नई दिल्ली: तीन साल पहले, गुजरात की प्रियदर्शिनी निश्चिंत, संतुष्ट और आत्मविश्वासी थीं. उनके पास एक नौकरी थी और एक सक्रिय सामाजिक जीवन भी. लेकिन अब, उनकी दुनिया एक छोटे से कमरे और बार-बार अस्पताल जाने तक सिमट गई है. उन्हें एक किडनी की ज़रूरत है, लेकिन कोई डोनर नहीं है.
प्रियदर्शिनी (30), जो पहले कस्टमर रिलेशनशिप मैनेजर के रूप में काम करती थीं, ने कहा, “हर बार अस्पताल जाना एक जंग लड़ने जैसा होता है. पता नहीं होता कि किस हालत में वापस घर लौटूंगी.”
उल्टी, बदहजमी और कमजोरी के बाद प्रियदर्शिनी की किडनी फेल होने की बात पता चली थी. जब उनकी मां का ब्लड और टिश्यू किडनी डोनेट करने के लिए मैच हुआ, तो एक उम्मीद की किरण जगी. लेकिन यह उम्मीद तब खत्म हो गई जब डॉक्टरों ने बताया कि ट्रांसप्लांट करना जोखिम भरा होगा. जांच में पता चला कि उनकी मां की खुद की किडनियां कमजोर हैं, जिससे वे डोनर बनने के योग्य नहीं हैं.
प्रियदर्शिनी के बड़े भाई ने, जिन्होंने नाम न बताने की इच्छा जताई, कहा कि “अगर भारत में ज़्यादा लोग अंग दान करें, या अगर लोगों में जागरूकता ज़्यादा हो, तो शायद मेरी बहन दवाइयों और बार-बार अस्पताल जाने के चक्कर में न फँसी होती.”
भारत में अंग प्रत्यारोपण (ट्रांसप्लांट) की संख्या 2013 में 4,990 से बढ़कर 2023 में 18,378 हो गई है — यह 268 प्रतिशत की ज़बरदस्त बढ़त है. इसके अगले साल यानी 2024 में 18,911 ट्रांसप्लांट हुए, यह आंकड़ा अगस्त 2025 में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के राष्ट्रीय अंग एवं ऊतक प्रत्यारोपण संगठन (NOTTO) द्वारा जारी किया गया.
लेकिन ये बढ़ते आंकड़े एक गंभीर सच्चाई को छिपा लेते हैं — भारत में अंग दान की दर एक मिलियन की जनसंख्या पर एक से भी कम है, जो बेहद चिंताजनक है.
प्रियदर्शिनी की कहानी कोई अकेली नहीं है, बल्कि यह एक बड़े संकट का हिस्सा है. भारत में कम से कम 63,000 मरीज़ ऐसे हैं जिन्हें किडनी की ज़रूरत है, और करीब 22,000 मरीज़ों को लिवर ट्रांसप्लांट की दरकार है.
पिछले एक दशक में ट्रांसप्लांट की संख्या में जो बढ़ोतरी हुई है, उसका मुख्य कारण लाइव डोनर यानी जीवित दाताओं से मिलने वाले अंग हैं—जब परिवार के सदस्य या रिश्तेदार अपने किसी प्रियजन की मदद के लिए आगे आते हैं. लेकिन मृत व्यक्तियों (डिसीज़्ड डोनर्स) से अंग दान की स्थिति बेहद चिंताजनक है.
इसके पीछे केवल सांस्कृतिक मान्यताएं और अंधविश्वास ही कारण नहीं हैं. स्वास्थ्य व्यवस्था में भरोसे की कमी, बेहद धीमी सरकारी प्रक्रियाएं, ब्यूरोक्रेसी की जटिलताएं और जागरूकता की भारी कमी जैसे कारणों ने भारत में मृत व्यक्तियों से अंग दान की प्रक्रिया को आगे नहीं बढ़ने दिया है.
अगर व्यवस्था में सुधार और जागरूकता नहीं लाई गई, तो प्रियदर्शिनी जैसे हज़ारों मरीज़ दवाइयों, अस्पतालों और अंतहीन इंतज़ार के बीच ही फंंसे रहेंगे.
45 वर्षीय संतोष कुमार वर्मा, जो अपने पिता के लिवर ट्रांसप्लांट के लिए बेंगलुरु से दिल्ली आए थे, ने कहा कि “अंग दान को लेकर समाज में कोई बड़ा उदाहरण या आदर्श नहीं है. हमें ज़रूरत है कि कुछ प्रमुख लोग आगे आकर समाज के लिए उदाहरण बनें.”

अंधविश्वास और जानकारी की कमी
जब प्रियदर्शिनी की मां डोनर बनने के लिए अयोग्य पाई गईं, तो उन्होंने अपने दूर के रिश्तेदारों से संपर्क किया — लेकिन कोई भी किडनी दान करने को तैयार नहीं हुआ.
प्रियदर्शिनी ने कहा, “लोगों को अपनी ज़िंदगी और अपने डर होते हैं. वे जोखिम नहीं लेना चाहते और एक ही किडनी के सहारे जीने से डरते हैं.”
प्रियदर्शिनी हफ्ते में तीन बार गांधीनगर के केडी हॉस्पिटल में डायलिसिस करवाती हैं, जहां उनका ट्रांसप्लांट के लिए रजिस्ट्रेशन हुआ है. उन्होंने कई सरकारी अस्पतालों में भी विकल्प तलाशे, लेकिन वहां डोनर की प्रतीक्षा सूची और भी लंबी थी — मरीजों को तीन से चार साल तक इंतज़ार करना पड़ता है. इसलिए उन्होंने अब निजी इलाज पर ध्यान केंद्रित करने का फैसला किया है.
“मुझे नहीं पता कि डोनर मिलने में और कितने महीने या साल लगेंगे, या फिर कब मैं दोबारा सामान्य ज़िंदगी जी पाऊंगी,” प्रियदर्शिनी ने केडी हॉस्पिटल के वेटिंग रूम में बैठकर कहा, जहां वह अपनी मेडिकल फाइलें पकड़े डायलिसिस के लिए नाम पुकारे जाने का इंतज़ार कर रही थीं.
हर महीने वह बिना चूके केडी हॉस्पिटल के ट्रांसप्लांट कोऑर्डिनेटर निखिल व्यास को फोन करती हैं, इस उम्मीद में कि शायद कोई मैच मिल जाए. 42 वर्षीय नर्म स्वभाव के व्यास डॉक्टरों, अंग दाताओं और जरूरतमंद मरीजों के बीच पुल का काम करते हैं. वह हॉस्पिटल की ट्रांसप्लांट और अंगदान समिति के साथ समन्वय करते हैं, डोनर परिवारों की काउंसलिंग करते हैं और प्रतीक्षा कर रहे मरीजों को भरोसा दिलाते हैं.
केडी हॉस्पिटल हर महीने करीब सात से आठ ट्रांसप्लांट सर्जरी करता है, जिनमें कॉर्निया, किडनी और लिवर ट्रांसप्लांट शामिल हैं. लेकिन ब्रेन डेड डोनर से मिलने वाले अंगों की संख्या अभी भी बहुत कम है — साल की शुरुआत में सिर्फ छह से सात मामले ही सामने आए.
व्यास ने कहा कि “अस्पताल आना सभी के लिए मुश्किल होता है, चाहे वजह कुछ भी हो. इलाज के दौरान मरीज को मानसिक रूप से सहज और तनावमुक्त रखना बेहद ज़रूरी है.”
पूरा प्रक्रिया एक लंबी यात्रा है, जिसमें मेडिकल जांच, सरकारी प्रक्रियाएं और दस्तावेज़ी काम शामिल हैं. जब किसी मरीज में किडनी, लिवर, हार्ट या कॉर्निया फेल होने की पुष्टि होती है, तो सबसे पहले उसकी व्यापक चिकित्सा जांच होती है ताकि यह तय किया जा सके कि वह ट्रांसप्लांट के लिए उपयुक्त है या नहीं.
अगर कोई करीबी रिश्तेदार डोनर नहीं है, तो मरीज को ट्रांसप्लांट वेटिंग लिस्ट में शामिल किया जाता है. यह सूची अस्पताल की ट्रांसप्लांट समिति या राष्ट्रीय रजिस्ट्रियों द्वारा संचालित की जाती है.
जीवित डोनर ट्रांसप्लांट के लिए, परिवार का कोई अनुकूल सदस्य या स्वयंसेवक टेस्ट करवाता है ताकि यह पता चल सके कि वह डोनर के लिए उपयुक्त है या नहीं. डोनर और रिसीवर दोनों को सर्जरी के बाद होने वाले जोखिमों और संभावित परिणामों के बारे में सलाह दी जाती है. लिविंग डोनर ट्रांसप्लांट के लिए, एक अनुकूल परिवार का सदस्य या स्वयंसेवक परीक्षण से गुजरता है ताकि उपयुक्तता सुनिश्चित की जा सके. डोनर और रिसीपीएंट दोनों को सर्जरी के बाद संभावित जोखिमों और अपेक्षाओं के बारे में काउंसलिंग दी जाती है.
डिसीज़्ड डोनर के मामलों में, अंगों का मिलान ब्लड टाइप, टिशू कम्पैटिबिलिटी, इमरजेंसी और वेटिंग लिस्ट के आधार पर किया जाता है. जब किसी मरीज को ब्रेन डेड घोषित किया जाता है, तो उनके शोकाकुल परिवार को काउंसलिंग दी जाती है ताकि वे सूचित निर्णय लेकर अंग दान के लिए सहमति दे सकें.
निखिल व्यास ने कहा, “हालांकि कई परिवार अंगदान करने से इनकार कर देते हैं क्योंकि उन्हें डर होता है कि अंग का गलत इस्तेमाल हो सकता है या वे नहीं जानते कि अंग किस मरीज को जाएगा.” उन्होंने एक घटना का उल्लेख किया जब एक परिवार ने अंतिम क्षण में सहमति वापस ले लिया था.
“उनका डर था कि अगर शरीर पूरा नहीं रहा तो आत्मा को शांति नहीं मिलेगी या वह फंसी रहेगी.”
जागरूकता के अंतर को पाटना
आज भारत में कई गैर-सरकारी संगठन (NGOs), स्वयंसेवक और स्वास्थ्य विशेषज्ञ मिलकर इन भ्रांतियों को दूर करने की कोशिश कर रहे हैं.
निखिल व्यास ने कहा, “काउंसलिंग टीम और NGOs की सक्रियता के कारण अब हम हर 10 परिवारों में से तीन से चार परिवारों को मृत अंग दान के लिए राज़ी कर पाते हैं.”
यह जागरूकता अभियान केवल अस्पतालों तक सीमित नहीं है. कॉलेजों, बिल्डिंग सोसायटियों और RWA की बैठकों में भी मीटअप और सेशंस आयोजित किए जाते हैं. शतायु फाउंडेशन और मोहन फाउंडेशन जैसे NGOs रैलियां, वॉक, मैराथन और फंडरेजर आयोजन करते हैं ताकि लोगों तक सही जानकारी पहुंचाई जा सके.
अगस्त में, मोहन फाउंडेशन — जो अंगदान जागरूकता के लिए काम करता है — ने दिल्ली के रोटरी क्लब के साथ मिलकर हौज़ खास के कॉलेज ऑफ होम इकोनॉमिक्स में जागरूकता सत्र आयोजित किया.

करीब 45 से अधिक छात्र एक कम रोशनी वाले कमरे में इकट्ठे हुए और अंगदान की पूरी प्रक्रिया पर एक छोटा शैक्षिक फिल्म देखा.
पल्लवी कुमार, कार्यकारी निदेशक, मोहन फाउंडेशन ने कहा, “हमारे अभियान का एक अहम हिस्सा है लोगों की कहानियां साझा करना है, न केवल अंग दाताओं की बल्कि उन लोगों की भी जो अंग प्राप्त कर चुके हैं या ट्रांसप्लांट का इंतज़ार कर रहे हैं.”
अब छात्र और अधिक जानने के इच्छुक थे. उन्होंने पूछा, “अगर हम अपने अंग दान के लिए प्रतिज्ञा करते हैं लेकिन हमारा परिवार इसका पालन नहीं करता तो क्या होगा? अगर वे अपनी आंखें दान करना चाहते हैं तो किससे संपर्क करना चाहिए?”
कार्यक्रम के अंत में कई छात्रों ने आगे आकर अपने अंग दान के लिए प्रतिज्ञा की.
कुमार ने कहा, “अगर हम भारत में अंग दाताओं की संख्या बढ़ाना चाहते हैं तो अंग दान और मृत्यु के बाद डोनर के रूप में रजिस्ट्रेशन की बातें बाकी बातचीत जितनी आम हो जानी चाहिए.”
मोहन फाउंडेशन न केवल ट्रांसप्लांट प्रक्रिया में लोगों का समर्थन करता है, बल्कि ट्रांसप्लांट कोऑर्डिनेशन प्रोफेशनल सर्टिफिकेट, पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा इन ट्रांसप्लांट कोऑर्डिनेशन एंड ग्रिफ काउंसलिंग, फैमिली काउंसलिंग एंड कन्वर्सेशन, और लीगल एस्पेक्ट्स ऑफ ऑर्गन डोनेशन जैसे कई प्रशिक्षण कार्यक्रम और कोर्स भी ऑफर करता है.
हाल ही में, इस फाउंडेशन ने प्रसिद्ध कुतुब मीनार को हरे रंग से रोशन किया — जो अंग दान का प्रतीक रंग है — ताकि लोगों में जिज्ञासा पैदा हो. इसने सुंदर नेरीचर में एक संगीत महोत्सव का भी आयोजन किया था.
कुमार ने कहा, “भारतीय लोग सबसे उदार लोगों में से हैं. समस्या इच्छा की कमी नहीं, बल्कि जागरूकता और सिस्टम पर विश्वास की कमी है.”
उन्होंने यह भी बताया कि मोहन फाउंडेशन ने 2025 में 1,128 डोनर्स का रजिस्ट्रेशन किया, जो अब तक का सबसे बड़ा आंकड़ा है.
हमेशा जिंदा रहेंगे
दो साल पहले, जब राकेश कुमार की मां फरीदाबाद के उनके घर की छत से गिर गईं और दिल्ली के एम्स में ब्रेन डेड घोषित कर दी गईं, तो राकेश कुमार अपने परिवार के उस फैसले पर गर्व महसूस करते हैं जिसमें उन्होंने उनकी माँ के अंग दान करने का निर्णय लिया.
कुमार ने कहा, “मुझे इस बात की चिंता थी कि मेरे रिश्तेदार क्या कहेंगे और मुझे किसी के द्वारा जज किए जाने का डर था.”
उन्होंने बताया कि छोटे शहरों में अक्सर नकारात्मक बातें बनती हैं जैसे कि अंग बेचे गए हैं, अस्पताल ने परिवार को पैसे दिए हैं, या परिवार मृतक की इच्छाओं के प्रति उदासीन था.
लेकिन उन्होंने गर्व से कहा, “अब मैं कहता हूं कि मेरी मां ने अपनी मौत के बाद भी कई जानें बचाईं.”
NOTTO (नेशनल ऑर्गन एंड टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन), जो भारत में अंग और ऊतक दान तथा ट्रांसप्लांट के संचालन की सर्वोच्च संस्था है, अंग दाताओं और रिसीपीएंट्स का राष्ट्रीय रजिस्ट्रि रखती है. इससे उचित अंग आवंटन सुनिश्चित होता है और नैतिक एवं पारदर्शी ट्रांसप्लांट प्रक्रियाओं का पालन होता है. यह NGO और अस्पताल टीमों के साथ मिलकर जनता में जागरूकता फैलाने, नीति विकसित करने, और ट्रांसप्लांट प्रक्रिया में लगे पेशेवरों को प्रशिक्षण देने का काम भी करता है.
नेशनल ऑर्गन एंड टिशू ट्रांसप्लांट ऑर्गनाइजेशन (NOTTO) ने एक ऑनलाइन सिस्टम भी शुरू किया है, जिसके जरिए भारतीय नागरिक अपने अंग दान के लिए ऑनलाइन प्रतिज्ञा कर सकते हैं.
संघीय स्वास्थ्य मंत्री जेपी नड्डा ने 2 अगस्त 2025 को 15वें भारतीय अंगदान दिवस समारोह के दौरान कहा, “2023 में आधार-आधारित NOTTO ऑनलाइन प्रतिज्ञा वेबसाइट के लॉन्च के बाद से, 3.30 लाख से अधिक नागरिकों ने अपने अंग दान के लिए प्रतिज्ञा की है, जो सार्वजनिक भागीदारी में एक ऐतिहासिक क्षण है.”
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग की सचिव, निवेदिता शुक्ला वर्मा ने राज्यों से केंद्रीय सरकार के समर्थन का पूरा लाभ उठाने का आग्रह किया और प्रगति के लिए तीन मुख्य क्षेत्रों की रूपरेखा प्रस्तुत की: अधिक संभावित डोनर्स की पहचान, बुनियादी ढांचे का विस्तार, और मानव संसाधन विकास — साथ ही उन्होंने कहा कि जागरूकता और समय की पाबंदी नैतिक अंगदान के जरिए जानें बचाने के लिए आवश्यक हैं.
उन्होंने कहा, “सरकार हर गांव और घर में अंगदान को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही है, जिसमें जनता की भागीदारी बढ़ रही है.” उन्होंने यह भी कहा कि दुर्घटना पीड़ितों से समय पर अंगदान की अभी भी आवश्यकता है.
लेकिन अब सोच धीरे-धीरे बदल रही है. जितेंद्र कुमार पटेल ने दिसंबर 2024 में अपने पिता के अंग दान किए, जब उन्हें ब्रेन डेड घोषित किया गया था. पटेल परिवार को इस निर्णय के लिए काउंसलिंग या मनाने की जरूरत नहीं पड़ी. चार साल पहले, उन्होंने अपने एक रिश्तेदार को गुर्दे के डोनर की तलाश में दो से अधिक साल संघर्ष करते देखा था.
पटेल ने कहा, “हमने हर दिन एक जीवन बचाने के दर्द और संघर्ष को देखा है.” उन्होंने स्वयं डॉक्टरों से अंगदान के लिए संपर्क किया. उनके पिता, कुदर पटेल, जो अस्पताल में भर्ती होने के समय 74 वर्ष के थे, स्वस्थ जीवनशैली के कारण अभी भी एक आदर्श डोनर उम्मीदवार थे.
पटेल ने जोड़ा, “मेरे पिता अब कई लोगों में जीवित है — यह हमें एक अलग तरह का सूकून देता है. कोई उसकी आँखों से देख रहा है, और किसी का लंबा इंतजार अब खत्म हो गया है.”
एक लंबी प्रक्रिया
डॉक्टर, काउंसलर, सरकार और अस्पताल हर सफल ट्रांसप्लांट का जश्न मनाते हैं, लेकिन स्वीकार करते हैं कि यह सागर में एक बूंद भर है. अक्सर मरीज खुद को कानूनी जंजाल और कर्ज़ के बीच फंसा पाते हैं.
संतोष कुमार वर्मा (45) बेंगलुरु में काम कर रहे थे जब उनके पिता, सीपी वर्मा, दिल्ली में लिवर फेल्योर से पीड़ित पाए गए और उन्हें तत्काल ट्रांसप्लांट की जरूरत थी.
बहुत सारी सलाह-मशविरा और उपयुक्त डोनर और सही अस्पताल की लंबी तलाश के बाद, वर्मा ने खुद डोनर बनने का निर्णय लिया. उन्होंने दिल्ली के मेदांता अस्पताल से सलाह ली, और बाद में नोएडा के फोर्टिस अस्पताल में वह सर्जरी करवाई गई.
यह पिता और पुत्र दोनों के लिए भावनात्मक रूप से चुनौतीपूर्ण और आर्थिक रूप से भारी समय था. इसमें दो सप्ताह से अधिक का समय लगा और कुल खर्च 20 लाख रुपये से अधिक हो गया.

वर्मा ने कहा, “सब कुछ बहुत कठिन था, मानसिक और शारीरिक रूप से. डोनर होने के नाते आपको शारीरिक थकान से निपटना पड़ता है, लेकिन बेटे और देखभाल करने वाले के रूप में आपको बाकी हर चीज़ की जिम्मेदारी भी संभालनी होती है.”
लेकिन सबसे कठिन दौर अभी खत्म नहीं हुआ था. कुछ साल बाद, उनके पिता को किडनी फेल्यर का पता चला, जिससे परिवार को फिर से एक लंबा मेडिकल सफर तय करना पड़ा, जिसमें कई इलाज, प्रक्रियाएं और एक और बड़ी मेडिकल बिलों की राशि शामिल थी.
16 वर्षीय नवलीन कौर के पिता डैनी के लिए, जो मानेसर से हैं, लड़ाई अस्पताल की यात्राओं से कहीं आगे थी.
नवलीन, जिसकी हमेशा से इम्यून सिस्टम कमजोर रहा था, को 2022 में किडनी फेल्योर पता का चला चला. सौभाग्य से, उनके पिता की जीवनसाथी ज्योति सिंह सही मैच पाई गईं. लेकिन जो एक उम्मीद भरा मोड़ होना चाहिए था, वह 14 महीने की लंबी जद्दोजहद बन गया.
सिंह ने कहा, “हमने कभी नहीं सोचा था कि सही डोनर मिलने के बाद हमारी असली लड़ाई शुरू होगी.”
उनकी यात्रा AIIMS दिल्ली से शुरू हुई. अस्पताल ने कानूनी मुद्दों का हवाला देते हुए ट्रांसप्लांट करने से इनकार कर दिया. परिवार ने फिर अपोलो अस्पताल, दिल्ली का रुख किया, उम्मीद थी कि वहां प्रक्रिया आसान होगी, लेकिन वही समस्याएं आईं. ट्रांसप्लांटेशन ऑफ ह्यूमन ऑर्गन्स एक्ट (THOA) 1994 के अनुसार, लाइव ट्रांसप्लांटेशन के दौरान केवल करीबी रिश्तेदार अंग दान कर सकते हैं. करीबी रिश्तेदारों में माँ, पिता, पुत्र, पुत्री, भाई, बहन, जीवनसाथी, दादा-दादी और पोता-पोती शामिल हैं. गैर-करीबी रिश्तेदारों के लिए विशेष अनुमति और कागजी कार्रवाई जरूरी होती है.
एक और जटिलता यह थी कि ज्योति सिंह और डैनी के पास वैध विवाह प्रमाणपत्र नहीं था, और ज्योति का पिछला विवाह मौखिक और पारस्परिक सहमति से समाप्त हुआ था, जिसके कोई आधिकारिक तलाक के कागजात नहीं थे.
निखिल व्यास ने समझाया कि यह प्रक्रिया पारदर्शिता बनाए रखने और सभी शामिल लोगों की सुरक्षा के लिए आवश्यक है, “ट्रांसप्लांट प्रक्रिया को नैतिक और कानूनी रूप से वैध बनाए रखने के लिए हर कदम जरूरी है. ऐसे मामले भी हुए हैं जहां लोग नकली रिश्तेदारों के साथ सामने आए हैं.”
अपनी सौतेली बेटी नवलीन के लिए योग्य डोनर माने जाने के लिए, ज्योति को कानूनी दस्तावेज़ प्रस्तुत करने थे, जिनमें उनके पूर्व पति से तलाक के कागजात और वर्तमान पति डैनी के साथ वैध विवाह प्रमाणपत्र शामिल था.
पहले, उन्होंने अपने कानूनी पति से संपर्क किया और दोनों का तलाक हो गया. इस प्रक्रिया में उन्हें तीन महीने लगे. इसके बाद ज्योति और डैनी ने आर्य समाज की एक समारोह में विवाह किया और उसका प्रमाणपत्र प्राप्त किया. हालांकि, अस्पताल की ट्रांसप्लांट कमेटी ने इसे स्वीकार नहीं किया और इसके बजाय एक औपचारिक कोर्ट मैरिज सर्टिफिकेट की मांग की.
ज्योति और डैनी को कानूनी कोर्ट मैरिज प्रक्रिया पूरी करने में छह और महीने लग गए.
ज्योति सिंह ने कहा, “मेरा बस एक ही उद्देश्य था कि मैं अपनी बेटी को बचा सकूं, चाहे जो भी करना पड़े.”
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