scorecardresearch
Thursday, 6 November, 2025
होमफीचरबिहार में ‘विकास राज’ कैसा चल रहा है? सड़कें चमकीं, लेकिन क्लासरूम में दरारें, क्लीनिकों की हालत खराब

बिहार में ‘विकास राज’ कैसा चल रहा है? सड़कें चमकीं, लेकिन क्लासरूम में दरारें, क्लीनिकों की हालत खराब

20 साल की नीतीश सरकार के बाद भी, बिहार देश का सबसे कमज़ोर परफॉर्मेंस देने वाला राज्य बना हुआ है. स्वास्थ्य और शिक्षा में भारी बजट बढ़ोतरी के बावजूद रैंकिंग सबसे नीचे है.

Text Size:

लखीसराय: 1994 में जब मुकुल कुमार ने लखीसराय के बधाई ब्लॉक में एक सरकारी स्कूल में पढ़ाना शुरू किया, तब स्कूल की छत टपकती थी, ब्लैकबोर्ड टूटा हुआ था और बच्चे ज़मीन पर बैठते थे. तीन दशक बाद, अब दीवारों पर नया पेंट है, सफेद चमकदार व्हाइटबोर्ड लगा है, और लकड़ी के डेस्क लगे हैं, लेकिन मुकुल कुमार का कहना है कि पढ़ाई की गुणवत्ता आज भी नहीं बदली.

1994 से 2025 तक मुकुल कुमार की यह यात्रा, बिहार की बड़ी कहानी बताती है — ऊपरी बदलाव हुए, लेकिन सिस्टम वही का वही है. चाहे स्कूल हो या अस्पताल. इसका असर नौकरियों, पलायन और गरीबी पर साफ दिखाई देता है.

मुकुल कुमार के तीनों बेटे लखीसराय में नहीं पढ़े. वह पटना में स्कूल गए और फिर कॉलेज के लिए दिल्ली चले गए. मुकुल नहीं चाहते कि उनके बच्चे वापस बिहार लौटें, क्योंकि उन्हें यहां भविष्य नहीं दिखता.

उन्होंने कहा, “मैंने सरकारी स्कूल में पढ़ाई की, लेकिन अपने बच्चों को प्राइवेट स्कूल भेजा. उन्हें अच्छा भविष्य देने के लिए दिल्ली भेजा. बिहार को अभी बहुत आगे जाना है.” मुकुल की उम्र 61 साल है.

6 और 11 नवंबर को बिहार में चुनाव होने वाले हैं. और मुकुल वही कह रहे हैं जो बहुत लोग कह रहे हैं — बदलाव दिखता जरूर है, पर महसूस नहीं होता. यानी पहले स्कूल, अस्पताल, सड़कें नहीं थीं. अब हैं, लेकिन ठीक से काम नहीं करते.

पिछले 20 सालों में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सड़कें, पुल, बिजली जैसी चीज़ें बेहतर कीं. 1990 के दशक जैसा अंधेरा और अलगाव अब नहीं है, लेकिन इस बदलाव ने नौकरियों और अर्थव्यवस्था में उतना फायदा नहीं दिया.

बाहर से ‘विकास राज’ दिखता है, लेकिन लोगों की ज़िंदगी में ज्यादा बदलाव नहीं आया — यही इस चुनाव का मूड है.

लखीसराय की सड़क पर बीजेपी के पोस्टर लगे एक टेम्पो में प्रचार. इस चुनाव में पार्टी बार-बार कह रही है — ‘जंगल राज बनाम विकास राज’ और मोदी ने भी भाषणों में यही दोहराया है. | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट
लखीसराय की सड़क पर बीजेपी के पोस्टर लगे एक टेम्पो में प्रचार. इस चुनाव में पार्टी बार-बार कह रही है — ‘जंगल राज बनाम विकास राज’ और मोदी ने भी भाषणों में यही दोहराया है. | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट

मुकुल कुमार अपने दो-मंज़िला घर के बरामदे में बैठकर बताते हैं कि कुछ चीजें तो पहले से भी खराब हुई हैं — खासकर टीचर्स की क्वालिटी. उनके अनुसार, जब भर्ती बिहार पब्लिक सर्विस कमीशन (BPSC) की जगह स्थानीय पंचायतों से होने लगी, तो योग्यता से ज्यादा पहचान और सिफारिश काम करने लगी.

जवाबदेही कम हो गई है.

उन्होंने कहा, “इमारतें बेहतर हैं, डेस्क हैं, लेकिन टीचर्स अच्छे नहीं हैं. लालू के समय में BPSC से भर्ती होती थी. नीतीश जी के समय में भर्ती सरपंचों के हाथ चली गई. यही फर्क पड़ा.”

बिहार में बच्चे पढ़ाई के लिए बाहर जाने का चलन चार दशकों से है और पिछले 20 सालों में यह और बढ़ गया है. यहां का नियम जैसा हो गया है — स्कूल पूरा करो और बिहार छोड़ दो. नहीं छोड़ पाए तो कॉलेज के बाद छोड़ो.

लेकिन बिहार के 2.65 करोड़ प्रवासी लोगों में से ज्यादातर के लिए यह पलायन मजबूरी है, सपने वाला फैसला नहीं. कम पढ़ाई और कम कौशल की वजह से उन्हें बाहर कम पैसे वाली नौकरियां मिलती हैं और वे साल भर में औसतन सिर्फ 35,000 रुपये ही अपने घर भेज पाते हैं.

बिहार की सरकार ने स्कूल और अस्पताल तो बनाए, लेकिन उन पर निगरानी और गुणवत्ता पर ध्यान नहीं दिया — यही समस्या है

— सचिन संजय, असिस्टेंट प्रोफेसर, अर्थशास्त्र विभाग, पटना यूनिवर्सिटी

2005 से 2025 के बीच बिहार की प्रति व्यक्ति आय 7,000 से बढ़कर लगभग 60,000 रुपये हो गई. फिर भी बिहार देश का सबसे गरीब राज्य है.

नीति आयोग की एसडीजी रिपोर्ट 2023-24 में बिहार सबसे आखिरी स्थान पर था. शिक्षा में सबसे नीचे. स्वास्थ्य में भी सबसे खराब राज्यों में.

एनएफएचएस सर्वे (2005-2021) में भी बिहार हमेशा शिक्षा और स्वास्थ्य के निचले पायदान पर रहा — खासकर महिलाओं की पढ़ाई और बच्चों में कुपोषण में. यूएनडीपी की एटडीआई रिपोर्ट 2022 में भी बिहार भारत का सबसे नीचे वाला राज्य रहा.

ग्राफिक: मनाली घोष/दिप्रिंट
ग्राफिक: मनाली घोष/दिप्रिंट

शिक्षकों की भर्ती पर लगातार विरोध, परीक्षाओं में देरी, और अस्पताल स्टाफ की तनख्वाह व सुरक्षा को लेकर भी आंदोलन होते रहते हैं.

पटना यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के असिस्टेंट प्रोफेसर सचिन संजय ने कहा, “सरकार ने स्कूल, अस्पताल और स्वास्थ्य केंद्र तो बनाने शुरू किए, पर गुणवत्ता नहीं आई. स्वास्थ्य और शिक्षा को नौकरी देने वाला विभाग मान लिया गया. यही वजह है कि मानव संसाधन ‘मानव पूंजी’ में नहीं बदल पाया. स्कूल अच्छे दिखते हैं, लेकिन सरकारी स्कूलों में बच्चों की पढ़ाई की गुणवत्ता 15 साल पहले से भी खराब हो गई है.”

एजुकेशन रिपोर्ट कार्ड

39 साल के दानापुर के दुकानदार पुष्कर पासवान याद करते हैं कि वे 4 किलोमीटर पैदल चलकर स्कूल जाते थे, क्योंकि चार गांवों के लिए सिर्फ एक ही स्कूल था. उनके पास किताबें या कॉपी नहीं थीं — बस एक स्लेट और चॉक, जिसे उनकी मां ने सिलकर एक थैले में रखा था. उन्होंने सिर्फ 7वीं तक पढ़ाई की, लेकिन उनके बेटे को ऐसी दिक्कत नहीं है.

पासवान ने बताया, “मेरे बेटे को स्कूल से कॉपियां और बैग मिलता है. उसे इतना दूर नहीं चलना पड़ता. हमारे गांव में ही स्कूल है और वह दूसरे बच्चों के साथ वहीं जाता है.”

नीतीश कुमार की सरकार के दौरान अब लगभग हर गांव में स्कूल है. चुनाव से पहले सरकार अपने इन्हीं कामों की खूब बात कर रही है. अगस्त में नीतीश ने एक्स पर लिखा कि 2005 में बिहार का शिक्षा बजट 4,366 करोड़ था, जो 2025 में बढ़कर 77,690 करोड़ हो गया है — यानी लगभग 18 गुना.

2005 में स्कूलों में कुल नामांकन लगभग 1.4 करोड़ था, जो 2024-25 में बढ़कर 2.11 करोड़ हो गया, लेकिन केंद्र सरकार की नई UDISE+ रिपोर्ट बताती है कि 2023-24 में बिहार में सरकारी स्कूलों में सबसे ज्यादा गिरावट आई — 28.9 लाख बच्चे कम हो गए. अधिकारियों ने दिप्रिंट को बताया कि यह इसलिए हुआ क्योंकि कोविड के समय लौटे लोग अब वापस बाहर चले गए.

लखीसराय के एक सरकारी स्कूल में एक तरफ रखे टूटे-बेंच. कागज़ों में ढांचा सुधरा है, लेकिन देखरेख और पढ़ाई की गुणवत्ता कमज़ोर है. | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट
लखीसराय के एक सरकारी स्कूल में एक तरफ रखे टूटे-बेंच. कागज़ों में ढांचा सुधरा है, लेकिन देखरेख और पढ़ाई की गुणवत्ता कमज़ोर है. | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट

मुकुल कुमार बताते हैं कि 1990 के दशक में जब वे टीचर बने थे, तब उन्हें बहुत दुख होता था क्योंकि सरकार का कोई ध्यान नहीं था, टीचर्स स्कूल में नहीं रहते थे और बच्चों के पास पढ़ाई का कोई साधन नहीं था. उन्होंने कहा, “मुझे याद है शिक्षक आते थे, एक घंटा बैठते थे और घर चले जाते थे. उस समय क्लास को संभालने का काम सबसे समझदार बच्चे करते थे.”

नीतीश के सीएम बनने के बाद कुछ बदलाव हुए, “बच्चों को सरकार की तरफ से ड्रेस और छात्रवृत्ति मिली. इससे स्कूल में दाखिले बढ़े.”

एक और मशहूर योजना 2006 में शुरू हुई — स्कूल जाने वाली लड़कियों को साइकिल देना. यह प्लान इतना सफल हुआ कि ज़ाम्बिया जैसे दूसरे देशों ने भी इसे अपनाया. 2016 की एक स्टडी ने पाया कि इससे लड़कियों और लड़कों के स्कूल जाने के बीच का अंतर 40% तक कम हुआ, खासकर उन गांवों में जो हाई स्कूल से 3 किमी दूर थे.

इमारतें बेहतर हैं, डेस्क हैं, लेकिन टीचर्स की क्वालिटी खराब हो गई है. लालू के समय में भर्ती BPSC से होती थी. नीतीश जी के समय भर्ती सरपंच के हाथ में चली गई. यही फर्क पड़ा

— मुकुल कुमार, टीचर

लेकिन अब 20 साल बाद सवाल यह है कि उन साइकिल वाली लड़कियों का क्या हुआ?

दसवीं क्लास के बाद लड़कियों का छोड़ने का दर अब भी 30% से ज्यादा है (UDISE+ 2021–22). 18-23 साल की सिर्फ 14% लड़कियां ही कॉलेज में हैं, जो भारत में सबसे कम में से है (AISHE 2022).

सचिन संजय ने कहा, “साइकिल योजना ने बिहार को विश्व में नाम दिलाया, लेकिन 20 साल बाद भी न तो लड़कियों की नौकरी बढ़ी और न ही हाई एजुकेशन में संख्या बढ़ी.”

उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी में अपने क्लासरूम में यह भी देखा है कि बच्चों की समझ और सीखने की क्षमता पहले से कम हो गई है.

संजय ने कहा, “अब जो बच्चे स्कूल पूरा करके आते हैं, उनमें वह नॉलेज नहीं होती जो 15 साल पहले होती थी. इसका मतलब है कि ढांचा तो बना, लेकिन पढ़ाई की गुणवत्ता सुधरी नहीं — बल्कि खराब हुई है.”

पिछले साल पटना के एक सरकारी स्कूल में बच्चे छत से बारिश टपकने की वजह से छाता लगाकर क्लास कर रहे हैं | एएनआई
पिछले साल पटना के एक सरकारी स्कूल में बच्चे छत से बारिश टपकने की वजह से छाता लगाकर क्लास कर रहे हैं | एएनआई

ASER 2024 रिपोर्ट बताती है कि बिहार में कुछ सुधार तो है, लेकिन मुश्किलें बड़ी हैं: कक्षा 5 के सिर्फ 41.2% बच्चे कक्षा 2 की कहानी पढ़ सकते हैं. (2022 में यह 37.1% था — थोड़ा सुधार हुआ है, पर राष्ट्रीय औसत 44.8% है.)

गणित में कक्षा 3 के सिर्फ 28.2% बच्चे साधारण घटाव कर पाते हैं. (राष्ट्रीय औसत 33.7% है.)

डिजिटल शिक्षा में भी बड़ी कमी है: बिहार के सिर्फ 25% स्कूलों में कंप्यूटर हैं. जबकि राष्ट्रीय औसत 64.7% है.

उच्च शिक्षा में भी हालत खराब है. मार्च में बिहार विधानसभा में पेश CAG रिपोर्ट के अनुसार, 2017-2022 के बीच 22,576 करोड़ के बजट में से 18% पैसा खर्च ही नहीं हुआ — यानी प्लान कागज पर था, जमीन पर नहीं.

बिहार के दानापुर में एक सरकारी स्कूल के छात्र. ज़्यादा एनरोलमेंट और लर्निंग लेवल में कुछ सुधार के बावजूद, राज्य अभी भी पीछे है | दिप्रिंट
बिहार के दानापुर में एक सरकारी स्कूल के छात्र. ज़्यादा एनरोलमेंट और लर्निंग लेवल में कुछ सुधार के बावजूद, राज्य अभी भी पीछे है | दिप्रिंट

इसके अलावा, 11 विश्वविद्यालयों में 57% शिक्षकों की पोस्ट खाली पाई गईं.

कुछ सुधारों ने समस्या बढ़ा भी दी.

सबसे बड़ी समस्या बनी नियोजित शिक्षक बहाली की प्रणाली.

ऐसा कहा जाता है, नीतीश सरकार ने 2000 के दशक के बीच BPSC से भर्ती हटाकर पंचायतों से भर्ती शुरू कर दी (नियोजित शिक्षक योजना). इससे भर्ती तो जल्दी हुई, लेकिन गुणवत्ता और जवाबदेही गिर गई.

मुकुल कुमार ने कहा, “हमने परीक्षा देकर नौकरी ली, लेकिन नियोजित प्रक्रिया में ऐसे लोग भी आए जो बेसिक चीज़ें नहीं जानते थे. इससे पढ़ाई की गुणवत्ता खराब हुई.”

मई 2025 की एक रिसर्च स्टडी ने लिखा कि इस सिस्टम की वजह से गरीब और वंचित बच्चे सबसे नुकसान में रहते हैं, क्योंकि उन्हें हमेशा कमज़ोर स्कूल, कम शिक्षक, और कम संसाधन मिलते हैं.


यह भी पढ़ें: फ्रंट बेंचर से बिहार के ‘X फैक्टर’ तक: कैसे रहा ‘टू-टू भाई’ प्रशांत किशोर का सफर


स्वास्थ्य सेवा — बजट बड़ा, लेकिन फायदा कम

दानापुर के पास एक गांव में प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र का गेट जंग खाया हुआ है और ताला लगा रहता है. बाहर बोर्ड पर समय लिखा है, लेकिन अंदर कोई नहीं मिलता.

56 साल के किसान रंभजन कुमार को कुछ हफ्ते पहले तेज़ बुखार हुआ था. वह पहले पीएचसी गए, लेकिन वह बंद था. मजबूरी में उन्हें एक प्राइवेट क्लिनिक जाना पड़ा. वहां टाइफाइड बताया गया और 1,200 रुपये खर्च कराने पड़े, जो उनके लिए बहुत मुश्किल था. गांव के ज्यादातर लोग अब सरकारी केंद्र जाने की कोशिश भी नहीं करते.

सरपंच चंदन कुमार कहते हैं कि यह “मुर्गी-अंडा” वाली स्थिति है— सरकारी अस्पताल इसलिए बंद रहता है क्योंकि लोग भरोसा नहीं करते, और लोग भरोसा इसलिए नहीं करते क्योंकि अस्पताल हमेशा बंद रहता है.

उन्होंने बताया, “मैंने कुछ दिन पहले कहा भी था कि सेंटर खोला जाए. नर्स ने भी कहा — ‘आपने मुझे यहां बिठा दिया, पर मैं क्या करूं जब कोई मरीज आता ही नहीं.’ फिर सेंटर फिर से बंद हो गया. लोग यहीं नहीं आते. वे सीधे प्राइवेट अस्पताल जाते हैं.”

राम स्वरथ सिंह, 35 साल तक कंपाउंडर रहे. 1990 में वह ही गांव का ‘डॉक्टर’ जैसा काम करते थे. आज भी बिहार में हर 2,148 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर है, जबकि WHO के हिसाब से 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट
राम स्वरथ सिंह, 35 साल तक कंपाउंडर रहे. 1990 में वह ही गांव का ‘डॉक्टर’ जैसा काम करते थे. आज भी बिहार में हर 2,148 लोगों पर सिर्फ एक डॉक्टर है, जबकि WHO के हिसाब से 1,000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट

बड़े अस्पतालों में भी यही हालत है.

लखीसराय का VIMS अस्पताल भी अक्सर डॉक्टरों से खाली रहता है.

30 साल के टेक्नीशियन कुंदर कुमार ने कहा, “अगर आपके पास पहचान या सिफारिश नहीं है, तो सही इलाज नहीं मिलता, जहां सात डॉक्टर होने चाहिए, वहां मुश्किल से एक मिलता है — वो भी जूनियर. यही नया बिहार है.”

69 साल के राम स्वरथ सिंह बताते हैं कि 90 के दशक में हाल इससे भी खराब था. आसपास कोई अस्पताल नहीं था. लोग छोटी बीमारी के लिए भी पटना जाते थे.

उन्होंने कहा, “डॉक्टर प्रिस्क्रिप्शन ऐसी दवाइयों का लिखते थे जो सिर्फ एक ही प्राइवेट दुकान पर मिलती थीं. अस्पताल के बाहर कुछ एजेंट भी होते थे, जो गंभीर मरीजों को प्राइवेट अस्पताल भेज देते थे और हर मरीज पर 500 रुपये की कमीशन लेते थे.”

पिछले दो दशक में सरकार ने खर्च बढ़ाया है और डॉक्टरों की भर्तियां भी की हैं, लेकिन पुरानी समस्याएं पूरी तरह खत्म नहीं हुईं.

2005 में स्वास्थ्य बजट 278 करोड़ था, जो अब 2025 में बढ़कर 20,000 करोड़ से ज्यादा हो गया है. कुल खर्च का 6.6% स्वास्थ्य पर, जो राज्यों के औसत 6.2% से थोड़ा अधिक है.

लेकिन, CAG की 2024 रिपोर्ट बताती है कि 2016-17 से 2021-22 तक, बिहार ने स्वास्थ्य बजट का सिर्फ 69% ही खर्च किया. 21,743 करोड़ इस्तेमाल ही नहीं किया गया. 13,000 से ज्यादा पदों पर भर्तियां भी बाकी थीं. जिन 4 सब-डिस्ट्रिक्ट अस्पतालों का ऑडिट हुआ — उनमें किसी में भी ऑपरेशन थिएटर ठीक से काम नहीं कर रहा था.

पटना के पास एक प्राइवेट अस्पताल. गांवों और कस्बों के लोग अक्सर सरकारी अस्पतालों की कमी के कारण प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं. | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट
पटना के पास एक प्राइवेट अस्पताल. गांवों और कस्बों के लोग अक्सर सरकारी अस्पतालों की कमी के कारण प्राइवेट अस्पतालों में जाते हैं. | फोटो: मोहम्मद हम्माद/दिप्रिंट

राज्य में अभी भी हर 2,148 लोगों पर एक डॉक्टर है — WHO के मानक से काफी कम.

पहले स्तर की स्वास्थ्य सेवा गांवों में ठीक नहीं है, इसलिए छोटी-छोटी बीमारियाँ भी सीधे डिस्ट्रिक्ट अस्पतालों पर भार बढ़ा देती हैं.

संजय ने कहा, “बेहतर स्वास्थ्य व्यवस्था चाहिए तो गांव स्तर पर PHC को मजबूत करना होगा. अभी ज्यादातर PHC सिर्फ आशा वर्कर्स के भरोसे चल रहे हैं.”

छिपे हुए खर्च

सालों से बिहार की शिक्षा और स्वास्थ्य व्यवस्था में कई घोटाले सामने आते रहे हैं— शिक्षक भर्ती घोटाला, पेपर लीक घोटाला, गर्भाशय निकलवाने का घोटाला, ‘किडनी कांड’ और अब हाल ही में एम्बुलेंस घोटाले का आरोप, जो इस चुनाव में बड़ा मुद्दा बना हुआ है.

लेकिन इन बड़े मामलों के पीछे एक छोटा लेकिन रोज़ाना होने वाला भ्रष्टाचार भी है, जिसे अब लोग मानो सामान्य बात समझने लगे हैं.

दिसंबर 2024 में एक स्कूल प्रिंसिपल का वीडियो सामने आया, जिसमें वह मिड-डे मील के लिए आए अंडों को डिलीवरी वैन से अपने लिए ले जाते दिखा. जांच में यह सही पाया गया. स्थानीय नाराज़गी के बाद इस पर कार्रवाई करनी पड़ी.

शिक्षक मुकुल कुमार ने कहा, “बच्चों का खाना हड़पना भ्रष्टाचार की सबसे साफ मिसाल है. यहीं से यह कड़ी शुरू होती है. खाना बच्चों तक जाने से पहले ही रास्ते में गायब हो जाता है.”

कई शिक्षक बताते हैं कि उन्हें अपनी सैलरी या बकाया पैसे निकलवाने के लिए अधिकारियों को रिश्वत देनी पड़ती है. अप्रैल में, पटना जिला शिक्षा कार्यालय में एक क्लर्क को एक शिक्षक से 15,000 रिश्वत लेते पकड़ा गया, ताकि उसका वेतन बकाया जल्दी निपटा दिया जाए.

वरिष्ठ शिक्षक निर्मल आनंद ने बताया, “उस शिक्षक से कहा गया था कि कुल बकाया राशि का 15% देना होगा. उसकी सैलरी बकाया 5.5 लाख था. पहले 82,000 मांगे गए, फिर बात 15,000 पर तय हुई.”

नालंदा में किसान सोहन लाल (बैठे हुए) कहते हैं, “लालू के समय जंगल राज कहा जाता था, अब मोदी जी विकास राज की बात कर रहे हैं. देखते हैं, क्या बिहार में सच में ऐसा हो सकता है.” | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट
नालंदा में किसान सोहन लाल (बैठे हुए) कहते हैं, “लालू के समय जंगल राज कहा जाता था, अब मोदी जी विकास राज की बात कर रहे हैं. देखते हैं, क्या बिहार में सच में ऐसा हो सकता है.” | फोटो: नूतन शर्मा/दिप्रिंट

इस साल राज्य के शिक्षा विभाग ने मिड-डे मील योजना की गड़बड़ियों में 5,100 से ज़्यादा हेडमास्टर्स पर 10.87 करोड़ का जुर्माना लगाया, लेकिन पांच महीने बाद भी ज़्यादातर ने पैसा जमा नहीं किया.

पटना के एक शिक्षक ने नाम न छापने की शर्त पर कहा, “यहां कौन आदेश मानता है? शिक्षक से लेकर अधिकारी और नेता तक—सब कहीं न कहीं भ्रष्ट हैं. रिश्वत दो और काम करवा लो.”

स्वास्थ्य विभाग में भी यही हाल है.

पटना के बाढ़ ब्लॉक में सरकारी स्वास्थ्य केंद्र पर मरीजों ने बताया कि वहां फ्री दवाएं मिलती ही नहीं.

राम स्वरथ सिंह बताते हैं, “डॉक्टर ऐसी दवा लिखते हैं जो पास की सिर्फ एक प्राइवेट दुकान पर ही मिलती है और अस्पताल के बाहर एजेंट होते हैं — जो गंभीर मरीज को प्राइवेट अस्पताल भेज देते हैं. हर मरीज पर उन्हें 500 रुपये मिलते हैं.”

स्कूलों में फर्जी उपस्थिति रजिस्टर से लेकर PHC में फर्जी बिलिंग तक — छोटा-छोटा भ्रष्टाचार बिहार की विकास कहानी में धागे की तरह बुन गया है.

सचिन संजय ने कहा, “बिहार के शासन मॉडल ने शिक्षा और स्वास्थ्य तक पहुँच तो बढ़ाई, लेकिन जवाबदेही नहीं बढ़ाई.”

नालंदा जिले के पावा पुरी गांव में पेड़ की छांव में बैठे लोगों ने कहा कि बिहार में बहुत कुछ बदला नहीं.

किसान सोहन लाल ने कहा, “लालू के समय सब जंगल राज था. अब मोदी जी विकास राज की बात कर रहे हैं. देखते हैं, क्या बिहार में सच में ऐसा हो पाएगा.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: जानिए, बिहार की जीविका दीदियों ने सरकार से मिले 10,000 रुपये कैसे खर्च किए


 

share & View comments