नई दिल्ली: आईआईटी दिल्ली में प्रोफेसर धन्या सीटी के ऑफिस में एक कंप्यूटर मॉनिटर पर दिल्ली का स्ट्रीट मैप दिख रहा है. इसमें ट्रैफिक जाम वाली लाल लाइनें या मेट्रो स्टेशन के पिन नहीं हैं. बल्कि स्क्रीन पर अलग-अलग रंगों के डॉट्स चमक रहे हैं. यह शहरी बाढ़ का अर्ली वार्निंग सिस्टम है, जो एक दिन बारिश के मौसम में दिल्ली वालों को ट्रैफिक से बचा सकता है और जलभराव प्रबंधन में अहम डेटा दे सकता है.
धन्या ने बताया, “हमने दिल्ली के स्टॉर्मवॉटर ड्रेनेज नेटवर्क का इस्तेमाल करके यह सिस्टम बनाया. जैसे-जैसे बारिश आगे बढ़ेगी, अलग-अलग जंक्शनों पर रंगीन डॉट्स दिखेंगे.” सिस्टम का पायलट बारापुला बेसिन में किया गया, जो यमुना के पश्चिमी किनारे पर सेंट्रल और साउथ दिल्ली को कवर करता है. लाजपत नगर, डिफेंस कॉलोनी, मिंटो ब्रिज और सरिता विहार जैसे इलाके हर साल बाढ़ की चपेट में आते हैं.
मॉनसून में भारतीय शहरों में जलभराव आम है, इसलिए स्थानीय निकाय अब तकनीकी संस्थानों और स्टार्टअप्स की मदद ले रहे हैं. दिल्ली, बेंगलुरु और कानपुर में रियल-टाइम अलर्ट से लेकर ड्रोन-आधारित सर्वे तक कई प्रोजेक्ट टेस्ट हो रहे हैं.
दक्षिण भारत के शहरों में ड्रोन से बाढ़ का आकलन हो रहा है. बेंगलुरु की स्कायलार्क ड्रोन कंपनी कर्नाटक और आंध्र प्रदेश सरकार के साथ बेंगलुरु और विजयवाड़ा में शहरी बाढ़ प्रोजेक्ट पर काम कर रही है. कंपनी की मैनेजर सुचरिता आर ने कहा, “पहले मैपिंग सैटेलाइट या फील्ड सर्वे से होती थी. अब सरकारें हाई-रेजोल्यूशन ड्रोन डेटा का महत्व समझ रही हैं.”
अप्रैल 2025 में केंद्रीय जल आयोग (सीडब्ल्यूसी) ने आईआईटी दिल्ली के साथ जल संसाधन प्रबंधन के लिए एमओयू किया. सीडब्ल्यूसी चेयरमैन डॉ. मुकेश कुमार सिंहा ने कहा कि यह साझेदारी इनोवेशन और छात्रों के लिए वास्तविक प्रोजेक्ट के मौके देगी.

ड्रोन की मदद
सितंबर 2022 में बेंगलुरु की एप्सिलॉन रेजिडेंशियल विला की तस्वीरें वायरल हुईं. वजह उनका करोड़ों का दाम नहीं बल्कि बाढ़ के पानी में डूबी बेंटली और बीएमडब्ल्यू कारें थीं. मूसलाधार बारिश से पूरा कंपाउंड जलमग्न हो गया था और निवासियों को नाव और ट्रैक्टर से निकाला गया. देश की टेक्नोलॉजी कैपिटल कही जाने वाली इस जगह की ये तस्वीरें चौंकाने वाली थीं. स्काईलार्क ड्रोन अब इस शहर की बाढ़ की समस्या को हमेशा के लिए हल करना चाहता है.
2015 में स्थापित इस बेंगलुरु-आधारित कंपनी ने सरकार के साथ साझेदारी कर शहर का बाढ़ आकलन शुरू किया है. शुरुआत ड्रोन सर्वे से हुई. लेकिन यह सिर्फ कैमरा उड़ाकर फोटो लेने जैसा आसान नहीं है. स्काईलार्क के ड्रोन बेहद विस्तृत, सड़क-स्तरीय तस्वीरें लेते हैं और इन्हें थर्ड पार्टी डेटा से मिलाते हैं.
सुचरिता ने कहा, “पहले हम सेंटीमीटर-स्तरीय सटीकता के साथ हाई-रिज़ॉल्यूशन डेटा लेते हैं—ताकि हम कारों की संख्या गिन सकें, पेड़ की मोटाई माप सकें.” इसके बाद इसमें स्टॉर्मवॉटर ड्रेन नेटवर्क, मिट्टी की स्थिति और आईएमडी के 50 साल के ऐतिहासिक बारिश के आंकड़े मिलाए जाते हैं.
डेटा मॉडल में डालने के बाद निचले और बाढ़-प्रवण इलाकों की पहचान की जाती है. अगर किसी जगह पर जलभराव होता है तो स्थानीय निकाय निवारण की योजना बना सकते हैं—जैसे ज्यादा नालियां, जल-संग्रहण तालाब या झीलों का पुनर्जीवन. सबसे अहम आउटपुट है अलग-अलग बारिश की तीव्रता के हिसाब से बाढ़ की गहराई और गति के नक्शे.
सुचरिता ने बताया, “यह जानना कि पानी कितना गहरा है और कितनी तेजी से बह रहा है, अधिकारियों को निवारण रणनीति के लिए समय का अंदाजा लगाने में मदद करता है.”
सर्वे में दो अहम क्षेत्र सामने आए—नगवारा (मण्याता टेक पार्क के पास) और एचएसआर लेआउट. बाढ़ के कारणों में नालियों का जाम होना, प्राकृतिक नालों पर अतिक्रमण और जल-संग्रहण सिस्टम की कमी शामिल थी. स्काईलार्क केवल सुझाव दे सकता है. कार्रवाई बीबीएमपी और बीडब्ल्यूएसएसबी को करनी है.
ड्रोन के आने से पहले सैटेलाइट मैपिंग का मुख्य साधन थे, लेकिन शहरी बाढ़ आकलन में ये कम पड़ते हैं. तस्वीरों में ग्राउंड लेवल की डिटेल और स्पष्टता की कमी होती है.
आईआईटी कानपुर में टेराएक्वा यूएवी के संस्थापक प्रोफेसर राजीव सिंहा ने कहा, “सैटेलाइट मानसून में बादलों को पार नहीं कर पाते. एसएआर सैटेलाइट बादलों को पार कर पानी की पहचान करते हैं, लेकिन इनकी रिज़ॉल्यूशन कम होती है.” इसके अलावा, सैटेलाइट की रिपीट साइकिल लंबी होती है और वे बाढ़ की गहराई नहीं बता सकते.
सिंहा की टीम ने गंगा के दोनों ओर कानपुर के आसपास 3,700 हेक्टेयर इलाके का ड्रोन सर्वे किया और फ्लड इनंडेशन मॉडल बनाया. यह मॉडल नदी में अलग-अलग जगहों पर जलस्तर के डेटा से जोड़ा जा सकता है, जिससे बेहतर और पहले से बाढ़ का आकलन हो सके.

आठ महीने का पायलट प्रोजेक्ट खत्म हो गया है, लेकिन जल संसाधन विभाग और नगर आयुक्त ने विस्तार में रुचि दिखाई है. बड़े स्तर पर ड्रोन संचालन महंगा है और बड़े इलाकों के लिए खास विमान चाहिए. फिलहाल सिंहा जिले-दर-जिले काम से संतुष्ट हैं.
सिंहा ने कहा, “हम पैसे कमाने के लिए अरबों डॉलर की तलाश में नहीं हैं. और हम संगठनों से यह नहीं कह रहे कि वे तकनीक के लिए 10 साल इंतजार करें. हम समाधान दे रहे हैं—अब उन्हें इसे लागू करना है.”
प्राइवेट प्लेयर्स
नोएडा स्थित वेदर फोरकास्टिंग संगठन स्काइमेट की वेबसाइट पर नक्शे, ब्लॉग पोस्ट और डेटा प्वाइंट्स भरे हुए हैं—नमी, वर्षा, हवा और पूरे देश में बारिश का वितरण. कंपनी अपने 6,000 से अधिक ऑटोमैटिक वेदर स्टेशंस (AWS) का उपयोग करके आम जनता को बाढ़ के अलर्ट देती है.
स्काइमेट के वाइस प्रेसिडेंट (मौसम विज्ञान और जलवायु परिवर्तन) महेश पलावत ने कहा, “हम अपनी वेबसाइट, ऐप और यूट्यूब चैनल के जरिए रोजाना अलर्ट देते हैं. हमारे बिजली गिरने का पता लगाने वाले उपकरण गरज वाले बादलों की गतिविधि को ट्रैक करते हैं और हम छोटी या मध्यम अवधि की भविष्यवाणी दे सकते हैं.”

निजी मौसम संगठनों का बढ़ता नेटवर्क अब ज्यादा विस्तृत और हाइपरलोकल फोरकास्ट दे रहा है. स्काइमेट के यूट्यूब चैनल के 16.5 लाख से अधिक सब्सक्राइबर हैं. कंपनी रोज दो वीडियो पोस्ट करती है, जिनमें शहरी इलाकों में अचानक मौसम बदलने और संभावित बाढ़ की जानकारी होती है. पलावत ने बताया कि अपने वेदर स्टेशनों के अलावा वे आईएमडी, डॉपलर रडार और सैटेलाइट डेटा का इस्तेमाल करते हैं.
यूट्यूब वीडियो पर दर्शकों के कमेंट अलग-अलग होते हैं—कुछ सूखे क्षेत्रों में बारिश की उम्मीद जताते हैं तो कुछ बारिश थमने का अलर्ट मांगते हैं. हिंदी वीडियो के अधिकांश दर्शक राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश के किसान हैं, जो बाढ़ के अलर्ट के लिए अपडेट पर निर्भर रहते हैं.
नगर निकायों से कोई साझेदारी नहीं है, लेकिन निजी क्षेत्र में इनके ग्राहक हैं. ऊर्जा कंपनियां भारी बारिश और बाढ़ के डेटा के आधार पर बिजली उत्पादन का आकलन करती हैं.
सुधार और एआई इंटीग्रेशन
पिछले साल आईआईटी दिल्ली कैंपस में मानसून का मौसम मुश्किल भरा था. भारी बारिश से रनऑफ और जलभराव हो गया, जिसके लिए संस्थान पूरी तरह तैयार नहीं था. इस घटना ने प्रोफेसर धन्या सीटी और उनकी टीम को अपने अर्ली वार्निंग सिस्टम को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया.
धन्या ने कहा, “सिर्फ 2-3 घंटे बारिश हुई, लेकिन एक घंटे में इतनी तेज हुई कि रनऑफ बन गया.” लैब्स में 1.52 मीटर पानी भर गया और दिनों तक रहा, जिससे दशकों का रिसर्च और सबूत नष्ट हो गए.
टीम ने मल्टी-टियर ड्रेनेज प्लान बनाया, जिसमें बुनियादी सुधार से लेकर प्राकृतिक नालों पर बने निर्माण को सही करना शामिल था. ग्रीन रूफ, पारगम्य पक्की सतह और ग्रेविटी-बेस्ड ड्रेनेज की सिफारिश की गई.
कैंपस के हर हिस्से का डेटा इकट्ठा किया गया, जो एक बड़े पांच वर्षीय प्रोजेक्ट का हिस्सा था. फरवरी 2019 में शुरू हुए इस प्रोजेक्ट का लक्ष्य राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में जल सुरक्षा बढ़ाना था. इसमें कोलंबिया, मलेशिया, इथियोपिया और भारत शामिल थे और इसे यूके के ग्लोबल चैलेंजेज रिसर्च फंड ने फंड किया था.
धन्या ने बताया कि 2015 में छात्रों ने बारापुला बेसिन के ड्रेनेज मैप को ठीक किया. यह काम उस प्रोजेक्ट का हिस्सा था जो दिल्ली की मास्टर ड्रेनेज प्लान बनाने के लिए आईआईटी दिल्ली को सौंपा गया था, जिसे आखिरी बार 1976 में तैयार किया गया था.
आईएमडी की बारिश की भविष्यवाणी को ड्रेनेज नेटवर्क मैप में डालकर शहर के बाढ़ वाले हिस्सों की पहचान की गई. 2024 में रिसर्च के दौरान सिस्टम ने पंडारा रोड, महार्षि रमण मार्ग, प्राइम चौक और आरके पुरम जैसे बाढ़ग्रस्त इलाकों को हाइलाइट किया.
धन्या ने कहा, “यह एक बहुत ही शुरुआती मॉडल है, लेकिन प्रयोग के स्तर पर तैयार है.” सटीकता जांचने के लिए और सुधार की जरूरत है. डेटा की कमी दूर करने के लिए 2022 में ‘आब प्रहरी’ नाम का मोबाइल ऐप लॉन्च किया गया, जिसमें नागरिक जलभराव की लोकेशन और तस्वीर अपलोड कर सकते थे. लेकिन ऐप ज्यादा लोकप्रिय नहीं हो पाया.
जल सुरक्षा प्रोजेक्ट 2024 में खत्म हो गया, लेकिन अर्ली वार्निंग सिस्टम पर काम जारी है. इसमें एआई और मशीन लर्निंग को जोड़ा जा रहा है और केंद्रीय जल आयोग के साथ एमओयू के बाद सरकारी निकाय भी इसके महत्व को समझ रहे हैं.
(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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