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Thursday, 10 October, 2024
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इतिहास या प्रोपेगैंडा? ‘ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स’ पर बनी हिंदी फिल्म को लेकर राइमा सेन को मिल रहीं धमकियां

'मां काली' 1946 के कलकत्ता दंगों के 'मिटाए गए इतिहास' को उजागर करने का दावा करती है, लेकिन राइमा सेन अभिनीत फिल्म को एक दर्दनाक अतीत का प्रयोग करने वाली 'प्रोपेगैंडा' फिल्म के रूप में भी आलोचना मिल रही है.

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कोलकाता: अखबार का कागज पीला पड़ रहा है, एक परिवार की तस्वीर धुंधली हो गई है, लेकिन अक्षर बड़े, काले और स्पष्ट रूप से चिल्लाकर कहते हैं: घोष परिवार, 16 अगस्त 1946 से गायब है. करीब से देखने पर कुछ और शब्द ध्यान में आते हैं: “हत्या का तांडव”, लूट, और आगजनी”, “लगभग 6,000 लोग मारे गए”.

यह अभिलेखीय सामग्री नहीं है, बल्कि आगामी हिंदी फिल्म मां काली: द स्टोरी ऑफ मदरलैंड के प्रमोशनल पोस्टरों में से एक है. फिल्म में बंगाली अभिनेत्री राइमा सेन ने अपराजिता घोष की भूमिका निभाई है, जो एक काल्पनिक मां और पत्नी है और 16 अगस्त 1946 को कलकत्ता में भड़की भयानक सांप्रदायिक हिंसा में फंस गई थी. इसे ‘ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स’ के रूप में भी जाना जाता है. दंगे कई दिनों तक भड़के रहे और इसमें विभन्न समुदायों के हजारों लोग मारे गए. अलग मुस्लिम मातृभूमि की मांग के लिए मुस्लिम लीग के “प्रत्यक्ष कार्रवाई दिवस” के आह्वान से प्रज्वलित, यह खूनी अध्याय एक बार फिर विभाजन और संघर्ष के स्रोत के रूप में उभरा है.

विजय येलाकांति द्वारा निर्देशित, फिल्म “पश्चिम बंगाल के मिटाए गए इतिहास” को उजागर करने का दावा करती है, लेकिन यह एक और दक्षिणपंथी ‘प्रोपैंगैंडा’ फिल्म के रूप में भी आलोचना का शिकार हो रही है, जो लोगों को ध्रुवीकृत या पोलराइज़ करने के लिए एक दर्दनाक अतीत का फायदा उठा रही है, खासकर 2024 लोकसभा चुनाव से पहले.

जबकि मां काली के इस साल के अंत में स्क्रीन पर आने की उम्मीद है, इसके प्रमोशनल मटीरियल पहले से ही धूम मचा रहे हैं, खासकर बंगाल में. और राइमा सेन का कहना है कि ज्यादातर प्रतिक्रिया उन्हें मिल रही है, जो न केवल ऑनलाइन आलोचना तक ही सीमित नहीं है बल्कि “धमकी भरी कॉल” का सामना करना पड़ रहा है.

दिप्रिंट से बात करते हुए, सेन ने कहा कि उनका लैंडलाइन फोन बजना बंद ही नहीं करता है और जब भी वह या परिवार का कोई सदस्य इसे उठाता है, तो दूसरी ओर से कोई न कोई उनसे बदतमीजी से पूछता है कि उन्होंने ग्रेट कलकत्ता किलिंग्स पर इस फिल्म में क्यों काम किया.

सेन ने कहा, “इससे पहले कि चीजें हाथ से निकल जाएं, मैं बस उन लोगों से कहना चाहती हूं जो मुझे परेशान कर रहे हैं कि वे कोई फैसला सुनाने से पहले फिल्म देख लें. अगस्त 1946 की घटनाओं को बड़े पर्दे पर दिखाए जाने की जरूरत है,” सेन की पिछली मूवी विवेक अग्निहोत्री की द वैक्सीन वॉर (2023) थी, जिसकी यह कहकर आलोचना की गई थी कि यह राजनीतिक एजेंडे को बढ़ावा देती है.

मां काली के अभिनेता राइमा सेन और अभिषेक ने बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस के साथ फिल्म का पोस्टर पकड़ा हुआ है फोटो: इंस्टाग्राम/@raimasen
मां काली के अभिनेता राइमा सेन और अभिषेक ने बंगाल के राज्यपाल सीवी आनंद बोस के साथ फिल्म का पोस्टर पकड़ा हुआ है फोटो: इंस्टाग्राम/@raimasen

निर्देशक येलाकांति के अनुसार, मां काली, घोष परिवार के जरिए “सांप्रदायिक हिंसा और राजनीतिक उथल-पुथल की पृष्ठभूमि के खिलाफ इतिहास की कठिनाइयों और त्रासदियों.” को दिखाती है, भले ही घोष का चरित्र काल्पनिक है. उन्होंने कहा कि उनके रिसर्च से वास्तविक जीवन के कई परिवारों का पता चला, जिन्हें अगस्त 1946 के दंगों के दौरान इसी तरह की कठिनाइयों का सामना करना पड़ा था.

फिल्म निर्माता, जिनकी आखिरी निर्देशित फिल्म मनोवैज्ञानिक थ्रिलर डब्ल्यू/ओ राम (2018) थी, का कहना है कि लगभग 80 साल पहले हुए दंगों का प्रभाव बंगाल में अभी भी दिखता है.

येलाकांति ने कहा, ”बंगाल में हिंसा का चक्र वास्तव में कभी नहीं रुका. 1946 से लेकर, 1947 के विभाजन, और 1971 के स्वतंत्रता संग्राम तक जबकि पूर्वी पाकिस्तान बांग्लादेश बन गया, हिंदू परिवार सांप्रदायिक नफरत और हिंसा के कभी न खत्म होने वाले चक्र में फंस गए. किसी को तो वह कहानी बताने की ज़रूरत थी.”

इतिहास, प्रचार, फिल्में

अपने प्रमोशन के आधार पर, मां काली स्पष्ट रूप से एक वैचारिक पक्ष को चुनती हुई नज़र आती है. घोष परिवार की ‘क्लिपिंग’ के अलावा, एक अन्य पोस्टर गोपाल पाठा को दिखाता है, जो 1946 का एक विवादास्पद व्यक्ति था. कुछ लोगों द्वारा इसे एक हिंदू प्रतिरोध सेनानी के रूप में देखा गया और कुछ लोगों द्वारा एक हत्यारे दुष्ट के रूप में देखा गया. पोस्टर में उसे “कलकत्ता के रक्षक” का टैग दिया गया है. छोटे अक्षरों में, यह कहा गया है: “वह व्यक्ति जिसने कलकत्ता को पाकिस्तान में बदलने के (बंगाल प्रधानमंत्री) सुहरावर्दी के सपने को साकार नहीं होने दिया.”

लेकिन राइमा सेन इस बात पर जोर देती हैं कि मां काली को सिर्फ पोस्टरों पर आधारित प्रोपेगैंडा फिल्म कहना अनुचित है.

“फिल्म देखिए. मां काली उन बंगालियों के बारे में है जिन्होंने विभाजन से पहले, विभाजन के दौरान और उसके बाद भी कष्ट झेले.” एक बंगाली होने के नाते, मैं दुनिया को अगस्त 1946 की घटनाओं और उसके बाद की घटनाओं को दिखाने के लिए यह फिल्म करना चाहती थी. यह अब तक की मेरी सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिका थी.”

पिछले कुछ वर्षों में, द कश्मीर फाइल्स और द केरल स्टोरी से लेकर आर्टिकल 370 और हाल ही में, स्वतंत्र वीर सावरकर तक “सच्ची घटनाओं पर आधारित” कई फिल्मों को आलोचकों के एक वर्ग द्वारा प्रोपेगैंडा बताया गया है. इन परियोजनाओं को नरेंद्र मोदी सरकार का पक्ष लेने और इतिहास से चुनिंदा सच्चाइयों को प्रस्तुत करके भारतीय मुसलमानों को खराब दिखाने की कोशिश के रूप में देखा जाता है.

लेकिन सेन का कहना है कि मां काली केवल बंगाल के इतिहास के “एक बहुत महत्वपूर्ण हिस्से” को चित्रित करना चाहती हैं.

उन्होंने कहा, “मैं अन्य फिल्मों पर टिप्पणी नहीं कर सकती. न ही मैं उन लोगों पर टिप्पणी करना चाहती हूं जो इस तरह से फिल्मों की ब्रांडिंग करते हैं, क्योंकि प्रोपेगैंडा एक बहुत ही सब्जेक्टिव मामला है,”

गोपाल पाठा के पोते शांतनु मुखर्जी ने दिप्रिंट को बताया कि उन्होंने मां काली का पोस्टर देखा है और वह फिल्म में अपने दादा के चरित्र को लेकर आशान्वित हैं.

मुखर्जी ने कहा, “2018 में, मिलन भौमिक द्वारा निर्देशित दंगा द रॉयट नामक बंगाली भाषा की फिल्म में मेरे दादाजी से प्रेरित एक चरित्र दिखाया गया था. फिल्म फ्लॉप रही. उन्होंने सांप्रदायिक हिंसा पर एक कहानी में प्रेम का पहलू जोड़ने की कोशिश की और यह बिल्कुल भी काम नहीं आया,”

मुखर्जी ऐसे किसी भी चित्रण से सावधान हैं जो गोपाल पाठा को एक कट्टर व्यक्ति के रूप में दिखाता है.

A photograph from a family album of Gopal Patha sculpting a statue of Subhas Chandra Bose | Courtesy Santanu Mukherjee
गोपाल पाठा के पारिवारिक एल्बम से सुभाष चंद्र बोस की मूर्ति बनाते हुए एक तस्वीर | साभारः शांतनु मुखर्जी

उन्होंने कहा,“मेरे दादा मुस्लिमों से नफरत करने वाले नहीं थे. हां, उन्होंने हिंदुओं की जान बचाने के लिए हथियार उठाए. लेकिन उन्होंने एक मुस्लिम दंगाई और एक ऐसे मुस्लिम पुरुष या महिला के बीच स्पष्ट अंतर किया, जिसका सांप्रदायिक हिंसा से कोई लेना-देना नहीं था.”

मुखर्जी ने इस बात पर जोर दिया कि ऐसे राजनीतिक रूप से तनावपूर्ण समय में, कोई भी गलत बयानी न केवल पाठा की विरासत को नुकसान पहुंचाएगी, बल्कि सामाजिक सद्भाव को भी नुकसान पहुंचाएगी. उन्होंने कहा, “मेरे दादाजी का युद्ध घोष, ‘अगर तुम एक हिंदू को मारोगे, तो हम 10 मुसलमानों को मार डालेंगे’, केवल उन दंगाइयों के लिए एक चेतावनी थी जो शहर में घूम-घूमकर मार रहे थे, अपंग बना रहे थे और बलात्कार कर रहे थे. मुझे उम्मीद है कि मां काली के निर्माताओं ने उनका ठीक से अध्ययन किया होगा.”

विवाद बिकता है?

जब सिनेमा की बात आती है, तो विवाद दोधारी तलवार की तरह होता है. फिल्म समीक्षक शर्मी अधिकारी ने कहा, यह बाधाएं पैदा कर सकता है लेकिन चर्चा भी पैदा कर सकता है.

उन्होंने कहा, “मैं मां काली पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहता क्योंकि फिल्म अभी तक रिलीज़ नहीं हुई है. लेकिन फिल्म निर्माताओं को अक्सर ऐसी ब्रांडिंग से फायदा होता है. अगर कुछ आलोचकों का उद्देश्य दर्शकों को यह बताना है कि वे कुछ खास तरह की फिल्में न देखें, तो अक्सर इसका ठीक विपरीत होता है. लोगों की रुचि इसमें बढ़ जाती है और वे यह देखने चले जाते हैं कि क्या ज्ञात घटनाओं के बजाय ऐतिहासिक घटनाओं को किसी अलग रूप में प्रस्तुत किया गया है.

अधिकारी ने कहा कि यह सुनने में भले ही निंदनीय लगे, लेकिन फिल्म निर्माता अक्सर अपने पक्ष में नकारात्मक प्रोपेगैंडा का लाभ उठाने की कोशिश करते हैं, जिसमें कलाकारों की परेशानियां भी शामिल हैं. उन्होंने कहा, “लेकिन मुझे उम्मीद है कि राइमा सेन का उत्पीड़न बंद हो जाएगा.”

मां काली में सेन की भूमिका उनके द्वारा हाल ही में निभाए गए अन्य भागों से काफी अलग है. अधिकारी ने कहा, “बंगाली ओटीटी प्लेटफॉर्म होइचोई में कलंका नामक हालिया श्रृंखला में, राइमा सेन ने एक आधुनिक पत्नी की भूमिका निभाई, जिसे ओपन मैरिज से कोई समस्या नहीं है. उन्होंने किरदार को बखूबी निभाया. कैसे वह एक महिला का किरदार निभाती है जो दबाव में ताकत दिखाती है और लोगों को देवी काली की याद दिलाती है, यह देखना बाकी है.”

अपने किरदार के बारे में सेन ने कहा कि उन्होंने कभी ऐसी महिला का किरदार नहीं निभाया है, जिसमें मां काली की अपराजिता जैसी कई खूबियां हों. उन्होंने कहा, “यह मेरे करियर की सबसे चुनौतीपूर्ण भूमिका है. मुझे राजनीति में आने में कोई दिलचस्पी नहीं है, न ही मैं राजनीति से जुड़ी हूं. मैं फिल्म की कहानी और उसमें निभाए जाने वाले किरदार से आकर्षित हुई. इतिहास से परे, यह एक परिवार और उसके बीच के संबंधों की कहानी है.”

(संपादन : शिव पाण्डेय)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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