कन्नौज/नई दिल्ली: कन्नौज का इत्र, भागलपुर का जर्दालू आम और मैसूर सिल्क तीनों में एक समानता है. ये तीनों ही जीआई टैग प्रोडक्ट है. फिर भी, उनकी किस्मत, बिक्री और मांग अलग-अलग हैं. मैसूर सिल्क जिसे 2005 में जीआई टैग मिला तेज़ी से बिक रहा है. जर्दालू आम को 2018 में टैग मिला और उसके बाद से यह फल गुमनामी से निकल कर अंतरराष्ट्रीय बाज़ारों तक पहुंच गया लेकिन 2014 में जीआई टैग प्रमाणित कन्नौज इत्र अभी भी सफलता की मीठी खुशबू का इंतज़ार कर रहा है.
भौगोलिक संकेत (जीआई टैग) एक ऐसा प्रतीक है, जिसका उद्देश्य गुणवत्ता का संकेत देना और एक तरह के स्थानीय उत्पादों के लिए बाज़ार की अपील को बढ़ावा देना है, लेकिन उत्तर प्रदेश, बिहार और कर्नाटक में तीन प्रोडक्ट्स को मिले जीआई टैग की कहानी बताती है कि सिर्फ इस टैग के मिलने से उत्पादों की किस्मत नहीं बदल जाती.
उत्तर प्रदेश के कन्नौज के इत्र को अपना अनूठा टैग मिले एक दशक हो गया है, लेकिन 400 साल पुरानी इस इत्र इंडस्ट्री के कई व्यवसाय मालिकों को कोई लाभ नहीं मिला है. जीआई टैग अपने हाथों में पाने के लिए उन्हें एनओसी चाहिए होती है, जिसके बाद वास्तविक सर्टिफिकेशन होता है. वे अधिक जीएसटी दरों, सिकुड़ते बाज़ार और कच्चे माल की कमी जैसी पुरानी समस्याओं से जूझते रहते हैं. उन्हें अब एहसास हो रहा है कि जीआई टैग व्यवसाय के लिए कोई जादुई गोली नहीं है.
तीसरी पीढ़ी के परफ्यूमर गौरव मेहरोत्रा अपने जीआई सर्टिफिकेशन के आने का बेसब्री से इंतज़ार कर रहे हैं. उन्होंने दो महीने पहले कन्नौज इत्र और इत्र एसोसिएशन के अध्यक्ष से स्थानीय व्यापारी के रूप में एनओसी ली थी, लेकिन अब उनका जीआई आवेदन चेन्नई में भौगोलिक संकेत रजिस्ट्री बौद्धिक संपदा कार्यालय में अटका हुआ है.
मेहरोत्रा ने कहा, “हम अपने प्रोडक्ट एक प्राकृतिक कॉस्मेटिक कंपनी को बेचते हैं. अब हर कंपनी जीआई सर्टिफिकेशन मांग रही है. इसलिए, हमने अप्लाई किया लेकिन अभी तक हमें सर्टिफिकेट नहीं मिला है.”
हालांकि, प्रतिष्ठित जीआई टैग का अनुभव हर जगह एक जैसा नहीं है.
बिहार के भागलपुर का सुगंधित जर्दालू आम छह साल पहले अपना टैग हासिल करने के बाद से ही खूब बिक रहा है. राष्ट्रीय स्तर पर इसकी काफी मांग बढ़ रही है और 2021 में पहली बार इसका निर्यात अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में किया गया. कर्नाटक में जीआई टैग ने मैसूर सिल्क की मांग इतनी बढ़ा दी है कि आपूर्ति नहीं हो पा रही है. कर्नाटक सिल्क उद्योग निगम (केएसआईसी) का कहना है कि टैग ने अधिक विदेशी खरीदारों को भी आकर्षित किया है.
पिछले दो दशकों में भारत में 643 प्रोडक्ट्स को जीआई टैग मिला है, जिसमें कृषि उपज, कपड़ा, खाद्य पदार्थ और हस्तशिल्प में पारंपरिक क्षेत्रीय विशिष्ट उत्पाद शामिल हैं. इस लंबी सूची में दार्जिलिंग चाय, कोटा डोरिया कपड़ा, कुर्ग का संतरा, मधुबनी पेंटिंग, बनारस की ठंडाई और कश्मीर का पश्मीना शामिल हैं. पिछले सात साल में यह गति और तेज़ हो गई है. अकेले उस अवधि में 332 टैग दिए गए हैं. 2023-24 में 168 प्रोडक्ट्स को यह टैग मिला है.
इस जून में एक पोस्ट में केंद्रीय वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने कहा, “हमारे जीआई-टैग वाले स्थानीय प्रोडक्ट्स एक अलग श्रेणी के हैं. वो न केवल हमारे अनूठे इतिहास और ज्ञान का प्रतिनिधित्व करते हैं, बल्कि उन लाखों लोगों का भी समर्थन करते हैं जो उन्हें संरक्षित करने के लिए कड़ी मेहनत करते हैं.”
उसी महीने, मन की बात रेडियो प्रोग्राम के दौरान, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आंध्र प्रदेश की अराकू कॉफी की प्रशंसा की, जिसे 2019 में जीआई टैग से सम्मानित किया गया था.
मोदी ने कहा, “जब हम भारत के किसी स्थानीय प्रोडक्ट को ग्लोबल बनते देखते हैं, तो गर्व महसूस होना स्वाभाविक है.”
लेकिन जीआई टैग मिलने और उससे लाभ मिलने के बीच कईं सारी बाधाएं आती हैं.
जीआई टैग मिलना एक लंबी प्रक्रिया होती है, ऐतिहासिक साक्ष्य की ज़रूरत के कारण अक्सर कई साल लग जाते हैं. उदाहरण के लिए कन्नौज के इत्र को अपनी उत्पत्ति साबित करने के लिए ज़रूरी दस्तावेज इकट्ठा करने में पांच साल लग गए. मिथिला मखाना को 2022 में अपना टैग मिलने तक चार साल का इंतज़ार करना पड़ा था.
इसके बाद भी यह ज़रूरी नहीं है कि सब कुछ आसान हो. डॉ राजेंद्र प्रसाद कृषि यूनिवर्सिटी, पूसा, समस्तीपुर के कृषि व्यवसाय और ग्रामीण प्रबंधन स्कूल के सहायक प्रोफेसर डॉ मोहित शर्मा के अनुसार, रजिस्ट्रेशन प्रोसेस “बहुत मुश्किल” है लेकिन असली परेशानी बाद में शुरू होती है.
शर्मा ने कहा, “भारत में जीआई टैग पाने की होड़ लगी हुई है, लेकिन कोई भी जीआई रजिस्ट्रेशन के बाद की व्यवस्था पर ध्यान नहीं दे रहा है. जीआई टैग मिलने से पहले बाज़ार की स्वीकार्यता को समझना होगा और इसके लिए मार्केट चैनल बनाने की ज़रूरत है.”
उन्होंने कहा कि वर्तमान में जीआई टैग को अपने आप में एक लक्ष्य माना जाता है लेकिन उत्पादकों के स्तर पर अच्छे विनिर्माण अभ्यास और विश्व स्तरीय गुणवत्ता सुनिश्चित करने के लिए कोई प्रयास नहीं किया जाता.
शर्मा ने कहा, “इसमें संस्थागत कमी है. टैग का पूरा लाभ उठाने के लिए एक संस्थागत ढांचा बनाया जाना चाहिए और इसके लिए जागरूकता कार्यक्रमों की ज़रूरत है.”
कुछ उत्पादों को जीआई टैग तो मिल जाता है लेकिन वो ज्यादा लोकप्रिय नहीं होते लेकिन भागलपुर के जर्दालू आम ने बिहार और उसके बाहर खूब प्रसिद्धि हासिल की है.
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जर्दालू को जीआई का लाभ
कुछ उद्योग ऐसे हैं जिन्हें जीआई टैग से नई ताकत मिली है. बिहार के भागलपुर का जर्दालू आम इसका एक बेहतरीन उदाहरण है.
जून में 26-वर्षीय संतोष कुमार ने ज्ञान भवन में आयोजित मैंगो फेस्टिवल के लिए फतुहा से पटना तक 25 किलोमीटर की यात्रा की. उन्होंने जर्दालू के किस्से सुने थे और उन्हें इसे खुद चखना था.
पहुंचते ही कुमार सीधे भागलपुर जर्दालू स्टॉल पर पहुंचे. वहां आम के किसान राकेश सिंह ने ग्राहकों को बताया कि कैसे सुगंधित, केसर-रंग वाली किस्म को जीआई टैग दिया गया है क्योंकि यह केवल भागलपुर के उपजाऊ मैदानों में ही उगाया जाता है. कहानी यह है कि अगर यह आम कहीं और उगाया जाए तो इसकी खुशबू वैसी नहीं होगी.
आम के शौकीन कुमार निराश नहीं हुए.
उन्होंने कहा, “पिछले साल, मैंने पहली बार इस आम के बारे में सुना और तब से मैं इसे देखना और चखना चाहता था. इसलिए मैं इस साल फेस्टिवल में गया और कुछ आम खरीदे. हर निवाले में एक अलग ही स्वाद था.”
जीआई टैग मिलने के बाद, दुनिया (जर्दालू) आम के बारे में जानने लगी है, जहां पहले कुछ नहीं था, वहां काफी कुछ हुआ है. राज्य सरकार ने इसका प्रचार-प्रसार किया है, पैकेजिंग को बढ़ावा मिला जिससे उत्पादकों की आय भी बढ़ी है.
—रणधीर चौधरी, बिहार आम उत्पादक संघ
आम जल्दी ही बिक गए और पहले दिन ही 11 लाख रुपये के पौधे भी बिके.
कुछ प्रोडक्ट्स को जीआई टैग मिलता है, लेकिन वो ज्यादा लोकप्रिय नहीं होते, जर्दालू आम बिहार और उसके बाहर प्रसिद्धि के शिखर पर पहुंच गया है.
2020 में बिहार डाक विभाग ने इसे दर्शाते हुए एक विशेष टिकट भी जारी किया और राज्य इसे फलों के राजा के रूप में प्रचारित करता है, हर पोस्टर और सोशल मीडिया पोस्ट में इसके जीआई टैग को बढ़ा-चढ़ाकर दर्शाया जाता है.
Summer might be scorching all around but in Bihar summer is very tempting. Comment the name of your favorite Mango variety.
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लेकिन जीआई टैग मिलना आसान नहीं था. भागलपुर के बाहर बहुत कम लोग आम के स्वाद के बारे में जानते थे. बिहार के मैंगो मैन के नाम से मशहूर भागलपुर मैंगो फेडरेशन के अध्यक्ष अशोक चौधरी को इसके लिए करीब एक दशक तक मेहनत करनी पड़ी. उन्होंने अपने बाग से आमों को वीआईपी लोगों को भेजा, सरकारी अधिकारियों से बातचीत की और लंबी-चौड़ी कागज़ी कार्रवाई निपटाई. जब 2018 में आखिरकार जीआई टैग दिया गया, तो राज्य और जिला प्रशासन ने खेती और पैकेजिंग को बढ़ावा देने की कोशिशें तेज़ कर दीं, जिससे धीरे-धीरे देश भर में इसकी मांग बढ़ने लगी.
बिहार आम उत्पादक संघ के रणधीर चौधरी ने कहा, “जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसदों और विशेष अतिथियों को यह आम भेजा जाता था. इससे पूरे देश में जागरूकता बढ़ी. जीआई टैग मिलने के बाद जर्दालू को खूब प्रचार मिला और अब इसकी मांग बढ़ रही है.”
चौधरी को उम्मीद है कि सरकार इस पर और सब्सिडी देगी लेकिन जर्दालू के नए दर्जे से आए ठोस बदलावों से वे खुश हैं.
उन्होंने कहा, “जीआई टैग मिलने के बाद दुनिया इस आम के बारे में जानने लगी है, जहां पहले कुछ नहीं था, वहां काफी कुछ नया हुआ है. राज्य सरकार की ओर से इसका बहुत प्रचार-प्रसार किया गया, पैकेजिंग को बढ़ावा मिला जिससे उत्पादकों की आय भी बढ़ी है. इसे दिल्ली, यूपी और पटना के मैंगो फेस्टिवल में भी प्रदर्शित किया जाता है.”
2021 में जीआई-सर्टिफाइड जर्दालू आम ने अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अपनी शुरुआत की. सबसे पहले यह फल बहरीन में एक सप्ताह तक चलने वाले आम प्रचार कार्यक्रम का हिस्सा था, जहां इसने आयातक अल जजीरा समूह के सुपरस्टोर्स में पश्चिम बंगाल के दो अन्य जीआई-सर्टिफाइड किस्मों — खिरसापति और लक्ष्मणभोग के बीच गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त किया.
फिर जून में पहला बैच यूके को निर्यात किया गया — जो कि कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (APEDA), बिहार सरकार, भारतीय उच्चायोग और इन्वेस्ट इंडिया द्वारा सामूहिक प्रयास था.
2021 और 2023 के बीच, APEDA ने राज्य सरकार के सहयोग से बहरीन, बेल्जियम और यूके को 4.5 लाख टन ऑर्गेनिक जर्दालू आमों का निर्यात किया.
जिला बागवानी विभाग के अनुसार, भागलपुर में जर्दालू के बागान वर्तमान में 750 हेक्टेयर में फैले हुए हैं और अधिक किसान इसकी खेती कर रहे हैं.
भागलपुर में बागवानी के सहायक निदेशक अभय कुमार मंडल ने कहा, “पिछले कुछ सालों में इस आम के बारे में जागरूकता और मांग दोनों बढ़ी है.”
उन्होंने कहा कि विभाग द्वारा किसानों को दिए जा रहे 100 आम के पौधों में से 70 जर्दालू किस्म के ही होते हैं.
मंडल ने कहा, “जर्दालू बहुत जल्दी पकने वाली किस्म है, जो मई और जून की शुरुआत में पक जाती है. इसकी शेल्फ लाइफ कम होती है और यह जलवायु परिस्थितियों के प्रति संवेदनशील है, जिससे हर साल उत्पादन में बदलाव होता है लेकिन उत्पादकों को इस फल में लाभ दिखाई देता है.”
कन्नौज के इत्र निर्माताओं ने जीआई टैग के बाद पर्याप्त समर्थन और आर्थिक लाभ नहीं मिलने की शिकायत की है लेकिन केंद्र सरकार के शोध केंद्र, फ्रेगरेंस एंड फ्लेवर डेवलपमेंट सेंटर (एफएफडीसी) का तर्क है कि बेहतर मार्केटिंग और विनिर्माण प्रक्रियाओं को पहले आना चाहिए.
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इत्र की फीकी महक
कन्नौज के चौथी पीढ़ी के परफ्यूमर 58-वर्षीय अनूप केलकर परंपरावादी हैं. उनका केलकर एंड संस, गुलाब जल और गुलकंद के साथ प्राकृतिक तरीके से इत्र बनाने के लिए आज भी सदियों पुरानी डेग-भपका तकनीक का उपयोग करता है. कन्नौज के कई अन्य लोगों की तरह, वो इस प्रक्रिया के लिए ईंधन के रूप में गाय के गोबर के उपलों का उपयोग करते हैं. केलकर का वार्षिक कारोबार पिछले पांच वर्षों से 1 करोड़ रुपये पर स्थिर है.
केलकर ने 2014 में जीआई टैग मिलने के बाद आई आशावादिता को याद किया.
अपनी दुकान पर इत्र की रंगीन बोतलों से घिरे हुए उन्होंने कहा, “हमें उम्मीद थी कि टैग मिलने से हमारा निर्यात बढ़ेगा, लेकिन समय के साथ उत्साह और रुचि कम होती गई. कारोबार पहले की तरह ही चल रहा है. जीआई टैग की वजह से कोई बढ़ोतरी नहीं हुई है. हमें यह भी नहीं पता कि इसका इस्तेमाल कैसे किया जाता है.”
इत्र उद्योग में अपार संभावनाएं हैं. पिछले कुछ साल में दुनिया भर में प्राकृतिक उत्पादों की मांग तेज़ी से बढ़ी है लेकिन इत्र इंडस्ट्री ने अभी तक जीआई टैग का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया है
— शक्ति विनय शुक्ला, निदेशक, एफएफडीसी
पौराणिक कथाओं में कहा जाता है कि कन्नौज में इत्र बनाने की शुरुआत 17वीं सदी की शुरुआत में हुई थी, जब मुगल महारानी नूरजहां ने स्नान के दौरान गुलाब की पंखुड़ियों से निकलने वाले सुगंधित तेलों को देखा था. आज, यह विरासत लगभग 350 इत्र इकाइयों के माध्यम से ज़िंदा है, जिसमें कम से कम 5 लाख लोग काम करते हैं.
जिला उद्योग केंद्र (डीआईसी) के अधिकारियों के अनुसार, इस उद्योग का सालाना कारोबार 800 करोड़ रुपये का है, जिसमें से 60 करोड़ रुपये निर्यात से आते हैं.
कन्नौज के बड़ा बाज़ार में, जो इत्र उद्योग का केंद्र है, संकरी गलियां इत्र की दुकानों से भरी पड़ी हैं — कुछ दुकानें 150 साल से भी पुरानी हैं. ज़्यादातर दुकानें ऐसे परिवारों द्वारा चलाई जाती हैं जो पीढ़ियों से इस बिजनेस से जुड़े हैं. कई दुकानें अभी भी अव्यवस्थित, पुराने ढंग से काम करती हैं.
इत्र उद्योग की मदद के लिए 1992 में स्थापित केंद्र सरकार के शोध केंद्र, फ्रेगरेंस एंड फ्लेवर डेवलपमेंट सेंटर (एफएफडीसी) के निदेशक शक्ति विनय शुक्ला के अनुसार, बदलाव के प्रति यह प्रतिरोध एक प्रमुख कारण है कि कन्नौज अपने जीआई टैग के बावजूद बाज़ार में कोई बड़ी सफलता हासिल नहीं कर पाया है.
शुक्ला ने कहा, “इत्र उद्योग में अपार संभावनाएं हैं. पिछले कुछ सालों में दुनिया भर में प्राकृतिक उत्पादों की मांग तेज़ी से बढ़ी है लेकिन इत्र उद्योग ने अभी तक जीआई टैग का सही तरीके से इस्तेमाल नहीं किया है.”
एफएफडीसी ने कन्नौज के इत्र को जीआई टैग दिलाने में अहम भूमिका निभाई है. इसके लिए उसने पांच साल तक कोशिश की, जिसमें इसके इतिहास का पता लगाना और कागज़ी कार्रवाई शामिल है.
लेकिन अब यह टैग विवाद का विषय बन गया है. इत्र निर्माता पर्याप्त सपोर्ट और आर्थिक लाभ नहीं मिलने की शिकायत करते हैं, जबकि एफएफडीसी का तर्क है कि टैग एक ऐसा साधन है जिसका बेहतर मार्केटिंग और विनिर्माण प्रक्रियाओं के माध्यम से प्रभावी ढंग से उपयोग नहीं किया जा रहा है.
बड़ा बाज़ार में 150 साल पुरानी देवी प्रसाद सुंदर लाल खत्री परफ्यूमरी चलाने वाले सुमित टंडन उद्योग के भविष्य को लेकर निराश हैं.
उन्होंने कहा, “मुझे लगता है कि यह उद्योग अपनी आखिरी सांसें गिन रहा है. पिछले कुछ दशकों में जिस तरह से सिंथेटिक परफ्यूम ने प्राकृतिक परफ्यूम पर अपना दबदबा बनाया है, उससे गहरा संकट पैदा हो गया है.”
टंडन ने उस समय को याद किया जब पानवाले और मिठाईवाले भी अपनी दुकानों पर इत्र का इस्तेमाल करते थे, लेकिन उन्होंने अफसोस जताया कि बढ़ती लागत और बदलते स्वाद ने बाज़ार को खत्म कर दिया है.
एक और बड़ा मुद्दा चंदन के तेल की अनुपलब्धता है, जो इत्र का पारंपरिक आधार है. अब चंदन की लकड़ी की कीमत 90,000 रुपये प्रति किलोग्राम से अधिक हो गई है, इसलिए यह पहुंच से बाहर है. अधिकांश व्यापारियों ने डायोक्टाइल फथलेट (डीओपी) जैसे सस्ते, रासायनिक विकल्पों का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है, जो गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं.
लाला केदारनाथ खत्री परफ्यूमर्स के सौ साल से ज़्यादा पुराने मालिक राजीव मेहरोत्रा ने कहा, “सिर्फ चंदन की लकड़ी से परफ्यूम बनाने वाले लोग कम ही हैं, वो भी खास ऑर्डर पर.”
मेहरोत्रा को जीआई टैग के बारे में भी नहीं पता.
और फिर, जीएसटी भी एक बड़ी समस्या है.
कन्नौज परफ्यूम एसोसिएशन के अध्यक्ष पवन त्रिवेदी ने कहा, “कन्नौज परफ्यूम के पास जीआई टैग है और सरकार इसे खास मानती है. इसे टैक्स-फ्री होना चाहिए या कम से कम कच्चे माल पर जीएसटी कम होनी चाहिए. अभी तक सरकार ने उद्योग को उतना समर्थन नहीं दिया है जितना उसे देना चाहिए.”
उद्योग ने एफएफडीसी से परफ्यूम के लिए एक नया बेस ऑयल शोध और विकसित करने की भी मांग की है.
हालांकि, एफएफडीसी का कहना है कि उसने केंद्र सरकार को दो प्रस्ताव भेजे थे — एक शोध के लिए और दूसरा नए इत्र फॉर्मूलेशन के लिए — लेकिन उसे पर्याप्त फंड नहीं मिल पाया है.
एफएफडीसी के शुक्ला ने कहा, “हम उद्योग की मदद करने के लिए हैं लेकिन उन्हें यह सोचना होगा कि दुनिया के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए खुद को कैसे बदलना है, पुनर्मूल्यांकन करना है, खुद को फिर से पेश करना है. व्यापारियों हमारे पास आएं और जो चाहिए वो मांगे, लेकिन वो हमें कोसते रहते हैं. इससे उन्हें कोई फायदा नहीं होगा.”
ऐसे उद्योग में जहां वाणिज्यिक ब्रांड-निर्माण दुर्लभ है, प्रवीण टंडन अपने प्रोडक्ट बूंद के लिए पैकेजिंग और कविता का उपयोग करते हैं.
बदलाव की एक झलक
सभी परफ्यूमर परंपरा से चिपके नहीं रहते. कुछ नए ज़माने के इत्र उद्यमी अपने खुद के ब्रांड बना रहे हैं — जो उद्योग में दुर्लभ है और जीआई टैग का लाभ उठा रहे हैं.
प्रवीण टंडन, पहली पीढ़ी के परफ्यूमर जिन्होंने 2021 में अपना ब्रांड बूंद लॉन्च किया, पैकेजिंग और कविता का उपयोग अलग दिखने के लिए करते हैं.
सामान्य छोटी शीशियों के बजाय, उनके इत्र कपड़े के पाउच में लिपटी चिकनी बेलनाकार बोतलों में आते हैं, जिनमें से प्रत्येक पर एक हस्तलिखित कविता होती है.
रक्षाबंधन के लिए उन्होंने कस्टमाइज़ कविता के साथ स्पेशल एडिशन बनाया: “यूं तो है बंधन, लेकिन पर इस धागे में सच ही सच है”.
टंडन जैसे परफ्यूमर, जो मुख्य रूप से अपना सामान ऑनलाइन बेचते हैं, प्रामाणिकता का संकेत देने के लिए कन्नौज के इत्र जीआई टैग को प्रमुखता से दिखाते हैं.
उन्होंने कहा, “हमारे लिए यह आसान नहीं है लेकिन हम अनूठी पेशकश और पैकेजिंग के ज़रिए अपनी पहचान बना रहे हैं.”
जलवायु परिवर्तन ने कच्चे माल की उपलब्धता को काफी प्रभावित किया है. इत्र का कारोबार फूलों पर निर्भर करता है और इस साल उत्पादन बहुत कम रहा है. साथ ही फूल किसानों को सहायता देने के लिए कोई नीति नहीं है.
— प्रवीण टंडन, कन्नौज परफ्यूमर
2014 में जीआई टैग मिलने के बाद से इत्र पार्क के ज़रिए इत्र उद्योग को पुनर्जीवित करने की कोशिश की गई, लेकिन यह अभी भी पूरा नहीं हुआ है. कन्नौज इत्र को पिछले साल जी20 शिखर सम्मेलन में प्रतिनिधियों के सामने भी पेश किया गया था.
हालांकि, टंडन इस बात पर ज़ोर देते हैं कि आखिरकार, उद्योग के खिलाड़ियों पर ही अपने जीआई-टैग वाले उत्पादों के लिए बाज़ार बनाने की ज़िम्मेदारी है.
उन्होंने कहा, “यहां ज़्यादातर लोग खरीदार से खरीदार (बी-टू-बी) मॉडल में रहे हैं, लेकिन हमने खरीदार से उपभोक्ता (बी-टू-सी) मॉडल पर ध्यान केंद्रित किया, जो कन्नौज के लिए नया है. ब्रांडिंग भी इत्र बाज़ार में एक नई अवधारणा है.”
लेकिन इस समय उनके लिए सबसे बड़ी समस्या इत्र बनाने के लिए फूलों की कमी है. जून में उनके घर में रखे डेग-भपका के बर्तन इस वजह से करीब 15 दिन तक बंद पड़े रहे.
उन्होंने कहा, “जलवायु परिवर्तन ने कच्चे माल की उपलब्धता को बहुत प्रभावित किया है. इत्र का कारोबार फूलों पर निर्भर करता है और इस साल उत्पादन बहुत कम रहा है. साथ ही, फूल किसानों को समर्थन देने के लिए कोई नीति नहीं है.”
कन्नौज के आसपास के करीब 60 गांवों में कई किसान फूल उगाते हैं और उन्हें इत्र व्यापारियों को बेचते हैं, लेकिन इस साल गर्मी ने कहर बरपाया है और मेहंदी और चमेली जैसे गर्मियों के फूलों की आपूर्ति कम हो गई है.
फूल व्यापारी राम स्वरूप ने कहा, “इस बार फूलों की खेती बहुत कम हुई है. कई जगहों पर गुलाब के फूल जल गए थे.”
कृषि विज्ञान केंद्र के वरिष्ठ वैज्ञानिक अमर सिंह ने इस प्रभाव की पुष्टि करते हुए कहा, “अधिक तापमान ने पैदावार को प्रभावित किया है. फूलों की कलियां नहीं खिल रही हैं और फूलों की गुणवत्ता भी प्रभावित हुई है. हमारे अनुमान से पैदावार में 15-20 प्रतिशत की कमी आई है.”
सुमित टंडन, जिनकी फैक्ट्री में 31 डेग-भपका हैं, रोज़ाना 800-900 किलो चमेली खरीदते थे. इस साल, वे सिर्फ 400-500 किलो ही खरीद पाए हैं.
मैसूर सिल्क की होड़
जबकि कन्नौज का जीआई-टैग वाला इत्र अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है, 2,000 किलोमीटर से भी ज़्यादा दूर, मैसूर का सिल्क अपनी जीआई सफलता की चमक से लबरेज़ है. 2005 में अपना टैग हासिल करने के बाद से मैसूर सिल्क की प्रतिष्ठा और मांग में लगातार वृद्धि हुई है. असल में अब सबसे बड़ी चुनौती उस मांग को पूरा करना है.
शुद्ध रेशम से बुने गए और सूक्ष्म ज़री के काम वाले इस समृद्ध, चमकदार कपड़े से बनी साड़ियां राज्य के स्वामित्व वाली कर्नाटक सिल्क उद्योग निगम लिमिटेड (KSIC) द्वारा बनाए जाने से कहीं ज़्यादा तेज़ी से बिक रही हैं.
पिछले साल, कर्नाटक के सिल्क उत्पादन और पशुपालन मंत्री के वेंकटेश ने KSIC से उत्पादन दोगुना करने का आग्रह किया था. जवाब में KSIC के प्रबंध निदेशक ने बताया कि उत्पादन में कितनी वृद्धि हुई है. 2020-21 में 3.32 लाख मीटर से उत्पादन बढ़कर 2022-23 में 5.41 लाख मीटर हो गया, जिससे राजस्व 200 करोड़ रुपये से बढ़कर 240 करोड़ रुपये हो गया. सबसे बड़ी बात यह है कि पिछले पूरे दशक यानी 2012-2022 में मैसूर सिल्क का कुल उत्पादन केवल 4.5 लाख मीटर था.
जीआई टैग मैसूर सिल्क की विरासत को प्रचारित करने और बढ़ावा देने में मदद करता है. पिछले कुछ सालों में इसकी मांग बढ़ी है. भले ही सोने और चांदी की कीमतों में उछाल के कारण इसकी कीमत में करीब 15 फीसदी की बढ़ोतरी हुई है लेकिन महिलाओं में अभी भी इसका क्रेज़ है.
— केएसआईसी के वरिष्ठ अधिकारी
लेकिन यह अभी भी काफी नहीं है. जीआई टैग के जोरदार प्रचार ने इन साड़ियों को एक लोकप्रिय वस्तु बना दिया है लेकिन मास्टर बुनकरों की कमी का मतलब है कि कुछ करघे धूल फांक रहे हैं. उत्पादन बढ़ाने के प्रयासों के बावजूद, कुशल हाथों की कमी के कारण अलमारियों को स्टॉक में रखना मुश्किल हो रहा है, जिससे ग्राहक अपने पसंदीदा रंगों और डिज़ाइनों के लिए संघर्ष कर रहे हैं, इससे पहले कि कोई और उन्हें खरीद ले.
केएसआईसी के अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि 2021-22 और 2022-23 के बीच सिल्क से बने कपड़े की बिक्री में मूल्य के लिहाज़ से 41.08 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई है.
केएसआईसी के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा, “जीआई टैग मैसूर सिल्क की विरासत को प्रचारित करने और बढ़ावा देने में मदद करता है. पिछले कुछ साल में इसकी मांग बढ़ी है. भले ही सोने और चांदी की कीमतों में बढ़ोतरी के कारण कीमत में लगभग 15 प्रतिशत की वृद्धि हुई है, लेकिन यह अभी भी महिलाओं के बीच एक क्रेज़ है.”
सिल्क का आकर्षण भारत तक ही सीमित नहीं है. इसे वर्तमान में 16 देशों में निर्यात किया जाता है, जिनमें जर्मनी, ऑस्ट्रेलिया और सिंगापुर सहित कई देश जीआई टैग के बाद लिस्ट में शामिल हो गए हैं. केएसआईसी अधिकारियों के अनुसार, निर्यात में अमेरिका का हिस्सा 61.14 प्रतिशत और जर्मनी का 30.77 प्रतिशत है.
48-वर्षीय पेरुमल पिछले 25 साल से बैंगलोर में सिल्क की दुकान चला रहे हैं और मैसूर सिल्क के अपने स्टॉक की बदौलत, उनका व्यापार खूब फल-फूल रहा है, भारत और विदेश दोनों जगह से ग्राहक उनकी दुकान पर आ रहे हैं.
उन्होंने कहा, “विदेशी ग्राहक जीआई-टैग वाले उत्पादों को लेकर अधिक उत्साहित हैं. वो इसे अधिक महत्व देते हैं. कई बार, वो उत्पाद के बारे में पूछते हैं और यह जानकारी चाहते हैं कि इसे जीआई टैग कब दिया गया था. जीआई टैग ने इस बाज़ार को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई है.”
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