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Friday, 28 March, 2025
होमफीचरबैंड, बाजा, बारात और बंदूक: कैसे NCR में फायरिंग की घटनाओं ने शादियों की रौनक को मातम में बदल दिया

बैंड, बाजा, बारात और बंदूक: कैसे NCR में फायरिंग की घटनाओं ने शादियों की रौनक को मातम में बदल दिया

खून-खराबा, अफरातफरी, सन्नाटा. और बाराती नाचते रहे.

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गाजियाबाद: अंश ने अभी-अभी रोना बंद किया था, उसकी नम आंखें नीचे बारात पर टिकी थीं. अपने पिता की गोद में लेटा ढाई साल का बच्चा, तीसरी मंजिल की बालकनी से चमकती रोशनी, नाचते हुए लोगों और चार डीजे की तेज़ धुन पर नशे में धुत जयकारों को देख रहा था.

और फिर, एक सेकंड में, अंश की मौत हो गई. अब वह कभी नहीं रोएगा.

एक गोली उसके छोटे से सिर को चीरती हुई निकल गई. खून. अराजकता. सन्नाटा. एक अकल्पनीय शांति.

अंदर, उसकी मां रात का खाना बना रही थी. उसके चाचा दूसरे बच्चे की देखभाल कर रहे थे. बाहर, बेखबर बारात नाच रही थी.

घर में दहशत का माहौल था. चीखें, खौफ में डूबी गईं. वे उसे अस्पताल ले गए, उसका 34.8 इंच का शरीर हताश बाहों में था. लेकिन डॉक्टरों के शब्द अंतिम थे. उनका इकलौता बेटा चला गया था. और उसकी जगह सन्नाटा पसर गया.

“मेरा इकलौता बेटा चला गया. अब मैं बस यही चाहता हूं कि किसी और माता-पिता को यह सब न सहना पड़े,” विकास शर्मा ने कहा, उनकी आवाज़ उस रात के बोझ से दबी हुई थी.

बड़ी-बड़ी भारतीय शादियों की चमकती रोशनी और गरजते संगीत के नीचे एक जानलेवा रिवाज़ है: गोलियां. जो कभी खुले मैदानों में उत्सव का प्रतीक था, अब भीड़-भाड़ वाली गलियों में एक खामोश हत्यारा बन गए हैं, जो खुशी के पलों को मातम में बदल रहे हैं. आवारा गोलीबारी मासूम लोगों की जान ले लेती हैं, बच्चे बालकनी से देखते रहते हैं, भीड़ में अनजान मेहमान या फिर दूल्हा-दुल्हन अपने मिलन का जश्न मनाने की रस्मों में उलझ जाते हैं.

पिछले महीने, नोएडा और गाजियाबाद में जश्न में की गई गोलीबारी के कारण पांच से ज़्यादा दुर्घटनाएं हुई हैं—मर्दानगी और ताकत का एक ऐसा रिवाज़ जो उत्तर भारत के कई ग्रामीण और अर्ध-शहरी इलाकों में आम है. शस्त्र (संशोधन) अधिनियम 2019 के तहत सख्त कानूनों के बावजूद, प्रवर्तन कमज़ोर बना हुआ है और न्याय अक्सर दरारों में फंस जाता है.

बॉलीवुड फ़िल्मों ने जश्न में की गई गोलीबारी की इस संस्कृति को और मज़बूत किया है. तनु वेड्स मनु (2011), गैंग्स ऑफ वासेपुर (2012), ओमकारा (2006) और बैंडिट क्वीन (1994) जैसी फिल्मों में खुशी और उत्साह से भरी शादी की बारातों में गोलीबारी के दृश्य आम तौर पर देखने को मिलते हैं. बड़े पर्दे पर जो दिखाया जाता है, हकीकत अक्सर दुखद हो जाती है.

नोएडा और गाजियाबाद जैसी जगहों पर, परिवार इस लापरवाही का बोझ उठाते हैं, एक पिता अपने खोए हुए बेटे के लिए शोक मनाता है, और दूसरा अस्पताल के बाहर बेचैनी से इंतजार करता है. 2019 के शस्त्र (संशोधन) अधिनियम ने सख्त आग्नेयास्त्र नियम पेश किए. कानून शादियों और सार्वजनिक समारोहों में बंदूकों पर प्रतिबंध लगाता है, जिससे जश्न मनाने के लिए गोली चलाना दंडनीय अपराध बन जाता है. यह अवैध हथियार रखने के लिए कठोर दंड भी देता है, जिसमें सात साल से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा हो सकती है. इसके अलावा, व्यक्ति अब तीन के बजाय केवल दो हथियार रख सकते हैं, और हथियारों की तस्करी और अवैध हथियारों के निर्माण से निपटने के लिए सख्त उपाय पेश किए गए हैं. इन कानूनों के बावजूद, घटनाएं जारी हैं और प्रवर्तन एक चुनौती बना हुआ है.

गाजियाबाद में हाल ही में एक मामले में, दूल्हे हिमांशु चौधरी ने अपनी शादी में अपने दोस्त के साथ जश्न में गोलियां चलाईं. उसे धारा 51 के तहत गिरफ्तार किया गया और जमानत मिलने से पहले तीन दिन जेल में बिताने पड़े.

नोएडा के डीसीपी राम बदन सिंह ने कहा, “अगर लोग तर्क का इस्तेमाल करना शुरू कर दें, तो उन्हें एहसास होगा कि जश्न में फायरिंग करना बेकार और खतरनाक है. इससे जान का जोखिम होता है और इसे रोका जाना चाहिए. यह कोई नई बात नहीं है—यह अब एनसीआर में ज़्यादा रिपोर्ट किया जा रहा है. 60 प्रतिशत से ज़्यादा मामलों में, तमंचे (घर में बनी पिस्तौल) जैसे अवैध हथियारों का इस्तेमाल किया जाता है, जो अक्सर पीढ़ियों से चले आ रहे हैं, जिससे उनका पता लगाना मुश्किल हो जाता है.”

DCP Ram Badan Singh at his Noida office—he led the investigation into the tragic death of 2.5-year-old Ansh Sharma, who lost his life to celebratory firing last month | Sakshi Mehra, ThePrint
डीसीपी राम बदन सिंह अपने नोएडा कार्यालय में—उन्होंने 2.5 वर्षीय अंश शर्मा की दुखद मौत की जांच का नेतृत्व किया, जिसने पिछले महीने जश्न में की गई गोलीबारी में अपनी जान गंवा दी थी. | साक्षी मेहरा, दिप्रिंट

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क्या बचा?

मुरादनगर, गाजियाबाद में हंसी और संगीत गूंज रहे थे. कन्नौज गांव के निवासी और रिटायर्ड राजेश कुमार ने एक भव्य समारोह आयोजित किया था—अपनी रिटायरमेंट पार्टी और अपने बेटे की सगाई, दोनों एक ही खुशी के मौके पर. पड़ोसी, रिश्तेदार और दोस्त घर से थोड़ी दूर खुले मैदान में इकट्ठा हुए थे.

रात करीब 8:30 बजे, नाच-गाने और जश्न के बीच किसी ने हवा में गोली चलाने का फैसला किया. एक गोली, जिसका कोई दावेदार नहीं था, भीड़ में से होती हुई 21 वर्षीय मेहमान प्रियांशु त्यागी के पेट में जा लगी.

त्यागी परिवार के घर के पास रहने वाला एक बच्चा दौड़ता हुआ आया. “प्रियांशु को गोली लग गई,” उसने कहा. घर के अंदर, प्रियांशु के पिता अभी-अभी काम से लौटे थे और परिवार समारोह के लिए निकलने की तैयारी कर रहा था. खबर सुनते ही घर में अफरातफरी मच गई.

जब वे समारोह स्थल पर पहुंचे, तो वहां पहले ही लोगों की भीड़ प्रियांशु के चारों ओर से घेर चुके थे. वह ज़मीन पर बेहोश पड़ा था. तुरंत उसे पास के एक निजी अस्पताल ले जाया गया.

बीए ऑनर्स का अंतिम वर्ष पढ़ रहा प्रियांशु सपने रखता था—जिनमें किसी और की लापरवाह खुशी का शिकार बनना शामिल नहीं था. घर में, उसकी मां अब भी रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त रहती हैं—चाय बनाना, आवारा कुत्तों को भगाना. उनके हाथ व्यस्त हैं, लेकिन वह अपने बेटे की हालत के बारे में कुछ नहीं कहतीं, और किसी की हिम्मत नहीं होती कि उन्हें पूरी सच्चाई बताए. जब वह कमरे से बाहर जाती हैं, तो घर के पुरुषों के चेहरे पर छुपा हुआ दुख साफ झलकता है.

“हम उसकी मां को नहीं बताते कि प्रियांशु कितने गंभीर हालत में है,” उसके मामा ने कहा. “वह बेहोश है. हमें नहीं पता कि वह घर वापस भी आएगा या नहीं. उसके नाना-नानी लगातार उसे घर लाने की ज़िद कर रहे हैं. लेकिन हम उसे कैसे लाएं?”

किसी को नहीं पता कि गोली किसने चलाई और बंदूक किसकी थी. एक गांववाले ने कहा, “सिर्फ प्रियांशु ही बता सकता था कि गोली किसने चलाई.”

एफआईआर के बावजूद, गोली चलाने वाला अब भी आज़ाद घूम रहा है. प्रियांशु के पिता अडिग हैं. उन्होंने कहा, “कम से कम हमें यह तो जानना ही चाहिए कि गोली किसने चलाई.”

राजेश कुमार के घर पर भी इस घटना का असर दिखने लगा है. उनकी पत्नी की टांगें कांप रही हैं, लेकिन चेहरे पर जबरदस्ती मुस्कान बनाए रखने की कोशिश कर रही हैं. उन्होंने कहा, “हमें नहीं पता कि क्या हुआ और कब हुआ. हम तो अपने काम में व्यस्त थे.” बेटे सोनू, जिसकी शादी मार्च में हुई थी, ने भी वही दोहराया, “मुझे इसके बारे में कुछ नहीं पता.”

हिमांशु चौधरी की मां के लिए यह बुरा सपना अब तक खत्म नहीं हुआ. जब से पुलिस और मीडिया उनके घर पहुंचने लगे, वह गुस्से और निराशा से जूझ रही हैं. उनके बेटे को, शादी के तुरंत बाद, घर जाने की बजाय सीधे जेल ले जाया गया.

“हमारी इस हालत के लिए मीडिया ज़िम्मेदार है,” उन्होंने भारी आवाज़ में कहा. “मैं दिल की मरीज हूं. अगर मुझे कुछ हो गया, तो इसकी ज़िम्मेदारी कौन लेगा? हमें अकेला छोड़ दो. हमने बहुत सह लिया.”

इस घटना में कोई असली दोषी नहीं था—सिवाय परिवार के, जिसने यह त्रासदी झेली.

मुसीबत की शुरुआत 19 फरवरी को हुई, जब मोदीनगर में हिमांशु की शादी में हुई जश्न फायरिंग का वीडियो वायरल हो गया. दिल्ली के हर्ष विहार के रहने वाले हिमांशु को वीडियो में नाचते हुए देखा गया, फिर उसने एक पिस्तौल निकालकर हवा में फायरिंग की. मेहमानों ने चीयर किया. कुछ ही देर बाद, काले शर्ट में एक व्यक्ति, सूरज, दो और बंदूकें लेकर आया और नवविवाहित जोड़े को उन्हें चलाने के लिए उकसाने लगा. हिमांशु ने दोबारा फायरिंग की, और उसकी दुल्हन, तनु चौधरी, ने भी बंदूक उठाई.

वीडियो तेजी से वायरल हुआ और प्रशासन की नज़र में आ गया. इसके बाद हिमांशु को गिरफ्तार कर लिया गया.

बैंक्वेट हॉल के मालिक गौरव पूनिया ने बताया कि उन्होंने ऐसी स्थिति को रोकने की पूरी कोशिश की थी. उन्होंने कहा, “शराब पीने के बाद कोई नहीं सुनता. हमने रात 10 बजे डीजे का कनेक्शन काट दिया और संगीत बंद करवाने के लिए पुलिस को भी बुलाया.”

जब पुलिस ने उनसे संपर्क किया, तो उन्होंने सीसीटीवी फुटेज देखा और जांच में सहयोग किया. उन्होंने बताया, “दूल्हे को धारा 51 के तहत जेल भेजा गया, जबकि दुल्हन को धारा 41 के तहत रिहा कर दिया गया.”

पूनिया का मानना था कि सज़ा ज़्यादा कड़ी थी. “एक गलती हुई, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि किसी को फांसी दे दी जाए. इतनी कठोर सज़ा से किसी को कोई फायदा नहीं होता,” उन्होंने कहा.

शर्मा, अंश के पिता, के लिए यह घटना ज़िंदगी बदल देने वाली रही. एक बच्चा खो दिया, नौकरी छोड़ दी, और शहर छोड़कर चले गए. घटना के बाद, उन्होंने एक निजी कंपनी में अपनी मार्केटिंग की नौकरी से इस्तीफा दे दिया और अपने पूरे परिवार को वापस गांव, संभल, ले गए—जहां वे अब खुद को ज़्यादा सुरक्षित महसूस करते हैं.

उन्होंने कहा, “वह गोली मुझे भी लग सकती थी. और अगर लगती, तो मेरा पूरा परिवार बर्बाद हो जाता. मैं अकेला कमाने वाला हूं—ऐसे में मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होता?”

अंश को लगी गोली दो लापरवाह लोगों—हितेश उर्फ हैप्पी और उसके दोस्त दीपांशु कुमार—की वजह से चली थी. 16 फरवरी की रात, जब गुरुग्राम से आई एक बारात नोएडा के अगहपुर गांव से गुज़र रही थी, तब दोनों ने हवा में फायरिंग की.

24 वर्षीय लॉ स्टूडेंट दीपांशु को 19 फरवरी को गिरफ्तार किया गया. 25 वर्षीय हैप्पी फरार हो गया, लेकिन कुछ दिनों बाद नोएडा के सेक्टर 47 से पकड़ लिया गया. पुलिस ने हत्या में इस्तेमाल हुई अवैध 32 बोर की पिस्तौल बरामद कर ली.

डीसीपी सिंह ने कहा, “लेकिन अब जश्न फायरिंग में काफी कमी आई है, और मुझे लगता है कि कुछ और दिनों में यह पूरी तरह से खत्म हो जाएगी. बदलाव में समय लगता है. यह एक परंपरा है—जो अंधविश्वास से गहराई से जुड़ी है. लोग इस पर विश्वास करते हैं, लेकिन धीरे-धीरे यह विश्वास खत्म हो रहा है.”

फायरिंग की प्रथा

शाहपुर बम्हेटा गांव के कुश्ती अखाड़ों में, जहां बुजुर्ग ताश खेलने और हुक्का साझा करने के लिए इकट्ठा होते हैं, शालेक यादव पीछे झुके हुए हैं, उस समय की यादों में खो गए हैं जब शादियां सिर्फ़ संगीत और नाचने तक सीमित नहीं थीं—वे रात भर गोलियों की तेज़ आवाज़ से गूंजती थीं. शाहपुर बम्हेटा, जो अपने पहलवानों के लिए जाना जाता है, ने लंबे समय से इस परंपरा को अपनाया है. यहां, गोलियां गर्व और शक्ति का प्रतीक थीं.

यादव ने कहा, “पहले बहुत सारी गोलियां चलती थीं.”

“लेकिन अब, यह लगभग बंद हो गया है. सरकार ने प्रतिबंध लगा दिए हैं, और लोग नियमों का पालन करते हैं.”

Yadav holds his old gun at his house in Shahpur Bamheta village, licensed in 1992, untouched for six years—last fired to celebrate his grandson's birth | Sakshi Mehra, ThePrint
यादव शाहपुर बम्हेटा गांव में अपने घर पर अपनी पुरानी बंदूक पकड़े हुए हैं, 1992 में लाइसेंस प्राप्त, छह साल से अछूती – आखिरी बार अपने पोते के जन्म का जश्न मनाने के लिए चलाई थी बंदूक | साक्षी मेहरा, दिप्रिंट

जश्न मनाने के लिए गोलियां चलाना सिर्फ़ भारत की परंपरा नहीं है—यह सदियों से उपमहाद्वीप, मध्य पूर्व, उत्तरी अफ्रीका और मध्य एशिया में आम बात है. इन क्षेत्रों में राजनीतिक अस्थिरता और हिंसक अपराधों का इतिहास रहा है, और अतीत में, हथियार ले जाना अक्सर एक ज़रूरत थी. शादियों या त्योहारों जैसे समारोहों में शामिल होने वाले लोग संभावित खतरों को यह संकेत भी देते थे कि वे हथियारबंद हैं और अपनी रक्षा के लिए तैयार हैं.

इंडियंस फॉर गंस एनजीओ के संस्थापक अभिजीत सिंह ने कहा, “औपनिवेशिक शासन के दौरान, सख्त बंदूक कानूनों का मतलब था कि केवल अभिजात वर्ग के पास ही आग्नेयास्त्रों तक पहुंच थी, जिससे यह प्रदर्शन एक स्टेटस सिंबल बन गया. आज, भारत में हथियार लाइसेंस दुर्लभ होने के कारण, यह आत्मरक्षा के बजाय प्रभुत्व स्थापित करने का एक तरीका हैं.”

जब 1973 में राम बदन सिंह की बहन की शादी हुई, तो शादी के जुलूस के दौरान चली गोली नीम के पेड़ पर लगी, जिससे कई शाखाएं गिर गईं.

सिंह ने कहा, “यूपी में यह प्रथा लंबे समय से चली आ रही है, लेकिन अब इसमें काफी कमी आई है. जब छोटी बंदूक चलाई जाती है, तो गोली लोगों को लगती है, लेकिन बड़ी राइफल से ऐसा नहीं होता है.”

यादव को अपनी शादी का दिन याद है, जब गोलियों की तड़तड़ाहट से हवा गूंज उठी थी—तीन, शायद चार गोलियां. उस समय, शादियां तीन दिनों तक चलती थीं, और बारात हमेशा सूर्यास्त से पहले निकल जाती थी.

उन्होंने कहा, “बारात के दौरान और कभी-कभी दुल्हन की विदाई के समय भी गोलीबारी होती थी.” उन्होंने आगे कहा, “दूल्हे की तरफ से भी बंदूकें रखी गई थीं—वापसी के सफर में दुल्हन के गहनों की सुरक्षा के लिए. आप कभी नहीं जानते कि रास्ते में कौन हमला कर सकता है.”

उसका बेटा घर में गायब हो गया और कुछ ही देर बाद वापस लौटा और उसके पास एक पुरानी, ​​लंबी नली वाली बंदूक थी जिसका लाइसेंस यादव ने 1992 में बनवाया था. बंदूक की धातु थोड़ी जंग लगी हुई थी और उसमें मकड़ी के जाले लगे हुए थे. धूल की एक मोटी परत अपनी कहानी खुद बयां कर रही थी- उसे सालों से छुआ नहीं गया था.

“आखिरी बार मैंने इसका इस्तेमाल किया था,” यादव ने घिसी हुई नली पर हाथ फेरते हुए कहा, “जब मेरा पोता पैदा हुआ था—तीन पोतियों के बाद. मैंने बालकनी में कदम रखा और आसमान में तीन गोलियां चलाईं.” यह छह साल पहले की बात है, बंदूक को फिर कभी नहीं छुआ गया.

“हम इसे केवल जश्न मनाने के लिए करते थे,” उनकी पत्नी ने कहा. “लेकिन अब नहीं.” उसने कहा कि उसने खुद कभी बंदूक नहीं चलाई.

ऐसा लगता है कि इस परंपरा की शुरुआत कैसे हुई, इस बारे में हर किसी का अपना-अपना दृष्टिकोण है. एक व्यक्ति ने याद किया, “पुराने दिनों में, जब बारात आती थी, तो दुल्हन का परिवार दो गोलियां चलाता था, और दूल्हे का पक्ष चार गोलियां चलाता था. यह दूल्हे के आगमन की घोषणा करने का एक तरीका था.”

दूसरों का मानना ​​है कि यह हमेशा स्थिति के बारे में था – शक्ति और धन का प्रदर्शन. हालांकि, शाहपुर बम्हेटा के पहलवान ब्रह्म सिंह पहलवान ने आधुनिक शादियों को दोषी ठहराया.

उन्होंने कहा, “लोग शराब पीते हैं, तेज संगीत सुनकर बहक जाते हैं और गोलियां चलाने लगते हैं. डीजे पर प्रतिबंध लगा देना चाहिए.”

कानून, संस्कृति और परिणाम

भारत में बंदूक रखना गैरकानूनी नहीं है, लेकिन लाइसेंस प्राप्त करना एक कठिन चुनौती है. यह प्रक्रिया, जो अक्सर नौकरशाही और भ्रष्टाचार में फंसी रहती है, कई सालों तक खिंच सकती है. चूंकि लाइसेंस पाने की लंबी और मुश्किल प्रक्रिया के कारण, बंदूक रखना और फायरिंग करना लोगों के लिए रुतबे और स्टाइल का दिखावा बन जाता है.

अभिजीत सिंह ने दिप्रिंट को बताया, “1992 में, दिल्ली में लगभग 45,000 लाइसेंसधारी बंदूक मालिक थे. आज, जनसंख्या विस्फोट के बावजूद, यह संख्या घटकर लगभग 30,000 रह गई है. यह रुचि की कमी नहीं है, यह व्यवस्था है जो लोगों को हतोत्साहित करती है.”

दि इंडियंस फॉर गन्स जिम्मेदार बंदूक स्वामित्व के लिए एक नवजात आंदोलन है. इसमें अमेरिकन नेशनल राइफल एसोसिएशन (एनआरए) जैसी पहुंच और प्रभाव नहीं है.

यह 2000 के दशक की शुरुआत में एक साधारण याहू समूह के रूप में शुरू हुआ और 2006 तक एक संपन्न वेबसाइट में विकसित हो गया, जहां आग्नेयास्त्र उत्साही खुद को शिक्षित कर सकते थे. लेकिन यह कोई लापरवाह मुक्त-सभी नहीं था. सिंह ने कहा कि इसका उद्देश्य कभी भी बंदूक संस्कृति को बढ़ावा देना नहीं था—यह जागरूकता, जिम्मेदारी और सूचित विकल्प बनाने के अधिकार के बारे में था.

शादी के जश्न में गोलीबारी भारत में बंदूकों को लेकर दहशत और वर्जना को बढ़ाती है. अभिजीत सिंह ने तर्क दिया कि आग्नेयास्त्रों के बारे में कलंक अपरिचितता से उपजा है. उन्होंने कहा कि बंदूक सिर्फ एक उपकरण है, न तो अच्छी और न ही बुरी.

हालांकि, पूरे भारत में बंदूक संस्कृति अलग-अलग है. उत्तर में दक्षिण की तुलना में अधिक वैध बंदूक स्वामित्व है, क्योंकि इसका सैन्य इतिहास बहुत गहरा है. विभाजन से पहले, पंजाब ने अकेले ब्रिटिश-भारतीय सेना में आधे से अधिक का योगदान दिया था. सशस्त्र बलों में सेवा की पीढ़ियों ने आग्नेयास्त्रों के साथ एक सांस्कृतिक सहजता बनाई. इसके विपरीत, दक्षिण में, अलग ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के कारण, बंदूक रखने के मामले बहुत कम देखे गए हैं.

भारत के कई हिस्सों में, विशेष रूप से उत्तर में, जश्न मनाने के लिए गोलीबारी अतीत की एक निशानी है, एक खतरनाक परंपरा जो मिटने से इनकार करती है.

2007 में उत्तराखंड में ऐसी ही एक त्रासदी सामने आई. भगवान सिंह, एक शादी के जश्न के उत्साह में फंस गए, हवा में गोलियां चलाईं. लेकिन खुशी तब खौफ में बदल गई जब गोलियों ने उपस्थित लोगों को घायल कर दिया और दो लोगों की मौत हो गई. सिंह पर शुरू में आईपीसी की धारा 302 के तहत हत्या का आरोप लगाया गया था. हालांकि, इरादे की कमी पर विचार करने के बाद, अदालत ने इसे हत्या के बराबर नहीं बल्कि गैर इरादतन हत्या (धारा 304) के रूप में फिर से वर्गीकृत किया.

पंजाब में एक मामला और भी भयावह था. 2016 में, एक 25 वर्षीय गर्भवती डांसर बठिंडा में एक शादी में परफॉर्मे कर रही थी, जब जश्न में की गई फायरिंग से एक आवारा गोली ने उसकी जान ले ली. सालों तक, उसके परिवार ने न्याय के लिए लड़ाई लड़ी. आखिरकार, 2023 में, शूटर लकी कुमार को धारा 304 और आर्म्स एक्ट के तहत आठ साल जेल की सजा सुनाई गई.

ये मामले सामाजिक बदलाव का संकेत देते हैं. न्यायपालिका लापरवाही पर नकेल कस रही है, यह स्पष्ट चेतावनी दे रही है कि आधुनिक भारत में लापरवाह परंपराओं के लिए कोई जगह नहीं है. जैसे-जैसे कानून प्रवर्तन सख्त होता जा रहा है, जश्न में फायरिंग जैसी परंपराओं को अब अनावश्यक खतरे के रूप में देखा जा रहा है.

खोई हुई जानें

सालों से जश्न में की जाने वाली फायरिंग का रूप बदल गया है, खासकर ग्रामीण इलाकों में. गाज़ियाबाद के गांवों में पारंपरिक बंदूकों की जगह अब शक्तिशाली पटाखों ने ले ली है, जिन्हें आमतौर पर ‘गोला’ कहा जाता है. ये असल में सुतली बम होते हैं—जूट की रस्सी से कसकर लपेटे गए पटाखे, जो एक तेज़ धमाके के लिए बनाए जाते हैं. इसके पीछे की वैज्ञानिक प्रक्रिया सीधी है: विस्फोटक जितना ज्यादा संकुचित होगा, धमाका उतना ही तेज़ होगा.

लेकिन कड़े कानूनों के चलते जश्न में की जाने वाली फायरिंग अब कम हो रही है, क्योंकि यह अब एक दंडनीय अपराध है, जिसमें दो साल तक की जेल और एक लाख रुपये तक का जुर्माना हो सकता है. कानून ने बंदूकों के इस्तेमाल पर भी सख्त नियम लागू किए हैं, जिसमें गलत इस्तेमाल पर लाइसेंस रद्द करना और कानूनी तौर पर स्वामित्व वाली बंदूकों की संख्या सीमित करना शामिल है.

सज़ा कड़ी है, और लोग कानूनी कार्रवाई से ज्यादा अपने बंदूक के लाइसेंस खोने से डरते हैं, जिन्हें हासिल करना बेहद मुश्किल होता है. लेकिन क़ानूनी पेचीदगियों से परे, असली कीमत उन ज़िंदगियों की होती है जो इसकी वजह से खत्म हो जाती हैं.

एक गोली हवा में पटाखे की तरह गूंजी, लेकिन इसके साथ एक त्रासदी भी जुड़ी थी. एक पल, विकास त्रिपाठी उत्तर प्रदेश में अपने छोटे भाई की शादी के जश्न में खोए हुए थे—संगीत बज रहा था, हंसी-ठिठोली चल रही थी, गिलास खनक रहे थे. अगले ही पल, उनके बड़े भाई की जान चली गई, गोली ने उनकी ज़िंदगी छीन ली.

उनके भाई के बच्चे—सिर्फ तीन और छह साल के—इतने छोटे थे कि उन्हें समझ ही नहीं आया कि उनसे क्या छीन लिया गया है. इतने छोटे कि वे शायद अपने पिता को याद भी नहीं रख पाए, जो उन्हें बड़ा होता देखने के लिए वहां नहीं रहेंगे.

लेकिन त्रिपाठी के लिए बंदूकें कभी सिर्फ हथियार नहीं थीं. यह एक परंपरा थी. एक जीवनशैली. उनके गांव में, जब तक किसी बारात में गोलियां न चले, तब तक वह अधूरी मानी जाती थी.

उन्होंने कहा, “आज जैसे लोग पटाखे जलाते हैं, तब हम खुशी जाहिर करने के लिए गोलियां चलाते थे.”

उनके बड़े भाई के पास एक बंदूक थी. उनके साले के पास भी थी. ये लाइसेंसी थीं या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था. त्रिपाठी के गांव में लगभग हर घर में बंदूक थी—कुछ कानूनी, कुछ अवैध. उन्होंने कहा, “बिहार में, अगर किसी गांव में 100 घर हैं, तो कम से कम 85 घरों में बंदूक होती है.”

त्रिपाठी को आज भी याद है जब उन्होंने पहली बार बंदूक पकड़ी थी. वे 10वीं या 12वीं कक्षा में थे. उनके हाथों में ठंडे लोहे का भार केवल शारीरिक नहीं था—यह एक अलग रोमांच था, एक शक्ति का अहसास. उन्होंने कहा, “यह हिंसा के बारे में नहीं था। यह उस चीज़ के बारे में था जो मना की जाती है। जितना कहा जाए ‘नहीं करना’, उतना ही करने का मन करता है.”

शादियों में, त्रिपाठी और उनके दोस्त पिस्तौल लेकर घूमते थे, हवा में फायरिंग करते थे, और लोगों की वाहवाही लूटते थे. उस वक्त किसी को परवाह नहीं थी. किसी ने सवाल नहीं उठाया. यही तरीका था जश्न मनाने का.

लेकिन अब समय बदल गया है. अब एक फोटो, एक ट्वीट और पुलिस दरवाजे पर आ जाती है. आज, उनके पास एक लाइसेंसी बंदूक है, लेकिन अब उनका नज़रिया बदल चुका है. अब यह उनकी सुरक्षा के लिए है, दिखावे के लिए नहीं. त्रिपाठी को अब बंदूक पकड़ने का वही पुराना रोमांच महसूस नहीं होता. परिपक्वता ऐसा ही करती है, उन्होंने कहा.

जहां तक जश्न में फायरिंग की बात है, वे लंबी सांस लेते हुए कहते हैं कि यह अब सिर्फ एक प्रतीक भर रह गई है—जैसे महंगी शादी या कोई लग्जरी कार. लेकिन क्या यह एक ज़िंदगी से ज्यादा कीमती है?

“नहीं, कभी नहीं.”

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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