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Monday, 8 December, 2025
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मूर्ति पूजा को विज्ञान विरोधी मानने वाले बंकिम ने कैसा लिखा यह गीत—वंदे मातरम के कई रूप

मूर्ति पूजा विज्ञान के खिलाफ है, यह बंकिम चंद्र चटर्जी का निजी विश्वास था, जिन्होंने वह गाना लिखा था जिसकी मूर्ति पूजा भारत के राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान सबसे ज़्यादा विवादित मुद्दों में से एक बन गई थी.

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नई दिल्ली: साल 1874 में, वंदे मातरम के लेखक बंकिम चंद्र चटर्जी ने, जिस गाना को अपनी मूर्ति पूजा वाले कंटेंट की वजह से सम्मान और नफ़रत दोनों मिलती है, अपनी पत्रिका बोंगदर्शन में मूर्ति पूजा पर एक ऐसा आर्टिकल लिखा जिसे ज़्यादातर लोग भूल गए हैं.

बंकिम ने आर्टिकल में लिखा, “मूर्ति पूजा विज्ञान-विरोधी है. जहां मूर्ति पूजा होती है, वहां ज्ञान आगे नहीं बढ़ता.” उन्होंने कहा, “यह मनुष्य की बुद्धि को सीमित करती है और उसके व्यक्तित्व के विकास, सुधार और उन्नति को कम करती है.”

न तो यूनानी दार्शनिक और वैज्ञानिक, और न ही आर्य ऋषि, जिन्होंने उनके अनुसार ज्ञान की प्रगति को बढ़ावा दिया था, मूर्ति पूजक थे.

लगभग उसी समय, 1870 के दशक की शुरुआत में, बंकिम ने वंदे मातरम के पहले दो छंद लिखे। यह ज़रूरी नहीं कि यह बात बेमेल हो. कहा जा सकता है कि पहले दो छंदों में मूर्ति पूजा से जुड़ा कोई कंटेंट नहीं था.

यह पंक्तियां कई वर्षों तक बेकार पड़ी रहीं. प्रकाशित नहीं हुईं और न ही किसी ने पढ़ीं. ये केवल कवि के लिए ही थीं.

कट टू 1881. इसी ‘बंगोदर्शन’ में ही बंकिम ने अपना सबसे लोकप्रिय और राजनीतिक रूप से अहम उपन्यास ‘आनंदमठ’ धारावाहिक रूप में छापा. वंदे मातरम् इस उपन्यास में शामिल हो गया.

यह नया वंदे मातरम्, जो अब पहले वाले की तरह निजी न होकर सार्वजनिक उपयोग के लिए था, लंबा हो गया. बंकिम ने अपनी कविता में दो और पद जोड़े. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि इस कविता में अब मूर्ति पूजाने वाले कंटेंट भी शामिल हो गया.

अब वही बंकिम लिख रहे थे, “हम हर मंदिर में तुम्हारी प्रतिमा गढ़ते हैं. तुम युद्ध के हथियारों से सुसज्जित दुर्गा हो. तुम कमलों के बीच खेलने वाली कमला (लक्ष्मी) हो.” जबकि कुछ साल पहले तक वही बंकिम मूर्ति पूजा को वैज्ञानिक सोच और मानव विकास के लिए हानिकारक मानते थे.

दशकों बाद, 1920 के दशक तक, यह गाना, जो शुरू में इतिहासकार सब्यसाची भट्टाचार्य के शब्दों में “एक कवि की अपने आप में सोचते और गाते हुए बनाई गई एक बिना मकसद की रचना” था, एक सांप्रदायिक युद्ध का नारा बन गया था – हिंदुओं और मुसलमानों के खुद को कहने वाले प्रवक्ताओं के बीच झगड़े की एक स्थायी वजह.

यह कोई मामूली विवाद नहीं था. 1938 के एक लेख में, जिसमें (तब ऑल इंडिया मुस्लिम लीग के नेता और बाद में पाकिस्तान के संस्थापक) मोहम्मद अली जिन्ना ने “मुस्लिम मांगें” रखीं, उन्होंने कहा कि वंदे मातरम् केवल मूर्तिपूजात्मक ही नहीं है, बल्कि “मूल और सार में मुसलमानों के प्रति नफरत फैलाने वाला भजन” है. उन्होंने कहा कि यह मुसलमानों के लिए राष्ट्रगान के रूप में स्वीकार्य नहीं है.

एक सदी बाद, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दावा किया है कि वंदे मातरम् से “महत्वपूर्ण पद” हटाए जाने के कारण ही भारत का विभाजन हुआ. सरकार, जो पहले से ही गीत के 150 साल मना रही है, ने सोमवार को संसद के शीतकालीन सत्र में इस गीत पर चर्चा की.

मोदी किन पदों की बात कर रहे थे. उन पर विवाद क्या था. एक कट्टर मूर्तिपूजा-विरोधी बंकिम कैसे उस गीत के लेखक बन गए, जिसकी मूर्तिपूजा राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान विभाजनकारी मुद्दों में से एक बन गई.

और 1870 के दशक में बंकिम के निजी विचारों से लेकर 1900 के दशक में क्रांतिकारियों के एक सहज नारे तक; 1920 और 1930 के दशक के एक न सुलझने वाले सांप्रदायिक विवाद से लेकर 1990 के दशक के आखिर में एआर रहमान के जोशीले गायन तक—वंदे मातरम में ऐसा क्या है जो भारतीय राष्ट्र को आज भी प्रेरित करता रहता है?

‘एक मौन एकालाप’

विद्वानों में इस बात पर काफी सहमति है कि वंदे मातरम् मूल रूप से 1872 और 1875 के बीच लिखा गया था, यानी उपन्यास आनंदमठ में शामिल होने से कम से कम पांच-छह साल पहले.

मुख्य रूप से संस्कृत में लिखे गए गीत में अचानक एक पंक्ति बंगाली में निकलती है, जो लेखक की मातृभाषा थी. कविता में बंकिम पूछते हैं, “मेरी मां इतनी असहाय क्यों है.” इतिहासकार भट्टाचार्य के मुताबिक, यह “अंतर्मन की आवाज थी, मानो एक मौन एकालाप, जो गहरे भीतर के दुख को व्यक्त करता है.”

जैसा कि ऊपर बताया गया, कविता का कोई शुरुआती उद्देश्य नहीं था. भट्टाचार्य लिखते हैं, “वंदे मातरम् लिखते समय बंकिम अपनी तन्हाई में खुद से बात करने वाले व्यक्ति की तरह थे.” उन्होंने आगे कहा, “यही कारण है कि उन्होंने इसे वर्षों तक प्रकाशित नहीं किया, कि इसमें भाषाई खामियां हैं, कि यह परंपरागत छंद का पालन नहीं करता, और शायद यही कारण है कि यह कविता इतने लोगों के दिल तक पहुंची.”

कविता में बंकिम ने ‘मां भारती’ जैसी अमूर्त अवधारणा में जान डालने की कोशिश की, उसे मानवीय गुण देकर अत्यंत भावनात्मक रूप प्रदान किया.

छोटी, मूल कविता में, मातृभूमि “आनंद देने वाली” है. वह जलयुक्त और फलयुक्त है. उसकी रातें चांदनी से भरी हैं. शायद सबसे महत्वपूर्ण बात, कविता कहती है कि मातृभूमि के “7 करोड़ बेटे” उसे बचाने के लिए हैं, जो 1871 की जनगणना के अनुसार बंगाल के हिंदू-मुस्लिम संयुक्त जनसंख्या के बराबर था.

रवींद्रनाथ टैगोर, जिन्होंने पहली बार वंदे मातरम् के लिए संगीत बनाया और 1896 में कलकत्ता कांग्रेस के एक कार्यक्रम में इसे गाया, ने 1937 में जवाहरलाल नेहरू को एक पत्र में लिखा: “मेरे लिए इसके पहले हिस्से में व्यक्त कोमलता और भक्ति की भावना, और यह कि यह हमारी मातृभूमि के सुंदर और कल्याणकारी पहलुओं पर जोर देता है, विशेष रूप से आकर्षक था…” उन्होंने कहा कि पहले दो पदों में ऐसा कुछ नहीं है जो किसी भी संप्रदाय को ठेस पहुंचाए.

लेकिन यह केवल आधे गीत की कहानी थी. 1881 में जब यह आनंदमठ में शामिल हुआ, वंदे मातरम् में हिंदू धार्मिक प्रतीकों और उपमाओं का स्पष्ट इस्तेमाल हो गया. “मां”, जो पहले केवल “आनंद देने वाली” थी, अब “दस हथियारों से सज्जित दुर्गा” बन गई.

इतिहासकार तनीका सरकार ने अपने पेपर ‘बर्थ ऑफ ए गॉडेस: वंदे मातरम्, आनंदमठ एंड हिंदू नेशनहुड’ में तर्क दिया है कि वंदे मातरम् दो अलग-अलग चरणों में लिखा गया, और इन दोनों हिस्सों में धार्मिक चित्रण बिल्कुल अलग है. इससे गीत को उपन्यास के संदर्भ से अलग करके देखा जाने लगा, जो गलत है क्योंकि उपन्यास में शामिल होने से गीत का राजनीतिक अर्थ पूरी तरह बदल गया.

क्योंकि उपन्यास ने हिंदुओं को “कायर और बिखरा हुआ” और मुसलमानों को “बर्बर आक्रमणकारी” बताया था, जिन्होंने लंबे समय तक हिंदू आत्मा को दबाया, इसलिए यह अनुमान लगाना कठिन नहीं है कि दस हाथों में दस हथियार लिए मां किससे लड़ रही है.

तो वंदे मातरम् में इतने मूलभूत बदलाव क्यों आए.

पहला, जैसा ऊपर बताया गया, गीत का पहला संस्करण सार्वजनिक उपयोग के लिए नहीं था. वह “कवि की निजी बात” था, किसी समस्या का समाधान नहीं. लेकिन आनंदमठ, जैसा कि तनीका सरकार कहती हैं, “एक प्रदर्शन था, एक निर्देश, जो शब्दों के माध्यम से कुछ करवाना चाहता था.” इसलिए उसमें वंदे मातरम् भी “मुस्लिम प्रश्न” का समाधान बताने जैसा हो गया.

दूसरा, भट्टाचार्य के अनुसार, विद्वानों में यह आम धारणा है कि बंकिम के शुरुआती और बाद के वर्षों में तीव्र अंतर था. एक “उदार शुरुआती बंकिम” और एक “रूढ़िवादी बाद का बंकिम”.

कहा गया है कि “बाद का बंकिम” फ्रांसीसी दार्शनिक ऑगस्ट कॉम्ट से प्रभावित था, जिन्होंने कहा था कि किसी व्यवस्था के टिके रहने के लिए उसे जनता की संस्कृति और स्वभाव के अनुरूप होना चाहिए. बंकिम ने इस विचार का इस्तेमाल करके लिखा कि धर्म और उसका सुधार लोगों के “स्वभाव” और संस्कृति से मेल खाना चाहिए.

इसलिए, जैसा भट्टाचार्य लिखते हैं, वह मातृभूमि के उस पुराने हिंदू प्रतीक को लेते हैं और उसे पश्चिम से आए राष्ट्रवाद के विचार के साथ मिला देते हैं.

‘एक युद्ध का नारा’

“बत्तीस साल पहले बंकिम ने अपना महान गीत लिखा था और बहुत कम लोगों ने उसे सुना था.” 1907 में राष्ट्रवादी क्रांतिकारी अरविंदो घोष ने लिखा. “लेकिन लंबे भ्रम से जागने के एक अचानक क्षण में बंगाल के लोगों ने सच की ओर देखा और एक नियति वाले पल में किसी ने वंदे मातरम गाया. मंत्र दे दिया गया था और एक ही दिन में पूरा समुदाय देशभक्ति के धर्म में परिवर्तित हो गया.”

“मां,” घोष ने कहा, “मां ने खुद को प्रकट कर दिया था.”

1907 तक, एक कवि की “मौन आत्मकथन” जो अपने आप से बात कर रहा था और जिसके निर्माण के पहले तीन दशकों में केवल कुछ साहित्यिक जानकारों के बीच प्रशंसा का विषय था, एक मंत्र बन चुका था, युद्ध का नारा बन चुका था.

यह बदलाव स्वदेशी आंदोलन के साथ आया, जिसने लगभग स्वतः ही इस गीत को अपना थीम गीत बना लिया, जब भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड कर्जन ने 1905 में बंगाल को दो हिस्सों में बांट दिया. स्वदेशी गीत के रूप में यह सिर्फ क्रांतिकारियों में लोकप्रिय नहीं था. वास्तव में, अक्टूबर 1905 के रक्षाबंधन पर टैगोर ने ही वंदे मातरम जुलूस का नेतृत्व किया था और वे मुख्य गायक थे.

हालांकि, 20वीं सदी के पहले दो दशकों में जैसे-जैसे क्रांतिकारियों का आंदोलन तेज़ हुआ, वंदे मातरम सच में उनका युद्ध घोष बन गया. 1917 में उग्र राष्ट्रवादी गतिविधियों की जांच कर रहे एक स्पेशल ड्यूटी पुलिस अधिकारी जेई. आर्मस्ट्रांग ने पाया कि शायद ही कोई ऐसा क्रांतिकारी दस्तावेज़ हो जिसके ऊपर “ओम वंदेमातरम” न लिखा हो.

इंग्लैंड के भविष्य के प्रधानमंत्री जे. रैमसे मैकडोनाल्ड ने कहा कि “भारत की देवता-करण” उस “असंवैधानिक आंदोलन” के मनोविज्ञान की जड़ में था (क्रांतिकारियों का).

युद्ध के नारे की अपील बंगाल तक सीमित नहीं थी. 20वीं सदी के पहले दशक में वंदे मातरम और आनंदमठ दोनों का पूरे देश में बड़े पैमाने पर अनुवाद हुआ.

पंजाब से मद्रास तक, स्थानीय प्रेस में हलचल थी. बर्लिन और जेनेवा से वंदे मातरम का गुणगान करते प्रतिबंधित पत्र अवैध रूप से मंगाए जाने लगे. गीत में दर्शाई गई मातृभूमि की छवि वाले चित्र दफ्तरों और घरों में टंगे कैलेंडरों में फैलने लगे.

1907 में, मद्रास प्रेसीडेंसी के राजामुंद्री में छात्रों ने वंदे मातरम बैज पहनना शुरू किया. यूरोपियनों ने शिकायत की कि सड़क के लड़कों को उन पर वंदे मातरम चिल्लाने के लिए पैसे दिए जाते थे. बंगाल के मिल मजदूरों ने बेहतर कामकाजी हालात की मांग करते हुए यूरोपीय सहायकों पर वंदे मातरम के नारे लगाए. कुछ मामलों में अपराधियों ने भी लूटते समय यही नारा लगाया. प्रशासन द्वारा नारे पर प्रतिबंध लगाए जाने से इसकी अपील और बढ़ गई.

भट्टाचार्य के अनुसार, इस समय तक गीत में मौजूद जटिल विचार और चित्रण संक्षेप होकर “एक सरल लेकिन प्रभावी संदेश में बदल गए थे, किसी उद्देश्य के प्रति निष्ठा और विदेशी शासकों के प्रति विरोध का.”

ब्रिटिशों ने इसमें कम भूमिका नहीं निभाई. जब वे वंदे मातरम की समस्या से जूझ रहे थे, वे इसके स्रोत ढूंढने लगे. इंडियन सिविल सर्विस के अधिकारी जी. ए. ग्रियरसन ने लिखा कि मां “कोई और नहीं बल्कि काली है, मृत्यु और विनाश की देवी.” ब्रिटिश पत्रकार और इतिहासकार वैलेंटाइन चिरोल ने कहा कि गीत ने “जनता के सबसे भद्दे और सबसे क्रूर अंधविश्वास को जगाने की तत्परता दिखाई है.”

जैसे ही ब्रिटिशों को मुस्लिम अभिजात्य वर्ग की नाराजगी का संकेत मिला, उन्होंने क्लासिक ‘फूट डालो और राज करो’ नीति के तहत इसके मूर्तिपूजक चरित्र को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया.

मुस्लिम संदेह

1907 में लाल रंग के कागज पर छपे एक गुमनाम बंगाली पैम्फलेट का प्रसार हुआ. इसमें लिखा था, “एक भी मुसलमान को हिंदुओं के विकृत स्वदेशी आंदोलन में शामिल नहीं होना चाहिए… हे मुसलमानों, बंदे मातरम मत गाओ!”

मुस्लिम समुदाय में स्वदेशी आंदोलन और वंदे मातरम के प्रति संदेह के कई कारण थे. सबसे स्पष्ट कारण आनंदमठ में मुसलमानों के प्रति व्यक्त शत्रुता थी.

कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया के संस्थापकों में से एक, मुजफ्फर अहमद ने अपने आत्मकथन में लिखा कि बंकिम का उपन्यास “शुरू से अंत तक सांप्रदायिक नफरत से भरा हुआ” था. वहीं वंदे मातरम, उन्होंने कहा, “मेरे जैसे एकेश्वरवादी मुस्लिम लड़के के लिए अस्वीकार्य” था.

अन्य कारण भी थे. पहला, शिक्षित बंगाली मुसलमानों में विभाजन के पक्ष में रुझान था, क्योंकि “ईस्ट बंगाल सरकार की घोषित नीति हिंदुओं की तुलना में मुस्लिमों को सरकारी सेवाओं में प्राथमिकता देने की थी.”

दूसरा, जिन लोगों ने वंदे मातरम को राष्ट्रगान का दर्जा दिलाया था, वे उग्र राष्ट्रवादी या क्रांतिकारी थे, जिनके बीच मुसलमानों को बाहर रखना एक आम बात थी, जैसे कि यह किसी सिद्धांत के तहत किया गया हो.

तीसरा, पहले से ऐसे मामले मौजूद थे जहां वंदे मातरम सिर्फ ब्रिटिशों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि मस्जिदों के बाहर भी चिल्लाया जाता था.

20वीं सदी के दूसरे दशक से जब हिंदू और मुस्लिमों के बीच सांप्रदायिक खाई गहरी होने लगी, मुस्लिम प्रकाशनों में वंदे मातरम की आलोचना बढ़ गई.

1920 में प्रकाशित पत्रिका इस्लाम दर्शन ने लिखा कि “केवल और सर्वोच्च अल्लाह का कलिमा अल्लाह-ओ-अकबर, जब हिंदुओं के भारत माता के गीत वंदे मातरम के साथ जोड़ा जाता है, तो यह मुसलमानों को मूर्तिपूजा यानी कुफ्र की ओर धकेल रहा था.” मुस्लिम प्रेस के लिए बंकिम  अब “भीतर तक मुस्लिम-विद्वेषी” थे.

किसका राष्ट्रीय गीत?

इसी पृष्ठभूमि में वंदे मातरम को राष्ट्रीय गीत बनाने का प्रश्न कांग्रेस के सामने आया. अगर कांग्रेस इसे पूरी तरह हटा देती तो वे हिंदू नाराज हो जाते जिन्हें गीत में कोई गलत बात नहीं दिखती थी. अगर इसे वैसे ही रखती, तो मुसलमान आहत होते.

हक्का-बक्का नेहरू ने टैगोर से पूछा कि क्या किया जाए. अपने जवाब में टैगोर ने कहा, “मैं मानता हूं कि बंकिम की पूरी वंदे मातरम कविता, उसके संदर्भ सहित पढ़ने पर ऐसे अर्थ निकल सकते हैं जो मुसलमानों की भावनाओं को चोट पहुंचाएं. लेकिन एक राष्ट्रीय गीत, जो इससे लिया गया है और जो स्वतः ही मूल कविता की सिर्फ पहली दो पंक्तियों में सिमट गया है, हर बार हमें पूरी कविता की याद नहीं दिलाता, और न ही उस कहानी (आनंदमठ) की जिसके साथ यह आकस्मिक रूप से जुड़ गया था.”

“इसने अपनी अलग पहचान पा ली है और अपने भीतर एक प्रेरणादायक महत्व धारण कर लिया है जिसमें मुझे किसी भी समुदाय को ठेस पहुंचाने वाली चीज नहीं दिखती.”

यह एक भावनात्मक समय था. बहुत कम लोगों में टैगोर जैसी धैर्य था कि वे कविता के अलग-अलग हिस्सों और उसके संदर्भ के बीच अंतर कर सकें.

इतने बड़े साहित्यकार होने के बावजूद, टैगोर को वंदे मातरम को तोड़ने का सुझाव देने पर जमकर आलोचना झेलनी पड़ी. उन्होंने कहा, “चूंकि मेरा जन्म बंगाल में हुआ है, इसलिए नाम लेकर अपमानित किए जाने का तूफान मेरे लिए अपने देश की आम हवा की तरह है.”

फिर भी, कांग्रेस ने टैगोर की सलाह मानी. उसी वर्ष कांग्रेस की कार्यकारिणी समिति ने कहा कि “अतीत के अनुभव और लंबे संघर्ष की याद के साथ-साथ लोकप्रिय उपयोग ने इस गीत की पहली दो पंक्तियों को हमारे राष्ट्रीय आंदोलन का जीवंत और अविभाज्य हिस्सा बना दिया है, और वे हमारी श्रद्धा और सम्मान की अधिकारी हैं.”

पहली दो पंक्तियों में ऐसी कोई बात नहीं थी जिसे कोई आपत्तिजनक कह सके. अन्य पंक्तियों के बारे में समिति ने कहा कि वे शायद ही कभी गाई जाती थीं. “उनमें कुछ ऐसे संकेत और धार्मिक विचारधाराएं थीं जो भारत के अन्य धार्मिक समूहों की विचारधाराओं के अनुरूप नहीं हो सकती थीं.”

समिति ने संतुलन बनाने की कोशिश करते हुए कहा, “इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए, समिति अनुशंसा करती है कि जहां कहीं भी बंदे मातरम गाया जाए, आयोजकों को यह पूर्ण स्वतंत्रता हो कि वे इसके अतिरिक्त या इसके स्थान पर कोई अन्य आपत्तिहीन गीत भी गा सकें.”

बेशक, यह समझौता उपमहाद्वीप के विभाजन को नहीं रोक सका. लेकिन स्वतंत्रता के तीन साल बाद भी यह स्पष्ट था कि नए राष्ट्र की चेतना से इस गीत को हटाया नहीं जा सकता था.

24 जनवरी 1950 को संविधान सभा के अंतिम सत्र के अंतिम दिन, इसके अध्यक्ष डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने घोषणा की. टैगोर का जन गण मन राष्ट्रीय गान होगा. वंदे मातरम, “जिसने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में ऐतिहासिक भूमिका निभाई है, उसे भी जन गण मन के समान सम्मान और समान दर्जा प्राप्त होगा.”

भट्टाचार्य ने वंदे मातरम की जीवनी में लिखा कि इस निर्णय पर बहस या मतदान नहीं हुआ. यह नहीं पता कि क्या कांग्रेस या संविधान सभा में राष्ट्रीय गान के चयन पर मतभेद थे. परंतु यह दर्ज है कि उसी दिन सभा की कार्यवाही के अंत में जन गण मन और वंदे मातरम दोनों गाए गए.

(इस रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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