सोमनाथ, जूनागढ़: भारत में एक नया नारियल हब तैयार हो रहा है. यह न केरल है, न तमिलनाडु और न ही पश्चिम बंगाल. यह है गुजरात, जहां से हरे, कच्चे नारियल से भरे टेंपो रोज़ाना दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और यूपी जा रहे हैं.
सोमनाथ, जूनागढ़, वलसाड और भावनगर से होकर गुजरने वाला एनएच-51 अब “नारियल हाईवे” बन गया है — खेतों में लहराते पेड़ों से लेकर ट्रकों में लदे नारियलों तक. पिछले पांच सालों में यहां नारियल की खेती तेज़ी से बढ़ी है और किसानों का कहना है कि इस फल ने उन्हें पूरा फायदा दिया है. हरा, कच्चा, हल्की मिठास वाला नारियल अब इस तटीय इलाके की सबसे ज्यादा कमाई वाला फसल बन गया है.
सोमनाथ के किसान नारणभाई सोलंकी जो इस फसल के शुरुआती अपनाने वालों और बढ़ावा देने वालों में से हैं, ने कहा, “हमारे लिए नारियल कल्पवृक्ष है. यह हमारी जीवनरेखा बन गया है.”
पिछले कुछ वक्त में, दो सितंबर का विश्व नारियल दिवस गुजरात में एक उत्सव जैसा हो गया है. इस साल, राज्य के कृषि मंत्री राघवजी पटेल ने बताया कि 2014-15 में 22,451 हेक्टेयर से बढ़कर 2024-25 में 28,197 हेक्टेयर तक नारियल की खेती का क्षेत्र करीब 26 प्रतिशत बढ़ गया है. फिलहाल, गुजरात हर साल 260.9 मिलियन नारियल उगाता है, जिनमें से करीब 20 प्रतिशत कच्ची अवस्था में तोड़े जाते हैं. कुल उत्पादन में यह देश में सातवें स्थान पर है, लेकिन उत्तर भारत में इसका पूरा दबदबा है — यहां बिकने वाले नारियल का करीब 40 प्रतिशत गुजरात से आता है.
इस साल नारियल विकास बोर्ड के मार्केट डेवलपमेंट ऑफिसर पद से रिटायर हुए एस. जयरकुमार ने कहा, “आने वाले वर्षों में गुजरात दक्षिणी राज्यों से मुकाबला कर सकता है. देश में कच्चे नारियल की कमी है और गुजरात ने इस मौके को पकड़ लिया.”
के. बालचंद्र हेब्बार, निदेशक, ICAR-Central Plantation Crops Research Institute, कासरगोड (केरल), के मुताबिक, बड़ा बदलाव पिछले साल आया. उन्होंने कहा कि पिछले दशक के आंकड़े देखने पर “क्षेत्र और उत्पादन में कोई खास बढ़त नहीं” दिखती थी, लेकिन 2024 में उत्पादन पिछले तीन वर्षों के औसत से करीब 16 प्रतिशत बढ़ गया.

उत्पादकों और उद्यान विभाग के अधिकारियों का कहना है कि तटीय गुजरात में नारियल उत्पादन एक दशक से बढ़ रहा है, लेकिन कोविड ने हरे नारियल की मांग को और बढ़ा दिया. देश भर के डॉक्टर मरीजों को पेप्सी-कोक की जगह नारियल पानी पीने की सलाह दे रहे थे और यह आदत लोगों में जम गई. नारियल पानी हेल्थ ड्रिंक बना, कीमतें स्थिर रहीं और तट के किसानों ने और पेड़ लगा दिए. पुरानी मुख्य फसल मूंगफली पीछे छूट गई. नारियल की कमाई पेड़ों जितनी ऊंची है — किसान कहते हैं कि एक बीघा से 50,000-70,000 रुपये की आमदनी हो जाती है, जबकि मूंगफली शायद ही कभी 30,000 रुपये पार करती थी.
जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के उद्यान महाविद्यालय के प्रिंसिपल और डीन डॉ. डी.के. वरू जो कि किसानों के साथ करीब से काम कर रहे हैं, बताते हैं, दक्षिण भारत के विपरीत, जहां ज्यादातर नारियल तेल और प्रोसेसिंग में जाते हैं, गुजरात के नारियल मुख्यतः उनके पानी और मलाईदार गूदे के लिए उगाए जाते हैं. उन्होंने कहा कि सौराष्ट्र में नारियल का विस्तार किसी सरकारी योजना से नहीं शुरू हुआ.
उन्होंने कहा, “यहां किसानों ने सब कुछ खुद किया. सरकार बाद में आई. नारियल विकास बोर्ड ने तो अब जाकर ऑफिस खोला है. आज सौराष्ट्र में सबसे अच्छा, सबसे ज्यादा फायदे वाला फसल नारियल है. गुजरात का कच्चा नारियल पानी देश में सबसे अच्छा है — दक्षिण से भी बेहतर.”

नारियल क्यों जीता
अरब सागर में सूरज डूब रहा है. जूनागढ़ के पाटन वेरावल तहसील के चंदूवाव गांव में भीमसी भाई और दाना भाई गरम-गरम चाय पी रहे हैं, जबकि ताज़ा नारियलों से भरे ट्रक उनके सामने सड़क से गुज़र रहे हैं.
इस तिमाही की कमाई तय हो चुकी है और वे आराम से बैठ सकते हैं. वे पहले ज़्यादातर मूंगफली, उड़द दाल और गेहूं की खेती करते थे, लेकिन किसी भी फसल ने नारियल जितना फायदा नहीं दिया.
छह महीने पहले, दाना को पता चला कि उनकी छह बीघा ज़मीन के छोटे से नारियल के हिस्से से उतनी कमाई हो रही है जितनी बाकी सभी फसलों को जोड़कर भी नहीं होती. उन्होंने बाकी फसलें हटा दीं और ज्यादा नारियल के पेड़ लगा दिए. दाना ने कहा कि नारियल ने सिर्फ उनकी आमदनी ही नहीं बढ़ाई, बल्कि उन्हें ज्यादा वक्त भी दिया. अब उनके पास दो मंज़िला घर और किराने की दुकान है. दिन भर खेत में मेहनत करना अब पुरानी बात हो गई.
वर्तमान में 300 से ज्यादा किसान सीडलिंग्स के लिए लाइन में हैं और वेटिंग टाइम डेढ़ साल से ज्यादा है
— नारणभाई, नारियल किसान
तटीय इलाके के कई किसान यही कहानी बताते हैं. उद्यान विभाग के अधिकारियों के अनुसार, इस क्षेत्र में नारियल ने मूंगफली और गेहूं की 40-50 प्रतिशत खेती की जगह ले ली है.
गुजरात कृषि और उससे जुड़े क्षेत्रों में खुद को बदलने का पुराना जानकार है. अमूल ने दूध उत्पादन में क्रांति लाई, 2000 के दशक में गुजरात देश का बड़ा केला उत्पादक बना और आज यह आलू प्रोसेसिंग उद्योग का राजा है. एक बात हमेशा समान रही—किसान नई चीज़ें आज़माने में तेज़ होते हैं. चाहे ‘जंगल मॉडल’ खेती हो, नैनो-खाद का इस्तेमाल, या ड्रैगनफ्रूट जैसी विदेशी फसलें (जिसे राज्य सरकार ने ‘कमलम’ नाम दिया) उगाना.

परंपरागत फसलों जैसे गेहूं और मूंगफली की तुलना में नारियल ज्यादा मुनाफा और कम मेहनत वाला सौदा है.
भीमसी भाई ने कहा, “अन्य फसलों की तुलना में यह आसान है. एक बार लगाया, हफ्ते में एक बार या पंद्रह दिन में पानी दे दो, थोड़ा खाद दे दो, और कभी-कभार कटाई करनी होती है.” ऐसे किसानों की औसत सालाना कमाई 6 लाख रुपये तक पहुंच जाती है.
रोज़ाना के काम
शाम के 5 बजे खेतों में कोई भागदौड़ नहीं होती. अब हलचल सड़कों और लोडिंग जगहों पर शिफ्ट हो जाती है.
जूनागढ़ के गाडू गांव में चौराहा नारियल का लोडिंग यार्ड बन जाता है. ट्रक लाइन से खड़े रहते हैं—एक जयपुर जा रहा है, दूसरा दिल्ली, तीसरा चंडीगढ़.
एक ट्रक पर पांच मजदूर होते हैं. वे चेन बनाकर नारियल पास करते हैं—एक, दो, तीन जब तक 25 टन का ट्रक भर न जाए. एक ट्रक 20 मिनट में भर जाता है और चल देता है. एक आदमी नोटबुक में लिखता है कितने पीस, ट्रक कहां जा रहा है, ड्राइवर का नाम.

यहां काम दोपहर 3 बजे शुरू होता है और रात 12 बजे खत्म. पांच किलोमीटर का इलाका ताज़े नारियल की मिट्टी-सी मीठी खुशबू से भर जाता है.
बाज़ार के सबसे बड़े सप्लायरों में से एक, सिद्धि सप्लायर्स के मालिक राजू भाई ने कहा, “यह नारियल का ऑफ सीजन है, इसलिए सिर्फ सात-आठ ट्रक हैं. गर्मियों में मैंने एक दिन में 60 से ज्यादा ट्रक भरे हैं.” उनके हाथ में नोटबुक, कान के पीछे पेंसिल और नज़र किसी भी लुढ़कते नारियल पर.
उन्होंने कहा, “दिल्ली में जो भी नारियल मिलता है, वह हम भेजते हैं.” तभी कोई आवाज़ लगाता है—चंडीगढ़ वाला ट्रक निकल रहा है और वे दौड़ जाते हैं.
पहले बंगाल का नारियल बाज़ार में छाया रहता था, लेकिन जब वहां रोग फैल गया, तो व्यापारी गुजरात आ गए क्योंकि यहां नारियल सस्ता मिलता था
—आशीष कपूर, दिल्ली के व्यापारी
अच्छी क्वालिटी का नारियल थोक बाज़ार में अभी 25 रुपये का है, लेकिन गर्मियों में 60 रुपये तक हो जाता है. किसानों को 10-15 रुपये मिलते हैं, पर ट्रांसपोर्ट सबसे ज्यादा पैसा खा जाता है. दिल्ली-एनसीआर में एक नारियल 80-100 रुपये में बिकता है. राजू ने कहा कि पिछले साल उन्होंने 10 लाख रुपये से ज्यादा का लाभ कमाया.
पूर्वी भारत के नारियल का व्यापार अब उत्तर भारत में कम हो गया है और गुजरात उस जगह को भर रहा है. गुजरात को दक्षिण भारत पर भी बढ़त मिल रही है.
राजू ने कहा, “उत्तर के खरीदार गुजरात से नारियल लेना पसंद करते हैं, क्योंकि दक्षिण से लाने की तुलना में ट्रांसपोर्ट सस्ता पड़ता है. कोविड के बाद बाज़ार पूरी तरह बदल गया है, मैंने खुद देखा है.”

चार दक्षिण भारतीय राज्य भारत के 91% नारियल उत्पादन करते हैं, लेकिन ICAR-CPCRI के निदेशक हेब्बार ने कहा कि गुजरात के पास अपनी जगह और बढ़ाने की काफी संभावनाएं हैं.
उन्होंने कहा, “दक्षिण भारत के बड़े व्यापारी और उद्यमी भरोसे पर बने मजबूत नेटवर्क के जरिए उत्तर भारत को सप्लाई करते हैं, लेकिन अगर गुजरात में उत्पादन बढ़ा, तो उत्तर और पश्चिम भारतीय बाज़ारों के लिए इसकी लॉजिस्टिक बढ़त ज्यादा होगी. रिपोर्ट्स हैं कि गुजरात में कुल उत्पादन का 20% कच्चे नारियल है. भले डेटा की पुष्टि नहीं है, लेकिन इससे दक्षिण के कच्चे नारियल के बाज़ार पर असर पड़ेगा.”

उत्पादन मुख्य रूप से सात तटीय जिलों में है—गिर सोमनाथ, भावनगर, कच्छ, वलसाड, जूनागढ़, नवसारी और द्वारका, लेकिन कोकोनट बोर्ड के पूर्व अधिकारी जयरकुमार कहते हैं कि और 15,000 हेक्टेयर ज़मीन भी खेती में लाई जा सकती है.
सफलता की कहानी का श्रेय किसे देना चाहिए, यह बहस का विषय है. जयरकुमार कहते हैं कि असली बढ़त 2013 में मिली, जब बोर्ड ने जूनागढ़ में उत्पादन बढ़ाने का कार्यक्रम शुरू किया, सेमिनार किए और किसान समितियां बनवाईं. राज्य के कृषि मंत्री, दूसरी ओर, कहते हैं कि यह उछाल तब शुरू हुआ जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के सीएम थे. अब राज्य सरकार के पास “गुजरात कोकोनट डेवलपमेंट प्रोग्राम” है, जो कुछ 4,000 लाभार्थियों को पौध लगाने की लागत पर 75% सब्सिडी देता है.
लेकिन किसानों का कहना है कि असली दांव उन्होंने लगाया था जिसने इस तटीय क्षेत्र को नारियल बेल्ट में बदला—सरकार बाद में आई.
यह सब कैसे शुरू हुआ?
करीब 20 साल पहले, गुजरात भारत के नारियल उगाने वाले नक्शे पर कहीं नहीं था. 2000-01 में तो यह कोकोनट डेवलपमेंट बोर्ड की उत्पादन सूची में भी नहीं था.
लेकिन अगले ही साल, गुजरात ने 14,000 हेक्टेयर ज़मीन और 125 मिलियन (12.5 करोड़) नारियलों के साथ अपनी मौजूदगी दर्ज करा दी. इस बड़ी छलांग के पीछे नारणभाई और दानाभाई सोलंकी जैसे किसान थे, जिन्होंने बहुत पहले ही यह समझ लिया था कि नारियल एक बढ़िया कमाई की फसल बन सकती है. वे तब भी प्रयोग कर रहे थे जब राज्य के कृषि अधिकारियों का ध्यान इस ओर नहीं गया था.

2000 के शुरुआती सालों में, युवा नारणभाई जो अब 40 के आसपास हैं, उन्होंने सोमनाथ के अपने गांव सुपासी से केरल के कासरगोड तक 1,600 किलोमीटर से ज्यादा लंबी और थकाने वाली कार यात्रा की. उनका मकसद था केरल में सीखी गई नारियल खेती की तकनीकों को घर लाना.
सेंट्रल प्लांटेशन क्रॉप्स रिसर्च इंस्टीट्यूट (CPCRI) में उन्होंने किसानों से मिले, वैज्ञानिकों से बात की, नोट्स लिए और कुछ पौधे साथ लेकर लौट आए. अगले कुछ साल में यह यात्रा दोहराई और धीरे-धीरे सुपासी में अपना बाग बढ़ाया. पांच साल में उन्हें मुनाफा होने लगा. अगले दशक में उनसे जुड़ने वाले किसानों की संख्या पांच गुना हो गई.
जब नारणभाई जैसे युवा किसान नए मौके ढूंढ रहे थे, उसी समय जूनागढ़ कृषि विश्वविद्यालय के उद्यान विभाग के वैज्ञानिक भी ऐसी हाईब्रिड किस्में विकसित कर रहे थे जो गुजरात की सख्त जलवायु को सहन कर सकें.

परंपरागत रूप से, गुजरात में लोटन और बोना किस्में होती हैं, लेकिन वर्षों में विभाग की महुवा इकाई, वरू के नेतृत्व में, दो हाइब्रिड तैयार किए—टॉल × ड्वार्फ और ड्वार्फ × टॉल. सौराष्ट्र में वैनफर हाइब्रिड भी लोकप्रिय हुआ. किसान इन किस्मों को इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि ये ज्यादा मजबूत होती हैं.
नारणभाई जैसे शुरुआती किसान अब एक तरह से “कोकोनट इन्फ्लुएंसर” बन गए हैं. जैसे ही नारणभाई खेत में टहलते हैं, उनके फोन में लगातार व्हाट्सऐप ग्रुप्स के मैसेज आते रहते हैं—Coconut Farmer 1, Farmer 2, Farmer 3. इन ग्रुप्स में पौध, किस्मों और रोज़ के रेट की जानकारी घूमती रहती है—“बड़ा नारियल 25 रुपये, छोटा नारियल 15 रुपये” और किसान पूरे दिन चर्चा करते रहते हैं.
यहां किसानों ने सब कुछ खुद किया है. सरकार बाद में आई. कोकोनट डेवलपमेंट बोर्ड ने तो अभी-अभी कार्यालय खोला है. सौराष्ट्र में अब सबसे बेहतर और सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाली फसल नारियल है
— डी.के. वरू, डीन, कॉलेज ऑफ हॉर्टिकल्चर, जूनागढ़ एग्रीकल्चरल यूनिवर्सिटी
एक सच्चे बिजनेसमैन की तरह, नारणभाई अपनी पेड़ों की ‘KPI’ भी देखते हैं. हाइब्रिड अच्छी तरह चल रहे हैं. एक पेड़ की तरफ इशारा करते हुए उन्होंने कहा, “इस पेड़ ने मुझे इस महीने लगभग 200 नारियल दिए हैं.”
लेकिन अब एक समस्या है. सभी किसान हाइब्रिड चाहते हैं, लेकिन राज्य की नर्सरियां साल में सिर्फ 15,000-20,000 पौधे ही तैयार कर पाती हैं, जबकि मांग 5 लाख से ज्यादा है.
ऐसी स्थिति में कुछ किसान जिनमें नारणभाई भी हैं, उन्होंने अपने घरों के पीछे छोटी नर्सरियां बनाकर हाइब्रिड पौधे तैयार करने शुरू किए हैं. लेकिन वे भी मांग पूरी नहीं कर पा रहे.
व्हाट्सऐप सवालों का जवाब देने और ऑनलाइन वेटिंग लिस्ट संभालने में जुटे नारणभाई ने कहा, “अभी 300 से ज्यादा किसान पौधे के लिए लाइन में हैं, और इंतज़ार डेढ़ साल से भी ज्यादा है.”
हाइब्रिड की इतनी भारी मांग की सबसे बड़ी वजह है—जलवायु परिवर्तन. धीरे-धीरे, पारंपरिक लोटन किस्म की पैदावार प्रभावित हो रही है.

चेतावनी के संकेत
Coconut (नारियल) के मामले में बहुतायत होना कोई पक्का मामला नहीं है. यह बात सबसे साफ तौर पर केरल के ‘नारियल संकट’ में दिखती है, जो देश के सबसे बड़े उत्पादकों में से एक है. पिछले एक साल में नारियल उत्पादन 40 प्रतिशत गिर गया है और जैसे ही दाम बढ़े, बगीचों और किराना दुकानों से नारियल चोरी होने लगे. लोग नारियल को बैंक लॉकर में रखने वाले मीम्स शेयर करने लगे.
हेब्बर ने कहा, इस गिरावट के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार माना गया है—क्लाइमेट चेंज और वीविल (एक कीड़ा) का हमला, साथ ही दूसरी परेशानियां जैसे रियल एस्टेट के लिए ज़मीन का इस्तेमाल और मजदूरों की कमी. तमिलनाडु में तो गजा जैसे चक्रवातों ने भी उत्पादन को काफी नुकसान पहुंचाया.
गुजरात भी इससे अछूता नहीं है.


नारियल के पेड़ को गर्मी और नमी पसंद है, लेकिन तट पर बढ़ता तापमान नुकसान करने लगा है. लोटन किस्म, जो पहले एक पेड़ से लगभग 150 नारियल देती थी, अब केवल 80-100 दे रही है.
वरु ने कहा, “इस इलाके में नारियल उत्पादन बढ़ा है, लेकिन प्रति पौधा उत्पादन कम हो गया है.” उन्होंने आगे कहा कि क्लाइमेट चेंज की वजह से ही किसान ग्राउंडनट (मूंगफली) से भी दूर जा रहे हैं, क्योंकि बारिश हर साल अनियमित हो रही है और पैदावार गिर रही है.
नारियल के बढ़ते चलन ने नई मुश्किलें भी शुरू कर दी हैं.
जैसे-जैसे किसान नारियल की तरफ बढ़े और अपने बागान बढ़ाए, बहुतों ने दक्षिण भारत से पौधे मंगाए. इनके साथ सफेद मक्खियां भी आ गईं—ये रस चूसने वाले कीड़े हैं जो अब पूरे सौराष्ट्र में फैल गए हैं. इनसे नारियल समय से पहले गिर जाते हैं और किसान कहते हैं कि अब उन्हें ज्यादा पेस्टिसाइड इस्तेमाल करने पड़ रहे हैं, जिससे नारियल के पेड़ों में परागण करने वाली मधुमक्खियों पर असर पड़ा है.
स्थिति इतनी खराब हो गई है कि किसान अपने घरों में ही आर्टिफिशल पोलिनेशन कर रहे हैं. नारणभाई ने कहा, “हम बीज लेते हैं और उसे दूसरी नारियल किस्म के पराग से परागित करते हैं.”
लेकिन कुल मिलाकर किसान अभी भी भविष्य को लेकर उत्साहित हैं. वे घरेलू बाज़ार जीत चुके हैं और अब आगे का सपना देख रहे हैं.
एक्सपोर्ट का सपना
दिल्ली की आजादपुर मंडी में ट्रेडर आशीष कपूर 35 साल से नारियल बेच रहे हैं. उन्होंने पिछले दो साल में गुजरात की नारियल किस्म को ऊपर आते हुए देखा है.
उन्होंने कहा, “पहले बंगाल का नारियल बाज़ार पर हावी था, लेकिन जब वहां की फसल में कीड़ों का हमला हुआ, तो व्यापारी गुजरात की तरफ आ गए क्योंकि यहां नारियल सस्ता था.” कर्नाटक वाली किस्म भी लोकप्रिय है और उनकी पसंदीदा भी, क्योंकि उसकी शेल्फ लाइफ एक हफ्ता होती है, जबकि गुजरात की केवल दो दिन, लेकिन कीमत के मामले में गुजरात का नारियल जीत जाता है.
लेकिन गुजरात का टेंडर नारियल (नारियल पानी वाला) अभी निर्यात के स्तर तक नहीं पहुंच पाया है.
वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय के अनुसार, भारत अभी 140 से ज्यादा देशों को नारियल निर्यात करता है. 2021-22 में नारियल निर्यात का मूल्य 393 मिलियन अमेरिकी डॉलर से ऊपर था, जो पिछले साल की तुलना में 41 प्रतिशत ज्यादा है. इसमें तेल, सूखा नारियल, चिप्स और दूसरी वैल्यू-ऐडेड चीज़ें शामिल हैं, लेकिन गुजरात अभी भी इस मामले में दक्षिणी राज्यों से पीछे है.
कर्नाटक, केरल और तमिलनाडु ने नारियल के इर्द-गिर्द पूरी इंडस्ट्री खड़ी कर ली है—तेल, सूखा नारियल, कॉयर जबकि गुजरात अभी भी ज्यादातर टेंडर नारियल पर ही निर्भर है. यहां कोको पीट (जो गार्डनिंग में इस्तेमाल होता है), आइसक्रीम स्टिक और झाड़ू जैसी चीज़ें बनाने की कोशिशें हुई हैं, लेकिन ये बड़े पैमाने पर मुनाफा देने वाली चीज़ें नहीं हैं.
सुपासी गांव में, दानाभाई सोलंकी ने अपना बागान 18 बीघा से बढ़ाकर 30 बीघा कर लिया है. यह दांव अभी तक उनके लिए फायदेमंद रहा है, लेकिन उन्हें निर्यात न होने का मलाल है.
उन्होंने कहा, “हम चाहते हैं कि अडाणी और अंबानी गुजरात की नारियल इंडस्ट्री में निवेश करें ताकि राज्य में निर्यात के अवसर खुल सकें.”
(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
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