नई दिल्ली/अहमदाबाद: गाय-भैंसों को प्रभावित करने वाला एक वायरल संक्रमण लंपी स्किन इस साल जुलाई से अब तक कम से कम 67,000 मवेशियों की जान ले चुका है और इसकी वजह से हजारों परिवारों की आजीविका छिन गई है. तमाम गांवों में एकदम मातम छाया हुआ है जहां जगह-जगह सड़कों पर सड़ते मवेशियों के शव, सामूहिक कब्रें और ढंग से सांस तक नहीं ले पा रहे बीमार जानवर नजर आते हैं.
2019 की शुरुआत, जब भारत में पहली बार ‘ट्रांसबाउंड्री’ बीमारी की सूचना मिली, उसके बाद भी यह प्रकोप होता रहा है लेकिन कोई इतना घातक नहीं था.
लंपी स्किन डिजीज वायरस (एलएसडीवी)—जो मंकीपॉक्स का कारण बनने वाले पॉक्सवायरस फैमिली का ही होता है—मनुष्यों को संक्रमित नहीं कर पाता है. यह गुजरात, राजस्थान और पंजाब में कहर बरपा रहा है और हरियाणा, हिमाचल प्रदेश व अन्य राज्यों के तमाम इलाके भी इसकी चपेट में हैं.
भारत दुनिया में दूध का सबसे बड़ा उत्पादक है, और मवेशियों में एलएसडीवी के प्रकोप ने कृषि अर्थव्यवस्था पर गंभीर असर डाला है. कम दुग्ध उत्पादन और व्यापार प्रतिबंधों के कारण डेयरी किसानों की आजीविका भी बुरी तरह प्रभावित हुई है.
लंपी स्किन से प्रभावित मवेशियों की देखभाल काफी कठिन होती है और उन्हें ठीक होने में भी काफी समय लगता है. क्लीनिकल सिम्पटम में नाक से स्राव, फिर तेज बुखार और दुग्ध उत्पादन में तेज गिरावट शामिल है. इसके बाद पशु की त्वचा पर 10 से 50 मिमी की गांठें नजर आने लगती हैं और पैरों में सूजन आ जाती है. आंखों में पीड़ादायक अल्सरेटिव घाव हो जाते हैं, जो अंधेपन की वजह बन सकते हैं, और आंतरिक अंगों में घाव भी होने की आशंका रहती है.
पूर्व में, विश्व पशु स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूओएएच) ने इसके कारण मृत्यु दर 1 से 5 प्रतिशत तक आंकी थी, लेकिन इस साल भारत में इसका प्रकोप बेहद घातक रहा है. ऐसा माना जाता है कि मृत्यु दर 15 प्रतिशत तक हो सकती है.
क्यों आई यह स्थिति?
विशेषज्ञों का मानना है कि स्थिति बुरी तरह बिगड़ने के पीछे कई कारण रहे हैं—वायरस का एक नया वैरिएंट, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव, अधिक बारिश के कारण मच्छरों जैसे वेक्टर में वृद्धि, जो संक्रमण फैलाते हैं और डेयरी फार्मिंग में कामकाज के कुछ तरीके जो मवेशियों के लिए और ज्यादा जोखिम बढ़ा देते हैं.
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संक्रमण और जलवायु परिवर्तन
लंपी स्किन रोग मच्छरों या टिक जैसे खून चूसने वाले कीड़ों के कारण अधिक फैलता है. यह संक्रमित जानवरों की आंख-नाक पर बैठने वाली मक्खियों से भी फैल सकता है. आमतौर पर, मामलों की संख्या मानसून के दौरान बढ़ जाती है, जब संक्रमण फैलाने वाले वेक्टर की संख्या भी बढ़ जाती है.
आमतौर पर, एलएसडी का प्रकोप कई सालों के अंतराल पर होने वाली महामारियों में शुमार है. न तो वायरस के किसी विशिष्ट स्रोत के बारे में कोई जानकारी है और न ही यह पता चल पाया है कि महामारी न होने के दौरान यह कैसे और कहां जीवित रहता है. प्रकोप आमतौर पर मौसमी ही होते हैं लेकिन किसी भी समय हो सकते हैं क्योंकि कई प्रभावित क्षेत्रों में, कोई भी मौसम पूरी तरह से वेक्टर-मुक्त नहीं होता.
माना जाता है कि जलवायु परिवर्तन भी एलएसडी के प्रसार में अहम भूमिका निभाता है.
पुकोड स्थित केरल वेटेरिनरी एंड एनिमल साइंसेज यूनिवर्सिटी में पशु चिकित्सा महामारी विज्ञान विभाग में सहायक प्रोफेसर डॉ रतीश आर.एल ने दिप्रिंट को पूर्व में दिए एक इंटरव्यू में बताया था, ‘जलवायु परिवर्तन की वजह से हवा के वेग और दिशाओं में परिवर्तन के कारण इस बीमारी के अंतरराष्ट्रीय स्तर पर फैलने की खबरें हैं. माना जाता है कि जब हवाओं की दशा-दिशा बदली तो वायरस के वाहक कीड़े उन देशों में भी पहुंच गए जो पूर्व में इससे पूरी तरह अछूते रहे थे.’
फिलहाल, भारत में जानवरों को कुछ हद तक सुरक्षित करने के लिए गोट पॉक्स वैक्सीन दी जा रही है, लेकिन टीकाकरण के प्रयासों में तेजी के बावजूद यह संक्रमण तेजी से फैलता गया है.
अभी, इस प्रकोप पर काबू पाने के उपाय बीमारी के सिम्पटम के आधार पर इलाज और पशुओं के स्वास्थ्य को बिगाड़ देने वाले सेकेंडरी इंफेक्शन को फैलने से रोकने पर केंद्रित हैं.
अब सारी उम्मीद लंपी-प्रोवैक नामक एक स्वदेशी एलएसडी वैक्सीन पर टिकी हैं. 2019 से दो भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थानों की तरफ से विकसित किए जा रहे इस टीके ने फील्ड ट्रायल सफलतापूर्वक पूरा कर लिया है और पिछले महीने इसे लॉन्च भी कर दिया गया था. वैक्सीन के जल्द ही व्यावसायिक रूप से उपलब्ध होने के आसार है.
लंपी स्किन बीमारी भारत कैसे पहुंची?
लंपी स्किन रोग का पहला प्रकोप 1929 में जाम्बिया में सामने आया था और यह 1990 तक उप-सहारा क्षेत्र तक ही सीमित रहा, जिसके बाद यह धीरे-धीरे उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया और तुर्की से लेकर तमाम नए-नए क्षेत्रों तक फैल गया.
संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के विशेषज्ञों के मुताबिक, 2015 के बाद से अधिकांश बाल्कन देशों, काकेशस और रूसी संघ में इसकी सूचना मिली, जहां ‘रोकथाम और नियंत्रण के प्रयासों के बावजूद यह बीमारी फैल रही है.’ चीन के भी इससे प्रभावित होने की जानकारी मिली है.
2019 में यह बीमारी बांग्लादेश में फैली और माना जाता है कि यहीं से यह भारत के पूर्वी राज्यों ओडिशा और पश्चिम बंगाल तक पहुंची.
2019 में रांची में पाए गए वायरस के नमूनों की जीनोमिक सीक्वेंसिंग से पता चला कि ये स्ट्रेन काफी हद तक केन्या में पाए गए स्ट्रेन्स के करीब था—जैसा कि बांग्लादेश में भी पाया गया था.
गौरतलब है कि राजस्थान में लिए गए सैंपल की सबसे ताजा जीन सीक्वेंसिंग बताती है कि 2022 की महामारी के लिए जिम्मेदार स्ट्रेन पूर्व में भारत में फैली इस महामारी से संबंधित नहीं है.
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तेजी से म्यूटेट करता नया वैरिएंट और पाकिस्तान के साथ कनेक्शन?
गुजरात और राजस्थान में संक्रमण की जानकारी मिलने से हफ्तों पहले पाकिस्तान का सिंध प्रांत लंपी स्किन रोग की चपेट में था, जिससे यही अनुमान लगाया गया कि वहां का वायरस वैरिएंट सीमा पार भारत में पहुंच गया.
हालांकि, पड़ोसी देश के विशेषज्ञों के मुताबिक, पाकिस्तान में पहला मामला सितंबर 2021 में सामने आया था, लेकिन मार्च में ही एलएसडी के रूप में इसकी पुष्टि हुई. उनका यह भी कहना है कि यह वायरस भारत से पाकिस्तान पहुंचा.
अगस्त 2021 में, खासकर गुजरात और महाराष्ट्र एलएसडी की चपेट में आए थे, लेकिन मृत्यु दर कथित तौर पर कम थी.
गुजरात सहकारी दुग्ध विपणन संघ (जीसीएमएमएफ) के एडमिनिस्ट्रेटिव हेड एच.एस. राठौड़ ने पूर्व में दिप्रिंट को बताया था, ‘पिछले साल कैरा जिले में 40,000 से अधिक मामले सामने आए थे, जो पिछले साल जुलाई और अगस्त के दौरान अपने चरम पर पहुंच गए. हालांकि, मृत्युदर एक प्रतिशत से कम थीं.’
फिलहाल, इस बारे में पुष्ट तौर पर कोई जानकारी नहीं है कि भारत में नया वैरिएंट कहां से आया है, लेकिन वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद-जीनोमिक एंड इंटीग्रेटिव बायोलॉजी (सीएसआईआर-आईजीआईबी) की जीन सीक्वेंसिंग पर एक स्टडी—जिसका अभी गहनता से विचार किया जाना है—में पाया गया कि इस वर्ष फैलने वाला वायरस किसी अलग ही वंश का है.
यही नहीं, शोध में एक ही जानवर के वायरस के कई वैरिएंट से संक्रमित होने का भी पता चला है जो यह दर्शाता है कि वायरस संक्रमित पशु के अंदर भी म्यूटेट कर रहा है.
अनुसंधानकर्ताओं ने लिखा, ‘छह वायरल आइसोलेट्स के विश्लेषण से पता चलता है कि 2022 में इस बीमारी का रूप लेने वाले वायरस के जीनोम पब्लिक डोमेन में उपलब्ध पिछले सभी जीनोम की तुलना में बड़ी संख्या में जेनेटिक वैरिएंट से युक्त हैं.’
यह पूर्व की इस धारणा के विपरीत है कि एलएसडीवी एक स्थिर किस्म का वायरस है, और बहुत धीरे-धीरे म्यूटेट होता है.
हालांकि, इसकी संभावना कम ही है कि तेजी से म्यूटेट होता वैरिएंट बड़े पैमाने पर यह बीमारी फैलने का एकमात्र कारण हो, बल्कि कई स्थानीय फैक्टर भी इसके लिए जिम्मेदार हैं.
लगातार बारिश यानी अधिक वेक्टर
गुजरात के कच्छ क्षेत्र को भारत में एलएसडी प्रकोप का ‘प्रमुख केंद्र’ माना जा रहा है. इस वर्ष जुलाई में इस क्षेत्र को सात सालों में सबसे अधिक बारिश के कारण बाढ़ जैसी स्थिति का सामना करना पड़ा था.
भारी बारिश मच्छरों और मक्खियों जैसे वेक्टर्स की संख्या तेजी से बढ़ा देती है और यही इस बीमारी के तेजी से प्रसार की एक बड़ी वजह बनते हैं.
कच्छ जिले में एक मोबाइल पशु डिस्पेंसरी पर तैनात एक पशु चिकित्सक डॉ. निखिल मोदी ने कहा, ‘पिछले कुछ महीनों में एलएसडी के छिटपुट मामले ही आए थे. लेकिन मानसून बाद मक्खी-मच्छर यानी वेक्टर्स की आबादी तेजी से बढ़ी और बीमारी भी बहुत तीव्रता के साथ फैलने लगी.’
उन्होंने कहा, ‘ज्यादा बारिश से न केवल मच्छरों को कंट्रोल करना मुश्किल हो जाता है, बल्कि नमी भी जानवरों का इलाज करना मुश्किल बना देती है. खुले घाव ठीक होने में अधिक समय लेते हैं और जानवरों के सेकेंडरी बैक्टीरियल इंफ्केशन की चपेट में आने का खतरा भी बढ़ जाता है.
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खुले मैदानों में चरने के लिए छोड़ देते हैं मवेशी
दिप्रिंट ने पिछले माह जब कच्छ के मथक गांव का दौरा किया, तो हर शाम को एक सामान्य दिनचर्या नजर आई. सूर्यास्त से ठीक पहले शाम करीब 6 बजे ग्रामीण अपने मवेशियों को लेने के लिए एक बरगद के पेड़ के नीचे इकट्ठा हो जाते और उनके पशु आसपास के खुले मैदानों में चरने के बाद वहीं लौट आते थे.
ग्रामीण क्षेत्र में सामान्य से नजर आने वाले इस दृश्य के बीच एक बड़ी खामी भी थी, वो ये कि झुंड में स्वस्थ गायों के साथ-साथ लंपी स्किन रोग के स्पष्ट लक्षणों वाले मवेशी भी शामिल थे. ये जानवर एक साथ चरने और पानी पीने के बाद फिर गांव की साझी गौशाला में ही रात बिताते थे.
मथक कोई अकेला ऐसा गांव नहीं है. दिप्रिंट ने जिन कई अन्य क्षेत्रों का दौरा किया वहां भी व्यवस्थ कुछ ऐसी ही नजर आई.
कच्छ में पशुपालन उपनिदेशक हरेश ठाकर ने दिप्रिंट को बताया, ‘कच्छ एक ऐसा स्थान है जहां पशुपालन एकदम जीरो इनपुट और खुले मैदानों में चराई पर आधारित है. यदि मवेशी दूध देने वाले हैं तो परिवार पूरक पोषण पर थोड़ा-बहुत खर्च कर सकता है. लेकिन इसके अलावा पशुओं के पोषण पर कोई खर्च नहीं किया जाता है.’
खुले मैदानों में इस तरह चरने के लिए छोड़ देना इस महामारी का प्रभाव दोगुना करने वाला है.
पोषक तत्वों की कमी सबसे पहले तो मवेशियों के प्रतिरक्षा तंत्र को कमजोर कर देती है, जिससे बीमारियों के प्रति उनकी संवेदनशीलता और ज्यादा बढ़ जाती है. दूसरे, जब स्वस्थ और संक्रमित जानवर एक साथ रहते हैं और खाते-पीते हैं तो बीमारी को फैलने से रोकना मुश्किल हो जाता है.
ठाकर के मुताबिक, इस तरह चरना बीमार जानवरों को भी ज्यादा बीमार कर सकता है. उन्होंने कहा, ‘संक्रमित जानवरों को आराम करने की जरूरत होती है. जब वे चरने के लिए बाहर जाते हैं तो उन्हें कई किलोमीटर तक चलना भी पड़ता है. इससे स्ट्रेस बढ़ता है और उनकी बीमारी और भी गंभीर हो जाती है. यह गांव के अन्य मवेशियों के लिए भी जोखिम बढ़ाता है.’
मवेशियों का भटक जाना खुले में चरने से जुड़ा एक और मुद्दा है.
मीठी रोहर में युसूफ नूर मोहम्मद कई दिनों से अपनी गायों के लौटने का इंतजार करते नजर आए. उन्होंने बताया, ‘मवेशी चरने के लिए निकले थे और तबसे खेतों से नहीं लौटे हैं. मैंने अपने बच्चों को उनकी तलाश के लिए भेजा है.’
संक्रमित मवेशियों के लिए ये असामान्य नहीं है क्योंकि बहुत मुमकिन है कि लंपी स्किन से पीड़ित जानवर पैरों में सूजन आने के कारण खड़े होने में असमर्थ हो जाएं.
कच्छ के राजमार्गों और शहर की सड़कों से गुजरते समय दिप्रिंट को कई जगह ऐसे बीमार जानवर नजर आए जो अपने पैरों पर खड़े होने में असमर्थ थे.
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आवारा मवेशी और गौशालाएं
गुजरात कम से कम पिछले सात वर्षों से इस समस्या से जूझ रहा है कि आवारा पशुओं की बढ़ती आबादी से कैसे निपटा जाए. जहां कई जानवर सड़कों पर छुट्टा घूमते रहते हैं, वहीं तमाम गौशालाओं में पल रहे हैं. राजस्थान में भी यही स्थिति है.
ठाकर ने कहा, ‘शहर के जानवर सबसे ज्यादा प्रभावित हैं. इनके पेट में लगातार प्लास्टिक पहुंचती रहती है. पोषण और प्रतिरक्षा मामले में भी इनकी स्थिति अच्छी नहीं है.’
दिप्रिंट ने दोनों राज्यों के कई जिलों में गौशालाओं का दौरा किया जहां सैकड़ों की संख्या में मवेशी मौजूद थे.
उदाहरण के तौर पर, राजस्थान के बाड़मेर जिले की मोहन गौशाला में 400 गायों में से लगभग सभी एलएसडी से संक्रमित पाई गईं और 50 से अधिक मर भी चुकी है. यह जानकारी जानवरों की देखभाल कर रही वालंटियर की टीम का नेतृत्व करने वाले जितेंद्र देव ने दी.
परिसरों को साफ-सुथरा और अच्छी तरह व्यवस्थित रखा गया था और मवेशियों की देखभाल के लिए कुछ लोगों की टीम काम भी कर रही थी. लेकिन एलएसडी से बचाव के पर्याप्त इंतजाम नहीं दिखे.
जितेंद्र देव ने कहा, ‘ज्यादातर जानवर ठीक हो गए हैं, लेकिन कुछ बुरी तरह प्रभावित हैं. रोग बहुत तेजी से फैलने लगा था और जब तक हम लक्षणों को समझ पाते, तब तक सभी मवेशी इसकी चपेट में आ चुके थे.’
वैसे तो मवेशियों में लंपी स्किन रोग का इलाज उन्हें दो सप्ताह में ठीक कर सकता है लेकिन गांठ अगर फट जाए तो खुला घाव ठीक होने में काफी समय लेता है.
गुजरात के भचाऊ जिले में अच्छे-खासे फंड के साथ पूरी तरह व्यवस्थित एक गौशाला में भी यही स्थिति नजर आई. सैकड़ों जानवरों की अच्छी तरह से देखभाल की जा रही थी. लेकिन एक साथ रखे जाने के कारण यहां बीमारी तेजी से फैली.
इलाज को लेकर क्या हैं चुनौतियां
लंपी स्किन रोग पर काबू पाने के लिए मानवीय स्तर पर काफी प्रयास करने की जरूरत पड़ती है. यदि जानवरों को स्टाल-फेड किया जाए, तो उनकी निगरानी करना और लक्षणों का पता लगाना आसान होता है.
ठाकर ने कहा, ‘उपचार केवल पांच मिनट का काम है. जो इंजेक्शन देने की आवश्यकता होती है वह बस कुछ ही मिनटों में लग जाता है. हालांकि, डिजीज मैनेजमेंट में पूरा दिन लग जाता है, और इसी में स्थानीय समुदाय की मदद बहुत अधिक मायने रखती है.’
शुरुआत में, जब भी कच्छ क्षेत्र के गांवों में किसी मामले का पता चलता था, तो एक ड्रमर सभी ग्रामीणों को कम से कम कुछ दिनों के लिए अपने मवेशियों को अपने घरों में ही बांधकर रखने के आगाह करता था.
ठाकर ने कहा, ‘हम तब मवेशियों का टीकाकरण करते, और उन्हें कम से कम एक हफ्ते तक मवेशियों को बांधे रखने को कहते. असल में पूरी प्रतिरक्षा क्षमता 21 दिनों के बाद विकसित होती है. लेकिन अगर हम उन्हें अपने जानवरों को इतने दिनों तक बांधकर रखने को कहें तो वो हमारी बात पर भरोसा ही नहीं करेंगे.’
उदयपुर में दिप्रिंट ने पाया कि पशु चिकित्सकों की एक टीम द्वारा बार-बार आगाह किए जाने के बावजूद ग्रामीणों ने अपने स्वस्थ और संक्रमित मवेशियों को साथ ही रखना जारी रखा.
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शवों को खुले में छोड़ गया
महामारी की शुरुआत में इस बीमारी से मरने वाले मवेशियों को खुले मैदानों में फेंक दिया गया, जो मैला ढोने वालों और वेक्टर के संपर्क में आए.
दिप्रिंट ने जब गुजरात और राजस्थान का दौरा किया, तो कई संक्रमित मवेशियों के शव सड़क के किनारे पड़े दिखे.
यही नहीं, गौशालाओं में काम करने वाले वॉलंटियर्स ने दिप्रिंट को बताया कि कई जगह नगर निकायों की तरफ से शवों को शहरों के पास खुले स्थानों में फेंक दिया, जहां आवारा मवेशी अक्सर चरने जाते थे.
गुजरात में समखियाली जैसे कुछ जगहों पर शव गड्ढों में तो दफन किए गए थे लेकिन गड्ढे बहुत गहरे नहीं थे और कुत्तों के खोदने के कारण शव बाहर नजर आ रहे थे और उन पर मक्खियां भिनभिना रही थीं. जाहिर तौर पर ये मक्खियां रोग के प्रसार की ज्ञात वाहक हैं.
‘मिल्क कैपिटल’ ने कैसे बीमारी को फैलने से रोका
गुजरात कोऑपरेटिव मिल्क मार्केटिंग फेडरेशन लिमिटेड या अमूल के प्रबंध निदेशक आर.एस. सोढ़ी ने दिप्रिंट को बताया कि लंपी स्किन रोग ने वैसे तो पूरे गुजरात को बुरी तरह प्रभावित किया है लेकिन भारत की मिल्क कैपिटल कहे जाने जाने वाले आणंद जिले में दुग्ध उत्पादन पर बहुत कम असर पड़ा है.
संक्रमित गायों के दूध को मानव उपभोग के लिहाज से सुरक्षित ही माना जाता है क्योंकि यह रोग जूनोटिक (इंसान से जानवर या जानवर से इंसान में फैलने वाला) नहीं है. हालांकि, एलएसडी संक्रमित जानवर दूध कम देते हैं.
आणंद में, यद्यपि जानवर इस बीमारी की चपेट में तो आए लेकिन राज्य के कई अन्य हिस्सों की तरह गंभीर रूप से प्रभावित नहीं हुए.
अमूल के रिसर्च एंड डेवलपमेंट डिवीजन के सीईओ डॉ. संजय पटेल के मुताबिक, जानवरों के स्वास्थ्य, डिजीज रिपोर्टिंग के बुनियादी ढांचे और टीकाकरण पर दशकों से काफी ज्यादा निवेश करने का ही नतीजा है कि आणंद बीमारी के गंभीर प्रभाव से बचने में सफल रहा.
दशकों से, पशु चिकित्सक भी ग्रामीणों को गौशालाओं को साफ रखने और जानवरों को कीट मुक्त रखने के लिए प्रशिक्षित करते रहे हैं.
पटेल ने कहा, ‘गुजरात के बाकी हिस्सों, जहां किसान व्यक्तिगत डेयरी जरूरतों के लिए देशी गाय रखते हैं, के विपरीत आणंद के डेयरी किसानों के पास संकर मवेशी हैं. वैसे देखा जाए तो उन्हें बीमारी के प्रति अधिक संवेदनशील होना चाहिए. लेकिन चूंकि ये गायें अधिक महंगी हैं, इसलिए किसान इन्हें चरने के लिए बाहर नहीं जाने देते. वे सभी स्टॉल-फेड हैं, जिसकी वजह से भी उनके संक्रमित होने का जोखिम कम रहा है.’
उन्होंने कहा कि पिछले साल सभी जानवरों को गोट पॉक्स के टीके लगाए गए थे.
जिले में कृत्रिम गर्भाधान विशेषज्ञ गांव में संक्रमण का कोई मामला सामने आने पर इससे निपटने की भूमिका भी संभाल लेते हैं. इससे, संक्रमण का प्रारंभिक चरण में ही पता लग पाता है और आगे प्रसार रोकना संभव होता है.
जीसीएमएमएफ के एच.एस. राठौड़ ने कहा कि गोशालाओं या सड़क पर छुट्टा घूमने वाले जानवरों की तुलना में इन मवेशियों की पोषण प्रोफाइल भी बेहतर पाई गई है.
राठौर ने कहा, ‘मनुष्यों की तरह ही, अच्छी तरह से पोषित मवेशी भी बीमारी से बेहतर तरीके से लड़ने में सक्षम होते हैं. गौशालाओं में मवेशियों को अच्छी तरह खिलाया जा सकता है, लेकिन उन्हें अक्सर वे पोषक तत्व नहीं मिलते हैं जो आणंद में डेयरी के लिए इस्तेमाल होने वाली गायों को मिलते हैं.’
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प्रसार का पता लगाने की कोशिशें
जीनोमिक सीक्वेंसिंग यह समझने का सबसे ठोस तरीका है कि रोग कैसे फैलता है. विभिन्न स्थानों के वायरस के जीन में परिवर्तन को ट्रैक करना उसके फुटप्रिंट का पता लगाने जैसा और इसी से पता चल सकता है कि रोग कैसे फैलता है.
हालांकि, पहले आमतौर पर यह माना जाता था कि वायरस के नमूनों को सीक्वेंस करके एलएसडीवी के एक जगह से दूसरी जगह पहुंचने के बारे में पता लगाना संभव नहीं है.
पॉक्सवायरेसेज डीएनए वायरस हैं, जिनमें आमतौर पर सार्स-सीओवी-2 जैसे आरएनए वायरस की तुलना में म्यूटेशन की दर धीमी होती है. राजस्थान और गुजरात में जमीनी स्तर पर काम कर रहे पशु चिकित्सकों ने दिप्रिंट को बताया कि दरअसल पॉक्सवायरस में किसी खास म्यूटेशन की उम्मीद नहीं होती है, इसलिए नमूनों की सीक्वेंसिंग के प्रयास भी बहुत ज्यादा नहीं किए गए.
हालांकि, पूर्व में उल्लिखित सीएसआईआर-आईजीआईबी शोध में मौजूदा संक्रमण का कारण बने वायरस के वंश में बड़ी संख्या में म्यूटेशन पाए गए है. म्यूटेशन की तेज दर वैज्ञानिकों को इसके प्रसार का पता लगाने के लिए प्रेरित करेगी. म्यूटेशन का टीके की प्रभावकारिता, संक्रमण दर और रोग की गंभीरता पर भी प्रभाव पड़ता है.
सीएसआईआर-आईजीआईबी के शोधकर्ताओं ने बताया है कि एलएसडीवी के लिए उपलब्ध जीनोम सीक्वेंस की सीमित संख्या के कारण ही प्रकोप के सही स्रोत का पता नहीं लगाया जा सका है—यद्यपि राज्य के पशु चिकित्सा विभागों ने बीमार के प्रसार पर नजर बना रखी है लेकिन नमूनों की सीक्वेंसिंग के लिए कोई समन्वित प्रयास नहीं किए गए हैं.
शोधकर्ताओं ने आगे यह सुझाव भी दिया कि वायरस के अतिरिक्त जीनोम आगे महामारी की संभावनाओं को घटा सकते हैं और साथ ही मौजूदा प्रकोप के स्रोतों को जोड़ने में मददगार हो सकते हैं.
इस अप्रकाशित पेपर में कहा गया है, ‘अध्ययन का निष्कर्ष यही दोहराता है कि बीमारी का जल्द पता लगाने के साथ-साथ इस पर काबू पाने के कदम उठाने के लिए जरूरी है कि एलएसडी जैसी मौजूदा महामारी के दौरान महत्वपूर्ण ट्रांसबाउंडरी संक्रामक एजेंटों के सर्कुलेटिंग स्ट्रेन को चिह्नित करने के लिए जीनोमिक सर्विलांस पर ध्यान दिया जाए.’
(इस फीचर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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