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Saturday, 21 December, 2024
होमफीचर'हिन्दी को फ़र्क़ पड़ता है!' — अकेले साहित्य भाषा को नहीं बचा सकता

‘हिन्दी को फ़र्क़ पड़ता है!’ — अकेले साहित्य भाषा को नहीं बचा सकता

मोदी सरकार ने सक्रिय रूप से हिन्दी भाषा की वकालत की है, लेकिन भाषा विशेषज्ञों का कहना कि भाषा पर ऐसे खतरे हैं जो दिखते भी नहीं है.

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नई दिल्ली: जब हम सितंबर के महीने में प्रवेश कर चुके हैं तब सरकारी दफ्तरों से लेकर साहित्यिक संगोष्ठियों तक में हिन्दी और उसकी चिंताओं के प्रश्न हर साल की तरफ फिर एक बार उभर आए हैं. सरकारी दफ्तरों और संस्थाओं में तो इस मौके को उत्सव की तरह मनाया जाता है, लेकिन साहित्यिक और विचारशील समाज भाषा को बरतने की सलाहियत को लेकर चिंतित नज़र आता है.

मंगलवार शाम दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में एक ऐसी ही वैचारिक गोष्ठी हुई जिसमें एक दिलचस्प सवाल पर चर्चा हुई: हिन्दी को फर्क पड़ता है! लेकिन इस वाक्य के साथ जुड़े विस्मयादिबोधक चिन्ह को लेकर जो मतलब उभरे उसने श्रोताओं के साथ-साथ वक्ताओं को भी चौंका दिया.

सिनेमा विशेषज्ञ और इतिहासकार रविकांत ने कहा, “इस वाक्य के साथ विस्मयादिबोधक चिन्ह को देख मैं चौंक गया. इसे देखकर मैं इसमें अंग्रेज़ी की ध्वनि के बारे में सोचने लगा.”

यह चर्चा राजकमल प्रकाशन और इंडिया हैबिटेट सेंटर द्वारा आयोजित मासिक विचार-मंथन श्रृंखला का पहला सत्र था.

हैबिटेट सेंटर का गुलमोहर हॉल हिन्दी के जानकारों, विश्वविद्यालयों के छात्रों, पत्रकारों और हिन्दी से प्रेम करने वाले लोगों से खचाखच भरा था. इस बीच रविकांत सवाल उठाते हैं कि क्या हिन्दी भाषा खुद कुछ करती है? वे कहते हैं, “नहीं, बल्कि हिन्दी के नाम पर हम यानि कि समाज के लोग सबकुछ करते हैं. हिन्दी खुद कुछ नहीं करती है.”

लेकिन हिन्दी भाषा को लोकवृत्त में कैसे बरता जाए इस पर भाषा विशेषज्ञ राहुल देव ने कहा, “हर भाषा बहुत नाजुक होती है जो व्यवहार से जिंदा रहती है. हमारे बिना भाषा का अस्तित्व नहीं है यानि व्यवहार से बाहर उसका जीवन नहीं है.”

हालांकि, मोदी सरकार ने सक्रिय रूप से हिन्दी भाषा की वकालत की है, लेकिन भाषा विशेषज्ञों का कहना कि भाषा पर ऐसे खतरे हैं जो दिखते भी नहीं है. राहुल देव ने कहा, “हिन्दी जैसी विराट भाषा भी सुरक्षित नहीं है बल्कि अरक्षित (वल्नेरेबल) है और साहित्य हिन्दी को बचाने की स्थिति में नहीं है क्योंकि भाषा साहित्य से कहीं बड़ी चीज़ होती है और इसके लिए समाज के स्तर पर फर्क लाना होगा.”

राष्ट्रीय राजधानी के मध्य में आईएचसी में चर्चा उन दुर्लभ अवसरों में से एक थी जहां भाषा संबंधी बहस में बारीकियां दिख रही थीं, जिसमें विदेशी बनाम स्वदेशी की बाइनरी और सरकारी कार्यालयों में पखवाड़े भर चलने वाले समारोहों की वार्षिक रस्म से परे देखने का प्रयास किया गया.

उपस्थित सभी वक्ताओं की एक से अधिक भाषाओं में आवाजाही है और वे सभी भारत में चल रहे भाषाई संकट से अवगत थे. सभा में इतिहासकार और सीएसडीएस में एसोसिएट प्रोफेसर रविकांत, रेडियो जॉकी सायमा, डीयू में प्रोफेसर सुजाता और हिंद युग्म प्रकाशन चलाने वाले शैलेश भारतवासी शामिल थे.

हिन्दी को फ़र्क़ पड़ता है कार्यक्रम में बोलते हुए वक्ता | फोटो: स्पेशल अरेंजमेंट

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बहुमत बनाम अल्पमत की भाषा

मीडिया विश्लेषक और इस कार्यक्रम के मॉडरेटर विनीत कुमार ने शुरू में ही कहा कि सितंबर के महीने में कुछ सालों से हिन्दी लोकवृत्त में उत्सवधर्मिता का माहौल दिखता है, लेकिन सवाल है कि ये जश्न का माहौल बनता कैसे है. कुमार ने कहा, “क्या ये जश्न बहुमत के भाषा के कारण बनी है, अगर नहीं तो अल्पमत की भाषा क्या है?”

और यहीं से चर्चा उस राजनीति की तरफ मुड़ जाती है जो हिन्दी को लेकर दशकों पहले शुरू हुई थी और बीते सालों में एक नया रूप लेकर आई है. देव साफ इनकार करते हैं कि हिन्दी को लेकर बहुमत और अल्पमत की भाषा जैसा कोई सवाल है. उन्होंने कहा, “हिन्दी बहुमत की भाषा है ऐसा विचार कभी मन में आया नहीं. यह सांप्रदायिक भाव से उत्पन विचार है. बीते सालों में हिन्दी को उर्दू से बचाने का जो अभियान चला है ये विचार वहीं से आया है.”

देव ने कहा, “इस्लाम और मुसलमानों पर हमला करने के लिए उर्दू को ढाल बनाकर इस्तेमाल किया जा रहा है. दुनिया के कई देशों में भाषा का हथियार की तरह इस्तेमाल हुआ. उर्दू का भी ऐसा इस्तेमाल हुआ.”

1960 के दशक में हिन्दी को लेकर देश में काफी बहस हुई जो उत्तर बनाम दक्षिण के रूप में देश के सामने आया. सुमाथी रामास्वामी की किताब पैशन्स ऑफ द टंग का हवाला देते हुए देव ने कहा कि तमिलनाडु में 1880 से ही हिन्दी के खिलाफ गीतों के जरिए माहौल बनाया गया और इस भाषा को लेकर राक्षस जैसी छवि गढ़ी गई.


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अस्मिताओं का प्रतिनिधित्व

लंबे समय से हिन्दी की सबसे बड़ी चिंताओं में रहा है कि इस भाषा में ज्ञान की सामग्रियों की काफी कमी रही है. वहीं कार्यक्रम में वक्ताओं ने माना कि भाषा को समृद्ध करने के लिए इसमें नए-नए शब्दों को गढ़ना होगा और तकनीक के विकास के साथ जो नई-नई चीज़ें उभर रही हैं उनके लिए भी शब्दावली ढूंढनी होगी.

लेकिन स्त्री विमर्शकार सुजाता सवाल उठाती हैं कि क्या हिन्दी भाषा ठीक तरह से अस्मिताओं का प्रतिनिधित्व कर पा रहा है? उन्होंने कहा, “अंग्रेज़ी भाषा ने अपनी एक समावेशी दुनिया बनाई है और शब्दों का संसार गढ़ा है लेकिन हिन्दी में ऐसा नहीं किया गया. विचार और विमर्श की शब्दावली गढ़नी होगी सिर्फ साहित्य से इसकी मुकाबला नहीं किया जा सकता.”

हालांकि, सुजाता कहती हैं कि संकट भाषा का नहीं बल्कि समाज का होता है जिसमें वो बरती और इस्तेमाल की जाती है. उन्होंने कहा, “हमने अपनी भाषा को कैसा बना लिया है. इस भाषा में सबसे ज्यादा हेट स्पीच और ट्रॉलिंग हो रही है. यह भाषा की दिक्कत नहीं है कि हम इसके लिए समावेशी और करुणा वाला समाज विकसित नहीं कर पाए.”

बीते सालों में हिन्दी के कुछ शब्दों के क्षरण पर जब बात हुई तो श्रोताओं के चेहरे पर एक तरह की हंसी उभर आई क्योंकि वे उन शब्दों को रोज अपनी दिनचर्या में सुनते आए हैं. देव ने कहा, “आज के वक्त में भक्ति और भक्त जैसा शब्द प्रहार का शब्द हो गया है और सनातन जैसा शब्द आक्रामकता का प्रतीक बन गया है. हम क्षरण युग में ही जी रहे हैं.”


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क्या हिन्दी को फर्क पड़ता है!

हिन्दी बनाम अंग्रेज़ी का संघर्ष साफ तौर पर हिंदुस्तानी समाज में देखने को मिलता है. आरजे सायमा कहती हैं कि सबसे पहले यह ऐहसास दिलाना बंद करना होगा कि हिन्दी बोलना खुद को कमतर करना है. उन्होंने कहा, “सबसे बड़ी चुनौती है कि हम किसी भी भाषा में खुद को व्यक्त ही नहीं कर पा रहे हैं. जो भाषा हमारी पहचान है उसे सीखने की ज़रूरत है. कोई ज़ुबान कमतर नहीं है और किसी की ज़ुबान ऐसी नहीं है जिसने ताज पहना हो.”

लेकिन विनीत कुमार चर्चा के बीच दरियागंज से सर्टिफाइड हिन्दी की चर्चा करते हैं जिसका खंडन कार्यक्रम के अंत में सत्यानंद निरुपम ने किया. उन्होंने कहा, “मेरी राय में ऐसा कुछ नहीं है बल्कि आईटीओ पुल से निकली हुई हिन्दी को दरियागंज से बाहर जिस तरह सर्टिफाइड किया गया है. वह लोगों की सुविधा के अनुरूप है. हिन्दी का दायरा बढ़ाने के लिए हैं लेकिन ध्यान रखना चाहिए, दरियागंज ने हिन्दी नहीं, हिंदियों को आगे बढ़ाया है. दरियागंज हर उस जगह है, जहां हिंदियों के लिए काम हो रहा है.”

रविकांत मानते हैं कि हिन्दी का जनवादीकरण हुआ है और ये दरियागंज वाली हिन्दी से आगे बढ़ी है. उन्होंने कहा, “यह बड़ा दिलचस्प वक्त है जब भाषाएं टेक्नोलॉजी के साथ मिल रही हैं. अगर भाषाएं तकनीक सक्षम नहीं है तो संकट ये भी है.”

डेढ़ घंटे से भी ज्यादा तक चले इस वैचारिक गोष्ठी के अंत में एक श्रोता सुदीप्ति ने वक्ताओं से सवाल पूछा- हिन्दी को किससे फ़र्क़ पड़ता है? सुदीप्ति ने आग्रह किया कि सभी वक्ता इसका जवाब सिर्फ एक शब्द में दें.

और जवाब आए- सरकार, राजनीति, पावर स्ट्रक्चर और असहमति.

(इस फीचर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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