी राह पर है. इसके बावजूद कि हरियाणा सरकार ने सरस्वती की खोज में भारी निवेश किया है. 2017 में, राज्य सरकार ने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में सरस्वती नदी पर अनुसंधान उत्कृष्टता केंद्र (सीईआरएसआर) की स्थापना की.
विभिन्न राज्य एजेंसियां प्राचीन नदी प्रणाली के पुनरुद्धार पर काम कर रही हैं, लेकिन सरस्वती के सूखे तटों के पुरातात्विक स्थलों के संरक्षण के लिए कुछ नहीं किया जा रहा है. जबकि पुरातात्विक धाराओं की पहचान एक कदम आगे थी, टीलों का अतिक्रमण एक तरह से उत्खननकर्ताओं के काम को बर्बाद कर रहा है.
एक भूविज्ञानी और सीईआरएसआर में निदेशक प्रोफेसर ए.आर. चौधरी ने कहा, “सरस्वती नदी हमेशा हरियाणा के लोगों की स्मृति में बनी हुई है. लेकिन बदलाव 2014 के बाद आया जब हमने इस नदी प्रणाली के पुरातात्विक धाराओं की पहचान पर ध्यान केंद्रित करना शुरू किया. अब तक, हमने इस नदी के 3,200 किलोमीटर के मार्ग की पहचान की है,”
हरियाणा के पुरातत्व विभाग ने स्वीकार किया कि बालू स्थल में बाड़बंदी (Fencing) की जानी चाहिए थी और सार्वजनिक सुविधाएं प्रदान की जानी थीं, लेकिन जमीनी स्तर पर कुछ नहीं हुआ. अब अधिकारियों ने भी इससे समझौता कर लिया है और उनका ध्यान प्रमुख स्थलों पर केंद्रित हो गया है.
आईएएस अधिकारी और पुरातत्व और संग्रहालय विभाग, हरियाणा के निदेशक अमित खत्री ने कहा, “हमें सभी स्थलों को कवर करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी लेकिन अब हमारा ध्यान सबसे महत्वपूर्ण पुरातात्विक स्थलों पर है. हम बड़े से छोटे स्थलों की ओर पदानुक्रम का पालन कर रहे हैं,”
खत्री ने कहा कि विभाग त्रिस्तरीय दृष्टिकोण से काम कर रहा है. उन्होंने कहा, “संरक्षण परियोजनाओं का विस्तार, राखीगढ़ी और कुणाल जैसे ऐतिहासिक स्थलों की खुदाई, और इनपुट को अधिकतम करने के लिए जीपीआर (ग्राउंड-पेनेट्रेटिंग रडार) सर्वेक्षण जैसी नई तकनीक को शामिल करने की कोशिश की जा रही है. साथ ही इन स्थलों को हेरिटेज टुअर के माध्यम से लोकप्रिय बनाना होगा, जो यह सुनिश्चित करेगा कि वे अलग-थलग न पड़े रहें.
पिछले साल, एक संसदीय पैनल ने पुरातात्विक स्मारकों और स्थलों पर अतिक्रमण से निपटने के लिए एएमएएसआर कानून में बदलाव का भी सुझाव दिया था. सीएजी ने स्मारकों और पुरावशेषों के बचाव और संरक्षण प्रदर्शन ऑडिट शीर्षक वाली अपनी 2022 के फॉलो-अप रिपोर्ट में कहा, “सिफारिश के बावजूद, अतिक्रमण की घटनाओं की जांच के लिए केंद्रीय या सर्कल स्तर पर कोई समन्वय और निगरानी तंत्र स्थापित नहीं किया गया था.”
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सरस्वती की खोज
हरियाणा-हिमाचल सीमा पर स्थित यमुनानगर के कई गांवों के बाहर लगे बड़े-बड़े बोर्ड वैदिक सरस्वती का मार्ग दिखाते हैं. कई स्थानीय लोगों के लिए, सरस्वती एक पौराणिक नदी है. लेकिन हरियाणा के ग्रामीणों के लिए यह आस्था का विषय है. 2015 में मुगलवाली गांव (नदी के उद्गम के पास) में खुदाई ने सबका ध्यान आकर्षित किया – खुदाई करने वालों को नदी प्रणाली की तलछट के अवशेष मिले. चौधरी की टीम ने मनरेगा श्रमिकों की मदद से इस साइट को खोदा.
एक दशक बीत गया है, लेकिन ग्रामीण आज भी उस दिन को शिद्दत से याद करते हैं कि कैसे उनके गांव ने राष्ट्रीय सुर्खियां बटोरी थीं.
मुगलवाली के निवासी अमित कुमार ने कहा, “हम सरस्वती के उद्गम से कुछ ही किलोमीटर दूर हैं. हम केवल इतना जानते हैं कि यह पहले सूख गई थी लेकिन अभी भी हमारे गांव से नदी का एक मार्ग है.” उन्होंने कहा कि इस नदी को पुनर्जीवित करना चाहिए क्योंकि यह हमारी सभ्यता का हिस्सा है. कुमार ने आदि बद्री की यात्रा की है, जो अब कई लोगों के लिए पर्यटन का एक आकर्षण केंद्र है.
आस्था, पौराणिक कथाओं, सरकारी एजेंसियों और तमाम पुरातात्विक साक्ष्यों के बावजूद, लुप्त हो चुकी सरस्वती के पुनरुद्धार की आवश्यकता और खर्च किए गए धन पर सवाल पूछे जाते रहते हैं.
वरिष्ठ पुरातत्वविदों ने सरकार की प्राथमिकता पर सवाल उठाया और कहा कि बहुत सारा पैसा खर्च करना महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि सार्थक काम करना महत्वपूर्ण है. सरस्वती नदी पर बहु-विषयक अध्ययन के लिए सरकार की सलाहकार समिति के एक वरिष्ठ पुरातत्वविद् ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “हम अपनी गौरवशाली सभ्यता के बारे में बहुत बातें करते हैं लेकिन जब समय आता है तो सरकार ज्यादा ध्यान नहीं देती. एक तरफ हम खोई हुई नदी का पता लगाने के पीछे लगे हुए हैं. दूसरी ओर, इस नदी के किनारे के स्थलों को लगातार क्षतिग्रस्त और अतिक्रमण किया जा रहा है,”
लेकिन चौधरी के पास अपने कार्यालय के बाहर दीवार पर चिपकाए गए पोस्टर पर सरस्वती को खोजे जाने का कारण का स्पष्ट है – “भारतीय सभ्यता की सांस्कृतिक प्राचीनता, गहरे जलभृत (Aquifer) की पहचान और प्लेसर खनिज भंडार का पता लगाने के लिए.” उन्होंने कहा, और नदी हमारी सभ्यता के लिए महत्वपूर्ण है.
कुरूक्षेत्र विश्वविद्यालय में अपने सीईआरएसआर कार्यालय में बैठे और पुरातात्विक स्थलों और सरस्वती के पुरातात्विक वाहिकाओं की तस्वीरों से घिरे चौधरी ने दावा किया कि उन्होंने सरस्वती नदी प्रणाली की सभी पुरातात्विक वाहिकाओं की पहचान कर ली है. 2015 में, उन्होंने आदि बद्री में सरस्वती के उद्गम से सिर्फ 12 किमी दूर, यमुनानगर जिले के मुगलवाली गांव से खुदाई शुरू की.
“जमीन में नमी के आधार पर पुरातात्विक वाहिकाओं की खोज की जा रही है. हमने रिमोट सेंसिंग तकनीकों का भी उपयोग किया है,” चौधरी ने कहा, इन चैनलों का उपयोग बाढ़ के दौरान अतिरिक्त पानी को मोड़कर पानी की कमी को कम करने के लिए किया जा सकता है. यमुनानगर जिले में बाढ़ आने का खतरा रहता है.
उनके निष्कर्षों के अनुसार, हरियाणा में सीसवाल, राखीगढ़ी, भिर्राना, कुणाल, बालू, बनावली जैसे अधिकांश पुरातात्विक स्थल सरस्वती नदी के पुरातात्विक वाहिकाओं के चारों तरफ 500 मीटर से कम दूरी पर मौजूद हैं.
एक शानदार म्यूज़िम बन रहा है
राखीगढ़ी में टीला नंबर एक से महज़ कुछ मीटर की दूरी पर एक विशाल म्यूजियम बनाने का काम चल रहा है. पुरुषों और महिलाओं का एक समूह परियोजना को अंतिम रूप देता है. वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण ने अपने 2020 के बजट के हिस्से के रूप में इस परियोजना की घोषणा की.
लेकिन यह इतिहास को आम लोगों तक ले जाने और उनकी कल्पना को ऐसे अतीत से जोड़ने का पहला प्रयास नहीं है जिससे भविष्य की राजनीति को लाभ हो सकता है.
2002 में, वाजपेयी सरकार ने सरस्वती नदी के किनारे पुरातात्विक स्थलों पर आगंतुक सूचना केंद्र (वीआईसी) खोलने का प्रस्ताव रखा. लेकिन ऐसा केवल कुछ ही स्थानों – कालीबंगा, रोपड़, थानेसर में – के लिए ही हो सका. नाम न छापने की शर्त पर एक अधीक्षक पुरातत्वविद् ने कहा, “राज्य सरकार को इन स्थलों पर बुनियादी ढांचे की व्यवस्था के लिए सख्ती से काम करना चाहिए. केवल बड़े स्थलों को प्राथमिकता दी जाती है जिसके परिणामस्वरूप छोटे पुरातात्विक स्थलों को नुकसान होता है,”
कुरूक्षेत्र से केवल 19 किमी दूर छोटे स्थलों में से एक, भगवानपुरा गांव की साइट को इस तरह की प्रशासनिक सोच के कारण नुकसान उठाना पड़ा. इस स्थल की खोज आपातकाल के दौरान अनुभवी पुरातत्ववेत्ता आर.एस. बिष्ट द्वारा और उत्खनन जे.पी. जोशी द्वारा किया गया था. उत्खनन से हड़प्पा और चित्रित धूसर मृदभांड (पीजीडब्ल्यू) का उपयोग करने वाली सभ्यता के बीच संबंध का पता चला.
भगवानपुरा के निवासी बाबू राम को याद है जब जेपी जोशी ने 1976 में इस स्थल की खुदाई की थी. बाबू राम, जो अब 80 वर्ष के हैं, ने कहा कि तब लोग खुश थे क्योंकि एएसआई ने दैनिक मजदूरी के रूप में प्रति दिन दो रुपये की पेशकश की थी. “हमने पहली बार 1 रुपये का सिक्का देखा.”
आज, गांव के कुछ ही लोगों को याद है कि लगभग 40 साल पहले, उनकी बस्ती से सिर्फ 350 मीटर की दूरी पर, 25 फुट का एक टीला था, जिसने अपने अंदर सरस्वती के बारे में ज्ञान को समेट रखा था. किसान अब पास में स्थित एक ट्यूबवेल वाली जगह पर गेहूं उगाते हैं.
बाबू राम ने कहा, “खुदाई के कुछ ही वर्षों के भीतर, ज़मीन मालिकों ने मिट्टी काटना और खेत बनाना शुरू कर दिया. लोग टीले के एक ओर से दूसरी ओर चढ़ते थे. अब तो कोई यह भी नहीं कह सकता कि यहां कभी कोई टीला रहा होगा.”
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