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Sunday, 1 December, 2024
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बजट काफी जटिल संदेश देता है, यह दिखाता है कि बीजेपी को ‘BASE’ पसंद है

इस बजट की कोई कमजोरी है तो यह कि वह कोई आर्थिक संदेश नहीं दे रहा है. आर्थिक सुधारों पर कोई बड़ा बयान नहीं; निजीकरण, विनिवेश का कोई जिक्र नहीं; न करों में कोई बड़ी छूट, प्रोत्साहनों और विनियमन को लेकर कोई कदम नहीं

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समझने में आसानी के लिए और शब्दों को सांकेतिक रूप से प्रदर्शित करने के प्रति प्रधानमंत्री के प्रेम को देखते हुए इसे हम बजट का ‘बेस’ (अंग्रेजी शब्दों बी, ए, एस, ई) का प्रभाव कह सकते हैं. या सलमान खान की फिल्म ’सुल्तान’ से उधार लेते हुए हम यह भी कह सकते हैं कि भाजपा को ‘बेस’ पसंद है. यहां बी, ए, एस, ई से अर्थ है— बिहार, आंध्र प्रदेश, समाजवाद, और एम्पलॉयमेंट (रोजगार) है.

2024 के केंद्रीय बजट के राजनीतिक संदेशों की गहराई में जाने से पहले हम इस जरूरत को रेखांकित कर लें कि अर्थनीति को कभी राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता.

केंद्रीय बजट के वित्तीय, राजकोषीय, और करों से संबंधित पहलुओं के विश्लेषण पर जबकि अखबारों के कई पन्ने रंगे जाते हैं और टीवी चैनलों के पर्दों को गुलजार किया जाता है, यह किसी सरकार की ओर से हर साल के लिए दिया गया सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक बयान होता है. यह न केवल राजनीतिक अर्थव्यवस्था पर दिया गया बयान होता है बल्कि यह भी दर्शाता है कि सरकर किस दिशा में जा रही है और उसने कहां शुरुआत की है. इस साल के बजट में सरकार की दिशा से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि उसने शुरुआत कहां से की है.

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण के भाषण को दोबारा सुनिए. भाषण के पहले 25 मिनट तो उन्होंने लगभग पूरी तरह आंध्र प्रदेश और बिहार को समर्पित कर दिए हैं. अगर आपको लगता है कि अपने पूरे भाषण का करीब एक चौथाई हिस्सा कुल 28 में से केवल दो राज्यों को देकर उन्होंने कुछ अति कर दी है तो आप इसके राजनीतिक संदेश की अनदेखी करने का जोखिम उठा रहे हैं. मोदी सरकार के अब तक के 10 बजट भाजपाई बजट रहे हैं. लेकिन इस साल का बजट उनका पहला गठबंधन, एनडीए बजट है.

यही वजह है कि केवल दो राज्यों को इतना समय और इतना पैसा दिया गया, जबकि इन दो राज्यों की कुल आबादी भारत की कुल आबादी के 15 प्रतिशत से कम ही है. इन दोनों राज्यों का अतीत में विभाजन किया जा चुका है और वे अपने लिए विशेष राज्य के दर्जे की मांग करते रहे हैं. लेकिन किसी ने इस पर ध्यान नहीं दिया. लेकिन आज उनकी 18 सीटों (आंध्र की टीडीपी की 16 और बिहार के जदयू की 12) के बिना एनडीए अल्पमत में चली जाएगी. पेंच यही है.

ये 25 मिनट, और हजारों करोड़ रुपयों का वादा ऐसे रूपों में किया गया है जो अभी पैसे में तब्दील नहीं हुआ है—मेडिकल कॉलेज, हवाई अड्डे, एक्सप्रेसवे, और लगभग परित्यक्त मेगा हाइड्रो प्रोजेक्ट (आंध्र का पोलावरम प्रोजेक्ट) को पूरा करना. लेकिन यह सब अच्छा-खासा है. इसलिए, पहला राजनीतिक संदेश एक इकरारनामा जैसा है: पिछले दो के विपरीत हमारी तीसरी सरकार एक गठबंधन सरकार है. तो यह तो हुई उस बी और ए की बात, जिनका जिक्र हमने ऊपर ‘बेस’ (बी, ए, एस,ई) में किया है.

इस बजट में अगर कोई कमी है तो वह यह है कि वह कोई आर्थिक संदेश नहीं देता. आर्थिक सुधारों पर कोई बड़ा बयान नहीं दिया गया है, निजीकरण और विनिवेश का कोई जिक्र नहीं किया गया है, करों में कोई बड़ी कटौती नहीं की गई है, किसी प्रोत्साहन की घोषणा नहीं की गई है, विनियमन हटाने की कोई घोषणा नहीं की गई है. स्वागतयोग्य वित्तीय अनुशासन तो दूर, जिस टैक्स का नाम कुटिलता से ‘एंजेल टैक्स’ रखा गया था उसे खत्म करने का सुधारवादी कदम उठाया गया है. दो दशकों में शायद यह एकमात्र ऐसा बजट है जिसमें सरकार ने व्यवसाय-व्यापार जगत में अपने दखल को कम करने का जिक्र नहीं किया है. इसकी तुलना मोदी सरकार के उस बयान से कीजिए जो उसने महामारी के दौरान सुधारों की झड़ी के साथ जारी किया था और वादा किया था कि सरकार कुछ रणनीतिक महत्व वाले सेक्टरों को छोड़ सभी तरह के व्यवसायों से अलग हो जाएगी. वह इरादा लोकसभा चुनाव के उदासीन नतीजों (भाजपा के लिए) के नीचे दफन कर दिया गया है.

खुदरा आवकों की खोज करने पर हमें विनिवेश के खाते में केवल 50,000 करोड़ रुपये मिलते हैं. साल-दर-साल मोदी की सरकारें विनिवेश (निजीकरण नहीं, सरकारी उपक्रमों के शेयरों की बिक्री) के लक्ष्यों को पूरा करने में विफल रही हैं. 2014 के बाद से अब तक निजीकरण का एकमात्र बड़ा कदम एअर इंडिया के निजीकरण का था, मगर इस विचार को अब पूरी तरह भुला दिया गया है. इसके विपरीत, सरकार ने रिजर्व बैंक और सरकारी उपक्रमों से लाभांश के रूप में 2.9 लाख करोड़ रुपयों की आमद का बजट बनाया है. अब कामधेनु गायों की बातें करके मेरा ध्यान मत भटकाइए, जबकि सरकार मानती है कि उसके पास विशाल गौशाला है.

इस सरकार ने निजी क्षेत्र के लिए खरबों रुपये आवंटित किए हैं ताकि उसे लोगों को रोजगार देने का प्रोत्साहन मिले, समय-समय पर यह प्रोत्साहन सब्सिडी और अनुदानों के रूप में दिया जाएगा. यह प्रक्रिया इतनी जटिल है कि नयी दिल्ली में एक और ‘भवन’ के निर्माण को उचित ठहराया जा सकता है. निजी क्षेत्र में रोजगार पैदा करने का यह सबसे उल्लेखनीय सरकारी दखल है.

लेकिन वास्तविक दुनिया में, क्या व्यवसाय जगत इसलिए ज्यादा लोगों को रोजगार देता है कि सरकार इसका कुछ खर्च उठाएगी? व्यवसाय करने वाले अपना मुनाफा और वृद्धि देखकर ही रोजगार देते हैं; और मुक्त बाजार वाली व्यवस्था में, आर्थिक सुधारों से गुजर चुकी अर्थव्यवस्था में सरकार इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण करके, विनियमन करके और संतुलित कर व्यवस्था लागू करके, और यथासंभव सब कुछ करके इसमें मदद करती है. कोई भोलाभाला, सजावटी समाजवादी राज्य ही यह सोच सकता है कि इस तरह के प्रोत्साहन देकर ज्यादा रोजगार पैदा किए जा सकते हैं.

वास्तव में हम इस विश्लेषण की शुरुआत ‘एस’ शब्द यानी समाजवाद से कर सकते थे, क्योंकि यही इस बजट का मुखर राजनीतिक संदेश है. निचले स्लैब वाले करदाताओं को करों में मामूली छूट (अधिकतम 17,500 रुपये) दी गई है. लेकिन ‘अमीरों को निचोड़ लो’ वाली यूरोपीय नीति की ओर निश्चित कदम बढ़ाया जा रहा है. कैपिटल गेन्स टैक्स को हर स्तर पर बढ़ा दिया गया है. 10 फीसदी से बढ़ाकर 12.5 फीसदी किया जाना दरअसल आधार स्तर से 25 फीसदी की वृद्धि हो जाती है. अल्प अवधि वाले कैपिटल गेन्स टैक्स में तो और ज्यादा वृद्धि कर दी गई है—15 फीसदी से बढ़ाकर 20 फीसदी करने का मतलब है 33 फीसदी की वृद्धि. प्रॉपर्टी के मामले में ‘इंडेक्सेशन’ के लाभ को पिछली तारीख से वापस लेना भी यूरोपीय शैली की समाजवादी कर व्यवस्था की ओर ले जाता है.

इसमें सरकारी पैसे से चलाए जाने वाले इंटर्नशिप प्रोग्राम को, और रोजगार देने वालों को दिए जाने वाले प्रोत्साहनों (ऐसे विचार हमने काँग्रेस पार्टी के स्वघोषित तथा बेबाक समाजवादी घोषणापत्र में देखे) को जोड़ दीजिए तो आप बेहिचक यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि अपने 11वें साल में भाजपा ने वापस हमें इस सख्त सच के सामने खड़ा कर दिया है कि हमारी राजनीति में दूसरे चाहे जो भी वैचारिक तर्क मौजूद हों, समाजवाद हमारा राष्ट्रीय, द्विपक्षीय आर्थिक विचारधारा है.
एक समय एक मुद्दे पर काफी शोर मचा था कि भाजपा अगर जबरदस्त बहुमत के साथ वापस आई तो वह हमारे संविधान की प्रस्तावना में से वे दो शब्द (धर्मनिरपेक्ष एवं समाजवादी) हटा देगी जिन्हें इमरजेंसी के दौर में जोड़ा गया था. अब आप आश्वस्त हो सकते हैं कि ऐसा कुछ भी नहीं होने जा रहा. यह बजट साबित करता है कि हमने ऊपर जिस ‘बेस’ (बी, ए, एस, ई) का जिक्र किया है उसमें ‘एस’ शब्द समाजवाद के लिए ही है जिसे भाजपा अब कबूल करती है.

अंतिम शब्द ‘ई’, जाहिर है, एम्प्लॉयमेंट यानी रोजगार के लिए है. और नकदी जिस तरह उछाली जा रही है वह भी बताती है कि यह बजट उस नेतृत्व का राजनीतिक बयान है जिसने चुनाव में अपने प्रदर्शन पर मनन करने में काफी समय लगाया है. यही वजह है कि भविष्य की उसकी तमाम हवाई बातों और उसके बजट में कोई तालमेल क्यों नहीं है. भाजपा का ‘थिंक टैंक’ अभी भी इसी विश्लेषण में लगा है कि गलती क्या हो गई, और आगे और ज्यादा नुकसान से कैसे बचा जाए. अब तक की हमारी तमाम सरकारों की तरह इस सरकार ने भी गंभीर चुनौती का सामना होते ही वितरणवादी समाजवाद का दामन थामा है.

नोट: जिसका श्रेय हो उसे दिया जाना चाहिए। BASE फॉर्मूलेशन का विचार दिप्रिंट के डिप्टी एडिटर (इकोनॉमिक्स) टी.सी.ए. शरद राघवन ने दिया था. मैंने खुशी-खुशी उनसे यह उधार लिया.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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