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Thursday, 13 November, 2025
होमफीचरकैसे ‘मोहब्बत की नदी’ से चिनाब बन गई बेचैन टिक-टिक करता टाइम बम

कैसे ‘मोहब्बत की नदी’ से चिनाब बन गई बेचैन टिक-टिक करता टाइम बम

चिनाब नदी के किनारे रहने वाले 23 साल के एक युवक ने कहा, ‘अगर हम इसकी धार को यूं ही समेटते रहे, तो ये ज़रूर हमारे घरों में घुस आएगी. इसे गुस्सैल नदी कैसे कह सकते हैं, इसमें नदी की गलती तो नहीं है.’

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नई दिल्ली: मोहब्बत की नदी कहे जाने वाली चिनाब के इस उपमहाद्वीप में कई नाम हैं — बेचैन नदी, बेकाबू नदी. यह हीर-रांझा और सोहनी-महीवाल जैसी दर्दभरी प्रेम कहानियों का आधार रही है और भारत-पाकिस्तान के बीच भू-राजनीतिक खींचतान का भी केंद्र, लेकिन चिनाब की असली कहानी भूगर्भीय सर्वेक्षणों और स्टडीज़ के उन पन्नों में दर्ज है, जो बताते हैं — यह वह नदी है जिसे रोका नहीं जा सकता.

और इस साल, यह जम्मू तक पहुंच गई और तबाही मचा दी.

इस मानसून में सिंधु बेसिन की सभी नदियां सीमा के दोनों ओर उफान पर थीं, जहां पूर्वी सिंधु की नदियां — ब्यास, रावी और सतलुज ने हिमाचल प्रदेश और पंजाब में तबाही मचाई, वहीं चिनाब बेसिन और इसकी सहायक नदियां जैसे तवी लोगों और विशेषज्ञों के लिए बढ़ती चिंता का कारण बन गई हैं.

हिमालय से निकलने वाली नदी होने के कारण, चिनाब में दुनिया में सबसे ज्यादा गाद (सिल्ट) पाई जाती है, जिससे इस पर बनने वाले किसी भी निर्माण को स्थायी रखना मुश्किल हो जाता है. भारत ने इस नदी पर जो कुछ बांध बनाए हैं, उन्हें हर साल गाद निकालने के लिए खाली करना पड़ता है ताकि वे खराब न हों. झेलम या सतलुज के विपरीत, जो शहरों से गुज़रते हुए कुछ शांत हो जाती हैं, चिनाब हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के ऊबड़-खाबड़ पहाड़ों, बर्फ से ढकी चोटियों और ग्लेशियरों के बीच से होकर अकेले बहती है और इसी वजह से यह सिंधु बेसिन की सबसे शक्तिशाली और तीव्र नदियों में से एक है.

दक्षिण एशिया नेटवर्क ऑन डैम्स, रिवर्स एंड पीपल (SANDRP) की एसोसिएट कोऑर्डिनेटर परिनिता दांडेकर ने कहा, “चिनाब अकेली हिमालयी नदी है जिसे अब भी बचाया जा सकता है — इंसानों ने बाकी सबको खा लिया है. हिमाचल के जिन इलाकों में ब्यास और रावी छोटी धाराओं में सिमट चुकी हैं, वहीं हम आज भी चिनाब को पूरी शान से बहते देखते हैं.”

रिवर चिनाब, रामबन | कॉमन्स
रिवर चिनाब, रामबन | कॉमन्स

अब चिनाब सिंधु घाटी की सबसे ज्यादा बांध बनने वाली नदी बनने की राह पर है. ग्लेशियरों के पिघलने से बनने वाली यह नदी भारत में जितनी लंबी बहती है, उतनी ही लंबी ब्यास भी है. भारतीय सरकारी सर्वेक्षणों के अनुसार, इसका 15,000 मेगावॉट से अधिक जलविद्युत ‘क्षमता’ अभी भी पूरी तरह इस्तेमाल नहीं हुई है, लेकिन पहलगाम आतंकी हमले और अप्रैल 2025 में सिंधु जल संधि निलंबित होने के बाद, भारत ने इस नदी पर कई हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट्स को मंजूरी देना शुरू कर दिया.

जम्मू स्थित जलवायु कार्यकर्ता अनमोल ओहरी ने कहा, “अब तक तो हम चिनाब के अपने हिस्से का पानी भी नहीं ले रहे थे, जो हमें सिंधु जल संधि के तहत मिलना चाहिए था. IWT निलंबन के बाद जो प्रोजेक्ट्स शुरू हुए हैं, वो अचानक नहीं आए — उनकी योजना तो लंबे समय से बन रही थी.”

हालांकि, इन प्रोजेक्ट्स के साथ-साथ तवी जैसी सहायक नदियों पर बढ़ते अतिक्रमण, गाद की पुरानी समस्या और ग्लेशियर झील फटने (GLOF) जैसे नए खतरे — चिनाब के लिए विनाश का संकेत हैं. तवी में आई भीषण बाढ़ और कश्मीर में चिनाब की सहायक नदियों के किनारे हुए भूस्खलन और फ्लैश फ्लड्स, बड़ी समस्या के लक्षण हैं. करोड़ों साल पुरानी भौगोलिक संरचनाओं से उपजे संकट अब तेज़ रफ्तार से लोगों तक पहुंच रहे हैं और चिनाब किनारे रहने वालों को लगने लगा है कि नदी हर दिन अपना रंग बदल रही है.

जिस नदी का अपने लोगों की संस्कृति से इतना गहरा रिश्ता है, उसके लिए ये चेतावनियां नज़रअंदाज़ नहीं की जा सकतीं.

ओहरी ने कहा, “‘पार चन्ना दे’ एक पुराना लोकगीत है, जो आज भी सीमा के दोनों ओर गाया जाता है और यही बताने के लिए काफी है कि चिनाब नदी का ऐतिहासिक महत्व कितना गहरा है.”
ओहरी ने कहा, “राजा बदले, देश बदले, सरहदें बदलीं, लेकिन नदी वही रही. हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि यह यूं ही बहती रहे.”

चिनाब की गाद की समस्या

भारत में चिनाब बेसिन का एरियल व्यू देखने पर यह एक हरे-नीले रंग की सांप जैसी घुमावदार धारा दिखाई देती है जो पहले ऊपर की ओर जाती है, फिर नीचे उतरती है और कई छोटी धाराओं से मिलती है. यह ‘सातवीं श्रेणी का जलग्रहण क्षेत्र’ (seventh-order catchment) है, यानी यह एक परिपक्व नदी तंत्र है जिसमें कई बड़ी सहायक नदियां शामिल हैं. इसकी शुरुआत हिमाचल प्रदेश की लाहौल घाटी में चंद्रा और भागा नदियों के संगम से होती है, जो मिलकर चंद्रभागा बनाती हैं. इसका अर्थ है — ‘अर्धचंद्राकार नदी’. चंद्रभागा से जुड़ी लोककथाएं और मिथक हर धर्म में मिलते हैं, सिर्फ हिंदू धर्म में नहीं. ऋग्वेद में इसका उल्लेख ‘असिक्नी’ के रूप में मिलता है, जबकि पहाड़ों में चंद्रा और भागा के संगम से बना ढांचा बौद्ध धर्म में ‘मंडल’ के रूप में पवित्र माना जाता है.

हिमाचल के चंबा से गुज़रने के बाद, यह नदी जम्मू-कश्मीर के पदर घाटी से होकर डोडा, किश्तवाड़, जम्मू और अखनूर जिलों से गुज़रती है और फिर पाकिस्तान में प्रवेश करती है. जब यह भारत से अखनूर में निकलती है, तब इसके किनारे एक हिंदू मंदिर, एक सूफी दरगाह और एक सिख गुरुद्वारा स्थित हैं.

चिनाब नदी, अखनूर के पास हरे रंग से गंदले भूरे रंग में बदलती दिखाई देती है, जो इसके प्राचीन वैदिक नाम ‘असिक्नी’ (काला रंग) को सही साबित करती है | GIS डेटाबेस, जम्मू विश्वविद्यालय, रिमोट सेंसिंग विभाग
चिनाब नदी, अखनूर के पास हरे रंग से गंदले भूरे रंग में बदलती दिखाई देती है, जो इसके प्राचीन वैदिक नाम ‘असिक्नी’ (काला रंग) को सही साबित करती है | GIS डेटाबेस, जम्मू विश्वविद्यालय, रिमोट सेंसिंग विभाग

जम्मू विश्वविद्यालय के रिमोट सेंसिंग विभाग के प्रमुख ए.एस. जसरोतिया, जिन्होंने जीआईएस प्लेटफॉर्म तैयार किया, उनका कहना है कि नदी के इस गंदले रंग की वजह मानसूनी बहाव हो सकती है.

जसरोतिया ने कहा, “अधिकांश सैटेलाइट तस्वीरें छह महीने से एक साल पुरानी हैं और मानसून के दौरान नदी का तेज़ कटाव अच्छी तरह जाना-माना तथ्य है.”

चिनाब नदी में हिमालय की बाकी नदियों, यहां तक कि गंगा से भी ज्यादा गाद पाई जाती है.

और यह गाद की समस्या सिर्फ मौसमी नहीं है. 1990 के दशक से हुए भूगर्भीय अध्ययनों में पाया गया है कि चिनाब में मिट्टी का कटाव अन्य हिमालयी नदियों की तुलना में बहुत अधिक है, जिससे बड़े निर्माण प्रोजेक्ट्स यहां जोखिम भरे साबित होते हैं.

दरअसल, 2016 की एक स्टडी में अनुमान लगाया गया कि सलाल बांध के पास चिनाब नदी हर साल करीब 4.8 करोड़ मीट्रिक टन गाद लेकर आती है — जबकि एक अन्य स्टडी के अनुसार सतलुज का सालाना सिल्ट लोड सिर्फ 0.4 लाख मीट्रिक टन है. इसका कारण हिमालय के भूवैज्ञानिक इतिहास और सिंधु जल संधि के भू-राजनीतिक इतिहास से जुड़ा है.

यह लंबे समय से मालूम है कि हिमालयी नदियों में भारी मिट्टी कटाव और अवसादन (सेडिमेंटेशन) की प्रवृत्ति होती है और इसका कारण स्वयं हिमालय पर्वतमाला की प्रकृति है. करीब 5 करोड़ साल पुरानी होने के बावजूद, ये पर्वत भूगर्भीय दृष्टि से ‘युवा’ माने जाते हैं और अभी भी भूगर्भीय रूप से अत्यंत सक्रिय हैं. ये पहाड़ आज भी ऊंचे होते जा रहे हैं, जिससे भूमि अस्थिर और नाज़ुक बनी रहती है और गाद उत्पादन व मिट्टी कटाव बढ़ता जाता है.

चिनाब में गाद की अधिकता का एक और कारण यहां के जंगलों की कमी है. हिमालयन फॉरेस्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट (HFRI) की 2022 की एक रिपोर्ट के अनुसार, चिनाब बेसिन के ऊपरी इलाकों में बहुत कम वनस्पति है.

रिपोर्ट में लिखा है — “चिनाब नदी बेसिन ऊंचे इलाकों, असमतल रिज, घाटियों, बजरी और चट्टानी क्षेत्रों से बना है. ऊंचाई वाले क्षेत्रों में वनस्पति बहुत कम है, जिसके कारण बारिश का पानी सीधे बह जाता है और नदी में भारी गाद जमा होती है.”

पिछली सदी में सिंधु जल संधि ने चिनाब की दिशा और सेहत दोनों को प्रभावित किया है. इस संधि के तहत चिनाब पाकिस्तान को दी गई नदी है, लेकिन भारत को इसके पानी का ‘गैर-उपभोगात्मक’ उपयोग करने की अनुमति है — जैसे छोटे ‘रन-ऑफ-द-रिवर’ बांध बनाना.

जम्मू-कश्मीर में चिनाब नदी पर बना बगलिहार बांध | जीआईएल डेटाबेस, जम्मू विश्वविद्यालय, रिमोट सेंसिंग विभाग
जम्मू-कश्मीर में चिनाब नदी पर बना बगलिहार बांध | जीआईएल डेटाबेस, जम्मू विश्वविद्यालय, रिमोट सेंसिंग विभाग

लेकिन ये बांध — जैसे सलाल (रेसी), बगलिहार (रामबन), और दुल हस्ती (किश्तवाड़) सभी गाद से बुरी तरह प्रभावित हैं.

दरअसल, 690 मेगावॉट का सलाल बांध हर साल अपने बेसिन में जमा गाद को निकालने के लिए बंद करना पड़ता है. स्टडीज़ से पता चला है कि बांध बनने के कुछ ही वर्षों में इसकी टरबाइन और अन्य उपकरण गाद के कारण क्षतिग्रस्त हो गए थे.

अंतरराष्ट्रीय सिंचाई एवं जल निकासी आयोग (ICID) के महासचिव अश्विन पंड्या ने बताया, “इनमें से कोई भी बांध पानी को संग्रहित करने के लिए नहीं है; ये सिर्फ बिजली उत्पादन के लिए हैं. चूंकि सिंधु जल संधि में बड़े रिजरवॉयर बनाने की इज़ाज़त नहीं है, इसलिए हमने चिनाब में कभी बड़े स्टोरेज नहीं बनाए.”

संधि की यही शर्त, जो बड़े जलाशय निर्माण को रोकती है, अनजाने में नदी के स्वास्थ्य के लिए फायदेमंद साबित हुई है.

गाद की अधिकता से नदी का तल ऊपर उठता जाता है, जिससे बाढ़ के समय पानी मुख्य धारा से हटकर इधर-उधर फैल जाता है. यही कारण है कि चेनाब, खासकर ऊपरी हिस्सों में, बाढ़ के लिए बेहद संवेदनशील बन गई है.

सलाल बांध, रियासी, जम्मू और कश्मीर | कॉमन्स
सलाल बांध, रियासी, जम्मू और कश्मीर | कॉमन्स

इस साल के मानसून में, धाराली ही अकेला हिमालयी इलाका नहीं था जो प्रभावित हुआ. 30 जुलाई को हिमाचल में चिनाब की सहायक नदी ‘मियार नाला’ में आए फ्लैश फ्लड्स ने इतनी गाद और मलबा नीचे लाया कि पूरी घाटी तबाह हो गई. परिनिता दांडेकर के अनुसार, ऐसे हादसे चिनाब बेसिन में अब लगभग आम हो चुके हैं और यह इसकी नाज़ुकता को साफ दिखाते हैं.

दांडेकर ने कहा, “इसके बावजूद, हिमाचल और जम्मू-कश्मीर दोनों में चिनाब पर 44 से ज्यादा अलग-अलग बांध प्रोजेक्ट या तो निर्माणाधीन हैं या प्रस्तावित. यह न सिर्फ पर्यावरण के लिए खतरनाक है, बल्कि भौगोलिक अस्थिरता के कारण आर्थिक दृष्टि से भी बेहद गलत निवेश साबित होगा.”

ग्लेशियर पिघलने की समस्या

चिनाब नदी की चुनौतियां सिर्फ गाद भराव से नहीं, बल्कि इसके स्रोत — ग्लेशियरों से शुरू होती हैं. वैज्ञानिक दशकों से चेतावनी दे रहे हैं कि जिन ग्लेशियरों से ये नदियां बनती हैं, वो बहुत तेज़ी से पिघल रहे हैं. इसका दोहरा असर हो रहा है — एक, नदी के आकार और बहाव में लगातार बदलाव; दूसरा, ग्लेशियर झील फटने की घटनाओं में बढ़ोतरी.

हिमाचल के लाहौल-स्पीति ज़िले की बर्फ़ से ढकी चोटियों में, जहां से चिनाब नदी का उद्गम होता है, एक ‘टिक-टिक करता टाइम बम’ छिपा बैठा है — समुद्र तापू ग्लेशियल झील.

यह झील चंद्रा नदी को पानी देती है और वैज्ञानिक इसे कई सालों से लगातार देख रहे हैं, क्योंकि 1965 के बाद से इसका आकार 905 प्रतिशत तक बढ़ गया है. इसकी स्थिति और आसपास जमा गाद को देखते हुए विशेषज्ञ लगभग निश्चित हैं कि यह झील कभी भी फट सकती है और नीचे बसे गांवों में भयानक बाढ़ ला सकती है. यानी यह एक और “सिक्किम जैसी” आपदा का इंतज़ार कर रही है और हालात को और गंभीर बनाता है कि झील से 45 किलोमीटर दूर छत्रू गांव में एक हाइड्रोपावर प्रोजेक्ट बनाने की योजना चल रही है.

समुद्र तापू सबसे बड़ी झील है, लेकिन बारा शिंगरी और घेपन गाथ जैसी अन्य ग्लेशियल झीलें भी तेज़ी से फैल रही हैं और इनके अलावा सैकड़ों छोटी झीलें भी हैं जो ग्लेशियरों के पिघलने से बनी हैं.

दांडेकर ने कहा, “चिनाब बेसिन की सारी ग्लेशियल झीलें असल में टाइम बम जैसी हैं. चंद्रा और भागा दोनों नदियां ग्लेशियरों के पास से निकलती हैं और समय के साथ झीलों की संख्या और आकार दोनों बढ़े हैं.”

2019 की एक स्टडी के अनुसार, सिर्फ चंद्रा बेसिन में ही 200 से ज्यादा ग्लेशियर हैं और अनुमान है कि 2100 तक उनका आकार आधा रह जाएगा.

तुपचिलिंग मठ के युवा भिक्षु सोनम, चंद्रा और भागा नदियों के संगम को निहारते हुए | फोटो: अभय काणविंदे/स्पेशल अरेंजमेंट
तुपचिलिंग मठ के युवा भिक्षु सोनम, चंद्रा और भागा नदियों के संगम को निहारते हुए | फोटो: अभय काणविंदे/स्पेशल अरेंजमेंट

अश्विन पंड्या ने समझाया, “यह एक बहुत सीधी बात है कि जब ग्लेशियर पिघलते हैं, चाहे वह जलवायु परिवर्तन के कारण हो या किसी और वजह से, तो उस पानी को कहीं न कहीं इकट्ठा होना ही है. इस तरह ये झीलें बनती हैं, लेकिन ये स्थायी नहीं होतीं कभी न कभी ये अस्थायी झीलें टूटकर अपने प्राकृतिक बांधों को तोड़ देती हैं और अचानक भारी बाढ़ का कारण बनती हैं.”

परिनिता दांडेकर की संस्था SANDRP (South Asia Network on Dams, Rivers and People) ने वैज्ञानिकों और फील्ड सर्वेक्षणों से जानकारी इकट्ठा की है ताकि चिनाब बेसिन की चुनौतियों को समझा जा सके. उनका निष्कर्ष साफ है, “जो इलाके भूकंपीय रूप से सक्रिय हैं और जहां लगातार जलवायु आपदाएं आती रहती हैं, वहां बड़े निर्माण प्रोजेक्ट्स के लिए बेहद सतर्क और सोच-समझकर योजना बनाना ज़रूरी है. साथ ही स्थानीय लोगों की भागीदारी और लोकतांत्रिक स्वीकृति भी होनी चाहिए.”

चिनाब का महत्व

लोककथाओं में हिमालय की हर नदी को एक विशेष गुण दिया गया है — किसी को वीरता, किसी को आस्था, किसी को सम्मान. चिनाब को मिला है ‘प्रेम’ का गुण. प्रसिद्ध पंजाबी प्रेम कहानी सोहनी-महिवाल की शुरुआत और अंत, दोनों चिनाब नदी से जुड़े हैं.

“चिनाब इश्कियां” दांडेकर कहती हैं, “चिनाब हमेशा प्रेम की नदी रही है. यह सिर्फ हीर-रांझा या सोहनी-महिवाल को ही नहीं जोड़ती, बल्कि सीमाओं के पार धर्मों और संस्कृतियों को भी जोड़ती है.”

नदी के किनारे रहने वाले लोगों के लिए यह न सिर्फ सांस्कृतिक बल्कि व्यावहारिक रूप से भी बेहद महत्वपूर्ण है. इसकी धारा जम्मू के बड़े हिस्से में खेती के लिए पानी पहुंचाती है — खासकर रणबीर नहर जैसी ब्रिटिश-पूर्व नहरों के ज़रिए, जिसे अब भारत सरकार सिंधु जल संधि के निलंबन के बाद और विस्तार देने की योजना बना रही है.

इसके अलावा, चिनाब की सहायक नदियां जैसे तवी — जम्मू जैसे शहरों की जीवनरेखा हैं, लेकिन इन्हीं सहायक नदियों पर अतिक्रमण बढ़ने से चेनाब की सेहत भी खतरे में पड़ रही है.

दांडेकर ने कहा, “देखिए, एक नदी अपने पूरे जलग्रहण क्षेत्र से बनती है. अगर किसी सहायक नदी में अतिक्रमण है, ग्लेशियर पीछे हट रहे हैं, GLOF घटनाएं बढ़ रही हैं, या गाद जमा हो रही है तो इन सबका असर आखिरकार चिनाब पर ही पड़ेगा.”

तवी रिवरफ्रंट डेवलपमेंट प्रोजेक्ट इसका एक उदाहरण है. 530 करोड़ रुपये की लागत वाला यह प्रोजेक्ट 2006 से अटका हुआ है और इससे पर्यावरणीय और आर्थिक दोनों तरह के नुकसान हुए हैं. परियोजना के तहत तवी नदी के किनारे वॉकवे, पार्क, जॉगिंग ट्रैक और प्लाज़ा बनाने की योजना है, लेकिन पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि इतने संवेदनशील पारिस्थितिक क्षेत्र में निर्माण करना खतरनाक है.

अब स्थानीय लोग भी इन समस्याओं को समझने लगे हैं. 23 साल की स्टूडेंट आरती कुमारी, जो जम्मू में तवी नदी के किनारे रहती हैं, याद करती हैं कि बचपन में नदी का पानी इतना साफ था कि लोग सीधे पी लेते थे. अब लगातार निर्माण मलबा फेंके जाने और नदी तल पर निर्माण कार्यों के कारण नदी का पानी मटमैला भूरा हो गया है, जो अब उनके घर के आंगन से दिखाई देता है.

उन्होंने बताया कि नदी के किनारे चल रहे रिवरफ्रंट प्रोजेक्ट के कारण नदी की धारा भी धीरे-धीरे संकरी होती जा रही है. उनके बुज़ुर्गों के मुताबिक, यही वजह है कि अब बाढ़ की घटनाएं बढ़ गई हैं.

आरती ने कहा, “जब बारिश होती है और पानी ज़्यादा होता है, तो हमें बाढ़ के पानी को निकलने के लिए जगह देनी चाहिए. अगर हम नदी की चौड़ाई घटाते रहेंगे, तो पानी ज़रूर हमारे घरों और किनारों तक पहुंच जाएगा. इसे ‘गुस्सैल नदी’ कैसे कह सकते हैं? इसमें नदी की गलती तो नहीं है.”

(यह तीन-पार्ट वाली सीरीज़ “Angry Rivers” की दूसरी स्टोरी है.)

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: जो ब्यास नदी कभी शांत रहती थी, वह अब उग्र क्यों हो रही है?


 

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