scorecardresearch
Friday, 4 October, 2024
होमदेशक्या भारत में उपन्यास मर रहा है? ज्यादा से ज्यादा नॉन-फिक्शन की तरफ भाग रहे प्रकाशक

क्या भारत में उपन्यास मर रहा है? ज्यादा से ज्यादा नॉन-फिक्शन की तरफ भाग रहे प्रकाशक

पाठकों और प्रकाशकों में तथ्य, डेटा, नैरेटिव, थ्योरी और अनुभवों के लिए नया उत्साह है. भारत में फिक्शन को पढ़ने वाले अब धीरे-धीरे कम होते जा रहे हैं.

Text Size:

जब अमीश त्रिपाठी की शिव पर लिखी गई तीन किताबों के सेट की पहली ‘द इम्मोर्टल्स ऑफ मेलुहा’ 40 प्रकाशकों द्वारा खारिज करने के बाद प्रकाशित हुई तो लोगों ने उसे काफी पसंद किया. उन्होंने दो साहसिक टिप्पणियां कीं- पहली तो उन्होंने प्रकाशकों को गलत साबित कर दिया जो सोचते थे कि पौराणिक कथाएं सफल नहीं हो सकती और दूसरा भारतीय प्रकाशन को अनुवाद और संस्कृति में गर्व के साथ एक बड़े बदलाव के लिए तैयार किया. त्रिपाठी ने तब कहा था ‘मेरे पास अगले कुछ दशकों तक खुद को बिजी रखने के लिए पर्याप्त कहानियां हैं!’

लेकिन त्रिपाठी सिर्फ एक ही मामले में सही साबित हुए हैं. 2022 में भारत अच्छे अनुवाद कार्यों को पसंद किया जा रहा है. लेकिन इसकी फिक्शन की बिक्री में कुछ कमी देखने को मिल रही है. आप किसी भी किताब की दुकान में जाएं, तो पसंदीदा एक जैसे बेस्टसेलिंग लेखकों में- देवदत्त पटनायक अमिताव घोष, अमीश त्रिपाठी, अश्विन सांघी को पाएंगे. यह एक लंबी सूची नहीं है. लेकिन यह नॉन-फिक्शन शेल्फ है जो भरी हुई हैं, जीवंत हैं और लोगों को पसंद आ रही हैं. पाठकों और प्रकाशकों में तथ्य, डेटा, कथा, सिद्धांत और अनुभवों को लेकर नई ऊर्जा और उत्साह है. शायद भारतीय फिक्शन का सूरज धीरे-धीरे ढल रहा है.

गीतांजलि श्री के टॉम्ब ऑफ सेंड के अनुवादक, डेज़ी रॉकवेल के साहित्यिक एजेंट राइटर्स साइड की कनिष्क गुप्ता कहती हैं, ‘फिक्शन की स्थिति निराशाजनक है.’ ‘पब्लिशिंग हाउस इनका प्रकाशन कम कर रहे हैं और इन्हें आगे लाने के लिए बहुत कम मशीनरी है.’

द हिंदू ने जुलाई में घोषणा कर दी थी, ‘नॉन-फिक्शन इज किंग.’

क्या साहित्यिक पुरस्कार फिक्शन की मदद कर सकते हैं?

प्रकाशन उद्योग की ग्रोथ को निर्धारित करने के लिए साहित्यिक पुरस्कार एक प्रमुख कारक है और जीतना हमेशा अच्छा रहता है. अब ऐसा लग रहा है कि इंटरनेशनल बुकर पाने वाली ‘टॉम्ब ऑफ सैंड’, भारतीय सामूहिक चेतना में यकायक बदलाव का इंतजार करने वाली एक फिक्शन कृति है.

गुप्ता कहते हैं, गीतांजलि श्री का उपन्यास एक ‘अप्रत्याशित आश्चर्य’ है. अंतर्राष्ट्रीय बुकर पुरस्कार से अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पाने से पहले इसकी एक हजार प्रतियां भी नहीं बिक रही थीं. अब गीतांजलि श्री भारतीय साहित्य जगत की प्रिय हैं, जिन्होंने हिंदी कथाओं को हृदयस्थल से अंग्रेजी घरों तक पहुंचा दिया. लेकिन क्या अवनि दोशी की ‘गर्ल इन व्हाइट कॉटन’ न लोगों को कानों में कुछ घंटी बजाई है? किताब को 2020 में पुरस्कार के लिए शॉर्टलिस्ट किया गया था और यूके में ‘बर्न शुगर’ के रूप में रिलीज की गई थी. लेकिन आज  भारतीयों की बुकशेल्फ़ या उनकी स्मृति पर बमुश्किल ही इसकी कोई छाप शेष होगी.

भारत के साहित्यिक पुरस्कार हर बार समाचार पत्रों में विनम्र प्रविष्टियां करने के अलावा, बड़े पैमाने पर कथा साहित्य को प्रोत्साहित करने के लिए बहुत कम कर रहे हैं. लेकिन गुप्ता ने यह भी बताया है कि आधे पुरस्कार ‘बड़ी चालाकी से चुपचाप बंद’ कर दिए गए हैं और जो बचे हैं, उनमें इस शो को चलाने के लिए पर्याप्त ईंधन है. माधुरी विजय की ‘द फार फील्ड’ या एस. हरीश की ‘मुसटेच’  क्रमशः 2019 और 2020 में प्रतिष्ठित जेसीबी पुरस्कार के विजेता रही हैं. इसे ‘भारत का सबसे मूल्यवान साहित्य पुरस्कार’ कहा जाता है. उसके बावजूद ये किताबें दुकानों की अटारी में बिना बिके आराम फरमा रहीं है. साहित्य अकादमी के ‘गुमनामी में मौन मार्च’ और डिजिटल युग में हिंदू साहित्य पुरस्कार के लिए थोड़े उत्साह के साथ अरुंधति रॉय का 1997 का मैन बुकर पुरस्कार संभवत: आखिरी था जिसने उन्हें भारतीय साहित्य में सनसनीखेज नाम और प्रसिद्धि में पहुंचा दिया. शायद  साहित्यिक पुरस्कार अब 20वीं सदी के अवशेष हैं.


यह भी पढ़ेंः राज कपूर की रचनात्मकता के विस्तार का क्यों आधार था प्रसिद्ध आरके स्टूडियो


क्या गीतांजलि श्री ने भी ऐसी ही विरासत गढ़ी है? दुख की बात है कि इस तर्क के लिए ज्यादा लोग नहीं हैं.

International Booker Prize winner Geetanjali Shree (R) along with Daisy Rockwell, who translated the novel from Hindi to English | Photo: Twitter/@TheBookerPrizes
इंटरनेशनल बुक प्राइज़ विनर गीतांजलि श्री (दाहिने) डेज़ी रॉकवेल के साथ जिन्होंने नॉवेल को हिंदी से इंग्लिश में ट्रांसलेट किया है । फोटोः Twitter/@TheBookerPrizes

पब्लिशिंग इंडस्ट्री पर राज करता नॉन-फिक्शन

तो अब भारतीय प्रकाशन में यह अधिकार किसके पास है?

पेंगुइन रैंडम हाउस इंडिया द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों के अनुसार, पिछले कुछ सालों में नॉन-फिक्शन की हिस्सेदारी 58 फीसदी बढ़ी है. ईवीपी बिजनेस डेवलपमेंट एंड प्रोडक्ट एंड सेल्स के नंदन झा कहते हैं, ‘नॉन -फिक्शन की बिक्री में काफी बढ़ोतरी हुई है. हम सेल्फ-हेल्प और खेल की किताबों की बढ़ती मांग को देख रहे हैं. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि जहां ये पाठक फिक्शन रीडिंग की ओर नहीं आ रहे हैं, वहीं ज्यादातर फिक्शन पाठक नॉन-फिक्शन को अपना रहे हैं.’ नीलसन बुक स्कैन के आंकड़ों से पता चलता है कि नॉन-फिक्शन में भी वॉल्यूम के हिसाब से 21 फीसदी की बढ़ोतरी देखी गई.

हार्पर कॉलिन्स के सीनियर मार्केटिंग एग्जीक्यूटिव अमन अरोड़ा कहते हैं, ‘फिक्शन और नॉन-फिक्शन पाठकों के बीच हमेशा एक ‘अंतरंग’ रीडिंग को लेकर संघर्ष रहा है. फिक्शन हर किसी पसंद नहीं है, लेकिन पिछले कुछ सालों में ज्यादातर लोग नॉन-फिक्शन की तरफ जा रहे है.’

जीवनी, इतिहास, राजनीतिक सिद्धांत, भू-राजनीति, सेल्फ हेल्प, स्वास्थ्य और आध्यात्मिकता की किताबें पिछले एक दशक में सभी बाधाओं को मात देकर आगे बढ़ रही हैं. अरोड़ा कहते हैं, ‘पाठक अब ‘गंभीर’ लेखकों और विश्वसनीय लेखकों या ‘जीवन में काम आने वाली किताबों’ की तलाश कर रहे हैं जो उनके जीवन में मूल्य जोड़ सकते हैं. ‘गुरुओं’ की किताबें भी मार्केट में बहुत अच्छा कर रही हैं.’

आध्यात्मिकता, सेल्फ हेल्प और ‘स्वदेशी विज्ञान’  इस चार्ट पर तूफान ला रहे हैं. ट्रैफिक लाइट के इर्द-गिर्द दौड़ते-भागते बुकसेलर्स के पास आपको एक पूर्व भिक्षु, जय शेट्टी की ‘थिंक लाइक ए मॉन्क’ नजर आ ही जाएगी. लाइफ्स अमेजिंग सीक्रेट्स के कवर पर माथे पर तिलक लगाए और मुस्कुराते हुए गौर गोपाल दास, एक आम दृश्य है. योगी की ‘इनर इंजीनियरिंग: ए योगीज गाइड टू जॉय’ के 2016 में न्यूयॉर्क टाइम्स बेस्टसेलर बनने के बाद से सद्गुरु अमेरिका में सनसनी बन गए थे. अमेरिका में 17 से ज्यादा शहरों में हजारों की संख्या में बिक चुकी इस किताब को लेकर विल स्मिथ ने उत्साह के साथ ट्वीट किया था. अब सद्गुरु अपनी बेटी के साथ स्मिथ के खाने की मेज पर नियमित तौर पर दिख जाते हैं.

पुस्तकों में भारतीय गुरुओं के उदय का एक कारण उनके प्रति पश्चिम का जुनून हो सकता है, लेकिन इसके पीछे निस्संदेह बड़ी मशीनरी काम कर रही है. उनकी किताबों के प्रति रूझान ऐसे समय में आया है जब आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्धा और होम्योपैथी (आयुष) मंत्रालय भी इस ओर अपने कदम बढ़ा रहे हैं. मंत्रालय ने पिछले साल देश और विदेश दोनों जगहों पर चार प्रकाशन शुरू किए- ‘भारतीय चिकित्सा पद्धतियों का प्रचार’ और विरासत. इसके अलावा भारतीय इतिहास को और अधिक पढ़ने पर भी जोर है. और अब संस्कृति मंत्रालय भी इन गतिविधियों में शामिल हो गया है. इस साल, नरेंद्र मोदी सरकार ने संस्कृति मंत्रालय की वेबसाइट पर भारत के ‘अनसुने नायकों’ की एक विस्तृत रीडिंग लिस्ट पोस्ट की है.

अज्ञात ‘दबा-छिपा इतिहास’ अब कुलीन किताबों की दुकानों की पसंदीदा शैली है.

जोसी जोसेफ की ‘ए साइलेंट कूप’, क्रिस्टोफ़ जाफरलट की ‘मोदी’ज भारत’ और नलिन मेहता की ‘द न्यू बीजेपी’ भी लोकप्रियता के रथ पर सवार हो गयी है. जिन्हें राजनीति या इतिहास पढ़ना दिलकश नहीं लगता है, तो ‘डेटा डाइट’ की तरफ जाते हैं- रुक्मिणी एस के होल नंबर और हाफ ट्रुथ की तरफ देखें. और जब वे कुछ मुश्किल भरा पढ़ने के मूड में भी नहीं हैं, तो उनके लिए श्रेयना भट्टाचार्य की ‘डेस्परेटली सीकिंग शाहरुख़’ एक आकर्षक लेकिन शोध पूर्ण पठन है.

भारत में नॉन-फिक्शन में उछाल ठीक वैसा ही आया है, जैसा अच्छी मार्केटिंग ने इसे दिया है. साइमन एंड शूस्टर में कार्यरत हिमंजलि शंकर के अनुसार, रवींद्र सिंह, दुर्जोय दत्ता और चेतन भगत जैसे उपन्यासकार वास्तव में अब उतने लोकप्रिय नहीं हैं. उन्होंने कहा, ‘अपराध से लेकर रोमांस तक, इनकी बिक्री कम है. नॉन-फिक्शन बहुत अधिक बिकता है, विशेष रूप से नैरेटिव नॉन फिक्शन. यह आगे बढ़ रहा है. यह भविष्य है.’

द्वारपाल बने प्रकाशकों के पास कथा लेखकों के लिए अपनी एक सीमित विश लिस्ट है. वे बड़ी नामी-गिरामी हस्तियों- संपादक, पत्रकार, अभिनेता, मशहूर हस्तियां और सोशल मीडिया इनफ्लुएंसर- को अपने साम्राज्य की चाबी पकड़ाते हैं. भाजपा मंत्री स्मृति ईरानी का नवीनतम उपन्यास लाल सलाम इसका उदाहरण है. बॉलीवुड हस्तियां और टेड टॉक ट्रेंडी व फैशनेबल हैं और सोशल मीडिया हैंडल पर पोस्ट करने के लिए एकदम परफेक्ट. प्रभावशाली लोग अपनी पुस्तकों का ज्यादा प्रचार करते हैं और प्रकाशकों को अपने संसाधनों को खर्च नहीं करना पड़ता. प्रकाशकों का कहना है कि जब उनकी डेस्क पर पड़ी हजारों कॉपियों के बीच से किसी एक को खोजना होता है तो लेखक की प्रोफाइल मायने रखती है.

समस्या यह है कि इससे ‘डिस्कवरेबिलिटी’ प्रभावित हो जाती है. हमें अपनी लेखनी से पहली बार में ही हैरान कर देने वाले उपन्यासकार अब बहुत कम हैं.

जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल में टीमवर्क आर्ट्स के प्रबंध निदेशक संजय के. रॉय ने बताया, ‘यह कौन बनेगा करोड़पति का एक शानदार खेल है – हर हफ्ते, महीने और साल भर में सैकड़ों आते हैं. हमें जो सवाल पूछने की जरूरत है वह यह है: जबकि वहां बहुत संभावनाएं हैं, क्या प्रकाशक जोखिम लेने को तैयार हैं?’ उन्होंने यह भी कहा कि आधे से ज्यादा प्रकाशन उद्योग में नॉन फिक्शन के लिए ज्यादा भूख नजर आ रही है.


यह भी पढ़ेंः कला और भारतीय संस्कृति से गुथी है संस्कृत भाषा, इसी ने भारतीय सोच को बनाया बड़ा


चेतन भगत वाले समय का उत्थान और पतन

आज मिथक, कहानियां और कल्पना नहीं है जिनसे बातचीत की शुरुआत होती है, बल्कि मुख्यधारा की संस्कृति – राष्ट्रीय राजनीति, अर्थव्यवस्था, मानसिक स्वास्थ्य, कोविड, भू-राजनीति के लोकप्रिय ‘गंभीर’ विचार हैं, जो लोगों में गहरी पैंठ बना चुके हैं. यह प्रकाशकों की ‘गंभीर, गहरी पत्रकारिता’ की खोज की व्याख्या करते हैं जो ‘मुश्किल’ विषय होने के बाद भी देश में बने हुए हैं.

नॉन-फिक्शन खाने की मेज पर बौद्धिकता की एक कथित धारणा को जोड़ रहा है. कार्तिका वी.के. वेस्टलैंड प्रकाशन कहते हैं, ‘आज, लोग नॉन-फिक्शन पढ़ना चाहते हैं क्योंकि वे सोचते हे, ‘मुझे बौद्धिक रूप से बात करनी चाहिए.’ सामाजिक ‘दिखावे’ की यह मेलोडी एक ऐसी बीमारी है जिसने फिक्शन को चोट पहुंचाई है. आज हर कोई डिनर टेबल, पार्टियों, सोशल मीडिया, साहित्य समारोहों में भारत के अपने विचारों को लेकर बहस कर रहा है. नॉन-फिक्शन उन्हें इन विचारों पर सिर उठाने के लिए चारा देता है.

वेस्टलैंड के कुछ सबसे प्रोलिफिक टाइटल ने सीधे भारतीय राजनीति पर सटीक निशाना साधने का साहस किया – अरविंद नारायण की इंडियाज अनडिक्लेयर्ड इमरजेंसी, आकार पटेल की प्राइस ऑफ द मोदी ईअर और एम राजशेखर की डिस्पाइट दि स्टेट. इस साल फरवरी में इसका बंद हो जाना काफी हद तक अंदरूनी अटकलों की वजह से था. लोकप्रिय नैरेटिव है कि लोकप्रिय कथा कहती है कि चेतन भगत और अनुजा चौहान को अपनी ओर आकर्षित करना और उनके लेखन के साथ-साथ अमीश त्रिपाठी पर भी विश्वास करना एक गलती थी – पाठकों का स्वाद नॉन फिक्शन की ओर जा रहा है. नए जमाने के पाठक नेटफ्लिक्स और यूट्यूब का यूज कर रहे हैं और वे अब फिक्शन के पन्नों को नहीं पलटते.

2000 के दशक के उत्तरार्ध में अपने पहले उपन्यास ऑलमोस्ट सिंगल से उभर कर आईं अद्वैता काला कहती हैं, उपन्यास के लिए सबसे अच्छा दशक 2000 का था. अमीश त्रिपाठी, चेतन भगत, झुम्पा लाहिड़ी, दुर्जोय दत्ता – सभी उस समय के लेखक हैं. व्यावसायिक लेखकों के लिए वहां एक ‘उत्साही’ स्थान था – चेतन भगत, एक लेखक, जिसे पहले ‘बहुत जर्जर’ माना जाता था, 2004 में फाइव पॉइंट समवन की रिलीज़ के साथ एक व्यावसायिक लेखकों की संप्रदाय में शुमार हो गए थे. लॉन्चिंग के कुछ ही समय में उनकी एक लाख से ज्यादा प्रतियां बिक गईं थी.

साल 2017 में बुक स्टोर के शेल्फ में चेतन भगत की किताबों की गड्डी । विकीमीडिया कॉमन्स

यह भारतीय कथा साहित्य के लिए काफी ज्यादा था. ऐसा अब ज्यादातर साहित्य प्रेमियों और कॉलेज के छात्रों के लिए है.

भारत में किसी भी बुक क्लब का उस तरह का दबदबा नहीं है जैसा पश्चिमी में है. समीक्षा कॉलम भी सिकुड़ रहे हैं – हिंदुस्तान टाइम्स में अब एक पेज है और एनडीटीवी की जस्ट बुक्स 2010 की शुरुआत से ही फीकी पड़ गई है. काला का कहना है कि साहित्यिक समारोहों में आमंत्रित वक्ताओं की सूची भी बहुत प्रभावशाली नहीं रही है.

वह आगे कहती हैं, ‘अच्छी तरह से सुनाई गई कहानी का मजा ही अब काफी नहीं है. और यह दुखद है. क्या हमने ‘बिग इंडियन बुक’ के उस पल से गुजर चुके है? हम अभी भी अगले विक्रम सेठ का इंतजार कर रहे हैं.’


यह भी पढ़ेंः पश्चिम से प्रभावित है नॉर्थईस्ट का म्यूजिक, पापोन बोले-कोरिया की तरह कल्चरल रेवोल्यूशन की जरूरत है


क्या नेटफ्लिक्स मेरी किताब खरीदेगा?

भारत में ओटीटी कंटेंट की सफलता को देखकर लेखकों में कुछ नाराजगी है. बहुत सारे फिक्शन लेखन ने अपना माध्यम – कागज से सेल्युलाइड की ओर- बदल दिया है. काला ने बताया कि कैसे ढेर सारी किताबें सिर्फ वेब सीरीज में बदलने की उम्मीद में लिखी जाती हैं. कितने लोग कहते हैं कि भारत के फिक्शन रीडर ओटीटी की ओर बढ़ गए हैं.

विक्रम चंद्रा का सेक्रेड गेम्स यूके, यूएस और भारत में प्रकाशन के दिग्गजों के बीच रस्साकशी में फंस गया था: हार्पर कॉलिन्स, फैबर एंड फैबर, और पेंगुइन सभी ने छह-अंको की संख्या की डील के साथ प्रकाशन अधिकार खरीदे थे.

किताबें ज्यादा पाठकों को अपनी ओर खींचने में विफल रहीं हैं.

चंद्रा ने 2018 तक इंतजार किया और फिर नेटफ्लिक्स की ओर जाना उनके लिए ग्लोबल सफलता बन गया.

नेटफ्लिक्स के सेक्रेड गेम्स से सैफ अली खान और नीरज कबि की एक फोटोः नेटफ्लिक्स इंडिया

दिल्ली के श्री वेंकटेश्वर कॉलेज में पीएचडी स्कॉलर रूपलीना बोस कहती हैं, ‘जब लोग कहते हैं, ‘मैं फिक्शन नहीं पढ़ता’, तो मुझे उनकी यह बात समझ में नहीं आती है. उन्हें इस बात का एहसास नहीं है कि इतने सारे धारावाहिक उपन्यास अब टीवी पर उनके पसंदीदा शो के रूप में स्ट्रीमिंग कर रहे हैं.’ फिक्शन के लिए प्यार अभी भी है, लेकिन जैसे ही टीवी स्क्रीन पर अंधेरा होता है, भारतीय ‘शैक्षिक सामग्री’ की तलाश में जुट जाते हैं जो ‘उनके जीवन में मूल्य जोड़ सकते हैं.’

और इस भाव को रूपलीना ने उस समय महसूस किया, जब उन्होंने अपने प्रकाशक से संपर्क किया था. उन्होंने उनके उपन्यास में बहुत कम दिलचस्पी दिखाई, लेकिन शुरुआती बातचीत में ही 90 के दशक के बंगाल से शहरी संगीत पर उनकी पीएचडी थीसिस का पूरा विवरण ले लिया.

हिंदी और उर्दू वॉलफ्लावर्स

क्या सिर्फ अंग्रेजी पाठक ही यह महसूस कर है कि ‘उन्हें बौद्धिक रूप से बात करनी चाहिए’? हिंदी प्रकाशन में भी नॉन-फिक्शन में तेजी देखी जा रही है.

हिंदी प्रकाशन में रवींद्रनाथ टैगोर, प्रेमचंद, और नरेंद्र कोहली की पुरानी विरासतों की जगह आज भी कोई नहीं ले पाया है. प्रभात प्रकाशन के प्रभात कुमार का कहना है कि एक दशक पहले काफी पढ़े जा रहे टीनएज फिक्शन में आज भारी गिरावट देखने को मिल रही है. 2003 में जे.के. रॉलिंग की हैरी पॉटर सीरीज की हिंदी में सभी 40,000 प्रतियों की दो सप्ताह पहले बुकिंग हो गई थी. छोटे शहरों और गांवों में भी जहां मैगलस (मगल्स), पारस पत्थर और अदृश्यता लबादा चर्चा का विषय बन गए.

कुमार यह भी कहते हैं कि गीतांजलि श्री को दी गई ‘पश्चिमी मान्यता’ एक ‘खतरनाक प्रवृत्ति’ है. चार साल से टॉम्ब ऑफ सेंड को लेकर कोई हलचल नहीं थी. देवकी नंदन खत्री के चंद्रकांता संतति को छोड़ दें तो गैर-हिंदी भाषी ने किसी किताब को पढ़ने के लिए दूसरी भाषा सीखना शुरू किया हो – ऐसा बहुत कम है जिस पर इंडस्ट्री गर्व कर सके. वह हिंदी वर्चस्व की तुरही फूंकने वाले हृदयस्थान में खालीपन पर भी अफसोस जताते हैं. उन्होंने कहा, ‘उत्तर भारतीय इंडिया गेट पर आइसक्रीम पर सैकड़ों रुपये खर्च कर देते हैं. अगर इसके बजाय वे हिंदी की किताबें खरीदें, तो कल्पना करें कि हम कहां पहुंच जाएंगे.’

और बड़ी तस्वीर में उर्दू सबसे दुखद वॉलफ्लावर है.

उपन्यास रोहज़िन के लिए 2018 का साहित्य अकादमी पुरस्कार  पाने वाले रहमान अब्बास कहते हैं, ‘उर्दू नॉन-फिक्शन में बहुत कम लेखक हैं, आंशिक रूप से क्योंकि हमारे पास गहरी पत्रकारिता, अर्थशास्त्र, राजनीति में कोई विशेषज्ञ नहीं है. और राष्ट्रीय स्तर पर उर्दू कम इस्तेमाल में आने वाली भाषा है. विभिन्न समाचार पत्रों, वेबसाइटों और समाचार चैनलों के साथ मराठी जैसी भाषाओं के लिए समर्थन का एक पूरा गठजोड़ है जो सामाजिक-राजनीतिक जुड़ाव को प्रोत्साहित करते हैं. अधिकांश उर्दू अखबारों ने निष्पक्षता के साथ पक्षपातपूर्ण निर्णय लिया है. यह उर्दू की बदनसीबी (दुखद भाग्य) है.’

लेकिन सबसे बड़ी विडंबना यह है. विचारों, आख्यानों और नकली-बौद्धिकता की इस दौड़ में भारत में सभी नॉन-फिक्शन किताबें वास्तव में एक सबसे बड़ी और लंबे समय से चली आ रही बेस्टसेलर – मनोरमा ईयर बुक के साथ बिक्री के लिए मुकाबला कर रही हैं.

यह लेख पुस्तक प्रकाशन उद्योग में मौजूदा रुझानों पर दिप्रिंट की सीरीज का हिस्सा है. इन सभी सीरीज को यहां पढ़ें.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


यह भी पढ़ेंः राम मंदिर भूमि पूजन देश के लिए ‘सिविलाइजेशन मोमेंट’ था, दुनिया को संदेश है कि हम सनातन धर्म हैं और जिंदा हैं: लेखक अमीश त्रिपाठी


 

share & View comments