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Thursday, 16 October, 2025
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लेबर और कारीगर ऑनलाइन कर रहे हैं नौकरी की तलाश—डिजिटल लेबर चौक बदल रहा मजदूरों की दुनिया

डिजिटल लेबर चौक उन तकनीकी प्लेटफ़ॉर्म्स की श्रृंखला का हिस्सा है जो मैनुअल मज़दूरी को सड़कों से हटाकर एल्गोरिदम और ऐप्स की दुनिया में लाने की कोशिश कर रहे हैं. '10,000 से ज़्यादा कंपनियां भर्ती कर रही हैं.'

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नई दिल्ली: नोएडा के लेबर चौक पर जगदीश प्रसाद बेकार पसीना बहा रहे थे. वह किसी ठेकेदार के उन्हें दिनभर के काम के लिए रखने का इंतजार कर रहे थे. दोपहर की धूप के साथ उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी. लेकिन संतोष कुमार शाहनी के लिए अब ऐसे दिन पीछे छूट चुके हैं. हरियाणा के जींद में रिलायंस गैस प्लांट के निर्माण स्थल पर उन्होंने सुबह की शिफ्ट के बाद दोपहर का खाना खत्म किया. अब उनके पास लेबर कार्ड है, भविष्य निधि (PF) खाता है और काम तब तक तय है जब तक निर्माण पूरा नहीं हो जाता.

दो महीने पहले तक शाहनी भी बिहार के मुजफ्फरपुर में बेरोजगार और परेशान थे. फिर कुछ दोस्तों ने उन्हें डिजिटल लेबर चौक के बारे में बताया. यह निर्माण मजदूरों के लिए वैसा ही प्लेटफॉर्म है जैसा सफेदपोश पेशेवरों के लिए LinkedIn और डिलीवरी ड्राइवरों के लिए Gig4You है. संतोष कुमार शाहनी के पास स्मार्टफोन नहीं था. इसलिए उन्होंने वेबसाइट पर दिए गए नंबर पर कॉल किया और खुद को रजिस्टर कराया. एक महीने के अंदर उन्हें नौकरी मिल गई.

यह एक बढ़ती हुई तकनीकी पहल का हिस्सा है, जो मजदूरों की भर्ती को सड़कों से निकालकर ऐप्स और एल्गोरिद्म की दुनिया में ला रही है. अर्बन कंपनी ने ब्यूटी पार्लर और घरेलू कामगारों के लिए यही किया, जोमैटो और स्विगी ने डिलीवरी एजेंटों के लिए, और ओला-ऊबर ने ड्राइवरों के लिए. अब डिजिटल लेबर चौक जैसे प्लेटफॉर्म निर्माण क्षेत्र में काम को औपचारिक और व्यवस्थित करने का काम कर रहे हैं.

इसे 2020 में बिहार के 29 वर्षीय चंद्रशेखर मंडल ने शुरू किया था. वह रोज़ मयूर विहार लेबर चौक के पास से गुज़रते थे और वहां काम की तलाश में जुटे मजदूरों की भीड़ देखते थे. वह ट्रांसपोर्ट कंपनी में एक्जीक्यूटिव के रूप में काम करते थे. उन्होंने तय किया कि बढ़ई, राजमिस्त्री, बिजली मिस्त्री और अन्य कुशल-अकुशल कामगारों को सम्मानजनक और आसान तरीके से नौकरी दिलाने के लिए कुछ किया जाए.

मंडल ने कहा, “मैं ब्लू कॉलर जॉब तलाशने वालों के लिए Naukri.com या LinkedIn जैसा एक प्लेटफॉर्म बनाना चाहता था, और डिजिटल लेबर चौक ने यह साबित किया है कि यह वैसा ही प्लेटफॉर्म है.” उनका दावा है कि इस समय 1.5 लाख से ज्यादा मजदूर प्लेटफॉर्म पर पंजीकृत हैं और 10,000 से अधिक कंपनियां इससे भर्ती कर रही हैं. वेबसाइट का कहना है कि 80 प्रतिशत व्यवसायों को 48 घंटे के भीतर मजदूर मिल जाते हैं.

भारत में अब ब्लू कॉलर और हाई-टेक सेक्टर का संगम हो रहा है. मैकिन्से के अनुमान के मुताबिक 2030 तक भारत में बनने वाली 9 करोड़ नई नौकरियों में से 70 प्रतिशत ब्लू कॉलर होंगी. ऐसे में बाज़ार की कमी को पूरा करना अब एक मजबूत व्यापारिक संभावना बन गया है. वर्कइंडिया और एआई आधारित वाहन (Vahan) जैसे प्लेटफॉर्म निर्माण से लेकर लॉजिस्टिक्स तक कई सेक्टरों में ब्लू और ग्रे कॉलर नौकरियों के लिए काम कर रहे हैं. लेकिन फिलहाल डिजिटल लेबर चौक केवल निर्माण क्षेत्र पर ध्यान दे रहा है, जिसमें भारत में लगभग 7.1 करोड़ लोग काम करते हैं.

Digital labour Chowk founder Chandrashekhar mandal
डिजिटल लेबर चौक के संस्थापक चंद्रशेखर मंडल। निर्माण क्षेत्र के मजदूरों को लेबर चौकों पर नौकरी पाने के लिए संघर्ष करते देखकर उन्हें यह प्लेटफॉर्म शुरू करने की प्रेरणा मिली | विशेष व्यवस्था

शुरुआती दिनों में डिजिटल लेबर चौक की वृद्धि धीमी रही और फंडिंग भी मुश्किल थी. पिछले तीन वर्षों में इसने कई नई सुविधाएं जोड़ीं और गांवों व छोटे शहरों में लोकप्रिय इन्फ्लुएंसर्स के ज़रिए प्रचार बढ़ाया. अब इसका एक डीएलसी रोजगार एंड्रॉयड ऐप है और जून में शुरू किया गया प्रोजेक्ट पोर्टल छोटे शहरों के ठेकेदारों को बड़े निर्माण कार्यों के लिए बोली लगाने की सुविधा देता है. मंडल की टीम एक ऐसा टूल भी बना रही है जिससे नियोक्ता मजदूरों को कौशल और स्थान के आधार पर चुन सकें.

इस साल की शुरुआत में रियल्टीनेक्स्ट के “कंस्ट्रक्शन टेक डेमो डे” में बोलते हुए मंडल ने कहा, “97 प्रतिशत निर्माण परियोजनाएं मजदूरों की कमी के कारण देरी से पूरी होती हैं.”

घरेलू अवसरों को सुधारने से कुशल मजदूरों का देश से पलायन भी रुक सकता है. दिमाग़ी पलायन के बाद अब ‘मांसपेशी पलायन’ की बारी आ सकती है. रूस, आर्मेनिया और इज़राइल जैसे देश अब खाड़ी देशों के साथ भारतीय निर्माण मजदूरों को भी भर्ती कर रहे हैं. 2022 में कंस्ट्रक्शन स्किल डेवलपमेंट काउंसिल ऑफ इंडिया की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत प्रवासी मजदूरों का दुनिया का सबसे बड़ा स्रोत है, और जापान व जर्मनी जैसे देशों की वृद्ध होती आबादी उन्हें विदेशी मजदूरों को बुलाने पर मजबूर कर रही है.

मंडल ने कहा, “इस तरह के प्लेटफॉर्म से हमने पूरे भारत में पहुंच बनाई है और अब अंतरराष्ट्रीय अवसर भी खुल रहे हैं. आज कोई व्यक्ति कहीं भी पहुंच सकता है. भारत के मजदूरों के लिए यह अवसर की खिड़की है.”

हालांकि टीमलीज़ सर्विसेज़ के वाइस चेयरमैन मनीष सभरवाल इस बात को लेकर संशय में हैं कि डिजिटल प्लेटफॉर्म मैनुअल लेबर नौकरियों के लिए कितना कुछ कर सकते हैं. उनका कहना है कि इस क्षेत्र में नौकरी मिलान (जॉब-मैचिंग) के लिए ज़रूरी जानकारी, जैसे बायोडाटा, अक्सर उपलब्ध नहीं होती.

उन्होंने कहा, “Naukri.com या कोई और यह क्यों नहीं कर पा रहा? क्योंकि यह बहुत मुश्किल है. यहां उतनी जानकारी नहीं है. ये ज्यादातर अकुशल नौकरियां हैं, इसलिए इनके पास ऐसा रेज़्यूमे नहीं होता जिसे मिलाया जा सके. बड़े प्लेटफॉर्म भी नौकरी तो देते हैं, लेकिन मिलान नहीं करते. जब तक हम पहचान और लोकेशन सेवाओं का इस्तेमाल करने के तरीके नहीं निकालते — शायद डिजिटल पब्लिक इंफ्रास्ट्रक्चर के ज़रिए — तब तक यह सच में काम नहीं करेगा.”

भारत में केवल 4.1 प्रतिशत कामगारों को औपचारिक प्रशिक्षण मिला है, जबकि चीन में यह आंकड़ा लगभग 26 प्रतिशत है. भारत में ज़्यादातर मजदूर काम के दौरान या परिवार से पारंपरिक उस्ताद-शागिर्द प्रणाली के ज़रिए सीखते हैं. दो दशकों के कौशल मिशनों के बावजूद यह आंकड़ा मुश्किल से दो प्रतिशत तक ही बढ़ पाया है.

ब्लू-कॉलर का डिजिटल विभाजन को मात देना

जब मार्च 2020 में लॉकडाउन के दौरान शहर थम गए और प्रवासी मज़दूर पैदल घर लौटने लगे. तब चंद्रशेखर मंडल भी दरभंगा लौट आए. वहां उन्हें आखिरकार समय मिला कि वे अपने उस विचार को आकार दें जिसमें वे मज़दूरों को रोज़ काम के लिए चौक पर धक्के खाने के बजाय एक नया विकल्प देना चाहते थे.

मंडल ने कहा, “मैं कुशल और अकुशल मज़दूरों के लिए एक ऐसा प्लेटफॉर्म बनाना चाहता था जो उन्हें एक पहचान दे.”

शुरुआत में उन्होंने अपनी ही जेब से लगभग 40,000 रुपये लगाए.

उन्होंने कहा, “मुझे लगा था कि इतना पैसा प्लेटफॉर्म शुरू करने के लिए काफी होगा.” लेकिन परियोजना को शुरू होने में समय लगा क्योंकि अनुदान और फंडिंग के दूसरे स्रोतों से मदद नहीं मिली.

पहली बड़ी सफलता 2022 में मिली जब डीएलसी ने हिताची इंडिया और केरल स्टार्टअप मिशन द्वारा आयोजित ‘रीचिंग द अनरीच्ड’ श्रेणी में नेशनल इनोवेशन चैलेंज जीता. इनाम के रूप में 30 लाख रुपये की सीड फंडिंग मिली. आने वाले वर्षों में डीएलसी को कैंपस फंड, स्प्रिंग स्टार कैपिटल और निक्केन समेत कई कंपनियों से निवेश मिला. प्लेटफॉर्म को स्टार्टअप बिहार, स्टार्टअप इंडिया और बिहार की मुख्यमंत्री उद्यमी योजना के तहत सरकारी अनुदान और फंड भी मिले. कुल मिलाकर अब तक लगभग 3 करोड़ रुपये की फंडिंग हो चुकी है.

Digital Labour Chowk
आईआईटी-बॉम्बे में आयोजित निर्माण प्रौद्योगिकी दिवस 2025 में चंद्रशेखर मंडल को पिच परफेक्ट पुरस्कार मिला | फोटो: LinkedIn/@Digital Labour Chowk

कंपनी की आय ठेकेदारों से होती है. वे साइट पर हर मज़दूर की प्रोफ़ाइल देखने के लिए 5 रुपये का भुगतान करते हैं. आय का दूसरा स्रोत विज्ञापन है. मज़दूरों के लिए प्लेटफॉर्म पूरी तरह मुफ्त है. नोएडा और बिहार में ऑफिस के साथ कंपनी में फिलहाल करीब 20 कर्मचारी हैं. इनमें छह लोगों की टेक टीम भी शामिल है.

कंपनी के लगभग 35 से 40 प्रतिशत मज़दूर बिहार से हैं. 25 प्रतिशत उत्तर प्रदेश से हैं. बाकी अन्य राज्यों से हैं. साइट पर अलग-अलग राज्यों की सरकारी गाइडलाइन के अनुसार मज़दूरी दरें भी दी गई हैं.

मंडल का कहना है कि लक्ष्य न्यूनतम मानवीय हस्तक्षेप से रोजगार देना है. अब एक एआई-आधारित सिस्टम नौकरी खोजने वालों को उनके क्षेत्र और काम के प्रकार के अनुसार फ़िल्टर करके काम दिलाने में मदद करता है.

अन्य प्लेटफॉर्म भी इस ब्लू-कॉलर हायरिंग क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हैं. दिल्ली के उद्यमी राजू प्रसाद गुप्ता ने 2018 में ‘लेबर चौक’ लॉन्च किया था. यह शुरुआत में एक वेबसाइट थी जिसमें उन्होंने दिल्ली-एनसीआर में मिले मज़दूरों की सूची डाली थी. जब ऑनलाइन लिस्टिंग नहीं चली तो उन्होंने फोन-आधारित मॉडल अपनाया. ग्राहक तेजी से उनसे संपर्क करने लगे और ज्यादा मज़दूरों को काम मिलने लगा. साइट अब भी मौजूद है. इसमें नौ से पांच की मज़दूरी दरें दी गई हैं. राजमिस्त्री के लिए 900 रुपये. भारी मज़दूरी के लिए 1,200 रुपये. बढ़ई के लिए 1,800 रुपये. इसमें 40 मिनट का लंच ब्रेक शामिल है.

Construction sector
भारत में तेज़ी से बढ़ते निर्माण क्षेत्र को कुशल श्रमिकों की गंभीर कमी का सामना करना पड़ रहा है, कुछ उद्योग जगत के नेताओं का अनुमान है कि यह संख्या लगभग 2 मिलियन है | छवि प्रतिनिधित्व के लिए | (c) Copyright Thomson Reuters 2023

गुप्ता ने कहा कि वह फिलहाल करीब 10 कंपनियों के साथ काम कर रहे हैं. उनके पास 50 ‘स्थायी’ मज़दूरों का समूह है.

उन्होंने कहा, “हर दिन हमें कुछ मज़दूरों के कॉल आते हैं जो काम की तलाश में होते हैं.”

एक और उभरता हुआ ब्लू- और ग्रे-कॉलर प्लेटफॉर्म है बेंगलुरु स्थित Vahan.ai. इसे माधव कृष्णा ने शुरू किया था. उन्होंने अमेरिका में अपनी ग्रेजुएट स्टडीज के दौरान एआई की पढ़ाई की थी. 2016 में शुरू हुई इस कंपनी ने “एआई-आधारित चैटबॉट तकनीक” के ज़रिए कंपनियों को भर्ती एजेंसियों के नेटवर्क से जोड़ने का काम शुरू किया ताकि ब्लू-कॉलर और गिग वर्कर्स की भर्ती हो सके. एआई शुरुआती हायरिंग प्रक्रिया को ऑटोमेट करता है. दस्तावेज़ों की जांच करता है और बातचीत भी करता है.

कृष्णा ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा था, “हमने बहुत समय यह सुनिश्चित करने में लगाया कि आवाज़ पूरी तरह देसी लगे, मशीन जैसी नहीं.” उन्होंने बताया कि यह मॉडल इसलिए प्रभावी है क्योंकि भारत में ज़्यादातर लोग नौकरी के लिए रिश्तेदारों या परिचितों पर निर्भर रहते हैं.

ThePrint ने कृष्णा से कई बार फोन और संदेश के ज़रिए संपर्क करने की कोशिश की. लेकिन कोई जवाब नहीं मिला.

इन सभी प्लेटफॉर्म्स की एक समान कोशिश है. एक बड़े असंगठित क्षेत्र में व्यवस्था लाना. डिजिटल लेबर चौक पर अब हर पंजीकृत मज़दूर की प्रोफ़ाइल होती है जिसमें उनके कौशल, अनुभव और योग्यता की जानकारी दी गई है. यह उन लोगों के लिए एक तरह का मूल बायोडाटा है जिन्होंने पहले कभी ऐसा नहीं बनाया. इससे कंपनियों के लिए भर्ती करना भी आसान हुआ है.

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काम न मिलने पर नोएडा लेबर चौक के पास छाया में आराम करते दो मज़दूर | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

जीपीएस रिन्यूएबल प्राइवेट लिमिटेड के प्रोजेक्ट मैनेजर अमित सिंह ने ThePrint को बताया कि उनकी कंपनी ने हाल ही में हरियाणा में डीएलसी के ज़रिए 30 निर्माण मज़दूरों को नियुक्त किया है.

उन्होंने कहा, “पहले हम लोगों से पूछताछ करते थे या ठेकेदारों से जानकारी लेते थे. अब वे ऑनलाइन उपलब्ध हैं. मज़दूरों के कौशल को पहचानना आसान हो गया है. इससे बातचीत भी आसान और पारदर्शी हो गई है.”

गांवों में कियोस्क, इंफ्लुएंसर बेच रहे स्वैग

रोहित देशवाल अपने घर जिंद, हरियाणा के पास किसी ऑन-साइट नौकरी की तलाश में थे. उनकी मां बीमार थीं और उन्हें उनकी देखभाल करनी थी. इंटरनेट पर नौकरी ढूंढते हुए उन्हें डिजिटल लेबर चौक का पता चला. इसके बाद रास्ता आसान हो गया.

देशवाल ने कहा, “मैंने लोकेशन में जिंद डाला और सौभाग्य से मुझे यह नौकरी मिल गई.” अब वे जिंद में एक बायो प्लांट के निर्माण स्थल पर सुपरवाइज़र के रूप में काम करते हैं.

इंडस्ट्रियल ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट (आईटीआई) से कंप्यूटर कोर्स करने के बाद देशवाल की पहली नौकरी पलवल में थी, जहां वे बिना तय वेतन के दैनिक मज़दूरी पर काम करते थे.

Digital Labour Chowk
डिजिटल लेबर चौक के बारे में प्रभावशाली लोगों के वीडियो के स्क्रीनशॉट। एक कैप्शन में हिंदी में लिखा है, ‘अब वो 27,000 रुपये महीने से ज़्यादा कमा रहे हैं,’ जबकि दूसरे में लिखा है, ‘खचरे को नौकरी मिल गई | स्क्रीनशॉट

उन्होंने कहा, “अगर मुझे किसी तरह की दिक्कत होती है तो मैं सीधे कंपनी से बात करता हूं. मुझे किसी ठेकेदार के पास नहीं जाना पड़ता. मुझे सीधे वेतन मिलता है. कोई परेशानी नहीं होती.” फिलहाल वे नौ घंटे की शिफ्ट के लिए 18,000 रुपये महीना कमा रहे हैं.

उन्होंने कहा, “मुझे खुशी है कि मैं अपने घर के पास आ गया हूं. मैं थोड़ा पैसा बचा लेता हूं और घर का बना खाना भी खा लेता हूं.”

हालांकि वेबसाइट अंग्रेज़ी में है, लेकिन उस पर एक फोन नंबर साफ़ दिखाई देता है और यह मुंहज़बानी प्रचार पर भी निर्भर करती है.

अब बहुत से लोग जो अंग्रेज़ी में निपुण नहीं हैं, उनमें भी कुछ हद तक डिजिटल समझ आ गई है. डीएलसी इसी पर भरोसा कर रहा है. मंडल ने बताया कि प्लेटफॉर्म ने मार्केटिंग के लिए सोशल मीडिया इन्फ्लुएंसर्स के साथ सहयोग किया है.

मंडल ने कहा, “हमने यूट्यूब और इंस्टाग्राम इन्फ्लुएंसर्स को ईमेल भेजना शुरू किया और उन्हें डीएलसी का विज्ञापन करने के लिए प्रोत्साहन दिया. हमने ऐसे लोगों को चुना जिनके लाखों फॉलोअर्स हैं.”

कई इन्फ्लुएंसर पोस्ट मज़दूरों के गर्व को दर्शाने के लिए देसी हास्य और आत्मविश्वास का इस्तेमाल करते हैं. उनमें बदले की भावना, सम्मान और पलटाव जैसे दृश्य आम हैं.

Labour chowk
राजू प्रसाद गुप्ता के लेबर चौक इंस्टाग्राम पेज पर निर्माण कार्यों की तस्वीरें और इस प्लेटफॉर्म से जुड़ने के लिए आह्वान मौजूद हैं. गुप्ता कहते हैं कि ज़्यादातर मज़दूर फ़ोन पर ही जुड़ना पसंद करते हैं. | Instagram/@labourchowk7

एक वीडियो में, 1.5 करोड़ इंस्टाग्राम फॉलोअर्स वाले अमन शर्मा बाइक पर आते हैं, अपने दोस्त के किराने का बिल चुकाते हैं और शेखी बघारते हैं कि “हर पेड़ के नीचे एसी लगवा दूंगा.” वह अपने दोस्त से कहते हैं कि गूगल प्ले से डीएलसी रोजगार ऐप डाउनलोड करो और ऐसी ही कमाई करो. फिर मुस्कुराते हुए कहते हैं, “उसके बाद तू पैसे झाप.” इस वीडियो को 21 लाख लाइक और सैकड़ों कमेंट मिले.

एक अन्य इन्फ्लुएंसर राहुल राजपूत, जिनके 40 लाख फॉलोअर्स हैं, ने इसे रोमांस का रूप दिया. उन्होंने कहा, “पापा की परियों, अपने राजा बाबू को बोलो डिजिटल लेबर चौक रोजगार ऐप डाउनलोड करके पैसे कमाना शुरू कर दे.” इस वीडियो को 96,000 से ज्यादा लाइक मिले. कुछ लोगों ने मजाक में कहा कि प्यार पैसे से ज्यादा जरूरी है. कुछ ने पूछा कि क्या ऐप से सच में नौकरी मिलती है. इस पर डीएलसी के आधिकारिक हैंडल ने लिंक के साथ जवाब दिया.

कुछ सहयोगों में सामाजिक संदेश भी शामिल थे. पीके वालिया, जिनके 4 लाख फॉलोअर्स हैं, ने लेबर चौक से एक वीडियो बनाया जिसमें डीएलसी को सामाजिक बदलाव का मॉडल बताया गया. इसे 13,000 लाइक मिले. मंगरूज़ फिल्म्ज़, जिनके करीब 40 लाख फॉलोअर्स हैं, ने एक स्किट पोस्ट किया जिसमें एक रिपोर्टर मज़दूरों का मजाक उड़ाती है कि उन्होंने पढ़ाई नहीं की. लेकिन जब मज़दूर बताते हैं कि वे 27,000 रुपये कमा रहे हैं जबकि रिपोर्टर 20,000 कमा रही है, तो स्थिति पलट जाती है. और अभिमन्यु भारद्वाज, जिनके करीब एक लाख फॉलोअर्स हैं, ने मैथिली में डीएलसी वीडियो बनाए. अगस्त में साझा किए गए एक वीडियो को 30,000 से ज्यादा लाइक मिले.

सोशल मीडिया से परे, कंपनी बिहार के गांवों में कियोस्क के ज़रिए जमीनी स्तर पर मज़दूरों तक पहुंचने की कोशिश कर रही है. मंडल ने बताया कि ये कियोस्क स्थानीय मोबाइल दुकानों के साथ साझेदारी में चलाए जाते हैं. इन दुकानों को प्लेटफॉर्म पर मज़दूरों का पंजीकरण कराने के लिए प्रोत्साहन दिया जाता है. उन्होंने मज़दूरों के लिए ऑनलाइन स्किल क्लासेस भी शुरू की हैं.

डिजिटल विस्तार के बावजूद पुराना सिस्टम अब भी जारी है.

गुप्ता ने कहा, “लोग अब भी चौक से मज़दूर लेते हैं. डिजिटल प्लेटफॉर्म्स को जगह बनाने में थोड़ा समय लगेगा.”

भर्तीकर्ता भी कभी-कभी पारंपरिक व्यवस्था को उसकी तात्कालिकता के कारण प्राथमिकता देते हैं.

जीपीएस रिन्यूएबल प्राइवेट लिमिटेड के सिंह ने कहा, “स्थानीय मज़दूरों की भर्ती कंपनी के लिए किफायती है.”

एफएलओ मोबिलिटी प्राइवेट लिमिटेड — जो सामग्री ढोने के लिए स्वचालित रोबोट बनाती है — भी डिजिटल लेबर चौक के माध्यम से मज़दूरों की भर्ती करती है. लेकिन कंपनी के एक अधिकारी, प्रत्युष राज, ने कहा कि यह प्रक्रिया कभी-कभी धीमी होती है.

उन्होंने कहा, “हमें कम समय में अधिक मज़दूरों की जरूरत होती है.”

श्रम का व्यस्त समय

पिछले तीन सालों में, ब्लू-कॉलर मजदूरों के लिए डिजिटल सेक्टर लगभग 10 प्रतिशत बढ़ा है, गुप्ता के अनुसार. लेकिन जागरूकता अभी भी कम है.

माधव सिंह, एक ठेकेदार जो दिल्ली और एनसीआर में दो दशक से काम कर रहे हैं, ने कहा कि उन्होंने कभी ऐसे डिजिटल प्लेटफॉर्म्स के बारे में नहीं सुना. चौकों में मिलने वाले ज्यादातर मजदूर भी यह नहीं जानते थे कि कोई वेबसाइट या ऐप उन्हें सीधे नियोक्ताओं से जोड़ सकता है.

नोएडा के ग्रीन वैली पीस चौक में सुबह का हड़बड़ी होती है. कारें और बाइक रुकती हैं मजदूरों को लेने के लिए और ठेकेदार भीड़ में पुरुषों को देखते हैं. अगर उन्हें उस दिन नहीं चुना गया, तो वे कोई पैसा नहीं कमाएंगे और भूखे भी रह सकते हैं. एक कार रुकती है और भीड़ उसके पास दौड़ती है, नौकरी मिलने की उम्मीद में.

मजदूर चौक का विचार सदियों से है, जब लोग गांवों से शहरों की ओर आते और काम के लिए सड़कों के किनारे इकट्ठा होते. जैसे-जैसे 19वीं और 20वीं सदी में उद्योग बढ़े, ये जगहें दैनिक भर्ती केंद्र बन गईं, और आज भी यही प्रणाली चल रही है.

नोएडा चौक में सुबह 8 बजे से दोपहर तक भीड़ रहती है. इसके बाद भीड़ कम हो जाती है, लेकिन कुछ जैसे जगदीश प्रसाद अभी भी इंतजार कर रहे हैं.

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निराशाजनक सुबह के बाद नोएडा लेबर चौक पर भीड़ से दूर बैठे जगदीश कुमार (बीच में) और अन्य मजदूर | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

प्रसाद ने कहा, “आज मेरे पास काम नहीं है. कल भी कुछ नहीं था. मैं महीने के अंत में अपने परिवार को पैसा भेजता हूं, एक दिन भी काम छोड़ना मेरे बस की बात नहीं है.”

जैसे ही दोपहर के एक बजते हैं, लोग हार मान लेते हैं. कुछ कार्ड खेलते हैं, जबकि कुछ जैसे प्रसाद यूपी सरकार द्वारा बनाए गए विश्राम क्षेत्र में चुपचाप बैठ जाते हैं. कुछ उम्र के कारण नौकरी नहीं पाते, और कुछ इसलिए कि वे काम के लिए योग्य नहीं हैं. इन जगहों पर मजदूरों का शराब पीना आम है, जिससे अराजक व्यवहार होता है.

सिंह ने कहा, “हम वहां अन्य मजदूरों के साथ नहीं बैठ सकते — उनमें से ज्यादातर नशे में हैं, और कार्ड गेम में हारने के बाद आपस में लड़ते हैं. दो दिन पहले यहां एक मजदूर की मौत हुई, और कोई कारण नहीं पता चल सका.”

संतोष कुमार शाहनी लगातार चिंतित रहते थे जब उन्होंने ब्लू-चिप कंपनी एल एंड टी में फिटर की नौकरी छोड़ी. वेतन समय पर नहीं आता था.

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नोएडा लेबर चौक के पास उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा निर्मित विश्राम स्थल | फोटो: मनीषा मोंडल | दिप्रिंट

बिहार में उनके गांव के मजदूर सप्लायर, राजू बाबू, ने उन्हें डिजिटल लेबर चौक पर पंजीकृत कराया. वे जल्द ही जिंद में काम पाने में सफल हुए, जहां वे चार महीने से काम कर रहे हैं.

लेकिन अब उन्हें समय पर भुगतान मिलता है. और सम्मान भी है.

उन्होंने कहा, “मुझे खुशी है कि मुझे यह नौकरी मिली, भले ही यह घर से दूर है. हमारे जैसे लोगों के लिए यह जरूरी है कि हमें समय पर वेतन मिले.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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