scorecardresearch
Sunday, 16 March, 2025
होमफीचरहरियाणा के नशा मुक्ति केंद्र : मारपीट, जबरन मज़दूरी से लेकर भुखमरी, वसूली या मौत तक

हरियाणा के नशा मुक्ति केंद्र : मारपीट, जबरन मज़दूरी से लेकर भुखमरी, वसूली या मौत तक

हरियाणा में नशा मुक्ति केंद्र एक नया उभरता हुआ क्षेत्र बन गया है. प्राइवेट सेंटर पैसे कमाने की मशीन हैं, जबकि कई परिवार उन्हें अपने संघर्षरत प्रियजनों को राहत देने के तरीके के रूप में देखते हैं.

Text Size:

जींद (हरियाणा): अपने भतीजे सुमित को सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र में भर्ती कराने के ठीक दस दिन बाद — 12 मई की सुबह 7:15 बजे ऋषिपाल सिंह का फोन बजा. दूसरी तरफ से आवाज़ आई, “क्या चिट्टे को दौरे या अटैक का कोई इतिहास था?”

हरियाणा के जींद में हैबतपुर गांव के सरपंच सिंह पिछले कुछ दिनों में अपने भतीजे से तीन बार मिलने गए और लड़का बिल्कुल ठीक लग रहा था. जवाब देने के बजाय, उन्होंने पूछा, “बस मुझे बताओ — सुमित को क्या हुआ है? क्या वह ठीक है?”

उन्होंने जो नहीं बताया, जो उन्हें बताने की हिम्मत नहीं थी — वह यह कि यह कॉल सुमित चिट्टे की मौत के लगभग तीन घंटे बाद आया था.

नशा मुक्ति केंद्र के एक पूर्व मरीज अमरजीत ने कहा, “कोई सुविधा नहीं है. बिल्कुल भी नहीं. यहां तक ​​कि सिंह ने सुमित के लिए जो दूध और दही मांगा था, वह भी पूरा नहीं दिया गया.उन्होंने एक बिजनेस खोला है, नशा मुक्ति केंद्र नहीं.”

हरियाणा में नशे की समस्या बढ़ती जा रही है, लेकिन सरकारी रिहैब सेंटर्स की संख्या बहुत कम हैं. प्राइवेट, छोटे-मोटे नशा मुक्ति केंद्र इस कमी को पूरा करने के लिए आगे आ रहे हैं — उनमें से कई को मरीज़ों और परिवारों द्वारा अपारदर्शी “यातना कक्ष” कहा जाता है. बिना किसी रेगुलेशन या लाइसेंस के, अवैध केंद्र फल-फूल रहे हैं, जिससे नशेड़ी दुर्व्यवहार या यहां तक कि मौत के जोखिम में हैं, जबकि हताश परिवार इस उम्मीद में पैसे भरते रहते हैं कि एक दिन उनके अपने ठीक हो जाएंगे.

फरवरी में फरीदाबाद पुलिस ने दो अवैध नशा मुक्ति केंद्रों पर छापा मारा, 66 कैदियों को बचाया और संचालकों को गिरफ्तार किया. कुछ मरीज़ छह महीने से फंसे हुए थे, अपने परिवारों से कटे हुए थे और उन्हें ठीक से देखभाल भी नहीं मिल रही थी. डिप्टी कमिश्नर के आदेश पर कार्रवाई करते हुए, ज़िला अधिकारियों की एक टीम ने एक केंद्र से 49 और दूसरे से 17 लोगों को मुक्त कराया.

अनरेगुलेटेड, अप्रभावी रिहैब के कारण हज़ारों लोगों के फिर से नशे की लत में पड़ने के साथ, ये अनियंत्रित केंद्र अक्सर फायदे से ज़्यादा नुकसान देते हैं, कमज़ोर व्यक्तियों को और अधिक दुख पहुंचाते हैं.

नशा मुक्ति केंद्र के कई मालिक पंजाब से हैं, जो अक्सर खेती-किसानी करते थे, जिन्होंने हरियाणा को निवेश के लिए उपजाऊ ज़मीन के रूप में देखा और बढ़ती मांग को भुनाने के लिए पूरे राज्य में केंद्र स्थापित किए.

हरियाणा में नशे की समस्या बढ़ती जा रही है, लेकिन सरकारी रिहैब सेंटर्स की संख्या बहुत कम हैं. प्राइवेट, छोटे-मोटे नशा मुक्ति केंद्र इस कमी को पूरा करने के लिए आगे आ रहे हैं — उनमें से कई को मरीज़ों और परिवारों द्वारा अपारदर्शी “यातना कक्ष” कहा जाता है.

हरियाणा में नशा मुक्ति केंद्र एक नया उभरता हुआ क्षेत्र बन गया है — तेज़ी से बढ़ता उद्योग जहां निजी नशा मुक्ति केंद्रों की संख्या बढ़ती जा रही है. कुछ के इरादे नेक हैं, लेकिन बाकी पूरी तरह से लाभ-प्रेरित हैं.

हरियाणा के किसी भी शहर में घूमिए दीवारों, होर्डिंग और अखबारों से आक्रामक विज्ञापन चिल्लाते हुए दिखाई देंगे, जो “गारंटीड रिकवरी”, “100% सक्सेस रेट” या “सात दिनों में नशा छुड़ाई!” का वादा करते हैं.

ये केंद्र जल्दबाजी में उम्मीद बेचते हैं, नशे की लत को बिजनेस बना देते हैं, जबकि कई परिवार थके हुए हैं, उन्हें अपने संघर्षरत प्रियजनों को राहत देने का एक आसान तरीका मानते हैं — आँखों से दूर, मन से दूर.

सिरसा में नशे की लत के सबसे ज़्यादा मामले सामने आने के बाद से राज्य सरकार ने हरियाणा के नशे की समस्या से निपटने के लिए इस साल 17 नए नशा मुक्ति केंद्र स्थापित किए हैं. एक केंद्रीय योजना के तहत, राज्य नशीली दवाओं के दुरुपयोग को रोकने और मुफ्त, गोपनीय इलाज तक पहुंच को आसान बनाने के लिए मेडिकल स्टोरों के सख्त निरीक्षण की भी योजना बना रहा है. पिछले पांच सालों में, 161 केंद्र खोले गए, लेकिन पिछले साल ही, उल्लंघन के लिए 33 के लाइसेंस रद्द कर दिए गए.

लेकिन अमरजीत के अनुसार, जींद में जिस नशा मुक्ति केंद्र में सुमित को भर्ती कराया गया था, वह कुछ और नहीं बल्कि एक छिपी हुई जेल थी. वहां कोई रसोइया, कोई सफाईकर्मी, कोई डॉक्टर मौजूद नहीं था — बस कैदियों का एक समूह था जो खुद की देखभाल करने के लिए मजबूर था. मरीज़ बारी-बारी से दर्जनों लोगों के लिए खाना बनाते थे, शौचालय साफ करते और कपड़े धोते, जबकि कर्मचारी मरीज़ों के लिए बनी दवाइयां बेचते थे.

सिरसा के सिविल अस्पताल के मनोचिकित्सक डॉ. पंकज शर्मा ने कहा, “हमें इस चक्र को तोड़ने के लिए मजबूत नीतियों, अच्छी तरह से सुसज्जित रिहैब सेंटर्स और प्रभावी निवारक उपायों की ज़रूरत है.” उन्होंने कहा कि हर साल ओपीडी में उनके द्वारा देखे जाने वाले 30,000 से 40,000 मरीज़ों में से लगभग 90 प्रतिशत नशे की लत से जूझ रहे हैं. जनवरी 2025 तक, अस्पताल की ओपीडी में पहले से ही 2,666 नशे से संबंधित मामले दर्ज किए जा चुके हैं — एक चौंका देने वाला आंकड़ा जो हरियाणा के नशीली दवाओं के संकट के बढ़ते पैमाने को रेखांकित करता है.

शर्मा ने कहा, “नशीली दवाओं का सेवन केवल एक आंकड़ा नहीं है — यह एक विनाशकारी मानवीय त्रासदी है. अगर हम इसे केवल संख्याओं तक सीमित रखेंगे, तो हम कभी भी इसका असल हल नहीं ढूंढ पाएंगे.”

हरियाणा का नशीली दवाओं का संकट: पिछले कुछ वर्षों में सिरसा में ओपीडी के मामले


यह भी पढ़ें: पादरी बजिंदर सिंह पंजाब के ईसाइयों के बाबा राम रहीम हैं, लेकिन ‘पापा’ अब मुसीबत में हैं


हरियाणा के अवैध नशा मुक्ति केंद्रों में लापरवाही

जींद के सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र के हॉल में संगीत बज रहा था, जो मरीज़ों के बीच बढ़ती बेचैनी को दबाने की एक नाकाम कोशिश थी. हॉल में ठसाठस भरे 33 लोग संगीत की धुन पर झूम रहे थे — जश्न में नहीं, बल्कि थकान में, नशे की लत से होने वाले दर्द को दूर करने के लिए नाचने की कोशिश कर रहे थे. उनमें से 31-वर्षीय सुमित चिट्टे भी थे, जो नशे के बिना अपनी बारहवीं रात बिता रहे थे. कोई डॉक्टर नहीं, कोई नर्स नहीं — बस मरीज और उनके शरीर शनिवार की मनोरंजन रात में नशे की जंजीरों से कुछ पल के लिए मुक्त हो गए. उस रात, वह जमकर नाचते रहे, कुछ अपने बिस्तर पर, तो कुछ फर्श पर.

फिर, सुबह 3 बजे, सुमित अचानक से जाग गए, उनका शरीर हिंसक रूप से ऐंठने लगा. उनके दांत भींचे हुए थे, मुट्ठियां कसी हुई थीं, आंखें पीछे की ओर घूम रही थीं. मरीज उनके पास दौड़े, उनकी हथेलियों और पैरों की मालिश की. खून का दौरा खत्म हो गया. एक कांपती हुई सांस…रिलेक्स.

पंद्रह मिनट बाद, एक और अटैक. कर्मचारी आए, जिनके चेहरे पर डर साफ था, उन्होंने उनके बंद जबड़े को जबरन खोला, एक गोली अंदर डाली और उनके गले में पानी डाला. उनके होठों से सफेद झाग निकला और वे वापस आ गए.

और फिर तीसरा दौरा पड़ा. इस बार, उनके शरीर ने प्रतिरोध नहीं किया. सुबह के 4:30 बजे तक, सुमित चिट्टे की मृत्यु हो चुकी थी.

सिंह, उनके चाचा ने कहा, “पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतज़ार है. मैं दो बार पुलिस स्टेशन जा चुका हूं, लेकिन कुछ भी आगे नहीं बढ़ा है. लगभग एक साल हो गया है — मेरे बच्चे की लापरवाही के कारण मृत्यु हो गई. उन्होंने परवाह नहीं की, उसे वक्त रहते अस्पताल नहीं ले गए उसे प्रताड़ित किया. मैंने एफआईआर दर्ज की, लेकिन कोई बात नहीं बनी.”

जींद के हैबतपुर गांव के सरपंच ऋषिपाल सिंह ने पिछले साल सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र में अपने भतीजे सुमित चिट्टे को खो दिया था. उन्हें अभी भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतज़ार है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट
जींद के हैबतपुर गांव के सरपंच ऋषिपाल सिंह ने पिछले साल सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र में अपने भतीजे सुमित चिट्टे को खो दिया था. उन्हें अभी भी पोस्टमार्टम रिपोर्ट का इंतज़ार है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट

सिंह जींद के सिविल अस्पताल पहुंचे, जहां केंद्र के कर्मचारियों ने दावा किया कि वह सुमित को चेक-अप के लिए ला रहे हैं. उन्होंने इंतज़ार किया…और इंतज़ार किया. निराश होकर उन्होंने आखिरकार खुद केंद्र जाने का फैसला किया, लेकिन दूर से उन्होंने देखा कि एक मारुति स्विफ्ट आकर रुकी. दरवाजे खुले. कर्मचारियों ने स्ट्रेचर निकाल और सुमित वहीं पड़ा था — बेजान. उसका हाथ मुड़ा हुआ था, उसके नाखून और कान नीले पड़ गए थे.

तथाकथित रिहैब सेंटर एक दम घुटने वाला हॉल था. एक लाइन से 16 बिस्तर लगे थे — जगह और व्यवस्था का भ्रम. फिर भी, 33 लोगों को उसी कमरे में ठूंसा गया था.

अमरजीत ने कहा, “जो लोग बहुत ज़्यादा बोलते थे, जो शिकायत करने की हिम्मत करते थे, उन्हें नीचे बेसमेंट में घसीटा जाता था. उनके हाथ उनकी जांघों से बंधे होते थे, प्रताड़ित किया जाता था. यहां तक ​​कि तथाकथित “कर्मचारी” भी असली नहीं थे. ज़्यादातर तो बस पूर्व मरीज़ थे जिन्हें महीनों तक परेशान करने के बाद अधिकार की भूमिका में बदल दिया गया था. जिस दिन पुलिस ने केंद्र पर छापा मारा, 33 में से केवल 15 मरीज़ों को ही वास्तविक मरीज़ निकले, बाकी हम सभी को गलत तरीके से स्टाफ सदस्य बता दिया गया.”

खाना भी एक और क्रूरता थी. मरीज़ों ने इसे खुद बनाया-दो आटा गूंथ रहे थे, तीन रोटी बेल रहे थे, पांच रसोई में काम कर रहे थे. खाना भी बमुश्किल ही काफी था. कुछ दोपहरों में तो खाना ही नहीं था. दवाइयां? बिक गईं. नए मरीज़ों को पहले दो दिन कुछ खुराक दी जाती थीं, फिर कुछ नहीं. किसी को तकलीफ हुई या नहीं, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता था.

और फिर धोखा — परिवार के सदस्यों के लिए सावधानीपूर्वक मंचित प्रदर्शन. अमरजीत के अनुसार, मरीज़ों को मुस्कुराने के लिए मजबूर किया जाता था, दिखावा किया जाता था कि वह ठीक हो रहे हैं. वीडियो रिकॉर्ड किए जाते थे, घर पर सबूत भेजे जाते थे कि सब कुछ “ठीक” है.

लेकिन बंद दरवाज़ों के पीछे, अगर वह साथ देने से इनकार करते तो उन्हीं मरीज़ों को पीटा जाता था.

हरियाणा के नशे के संकट में एक बड़ी समस्या है — जींद में नई सोच नशा मुक्ति केंद्र | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट
हरियाणा के नशे के संकट में एक बड़ी समस्या है — जींद में नई सोच नशा मुक्ति केंद्र | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट

सेवा धाम सेंटर के मालिक 38-वर्षीय कृष्ण कुमार ने एक अलग कहानी बताई. इस साल 2 फरवरी को उनके सेंटर का लाइसेंस रद्द कर दिया गया और उन्होंने दावा किया कि इसका नवीनीकरण किया जा रहा है. उन्होंने जोर देकर कहा कि आरोप सच्चाई से कोसों दूर हैं.

उन्होंने कहा, “दिशानिर्देशों के अनुसार, मारपीट करना तो दूर की बात है — हमें मरीजों पर आवाज़ उठाने की भी अनुमति नहीं है. हम उन्हें नुकसान क्यों पहुंचाएंगे? ज़्यादा से ज़्यादा हम बातचीत पर रोक लगाने या अनुशासन के तौर पर ध्यान लगाने जैसी सज़ाएं देते हैं.” उन्होंने कहा, “मेरे लिए, यह समाज सेवा है.”

कुमार का नशे की लत से गहरा नाता है. 2003 में नशा मुक्ति केंद्र में इलाज कराने से पहले वे खुद भी नशे के आदी थे, स्मैक के आदी थे. ठीक होने के बाद, वे तीन साल तक स्टाफ सदस्य के तौर पर यहीं रहे, जहां उन्होंने रिहैब की बारीकियां सीखीं — मरीजों से कैसे पेश आना है, उन्हें कैसे प्रेरित करना है और उन्हें नशे की लत से कैसे उबारना है.

उन्होंने कहा, “मैं नशे की लत और इससे उबरने के अपने एक्सपीरियंस शेयर करता हूं. मैं जानता हूं कि आज़ाद होने के लिए क्या करना पड़ता है और कुछ मरीज़ इसी वजह से अपनी ज़िंदगी बदलने में सक्षम हुए हैं.”

सुमित की मौत के बारे में कुमार ने कहा कि उसे बचाने के लिए पूरी कोशिश की गई. हालांकि, वे उस समय मौजूद नहीं थे, लेकिन उन्होंने ज़ोर देकर कहा, “हमारे कर्मचारी उसे तुरंत अस्पताल ले गए. चिट्टे की मौत सुबह 5:30 बजे हुई, सुबह 4 बजे नहीं. हमने वह सब कुछ किया जो हम कर सकते थे. अपनी मौत से एक दिन पहले, उसने कहा था कि वे सेंटर में बेहतर महसूस कर रहा था और उसने एक बयान भी लिखा था जिसमें उसने यही कहा था.”

सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र द्वारा साझा की गई तस्वीरें बताती हैं कि सुमित संतुष्ट थे और उन पर कोई दबाव नहीं था. पाठ में उनकी सुबह का वर्णन है जिसमें वे ध्यान, विश्राम, मानसिक स्थितियों के बारे में सीखते थे और नशे से दूर नाचने का आनंद लेते थे.
सेवा धाम नशा मुक्ति केंद्र द्वारा साझा की गई तस्वीरें बताती हैं कि सुमित संतुष्ट थे और उन पर कोई दबाव नहीं था. पाठ में उनकी सुबह का वर्णन है जिसमें वे ध्यान, विश्राम, मानसिक स्थितियों के बारे में सीखते थे और नशे से दूर नाचने का आनंद लेते थे.

लेकिन अमरजीत ने जोर देकर कहा कि केंद्रों के मालिकों द्वारा बताई गई कहानी काफी हद तक दिखावा है. उन्होंने याद किया कि कैसे किसी ने भी दवा मांगी तो उसे सज़ा का सामना करना पड़ा. फाइलों में हेराफेरी की गई, यहां तक ​​कि गैर-नशेड़ी लोगों को भी यूज़र्स के रूप में फंसाया गया.

उन्होंने कहा, “आखिरकार, यह कभी भी ठीक होने के बारे में नहीं था. यह सिर्फ पैसा कमाने के बारे में था, चाहे हम जिएं या मरें.”


यह भी पढ़ें: हरियाणा में गायों के लिए एक और हिंदू व्यक्ति की हत्या, गौरक्षक क्यों बन गए हैं नरभक्षक


रिहैब सेंटर पर छापे: अमानवीय परिस्थितियां, परिवार के साथ विश्वासघात

फरीदाबाद में ऊंची दीवारों वाले परिसर के बाहर पुलिस की जीपें रुकीं, उनकी लाल-नीली रोशनी सड़क पर छायाएं बना रही थी और उत्सुक दर्शक आकर्षित हो रहे थे. जंग लगे दरवाज़े खुले, जिससे तंग कमरों की ओर जाने वाले धुंधले गलियारे दिखाई दिए. अंदर, अधिकारियों को एक घुटन भरी जगह मिली — फर्श पर पतले गद्दे बिखरे थे, सामान इधर-उधर फैला और शांत निराशा का माहौल था. कमज़ोर और अस्त-व्यस्त कैदी चुपचाप खड़े थे, कुछ घबराए हुए थे, दूसरे राहत महसूस कर रहे थे. जैसे ही अधिकारियों ने उन्हें बाहर निकालना शुरू किया, उन्होंने पूछा, “यहां कौन अपनी मर्ज़ी के बिना रखा गया था?”

एक व्यक्ति ने अधिकारियों को बताया, “उन्होंने मुझे मेरे घर से सीबीआई से होने का दावा करते हुए उठा लिया था. उन्होंने मेरे परिवार की महिलाओं को भी परेशान किया. पांच से सात लोगों ने मुझे जबरन एक वाहन में बिठाया और यहां ले आए. यहां हमें किसी से बात करने की अनुमति नहीं थी. वह हमें गुलामों जैसा रखते थे, सुबह 5 बजे से रात 10 बजे तक हमसे काम करवाते थे. कोई इलाज नहीं था — किसी को एक भी दवा नहीं दी गई.”

फरवरी में, फरीदाबाद पुलिस ने दो अवैध नशा मुक्ति केंद्रों पर छापा मारा, 66 कैदियों को बचाया और मालिकों को गिरफ्तार किया. कुछ मरीज छह महीने से फंसे हुए थे, अपने परिवारों से कटे हुए थे और उन्हें देखभाल भी नहीं मिल रही थी.

यह केंद्र ब्लैक होल की तरह काम करते थे, जिन्हें वह जिस इलाके में छिपते थे, वहां शायद ही कोई पहचान पाता था.

एक स्थानीय निवासी ने कहा, “इस्माइलपुर सुविधा के बाहर एक काला कुत्ता तैनात था, जो किसी भी व्यक्ति पर भौंकता था, जो उनके पास आने की हिम्मत करता था और एक ऐसी दुनिया की रखवाली करता था जो साफ-साफ दिखाई देती थी.”

दिल्ली के रहने वाले दो व्यक्तियों, सुनील और सुनील कुमार को वैध लाइसेंस के बिना फरीदाबाद के बसंतपुर में अनधिकृत नशा मुक्ति केंद्र चलाने के आरोप में गिरफ्तार किया गया. बचाए गए लोगों ने बताया कि उनकी मर्ज़ी के बगैर उन्हें रखा गया और उन्हें मेडिकल केयर भी नहीं मिली. कई लोगों ने कहा कि उनके परिवारों को उनके ठिकाने के बारे में पता नहीं था और उचित रिहैब सर्विस की कमी के बावजूद उनसे 3,000 रुपये से लेकर 10,000 रुपये तक वसूले गए. ये सुविधाएं एक साल से ज़्यादा समय से अवैध रूप से चल रही थीं, बिना मेडिकल स्टाफ, मनोचिकित्सक पेशेवरों या बुनियादी ढांचे के. भीड़भाड़ वाले, अस्वास्थ्यकर केंद्रों में दर्जनों लोगों को छोटे-छोटे कमरों में ठूंस दिया जाता था, जहां सोने के लिए बमुश्किल ही पर्याप्त गद्दे थे.

पुलिस की एफआईआर के एक अंश में कहा गया है, “आरोपी रिहैब सेंटर चलाने के लिए कोई वैध लाइसेंस या दस्तावेज़ दिखाने में विफल रहे. अंदर पाए गए व्यक्तियों ने कहा कि उन्हें उनकी इच्छा के विरुद्ध बंधक बनाया गया था, उनके साथ अमानवीय व्यवहार किया गया और उनके परिवारों से संपर्क करने से मना कर दिया गया.”

अंदर, ज़िंदगी मुश्किल थी — दिन में तीन से चार बार प्रार्थना, सख्त दिनचर्या और हिंसा के माध्यम से लागू किया गया एक अघोषित पदानुक्रम. 2021 से बार-बार कैदी रहे नबी उल्लाह पांच बार वहां रह चुके थे, हर बार हफ्तों से लेकर महीनों तक. पुलिस की छापेमारी के बाद उनकी बेटी वहां पहुंची, लेकिन तब तक वे लगभग तीन हफ्ते बिता चुके थे.

सुबह की शुरुआत 5:30 बजे प्रार्थना से होती थी, उसके बाद घंटों काम-काज चलता था — 40 लोगों के लिए अंतहीन रोटियां बनाना. शनिवार को ही राहत मिलती थी जब कुछ चुनिंदा लोग टीवी रिमोट को नियंत्रित करते थे.

नबी उल्लाह ने बताया, “मालिक ने कभी किसी पर हाथ नहीं उठाया; उसके पास इसके लिए लोग थे. इस बीच, उनका कुत्ता राजसी तरीके से रहता था जबकि कैदियों के पास बमुश्किल ही अधिकार थे.”

मेडिकल देखभाल न के बराबर थी. जब मरीज बीमार होते थे, तो उन्हें पैरासिटामोल और झंडू बाम दिया जाता था. भोजन कम था और उसे पतला करके दिया जाता था. जीवन-यापन पैसे पर टिका हुआ था — जो लोग 6,000 रुपये देते थे उन्हें दही, दूध और तंबाकू मिलता था; जो लोग 4,000 रुपये देते थे उन्हें कठोर परिस्थितियों का सामना करना पड़ता था. यहां तक ​​कि बिस्तर भी एक विशेषाधिकार था. कुछ लोग नशेड़ी भी नहीं थे बस “बोझ थे” जिससे उनके परिवार छुटकारा पाना चाहते थे.

फरीदाबाद के पल्ला गांव के एसएचओ रणवीर मलिक ने कहा, “यह केंद्र बिना सरकारी मंजूरी के चलते थे. बंदियों को उनके परिवारों से अलग कर दिया जाता था और उन्हें खाना, पानी और मेडिकल देखभाल से दूर रखा जाता था — एक स्वतंत्र देश में कैदियों की तरह व्यवहार किया जाता था. एक सेंटर में 49 लोगों को एक 20×14-फुट हॉल में ठूंस दिया गया था, जिसमें फर्श पर केवल चटाई बिछी थी. स्थितियां अमानवीय थीं, मौलिक अधिकारों का स्पष्ट उल्लंघन, जबकि एक सेंटर में थोड़ी अधिक जगह थी, दोनों सुविधाओं ने लाभ के लिए लोगों की कमजोरियों का फायदा उठाया, मानवीय पीड़ा को एक बिजनेस मॉडल में बदल दिया.”

सामाजिक न्याय, अधिकारिता, अनुसूचित जाति और पिछड़ा वर्ग कल्याण और अंत्योदय विभाग (सेवा) की अतिरिक्त मुख्य सचिव जी अनुपमा ने कहा, “सरकार आपूर्ति पक्ष की कार्रवाई और मांग में कमी दोनों के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है. हमने इलाज के लिए मानक तय किए हैं, डॉक्टरों को ट्रेनिंग दी है और इस मुद्दे से निपटने के लिए शीर्ष संस्थानों और गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) के साथ काम कर रहे हैं.” उन्होंने हरियाणा सरकार के व्यापक दृष्टिकोण को रेखांकित किया, जिसमें कानून प्रवर्तन कार्रवाई, मेडिकल हस्तक्षेप और नशे की लत से निपटने के लिए विशेषज्ञों के साथ साझेदारी शामिल है.

बाहर, चक्र जारी रहा. नबी उल्लाह के घर के पास 50 के दशक की एक महिला ने मुफ्त चखना के साथ 10 रुपये का एक गिलास देसी शराब बेची. दोपहर तक, एक दर्जन पुरुष इकट्ठा हो गए, जो सस्ती बीयर में अपनी असलियत को डुबो रहे थे. नशे में और अस्थिर, नबी उल्लाह सीढ़ियों से ऊपर-नीचे लड़खड़ाते हुए, सांस लेने के लिए रुकते हुए, सिगरेट ब्रेक के बारे में बड़बड़ाते हुए, केवल और शराब पीने के बाद वापस लौटते थे.

उनकी बेटी, जोया ने शांत निराशा के साथ बात की. “मैंने उनकी वजह से मोहल्ले में निकलना बंद कर दिया है. वे शराब पीते हैं, सड़कों पर गिरते हैं और बेहोश होकर लोगों के पैर छूने लगते हैं. इलाके के लड़के मेरा मज़ाक उड़ाते हैं — ‘देखो, नशेड़ी की बेटी है’.”

हरियाणा के युवा नशे की गिरफ्त में

शर्मा के सामने हरियाणा का एक 12 साल का लड़का बैठा था, जो नशे की गिरफ्त में था. जब उससे पूछा गया कि उसे नशे की लत कैसे लगी और किसी ने उसे इसके खतरों के बारे में क्यों नहीं बताया, तो उसका जवाब चौंकाने वाला था.

उसने कहा,“पैकेट पर कहीं भी यह नहीं लिखा है कि यह आपको मार देगा. मैंने म्यूजिक वीडियो में लोगों को पार्टी करते, ड्रग्स लेते, महिलाओं से घिरे, क्रूज पर रहते और आलीशान ज़िंदगी जीते देखा है. मैं भी यही चाहता था.”

उसके शब्दों ने एक बड़ी अनदेखी की गई सच्चाई को उजागर किया: पॉपुलर मीडिया में नशीली दवाओं के इस्तेमाल का ग्लैमराइजेशन और प्रभावशाली दिमाग पर इसका असल, जबकि पंजाब ने एक दशक पहले मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ड्रग्स, गन कल्चर और महिलाओं को वस्तु के रूप में पेश करने वाले कंटेंट पर प्रतिबंध लगाकर कार्रवाई की थी, हरियाणा के नशे के संकट से पता चलता है कि राज्य ने अभी तक ऐसा नहीं किया है. शर्मा इस पर सवाल उठाते हैं और तत्काल बदलाव की ज़रूरत पर जोर देते हैं.

‘एन्ना वी ना डोप शोप मारेया करो’ या ‘जिन्नी तेरी कॉलेज दी फीस झल्लिये, एन्नी नागनी जट्टां दा पुत्त खांदा तड़के’ इस तरह के गानों ने ड्रग्स की छवि को आराम, शक्ति और रुतबे का पर्याय बना दिया है.

पैकेट पर कहीं भी यह नहीं लिखा है कि यह आपको मार देगा. मैंने म्यूजिक वीडियो में लोगों को पार्टी करते, ड्रग्स लेते, महिलाओं से घिरे, क्रूज पर रहते और आलीशान ज़िंदगी जीते देखा है. मैं भी यही चाहता था.

शर्मा का तर्क है कि ‘नशा बुरी चीज़ है’ जैसे नारे वाले पोस्टर या पेटिंग्स जैसे पारंपरिक जागरूकता प्रयास तब अप्रभावी हो जाते हैं जब डिजिटल मीडिया पर युवा ऐसे कंटेंट से घिरे होते हैं जो ड्रग्स के सेवन का महिमामंडन करते हैं. शर्मा ने कहा, “हमें डिजिटल कैपेंन भी चलाने चाहिए.”

हर दिन शर्मा एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करते हैं, जहां नशे की लत ने ज़िंदगी के नियमों को फिर से लिख दिया है. चेहरे बदलते हैं, लेकिन कहानियां दर्दनाक रूप से जानी-पहचानी रहती हैं. एक हताश लड़का अपनी मां को अस्पताल ले जाता है; दूसरा अपने पिता को ले जाता है, एक ऐसा व्यक्ति जिसने कभी उसे अपने कंधों पर उठाया था, अब वह खुद अपने पांव पर खड़े होने में असमर्थ है.

नशे की लत का पैटर्न बदल गया है. जो कभी सिगरेट और शराब से शुरू हुआ था, अब सीधे हेरोइन पर चला जाता है. शर्मा ने उन पलों को याद किया जिन्हें वे भूलना चाहते हैं. उन्होंने कहा, “मैंने एक बार एक गर्भवती नशेड़ी को अपने बच्चे को जन्म देते देखा. जिस क्षण उन्होंने गर्भनाल को काटा, वे नवजात शिशु, जिसने अभी-अभी अपनी पहली सांस ली थी — पहले से ही वापसी की ओर था.” एक ज़िंदगी जो अभी-अभी शुरू हुई है, पहले से ही उन राक्षसों से लड़ रही है जिन्हें उसने कभी नहीं चुना था.


यह भी पढ़ें: प्रेगनेंट करो, अमीर बनो—बिहार में साइबर क्राइम का नया मॉडल


हरियाणा के नशा मुक्ति केंद्रों के लिए उम्मीद?

निराशाजनक नज़ारों के बावजूद, बदलाव जारी है. अनुपमा ने कहा कि नशा मुक्ति केंद्रों और हर मरीज़ को रियल टाइम ट्रैक करने के लिए एक नया ड्रग एब्यूज मॉनिटरिंग पोर्टल बनाया गया है, जिसकी टेस्टिंग चल रही है — “न केवल उनकी प्राइवेट और सोशल डिटेल्स, बल्कि सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि उनके लक्षणों के आधार पर उन्हें क्या इलाज दिया जा रहा है.” उन्होंने कहा कि पोर्टल मरीज़ों की पहचान को सुरक्षित रखेगा और डेटा को सुरक्षित रूप से संभालेगा. “साथ ही, सरकार को प्रभावी समाधान लागू करने के लिए परेशानी की स्पष्ट समझ मिलेगी.”

लेकिन मनोचिकित्सक अधिकारियों और समाज से आग्रह करते हैं कि वह ड्रग फ्लो की उत्पत्ति, हरियाणा में बढ़ते नशा मुक्ति केंद्र, नशे की लत और इसके दोहराव को देखें. सामाजिक न्याय और अधिकारिता विभाग, जिसे मूल रूप से पेंशन के लिए स्थापित किया गया था, अब नशा मुक्ति केंद्रों को फंड देता है. शर्मा ने कहा, “हरियाणा की ड्रग समस्या से निपटने के लिए एक बॉडी होनी चाहिए.”

शर्मा 30 बिस्तरों वाले नशा मुक्ति केंद्र में खड़े हैं, जो कभी एक अस्थायी संरचना थी, यहां मरीज़ों द्वारा पौधों की देखभाल हीलिंग को बढ़ावा देती है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट
शर्मा 30 बिस्तरों वाले नशा मुक्ति केंद्र में खड़े हैं, जो कभी एक अस्थायी संरचना थी, यहां मरीज़ों द्वारा पौधों की देखभाल हीलिंग को बढ़ावा देती है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट

हरियाणा के नशे के संकट को एक महत्वपूर्ण बाधा का सामना करना पड़ रहा है: कलंक. नशे के आदी लोगों को मरीज़ों के बजाय अपराधी माना जाता है. शर्मा ने कहा कि जब तक ‘नशा बुराई है’ वाक्यांश कायम रहेगा, तब तक कुछ भी नहीं बदलेगा. उन्होंने नशे के आदी लोगों के साथ करुणा और समझ के साथ व्यवहार करने और नशे को एक मेडिकल कंडीशन के रूप में पहचानने का आह्वान किया, जिसके लिए इलाज और सोशल सपोर्ट चाहिए होता है.

शर्मा और उनकी टीम ने सिरसा के सिविल अस्पताल में एक अस्थायी नशा मुक्ति केंद्र को 30 बिस्तरों वाली सुविधा में बदल दिया, लेकिन इससे भी बढ़कर, रिहैब के लिए केंद्र का अनूठा दृष्टिकोण सबसे अलग है. मरीज़ों को उनके कमरों में रखे पौधों की देखभाल करने का काम सौंपा जाता है. वह इसे लगन से करते हैं, लेकिन हर दिन एक पत्ता गिरता हुआ देखते हैं. उन्हें अपने परिवारों के बारे में सोचने और उन्हें संघर्ष करते और गिरते हुए देखकर कैसा महसूस होता है, इस पर विचार करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है.

शर्मा ने कहा, “नशे के आदी लोग अक्सर भूल जाते हैं कि उनके परिवार उनके लिए क्या करते हैं. यह उन्हें देखभाल के महत्व को फिर से समझने में मदद करने की मामूली कोशिश है.”

सेंटर में बोर्ड गेम, स्पॉन्सर के साथ चर्चा और भविष्य की योजना बनाने के सेशन शामिल हैं, ताकि मरीज़ों को नशे से परे ज़िंदगी जीने के लिए तैयार किया जा सके. स्पेशल ऑडियो लेक्चर मरीज़ों को नशे की लत के तीन चरणों से गुज़रने में मार्गदर्शन करते हैं: इनकार, हिचकिचाहट स्वीकार करना और नाज़ुक रिकवरी.

जबकि संसाधन सीमित हैं, केंद्र नशा मुक्ति और रिकवरी के बाद की योजना दोनों प्रदान करता है. यह हरियाणा की एकमात्र फैसिलिटी है जो मरीज़ों को उनके उद्देश्य की तलाश करने, उनके आत्म-मूल्य का पुनर्निर्माण करने और नशीली दवाओं के सेवन से दूर रहने में मदद करती है. शर्मा और उनकी टीम नशे की लत से लड़ने वालों का सपोर्ट करने और उन्हें अपनी ज़िंदगी को फिर से पाने में मदद करने के लिए और अधिक केंद्र बनाकर विस्तार करने की उम्मीद करती है.

 

मनोचिकित्सक डॉ. पंकज शर्मा और उनकी टीम द्वारा नव विकसित स्थान, हरियाणा के ड्रग संकट से निपटने के लिए अधिक मरीज़ों को समायोजित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट
मनोचिकित्सक डॉ. पंकज शर्मा और उनकी टीम द्वारा नव विकसित स्थान, हरियाणा के ड्रग संकट से निपटने के लिए अधिक मरीज़ों को समायोजित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट
आखिरकार, हरियाणा के ड्रग संकट से निपटने में उम्मीद है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट
आखिरकार, हरियाणा के ड्रग संकट से निपटने में उम्मीद है | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट

सिरसा की खामोश जेल: बचे हुए लोग, कलंक

सिरसा के अंधेरे कोनों में, बंद दरवाजों और फुसफुसाती चेतावनियों के पीछे, एक क्रूर विरोधाभास छिपा है — ट्रीटमेंट के लिए बनाए गए सेंटर, उन आत्माओं को तोड़ते हैं जिन्हें वह बचाने का दावा करते हैं. आस-पास कोई ठीकठाक सेंटर नहीं होने के कारण, हताश परिवार अपने प्रियजनों को उम्मीद के सहारे सीमा पार राजस्थान भेज देते हैं, लेकिन उम्मीद एक नाज़ुक चीज़ है और कई लोगों के लिए, ठीक होने की यात्रा पीड़ा में समाप्त होती है.

एक बचे हुए व्यक्ति, तरसेम, जो अब आज़ाद हैं, लेकिन हमेशा के लिए प्रेतवाधित है, ने उस बुरे सपने को याद किया जिससे वे मुश्किल से बच निकले थे.

उन्होंने कहा, “उन्होंने हमें पीटा. हमें भूखा रखा. हम 70 लोगों को एक घुटन भरी जगह में ठूंस दिया गया, जिसमें सिर्फ एक शौचालय था. अगर आप कोई गलती करते, तो आपको पीटा जाता — कभी-कभी मौत के घाट उतार दिया जाता.”

वे स्वेच्छा से गए थे, मेडिकल केयर और काउंसलिंग के वादे पर यकीन करते हुए. इसके बजाय, उन्होंने खुद को नामहीन गोलियों से बेहोश पाया, दर्द और अधीनता की धुंध में. वहां कोई डॉक्टर, कोई मनोवैज्ञानिक नहीं था — केवल वह लोग थे जो सत्ता और लाभ पर पलते थे.

तरसेम ने कहा, “उन्होंने हमें नंगा कर दिया और पाइप से पानी से हम पर वार किया. यही हमारा स्नान था. एक महीने तक, मैं दिन में दो सूखी रोटी और बिना दूध की चाय पर ज़िंदा रहा. उन्होंने मुझसे 25,000 रुपये लिए, लेकिन कोई इलाज नहीं हुआ — केवल दर्द दिए गए. मुझे मार दिए जाने से पहले अपने एक दोस्त को प्राइवेट मैसेज भेजना पड़ा.”

इधर रोड़ी गांव की हवा में गम का माहौल है. हर हफ्ते, एक और युवक हेरोइन की लत में खो जाता है. परिवार चुपचाप शोक मनाते हैं, कलंक से घुटते हैं, उनका दर्द अनदेखा किया जाता है. कोई सरकारी रिहैब सेंटर नहीं होने के कारण, उन्हें इन अनियमित जेलों पर भरोसा करने के लिए मजबूर होना पड़ता है, जो नशा मुक्ति केंद्रों के रूप में प्रच्छन्न हैं. भागना बहुत मुश्किल है और बचने की गारंटी नहीं है.

एक मंद रोशनी वाले घर में, एक मां अभी भी अपने बेटे को पुकारती हैं — महज़ 20 साल की उम्र में उनका लड़का नशे की लत में डूब गया. उसने कभी दवा नहीं ली, कभी नशा मुक्ति केंद्र में कदम नहीं रखा. दो साल हेरोइन और फिर, कुछ नहीं.

उन्होंने कहा, “मुझे मेरा बच्चा वापस नहीं मिलेगा…कभी नहीं मिला मेरा बेटा. मैं अपने बेटे को फिर कभी नहीं देख पाई. काश मैं उसे एक बार देख पाती. उनकी आवाज़ कांप रही थी, दुख में खोई हुई थी. मानो ये शब्द बोलने से किसी तरह उस बात को भुलाया जा सके.

लेकिन उसकी पीड़ा का कारण — नशीली दवाएं और उनसे लाभ कमाने वाले लोग — खुलेआम काम करते हैं.

हरियाणा का नशा संकट: जींद, हरियाणा में नई सोच नशा मुक्ति केंद्र का हॉल दिखाता एक कर्मचारी | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट
हरियाणा का नशा संकट: जींद, हरियाणा में नई सोच नशा मुक्ति केंद्र का हॉल दिखाता एक कर्मचारी | फोटो: साक्षी मेहरा/दिप्रिंट

अनुपमा ने कहा, “नशे की लत सिर्फ सरकार का मुद्दा नहीं है; यह एक सामाजिक लड़ाई है. साथियों का दबाव और अलगाव इसके मुख्य कारण हैं. इस खतरे से लड़ने के लिए हमें सामूहिक प्रयास की ज़रूरत है — सरकार, मीडिया और जनता.”

बड़ा गुढ़ा के फैले हुए खेतों के बीच में एक अकेला सीमेंट का घर है, जिसका बड़ा सा लौहे का दरवाज़ा दुनिया के लिए बंद है. तभी एक दस्तक ने सन्नाटा तोड़ा. एक आदमी बाहर निकला, उसकी निगाहें संदेह से भरी हुई थीं.

उसने अंदर जाने से पहले, आवाज़ को धीमा करके पूछा, “क्या है?”. आवाज़ आई, ‘दफ्तर’ एक तंग जगह है — एक मेज़, तीन कुर्सियां और अनकही सच्चाइयों से भरा एक वातावरण.

फिर, मालिक आया — गर्मजोशी से स्वागत करने वाला, बेहद विनम्र, लेकिन जब सेंटर के बाकी हिस्सों को देखने के लिए कहा गया, तो उनके चेहरे पर चमक नहीं रही थी. बिना कुछ कहे, उन्होंने पीछे का दरवाज़ा बंद कर लिया और अंदर गायब हो गए. कम से कम पांच मिनट बीत गए. जब ​वे लौटे, तो उनकी आवाज़ धीमी थी, हरकतें तेज़ थीं — चुपचाप शांत रहना, अंदर छिपे साये को चुप कराना.

दफ्तर के बाहर, तथाकथित “सेंटर” में भयानक सन्नाटा पसरा था. बिना दरवाज़े के बाथरूम. कोई बिस्तर नहीं — केवल बिखरे गद्दे. एक टीवी, मरीज़ों के लिए नहीं, बल्कि मालिक के दोस्तों के लिए.

व्यक्ति ने रसोई में ठसाठस भरे पांच या छह युवकों की ओर इशारा किया, “अभी, यहां बस मेरे दोस्त रह रहे हैं.” इनमें कुछ रोटियां बेल रहे थे. दूसरे बस खड़े थे. चुप, शांत, भावहीन.

उन्होंने दावा किया कि यह जगह लाइसेंस का इंतज़ार कर रही थी. जैसे ही वे वहां से गुज़रे, उन्होंने खाली कमरों की ओर इशारा किया, एक ऐसा नज़ारा पेश किया जो सिर्फ वे देख सकते थे, यहां एक काउंसलर का कमरा, वहां मरीज़ों के बिस्तर, एक खुला आंगन जो जल्द ही बास्केटबॉल कोर्ट बन जाएगा.

वे खुद भी कभी नशे का आदी थे, लेकिन अब वे दूसरों की मदद करना चाहते हैं. सेवा करना. अपना अनुभव साझा करना.

लेकिन बाहर फुसफुसाहटें कुछ और ही कहानी बयां कर रही थीं.

बड़ा गुढ़ा के 43 साल के किसान सुखविंदर सिंह ने बताया, “मैं एक महीने पहले चारा इकट्ठा करने के लिए उस इलाके के पास गया था. अंदर के लोग चीख रहे थे, गालियां दे रहे थे, परेशानी में चिल्ला रहे थे.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: पंजाब और हरियाणा में डंकी एजेंटों की तलाश जारी, एफआईआर, छापेमारी, डूबे पैसों की मांग


 

share & View comments