scorecardresearch
Friday, 17 October, 2025
होमThe FinePrintब्रिटानिया, ज़ारा, वैन ह्यूज़न से लेकर अडाणी तक—बिहार में शुरू हुआ उद्योगों का नया युग

ब्रिटानिया, ज़ारा, वैन ह्यूज़न से लेकर अडाणी तक—बिहार में शुरू हुआ उद्योगों का नया युग

2016 से 2020 के बीच 1,238 फैक्ट्रियों को पहले चरण की मंज़ूरी मिली थी, जिससे 16,832 करोड़ रुपये का निवेश आया. 2020 के बाद यह आंकड़ा बढ़कर 2,154 फैक्ट्रियों तक पहुंच गया और निवेश 90,503 करोड़ रुपये तक पहुंच गया.

Text Size:

पटना: शाम के पांच बजे बिहार के सिकंदरपुर इंडस्ट्रियल एरिया में आठ महिलाएं सफेद प्लास्टिक के टिफिन बैग लिए फैक्टरी से निकलती हैं. ब्रिटानिया और अन्य फैक्ट्रियों में अपनी शिफ्ट खत्म करने के बाद वे पैदल अपने घरों की ओर लौट रही हैं. पिछले एक साल से ज़्यादा समय से यह रोज़ की यात्रा उनके लिए इंडस्ट्री की दुनिया में पहला कदम रही है.

ये महिलाएं महीने में पंद्रह दिन फैक्ट्रियों में सफाई और पोछा लगाने का काम करती हैं और 6,000 रुपये कमाती हैं, लेकिन वे सिर्फ मज़दूरी ही घर नहीं ले जातीं—साथ में बिस्किट और कुकीज़ की खुशबू भी लेकर लौटती हैं, उस जगह की महक जहां उनका भविष्य धीरे-धीरे आकार ले रहा है.

यह फैक्टरी का काम उन्हें ज़मींदारों के खेतों में धान बोने की मज़दूरी से आज़ादी देता है, जहां मेहनताना कम था और काम बहुत भारी. उनके पति अब भी कंस्ट्रक्शन साइट पर ईंट ढोने और सीमेंट मिलाने का काम करते हैं.

30 साल की नीरज देवी ने कहा, “अब तो एसी में काम करते हैं. धूप में झुलसने से तो ये कहीं अच्छा है.”

उनकी कमाई बच्चों, कपड़ों और त्योहारों पर खर्च होती है—छोटी-छोटी खुशियां जो अब उनकी मेहनत से संभव हो पाई हैं. नीरज को इस नौकरी के बारे में एक रिश्तेदार से पता चला था: “एक आदमी ने बताया कि फैक्ट्रियां खुल रही हैं. हमने सोचा, शायद हमारे लिए भी कोई काम होगा.”

खेती की ज़मीन पर फैक्ट्रियों का उगना, महिलाओं का शिफ्ट में काम करना—यह सब बिहार में चुपचाप चल रहे बड़े बदलाव की कहानी है.

शाम के समय फैक्टरी से निकलती महिलाओं का ग्रुप, ये अपने परिवार की पहली पीढ़ी हैं जो फैक्ट्रियों में काम कर रही हैं, जबकि उनके पति अब भी निर्माण स्थलों पर मज़दूरी करते हैं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
शाम के समय फैक्टरी से निकलती महिलाओं का ग्रुप, ये अपने परिवार की पहली पीढ़ी हैं जो फैक्ट्रियों में काम कर रही हैं, जबकि उनके पति अब भी निर्माण स्थलों पर मज़दूरी करते हैं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

कई दशकों से बिहार, भारत की विकास कहानी से पीछे छूट गया था. 2023–24 में इसका प्रति व्यक्ति GSDP सिर्फ 66,828 था—जो राष्ट्रीय औसत का एक-तिहाई भी नहीं है. यह दिखाता है कि राज्य देश के उस आर्थिक उछाल का हिस्सा नहीं बन पाया जिसने कई अन्य इलाकों को बदल दिया. 2022–2023 में बिहार की सिर्फ 5.7% वर्कफोर्स मैन्युफैक्चरिंग में थी—इतनी युवा आबादी वाले राज्य के लिए यह बेहद कम है.

भारत की अगली डेवलपमेंट की छलांग में बिहार को वह विज़न और अमल का फासला पाटना होगा जिसने अब तक इसकी फैक्ट्रियों और लोगों को हाशिये पर रखा है. पड़ोसी उत्तर प्रदेश ने 2023 के निवेशक सम्मेलन में 33.5 लाख करोड़ रुपये के एमओयू पर हस्ताक्षर कर बड़े पैमाने पर निवेश खींचने की कोशिश की, जबकि बिहार अपनी “पिछड़ेपन” की छवि से धीरे-धीरे बाहर निकलने की प्रक्रिया में है.

कोलकाता की कंपनी सोबिस्को का नूडल यूनिट, सिकंदरपुर इंडस्ट्रियल ज़ोन, बिठ्ठा, बिहार | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
कोलकाता की कंपनी सोबिस्को का नूडल यूनिट, सिकंदरपुर इंडस्ट्रियल ज़ोन, बिठ्ठा, बिहार | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

बिहार को पीछे रखने की वजह सिर्फ कमज़ोर इंफ्रास्ट्रक्चर ही नहीं, बल्कि सीमित दृष्टिकोण और संकीर्ण राजनीति भी रही है. चुनाव नज़दीक आने के साथ ही नौकरियों और उद्योगों का मुद्दा एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन इस बार ये वादे पूरी तरह खोखले नहीं लगते.

महामारी के बाद राज्य ने ग्रामीण औद्योगिकीकरण की ओर ध्यान केंद्रित किया है—नीतियों में बदलाव किया, प्रोत्साहन दोगुना किया और निवेशकों को आकर्षित करने के लिए अपने बिज़नेस समिट आयोजित किए. ‘बीमारू’ छवि से बाहर निकलते हुए बिहार अब खुद को मैन्युफैक्चरिंग का नया हब दिखाना चाहता है. सिकंदरपुर इंडस्ट्रियल एरिया इस महत्वाकांक्षा का प्रतीक बन गया है.

2023 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार द्वारा उद्घाटित 300 एकड़ में फैला यह इंडस्ट्रियल क्लस्टर अब लगभग पूरी क्षमता पर पहुंच चुका है—सिर्फ 10% ज़मीन खाली बची है. पटना से आधे घंटे की दूरी पर स्थित इस इलाके में 21 प्लॉट निवेशकों को रियायती दरों पर दिए गए हैं, जहां उन्होंने ज़मीन से फैक्ट्रियां खड़ी कीं. इसके साथ ही 15 ‘प्लग-एंड-प्ले’ शेड्स भी बनाए गए हैं, जहां मशीनें लगते ही उत्पादन शुरू हो गया.

हालांकि, बदले हुए इंफ्रास्ट्रक्चर की यह कहानी पूरी तस्वीर का सिर्फ एक हिस्सा है.

2016 से 2020 के बीच बिहार में 1,238 फैक्ट्रियों को पहले चरण की मंज़ूरी मिली थी, जिससे 16,832 करोड़ रुपये का निवेश आया. 2020 के बाद यह आंकड़ा बढ़कर 2,154 फैक्ट्रियों तक पहुंच गया और निवेश 90,503 करोड़ रुपये तक पहुंच गया—434.5% की ज़बरदस्त वृद्धि.

सिर्फ दो साल में बिहार का निर्यात लगभग दोगुना हो गया—2020–21 के 11,191 करोड़ रुपये से बढ़कर 2022–23 में 20,895 करोड़ रुपये. रोज़गार भी तेज़ी से बढ़ा—2020 में 6,418 नौकरियों से बढ़कर 2025 में 35,398 नौकरियां हो गईं.

सिर्फ सिकंदरपुर ही नहीं, बिहार के कई इलाकों में अब औद्योगिक गतिविधियां बढ़ रही हैं. आज यहां वीआईपी ट्रॉली से लेकर अमेरिकन टूरिस्टर बैग तक बनते हैं. साथ ही ज़ारा और वैन ह्यूज़न से लेकर राल्फ लॉरेन और यूएस पोलो (आरके इंडस्ट्रीज़ के ज़रिए) और डिकेथलॉन (मुज़फ्फरपुर की ATPL कंपनी के ज़रिए) जैसे ब्रांड्स के प्रोडक्शन की भी तैयारी हो रही है.

दक्षिण भारत की परिधान निर्यात कंपनियां—चेन्नई की आरके इंडस्ट्रीज़, मदुरै की ATPL और बेंगलुरु की SAPL—बिहार पर बड़ा दांव लगा रही हैं. कोका-कोला और कैंपा कोला से लेकर ब्रिटानिया बिस्किट और इंस्टेंट नूडल तक—औद्योगिक उत्पादन की रेंज तेज़ी से बढ़ी है.

ब्रिटानिया की अब बिहार में दो फैक्ट्रियां हैं. सिकंदरपुर इंडस्ट्रियल एरिया में स्थित यूनिट | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
ब्रिटानिया की अब बिहार में दो फैक्ट्रियां हैं. सिकंदरपुर इंडस्ट्रियल एरिया में स्थित यूनिट | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

2024 में HCL ने पटना में अपना पहला ग्लोबल डिलीवरी सेंटर शुरू किया, जिससे बिहार से आईटी सेवाओं का रास्ता खुला. रिलायंस ने भी मधुबनी में 124 करोड़ रुपये की लागत से 26 एकड़ में फैला कम्प्रेस्ड बायोगैस (CBG) प्लांट लगाना शुरू किया है.

मार्च 2024 में उद्योग मंत्री बने बीजेपी के चार बार के विधायक नितीश मिश्रा ने कहा, “यह बिहार की आर्थिक जागृति है. हमने 1990 का मौका गंवा दिया. अगले पांच साल गंवाने का सवाल ही नहीं है.”

जहां कभी भरोसा डगमगाया था, अब वहां फैक्ट्रियां

2012 में मुंबई के कारोबारी तुषार जैन पहली बार बिहार आए. हाई स्पिरिट कमर्शियल वेंचर्स प्राइवेट लिमिटेड—एक बैग मैन्युफैक्चरिंग कंपनी के को-फाउंडर जैन नई फैक्ट्री लगाने के लिए ज़मीन तलाश रहे थे. जगह जल्दी तय हो गई और 2014 तक निर्माण भी शुरू हो गया, लेकिन दो साल बाद काम रुक गया. इमारत अधूरी रह गई—आधा बना, आधा छोड़ा हुआ.

इस इमारत की किस्मत कुछ वैसी ही लग रही थी जैसी बिहार की छवि—एक ऐसा राज्य जहां कुछ चलता ही नहीं. पलायन, भौगोलिक बंदिशें और कानून-व्यवस्था की चुनौतियां—रुकावटें कभी न खत्म होने वाली थीं.

फिर आया कोविड. महामारी की लहरों में 25 लाख प्रवासी मज़दूर बिहार लौटे जिनमें जैन की मुंबई फैक्ट्री के लगभग 90 प्रतिशत मज़दूर भी थे.

उनकी वापसी ने एक नई संभावना जगाई.

जैन ने कहा, “मैंने सोचना शुरू किया कि काम को उनके घर के नज़दीक कैसे लाया जाए.”

इसी आपातकालीन और अवसर भरे माहौल में 2023 में जैन दोबारा बिहार लौटे. इस बार उन्होंने मुज़फ्फरपुर को चुना—जहां उनके ज़्यादातर मज़दूरों के घर थे. यहां एक नया प्रयोग आकार ले रहा था: मुज़फ्फरपुर बैग क्लस्टर—जो अब देश का सबसे बड़ा बैग क्लस्टर है और हर महीने 1.5 लाख से ज़्यादा बैग बनाता है.

जैन के इस फैसले को मज़बूती दी बिहार के उद्योग विभाग की एक कॉल ने. विभाग ने उन्हें राज्य में अपना बिज़नेस नए सिरे से शुरू करने का न्योता दिया.

तभी विभाग में नई नेतृत्व टीम आई थी. 1993 बैच के IAS अधिकारी संदीप पौंड़्रिक ने अतिरिक्त मुख्य सचिव के तौर पर पदभार संभाला था.

पौंड़्रिक ने 2023 में, पदभार संभालने के एक साल बाद दिप्रिंट से कहा, “हमारा लक्ष्य रोज़गार देना और पलायन रोकना है.”

उन्होंने सुधार का एक खाका रखा—सिंगल विंडो क्लियरेंस, ‘प्लग-एंड-प्ले’ इंफ्रास्ट्रक्चर और देश की सबसे कम औद्योगिक किराया दरें—सिर्फ चार रुपये प्रति वर्ग फुट. पौंड़्रिक और उनकी टीम देश-विदेश घूमकर निवेशकों से मिले और साल के अंत तक राज्य का पहला ‘बिहार बिज़नेस कनेक्ट’ आयोजित करने की तैयारी की.

सोबिस्को के नूडल यूनिट में, जहां स्थानीय मज़दूर उत्पादन में लगे हैं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
सोबिस्को के नूडल यूनिट में, जहां स्थानीय मज़दूर उत्पादन में लगे हैं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

पौंड़्रिक ने आत्मविश्वास के साथ कहा, “हम उन सभी जगहों पर दिखना चाहते हैं जहां बिज़नेस लीडर्स की नज़र जाती है. बिहार में बहुत क्षमता है—खासकर टेक्सटाइल और फूड प्रोसेसिंग जैसी श्रम-प्रधान इंडस्ट्री में यह एक अग्रणी राज्य बन सकता है.”

इसी दौरान उद्योग मंत्री सैयद शाहनवाज़ हुसैन ने अपने मीडिया प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए एक आक्रामक प्रचार अभियान शुरू किया. बड़े-बड़े होर्डिंग और अखबारों में फुल-पेज विज्ञापनों में नारा गूंजा—“बिहार है तैयार.” इस अभियान ने निवेशकों के बीच हलचल और जिज्ञासा दोनों पैदा की.

यह रफ्तार दिसंबर 2023 में चरम पर पहुंची, जब बिहार बिज़नेस कनेक्ट सम्मेलन हुआ. इसमें 300 कंपनियों से 50,530 करोड़ रुपये के निवेश के वादे मिले.

पड़ोसी उत्तर प्रदेश ने उस साल 33.5 लाख करोड़ रुपये के एमओयू पर हस्ताक्षर कर बड़ा खेल खेला था. फिर भी, पौंड़्रिक ने जो पहिया घुमाया, वह उनके अगस्त 2024 में यूनियन स्टील सेक्रेटरी बनने के बाद भी चलता रहा.

अगले दिसंबर तक, जब ग्लोबल इन्वेस्टर्स समिट का दूसरा एडिशन हुआ, तो इंडस्ट्रियलिस्ट दिल्ली नहीं बल्कि पटना के होटल मौर्य में उतर रहे थे.

ग्रैंड हॉल में जब आखिरी समझौते हुए, तब बिहार ने लगभग 1.8 लाख करोड़ रुपये के एमओयू साइन किए. जब उद्योग विभाग की सचिव बंदना प्रेयसी ने सटीक आंकड़ा 1,80,899 करोड़ रुपये बताया—तो कमरे में बैठे लोगों ने 13 अंकों की इस रकम पर दंग रहकर सांस खींची.

उस समिट की गूंज जल्द ही एयरपोर्ट लाउंज की कॉफी टेबल बुक्स में और देश के बड़े निवेशकों की डिनर टेबल चर्चाओं में सुनाई देने लगी.

बिहार की औद्योगिक रफ्तार की रीढ़

कई दशकों तक बिहार के गांवों की पहचान एक खालीपन से बनती थी—मर्द रोज़गार की तलाश में सूरत या लुधियाना जैसे औद्योगिक शहरों की ओर पलायन कर जाते और सिर्फ त्योहारों पर घर लौटते. पीछे महिलाएं, बच्चे और बुज़ुर्ग रह जाते.

नीतीश मिश्रा ने कहा, “महामारी ने बहुत कुछ तबाह किया, लेकिन बिहार के लिए कुछ अच्छा भी कर गई. राज्य और उद्योगपति, दोनों के सामने एक बड़ी ताकत थी—वापस आए प्रवासी और गांवों की महिलाएं.”

मुज़फ्फरपुर के बैग क्लस्टर में ही करीब एक लाख महिलाएं दस किलोमीटर के दायरे में काम करती हैं. पूरे बिहार में राज्य की प्रमुख महिला स्व-सहायता समूह योजना ‘जीविका’ से अब 1.40 करोड़ से ज़्यादा महिलाएं जुड़ चुकी हैं. यही महिलाएं आज बिहार की औद्योगिक मुहिम की रीढ़ बन गई हैं. महिला श्रमशक्ति की भागीदारी में ज़बरदस्त उछाल आया है—2017–18 में 4.1% से बढ़कर 2023–24 में 30.5% तक.

सिकंदरपुर की आरके इंडस्ट्रीज़ में, जहां अमेरिकी निर्यात के लिए शर्ट तैयार होते हैं, 600 से अधिक मज़दूरों में ज़्यादातर महिलाएं हैं. 28 साल की रिंकू कुमारी यहां अपने पति 30-वर्षीय राजकुमार राम के साथ काम करती हैं. राजकुमार सात साल तक नोएडा में 537 रुपये रोज़ाना की मज़दूरी पर कपड़े सिलते थे. अब वे घर से सिर्फ 15 किलोमीटर दूर वही कमाई करते हैं और हर शाम अपने तीन बच्चों के पास लौटते हैं.

राम ने कहा, “अगर यह फैक्ट्री पहले खुल जाती, तो मैं नोएडा गया ही नहीं होता.”

पास ही एक सिलाई मशीन पर 42 साल की सीमा देवी बैठी हैं. जीविका से जुड़ी सीमा अप्रैल तक घर पर कपड़े सिलती थीं. आज वे हर महीने 11,500 कमाती हैं, जिसमें से आधा अपने बच्चों की पढ़ाई में लगाती हैं. सीमा ने कहा, “मुझे इस पर गर्व है.” उन्होंने बताया कि परिवार की ज़िंदगी में सुधार दिखने लगा है और वे आगे भी काम जारी रखना चाहती हैं.

फैक्ट्रियों की टीन की छतें अब बिहार के गांवों के लिए नया नज़ारा हैं—राज्य में फैक्ट्रियां दशकों तक बंद रहीं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
फैक्ट्रियों की टीन की छतें अब बिहार के गांवों के लिए नया नज़ारा हैं—राज्य में फैक्ट्रियां दशकों तक बंद रहीं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

सीमा जैसी महिलाएं अब बिहार की टेक्सटाइल, असेंबलिंग और रीसाइक्लिंग इंडस्ट्री की अहम कड़ी बन चुकी हैं. उनकी नियमितता और समर्पण के कारण उन्हें बहुत अहमियत दी जाती है.

यूनिट के मैनेजर पन्नीरसेल्वम ने कहा, “मर्द ज़्यादा मोबाइल होते हैं—नई जगह जाते हैं, प्रयोग करते हैं. टेक्सटाइल में महिलाओं के हाथों को प्राथमिकता दी जाती है.” उनके मुताबिक लगभग 80 प्रतिशत वर्कफोर्स महिलाएं हैं.

अनिच्छुक मैनेजरों की वापसी

पन्नीरसेल्वम को 2024 में आरके इंडस्ट्रीज़ के सीईओ अजय अग्रवाल बिहार लेकर आए. ड्रिंक एंड बेवरेज इंडस्ट्री में दो दशक का अनुभव रखने वाले पन्नीरसेल्वम को राज्य में शिफ्ट होकर ऑपरेशंस संभालने के लिए मनाना आसान नहीं था.

कुछ ऐसा ही मामला कोलकाता में भी हुआ. सोना बिस्किट्स के नाम से मशहूर सोबिस्को फूड्स प्राइवेट लिमिटेड के डायरेक्टर गोपाल अग्रवाल ने कंपनी के बिहार चैप्टर की जिम्मेदारी संभालने के लिए अनुभवी मैनेजर सोमें मज़ी की ओर रुख किया.

माझी की बिहार से जुड़ी शुरुआती यादें 2001 की थीं. उस वक्त वे एलजी में नए प्रोफेशनल थे और कुछ दिनों के डेप्यूटेशन पर बिहार भेजे गए थे. उन्होंने बताया, “हमने मोहम्मद शाहाबुद्दीन की इलेक्ट्रॉनिक्स कंपनी के साथ असेंबलिंग के लिए टाई-अप किया था, लेकिन मैं इतना डर गया था कि 15 दिन की पोस्टिंग को 4 दिन में ही खत्म कर अगली सुबह की फ्लाइट पकड़ ली और कसम खाई कि दोबारा यहां नहीं आऊंगा.”

उन्होंने कहा, “शाम को कोई बाहर नहीं निकलता था.” उस वक्त फिरौती के लिए अपहरण का धंधा फैला हुआ था और माहौल में डर साफ महसूस होता था.

सोबिस्को प्रा. लि. की नूडल फैक्ट्री में काम करता एक मजदूर | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
सोबिस्को प्रा. लि. की नूडल फैक्ट्री में काम करता एक मजदूर | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

2024 में जब गोपाल अग्रवाल ने उन्हें 158 करोड़ रुपये के निवेश वाले जनरल मैनेजर के पद का ऑफर दिया, तो माझी झिझके. उन्हें कहा गया कि कम से कम राज्य आकर देख लें. उन्होंने दौरा किया और जल्द ही रुकने का फैसला कर लिया. आज वे दानापुर में रहते हैं और उनका बेटा एक प्रतिष्ठित स्कूल में पढ़ता है.

माझी ने कहा, “राज्य बहुत बदल चुका है.” अब वे 700 कर्मचारियों के साथ सोबिस्को की नूडल्स, बिस्किट और कुकीज़ यूनिट्स संभालते हैं.

पन्नीरसेल्वम के लिए भी ये बदलाव साफ महसूस हुआ. उन्होंने माना कि धारणा ही लंबे समय तक सबसे बड़ी रुकावट रही. किसी ऐसे राज्य में प्रोफेशनल्स को लाना मुश्किल था जहां कभी लोग रुकना ही नहीं चाहते थे.

सड़कें हुईं नईं, बिजली ने रौशनी फैलाई

कुछ साल पहले मधुबनी के झंझारपुर से पटना की यात्रा एक पूरे दिन की होती थी — रास्ता इतना लंबा और थकाऊ था कि विधानसभा में झंझारपुर के प्रतिनिधि नितिश मिश्रा को भी रास्ते में रुकना पड़ता था.

मिश्रा ने कहा, “अब मैं सुबह जनता से मिलकर शाम को पटना लौट सकता हूं. सड़कें बदल गई हैं.”

उनका यह बयान आंकड़ों से भी मेल खाता है. नीतीश कुमार सरकार के दौरान बिहार का सड़क नेटवर्क अभूतपूर्व गति से बढ़ा है.

हाल के वर्षों में राज्य ने रक्सौल से हल्दिया, गोरखपुर से सिलीगुड़ी, पटना से पूर्णिया और बक्सर से भागलपुर को जोड़ने वाले कई हाईवे और एक्सप्रेसवे बनाए हैं. इन सड़कों ने राज्य को राष्ट्रीय ग्रिड में जोड़ दिया है — हाईवे अब राज्य और जिला सड़कों से लिंक हो चुके हैं.

परिणाम: बिहार अब देश में तीसरे नंबर पर है — यहां सड़क घनत्व 3,166.9 किलोमीटर प्रति हज़ार वर्ग किलोमीटर है.

मिश्रा ने कहा, “आज राज्य के किसी भी हिस्से से पटना सिर्फ 5 घंटे में पहुंचा जा सकता है. हमारा लक्ष्य इसे 4 घंटे तक लाना है.”

व्यवसायी तुषार जैन के लिए ये नया रोड नेटवर्क बोनस की तरह है. जब उन्होंने अपना ऑपरेशन यहां शिफ्ट किया, तो उनके बड़े क्लाइंट डी-मार्ट के अधिकारी सशंकित थे. इसलिए उन्होंने 2025 की शुरुआत में डी-मार्ट के चार टॉप अधिकारियों को बुलाया.

नया पटना एयरपोर्ट उन्हें भाया और मुजफ्फरपुर तक की ड्राइव 6 की जगह सिर्फ 2.5 घंटे में पूरी हुई. रास्ते में उन्होंने पटना मरीन ड्राइव, पुलों को देखा और सेल्फी भी ली. जैन ने कहा, “वे बार-बार पूछ रहे थे — बिहार का ये चेहरा उन्हें पहले क्यों नहीं दिखा?” यात्रा संतोषजनक रही.

बीआईएडीए का कार्यालय — राज्य में इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश नीतियों को प्रमोट करने वाली संस्था | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
बीआईएडीए का कार्यालय — राज्य में इंडस्ट्रियल इंफ्रास्ट्रक्चर और निवेश नीतियों को प्रमोट करने वाली संस्था | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

आज जैन की यूनिट्स मुजफ्फरपुर, पूर्वी चंपारण और फतुहा में चल रही हैं — फतुहा कभी आधा छोड़ा हुआ औद्योगिक इलाका था. अब वे चौथी यूनिट मधुबनी में लगा रहे हैं. उनका टर्नओवर 500 करोड़ रुपये वार्षिक तक पहुंच गया है.

जब डी-मार्ट के संस्थापक और भारत के “रिटेल किंग” राधाकिशन दमानी ने जैन से पूछा कि उन्होंने बिहार में काम क्यों शुरू किया, तो उनका जवाब सीधा था — “कम प्रतिस्पर्धा, कोई ट्रेड यूनियन नहीं, पानी की भरपूर उपलब्धता, लागत कम और राज्य की रेड कार्पेट नीति.”

दमानी मानें या न मानें, लेकिन नितिश मिश्रा के लिए यह खुद में एक उपलब्धि थी. उन्होंने कहा, “हम कभी इस मुकाम तक पहुंचे ही नहीं थे.”

अगर एयरपोर्ट और हाईवे ने बिहार की छवि बदली है, तो बिजली ने उसके काम करने के तरीके को. 2005 में राज्य में सिर्फ 17 लाख बिजली उपभोक्ता थे, आज ये संख्या 2.16 करोड़ है. औसतन रोज़ की सप्लाई 7-8 घंटे से बढ़कर 24 घंटे की हो चुकी है. पीक डिमांड अब 8,752 मेगावॉट तक पहुंच गई है, जो 2005 में सिर्फ 700 थी.

इस भरोसेमंद सप्लाई ने निवेशकों का ध्यान खींचा है. बिहार बिज़नेस कनेक्ट 2024 में पटना के होटल मौर्य में जुटे उद्योगपतियों में अडाणी ग्रुप सबसे बड़ा निवेशक बनकर उभरा — 27,900 करोड़ रुपये का निवेश ऊर्जा, लॉजिस्टिक्स, इंफ्रास्ट्रक्चर और अन्य क्षेत्रों में.

अडाणी पावर के सीईओ एस.बी. ख्यालिया ने कहा, “हमने भागलपुर में 2,400 मेगावॉट का एक ग्रीनफील्ड अल्ट्रा सुपरक्रिटिकल पावर प्लांट लगाने के लिए 29,750 करोड़ रुपये का वादा किया है — यह भारत का एक दशक में बनने वाला सबसे बड़ा थर्मल पावर प्रोजेक्ट होगा.”

ग्रुप पहले ही लॉजिस्टिक्स, गैस डिस्ट्रीब्यूशन और एग्री-लॉजिस्टिक्स में 850 करोड़ रुपये निवेश कर चुका है. अब उसका लक्ष्य 8-10 साल में कुल 40,000 करोड़ रुपये से अधिक का निवेश करना है.

ख्यालिया ने कहा, “बिहार खुद को ईस्टर्न इंडिया के गेटवे के रूप में पेश कर रहा है — इसकी लोकेशन, लेबर कॉस्ट और बड़ा घरेलू बाजार इसे रणनीतिक बढ़त देता है.”

बिहार की वापसी के पीछे की रूपरेखा

अपने औद्योगिक अभियान के तहत, बिहार ने इस साल बीआईएडीए एमनेस्टी पॉलिसी लागू की, ताकि बंद फैक्ट्रियों को फिर से खोला जा सके और स्थानीय उद्यमियों को सुस्त पड़े इंफ्रास्ट्रक्चर को फिर से शुरू करने का मौका मिले. ज़मीन पर भी ध्यान दिया गया है: बिहार इंडस्ट्रियल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी (BIADA) अपना लैंड बैंक 7,000 एकड़ से बढ़ाकर 27,000 एकड़ कर रही है.

पिछले महीने, राज्य कैबिनेट ने बिहार इंडस्ट्रियल इन्वेस्टर्स प्रमोशन पॉलिसी पैकेज 2025 पास किया. इसके तहत पूंजी प्रोत्साहन बढ़ाने की योजना है, जिसमें जीएसटी की वापसी, स्टाम्प ड्यूटी छूट और ज़मीन सब्सिडी दोगुनी या शायद तीन गुनी हो सकती है.

इस रफ्तार की शुरुआत 2016 की बिहार इंडस्ट्रियल इन्वेस्टमेंट प्रमोशन पॉलिसी से हुई, जो नीतीश कुमार के पदभार संभालने के एक साल के भीतर मंज़ूर हुई थी. 2006 और 2011 में की गई कोशिशें बड़ी कंपनियों को राज्य की ओर नहीं ला सकीं, भले ही यहां श्रम, पानी और कृषि उत्पाद की भरमार थी.

2016 की पॉलिसी ने यह हाल बदल दिया. इसमें कई तरह के सबवेंशन दिए गए: 20 करोड़ रुपये तक की पूंजी सब्सिडी, बिजली शुल्क, स्टाम्प ड्यूटी, ज़मीन रूपांतरण शुल्क और राज्य GST पर 100% रीइम्बर्समेंट. रोजगार प्रोत्साहन भी खासे उदार थे—पुरुषों के लिए 50% वेतन सब्सिडी और महिलाओं, एससी-एसटी और अन्य विशेष श्रेणी के कर्मचारियों के लिए 100%.

इस नीति से राज्य में कुछ विकास हुआ, लेकिन वह बड़ा बदलाव नहीं आया जिसकी उम्मीद थी.

जवाब में उद्योग विभाग ने सेक्टर-विशेष पॉलिसी तैयार करना शुरू किया: पारंपरिक ताकतों को पुनर्जीवित करने के लिए टेक्सटाइल और लेदर पॉलिसी (2022), वैश्विक अवसर खोलने के लिए एक्सपोर्ट प्रमोशन पॉलिसी (2024), और डिजिटल अर्थव्यवस्था में बिहार की भागीदारी बढ़ाने के लिए आईटी पॉलिसी (2024). बिहार पहला राज्य था जिसने एथेनॉल पॉलिसी भी पेश की; अब 13 प्लांट चल रहे हैं और 4 को मंज़ूरी मिल चुकी है.

बाहरी निवेश के साथ-साथ राज्य ने मुख्यमंत्री उद्यमी योजना के तहत स्थानीय उद्यमियों को 2,980 करोड़ रुपये वितरित किए. सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी जातियों—एससी, एसटी और ईबीसी—के लिए लघु उद्यमी योजना शुरू हुई, जिसने 300 करोड़ रुपये के साथ 40,000 से अधिक लाभार्थियों को लाभ पहुंचाया.

मिश्रा ने कहा, “चूंकि हम समुद्र के रास्ते निर्यात नहीं कर सकते, हम एक इनलैंड कंटेनर डिपो बना रहे हैं, जिसमें कस्टम कार्यालय, गोदाम, कस्टम क्लियरेंस, कार्गो ट्रैकिंग और मल्टी-मॉडल ट्रांसपोर्ट होगा. हवाई कार्गो सेवा भी आने वाली है.”

यह निवेश रणनीति केंद्र सरकार के उत्तर-पूर्वी भारत पर जोर के अनुरूप है, जिसे हाल के वर्षों में लगातार बजट समर्थन मिला है. बिहार की इस क्षेत्र से निकटता और नेपाल से उसकी सीमा—उसे अतिरिक्त समर्थन पाने में फायदा देती है.

मिश्रा ने कहा, “अंततः हमें दो SEZ मंज़ूर करवा लिए गए—कुमारबाग (पश्चिम चंपारण) में एक और नवानगर (बक्सर) में दूसरा.”

संदेह से भरोसे तक

संघीय वस्त्र मंत्री गिरिराज सिंह को निवेशकों को यह विश्वास दिलाना पड़ा कि बिहार भी कारोबार के लिए तैयार है. सितंबर 2024 में इस कार्यक्रम में आरके इंडस्ट्रीज़ के सीईओ अजय अग्रवाल मौजूद थे, जो लंबे समय से बिहार को धीमा और पिछड़ा मानते थे.

उस दिन उन्होंने राज्य पर भरोसा किया.

अग्रवाल ने कहा, “यह एकमात्र राज्य है जो प्लग-एंड-प्ले शेड्स ऑफर करता है. अन्य प्रोत्साहन, जैसे पूंजी निवेश या वेतन सब्सिडी, अन्य राज्यों में भी हैं; बस राशि अलग है.” छह महीने और कुछ दौरे के बाद उन्होंने बिहार में अपना ऑपरेशन स्थापित कर लिया.

उन्होंने कहा, “बिहार की प्रशासनिक उत्सुकता वह है जो अन्य राज्यों में नहीं दिखती.”

जैसे कई निवेशक सतर्क हैं, अग्रवाल भी हैं. चुनावी माहौल के बीच सवाल रहता है—क्या यह रफ्तार टिकेगी, या पुराने पैटर्न में लौट जाएगी?

अग्रवाल ने कहा, “अगर वे रफ्तार बनाए रख सकते हैं, तो उनका मॉडल काम करेगा.” और वे मानते हैं कि बिहार ने टेक्सटाइल कोड को समझ लिया है.

इस विश्वास को बिहार के औद्योगिक विज़न के वास्तुकार संदीप पौंड़्रिक भी साझा करते हैं. उन्होंने कहा, “यह देखकर अच्छा लगता है कि बिहार निवेश का गंतव्य बन रहा है, लेकिन आने वाले सालों में निरंतर मार्गदर्शन और आसान व्यापार की सुविधा की आवश्यकता होगी.”

विशेषज्ञों के अनुसार, लंबे समय तक बिहार कमजोर धारणा और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी से पीछे रह गया था. अब नीतियां लागू हैं, सड़कें सुधरी हैं, बिजली भरोसेमंद है और प्रशासन तैयार है—राज्य राष्ट्रीय निवेश तालिका में अपनी जगह बनाने की तैयारी में है.

बीआईए के अध्यक्ष केपीएस केशरी ने कहा, “व्यवसायी कुल माहौल को देखते हैं. राज्य को ‘बीमारू’ के लक्षणों में वापस नहीं गिरना चाहिए—यह धारणा हटाना बेहद मुश्किल है.” उन्होंने कहा कि आने वाले वर्षों में कानून और व्यवस्था महत्वपूर्ण होगी.

बिना मास्कट के रफ्तार

पटना के बाहरी इलाके बिहटा को कभी बिहार का गुरुग्राम बताया जाता था. 2010 के दशक की शुरुआत में विजय माल्या डिस्टिलरी के लिए आए और हीरो साइकिल्स के ओपी मुंजाल ने भी रुचि दिखाई. 2011 तक यूनाइटेड ब्रुअरीज, कार्ल्सबर्ग और कोबरा बीयर जैसी बड़ी ब्रुअरी कंपनियां यूनिट्स लगाने के आखिरी चरण में थीं.

प्रस्ताव वही था: भरपूर मेहनत, कच्चा माल और धीरे-धीरे सुधरती कानून-व्यवस्था. बिहटा भारत का अगला ब्रुअरी हब बनने वाला था, लेकिन 2013 में नए भूमि अधिग्रहण कानून (LARR) के लागू होने पर किसानों ने चार गुना मुआवजा मांगा और परियोजनाएं ठंडी पड़ गईं.

बिहार के उद्योग मंत्री नितिश मिश्रा ने कहा, यह बिहार का आखिरी मौका है. सब कुछ संभव बनाया गया है ताकि उद्योग फल-फूल सकें | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
बिहार के उद्योग मंत्री नितिश मिश्रा ने कहा, यह बिहार का आखिरी मौका है. सब कुछ संभव बनाया गया है ताकि उद्योग फल-फूल सकें | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

अंदरखाने सूत्रों के अनुसार, नितिश कुमार का औद्योगिक पुनरुद्धार को लेकर मोहभंग उस समय शुरू हुआ. 2016 में, एक नाटकीय मोड़ में, निवेश समर्थक मुख्यमंत्री ने पूरी शराबबंदी लागू कर दी. बिहटा में हुई अधिकांश प्रगति नष्ट हो गई.

एक कारोबारी नेता ने याद किया, जिन्होंने 2010 के दशक की शुरुआती उम्मीद भरे दिनों में कुमार के साथ मंच साझा किया था, “मुंबई के एलीट, कॉर्पोरेट ऑफिस वाले, इन मीटिंग्स में राज्य का खर्चा देखकर आते हैं, बैठते हैं, तालियां बजाते हैं और चले जाते हैं. वे कभी फैक्ट्रियां बनाने नहीं रुकते.”

पूरब के अन्य मुख्यमंत्रियों—पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी, झारखंड में रघुवर दास—की तरह, जो व्यक्तिगत रूप से व्यवसायी नेताओं को आमंत्रित करते थे, कुमार ने दूरी बनाए रखी. 2022 के बाद जब रफ्तार लौटने लगी, तब भी उनके संदेह बने रहे.

हालिया बिज़नेस समिट्स में उनकी अनुपस्थिति भी नोटिस की गई है. अधिकारी मानते हैं कि उनके और निवेशकों के बीच सीधे मिलने का इंतजाम करना मुश्किल है.

नाम न बताने की शर्त पर एक कारोबारी ने दिप्रिंट को बताया, “यह उन्होंने पहले देखा है, लेकिन जो उन्हें नहीं पता, वह यह है कि बिहार का समय आ गया है. जब नई इंफ्रास्ट्रक्चर, बिजली और सड़कें पूरी तरह तैयार होंगी, तब वे बहुत पहले चले जा चुके होंगे.”

यह रिपोर्ट ‘चेंजिंग बिहार’ सीरीज़ का हिस्सा है.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: लेबर और कारीगर ऑनलाइन कर रहे हैं नौकरी की तलाश—डिजिटल लेबर चौक बदल रहा मजदूरों की दुनिया


 

share & View comments