ग्रेटर नोएडा के दादरी में एक स्कूल टीचर का अकाउंट स्टेटमेंट बरमूडा ट्रायंगल की तरह है. उसके खाते में जमा होने के 72 घंटे से भी कम समय में उसका पूरा वेतन गायब हो जाता है.
टीचर का दावा है कि उसके खाते से पैसे लेने के बाद निजी स्कूल का प्रबंधन उसे नकद भुगतान करता है. अंत में उसे जो मिलता है वह उस राशि से 10,000 रुपये कम होता है जो उसके खाते में डाली गई थी. कथित रूप से यह एक प्रचलित घोटाला है कि अंडरपेड शिक्षकों को यूपी के ग्रेटर नोएडा के कई निजी स्कूलों में सब कुछ चुपचाप बर्दाश्त करते हुए सहन करना पड़ता है. इन टीचर्स को सैलरी के रूप में जितना पैसा दिया जाता है और जितना पैसा देने का वादा किया जाता है वह लालच और शोषण की एक कहानी है.
वह निराशा में अपनी बैंक पासबुक के पन्ने पलटती है. 14 फरवरी 2022 को, उसके खाते में उसका वेतन जमा किया गया था, लेकिन तीन दिन बाद 17 फरवरी को डेबिट कर दिया गया था. इसी तरह के लेन-देन दोहराए गए, जब तक वो ग्रेटर नोएडा के ब्लू डायमंड पब्लिक स्कूल में काम करती रही.
वह कहती हैं, “स्कूल ने हमारी सिग्नेचर की हुई चेकबुक अपने पास रख ली, हमारे खातों से हमारा वेतन निकाल लिया और बाद में हमें नकद भुगतान किया. या फिर हम खुद पास के एटीएम से पैसे निकालकर उन्हें वापस कर देते हैं.” इस मामले में ईमेल से संपर्क करने पर न तो स्कूल के प्रिंसिपल और न ही मैनेजमेंट ने दिप्रिंट के ईमेल का जवाब दिया.
यह सिर्फ एक स्कूल तक ही सीमित नहीं है. ग्रेटर नोएडा के कई निजी स्कूलों में ‘कैशबैक सैलरी’ ने जड़ें जमा रखी हैं. शिक्षकों की कई बैंक पासबुक की एंट्रीज़ देखने के बाद, दिप्रिंट ने क्षेत्र के पांच से अधिक स्कूलों के वर्तमान और पूर्व टीचर्स से संपर्क किया, जिनके पास बताने के लिए एक जैसी कहानी थी. कागज पर वे अच्छा वेतन कमाते हैं, लेकिन उन्हें नकद में स्कूल को एक खास रकम वापस करने के लिए मजबूर किया जाता है.
ग्रेटर नोएडा में एक प्राइवेट टीचर एसोसिएशन, भारत शिक्षक संघ के अध्यक्ष पवन कुमार कहते हैं, “ग्रेटर नोएडा में यह भ्रष्टाचार बड़े पैमाने पर है, लेकिन चूंकि इसमें शिक्षकों का सहयोग शामिल है और कोई कागजी सबूत नहीं छोड़ता है, इसलिए किसी को भी जवाबदेह ठहराना मुश्किल है.”
जिले के अधिकारियों का कहना है कि उन्हें ग्रेटर नोएडा के निजी स्कूलों में हो रहे इस घोटाले की जानकारी नहीं थी. स्कूलों के जिला निरीक्षक धर्मवीर सिंह कहते हैं, “अभी तक मुझे ऐसी कोई शिकायत नहीं मिली है. लेकिन यह आपराधिक है. मुझे स्कूलों की एक सूची दें और मैं इस मामले को देखूंगा.”
कैशबैक घोटाले इसी खामोशी के माहौल में फलते-फूलते हैं. और अगर शिक्षकों के हाथ बंधे हों तो ऐसे संघों के मुखिया कुछ करने की स्थिति में नहीं होते.
कुमार कहते हैं, ”यह देश का कानून है.”
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पैसे की काली कमाई को व्हाइट करना
स्कूलों के लिए, यह उनके कर्मचारियों की कीमत पर ‘पैसे की व्हाइट मनी’ में बदलने का एक तरीका है.
दिप्रिंट ने ग्रेटर नोएडा के दुजाना पब्लिक स्कूल, एमसी गोपीचंद इंटर कॉलेज, सिद्धिविनायक स्कूल, ब्लू डायमंड पब्लिक स्कूल और सेंटहुड कॉन्वेंट स्कूल के कर्मचारियों से संपर्क किया. और हर शिक्षक जो बोलने को तैयार था, उसने दावा किया कि उन्हें अपने वेतन का बड़ा हिस्सा वापस करने के लिए मजबूर किया गया था.
‘सैलरी’ शब्द का जिक्र आने पर सेंटहुड कॉन्वेंट की प्रिंसिपल और डायरेक्टर आशा शर्मा भड़क गईं. उन्होंने किसी भी ‘कैशबैक वेतन घोटाले’ में स्कूल की संलिप्तता से स्पष्ट रूप से इनकार किया. जब दिप्रिंट ने 6 दिसंबर 2022 को आरोपों का जवाब लेने के लिए स्कूल का दौरा किया, तो उन्होंने पुलिस में ‘जबरन वसूली’ करने की शिकायत दर्ज कराने की धमकी दी. जिन अन्य स्कूलों का नाम लिया गया था उन्होंने दिप्रिंट की तरफ से भेजे गए ईमेल का कोई जवाब नहीं दिया.
नाम न बताने की शर्त पर दादरी स्कूल ओनर्स एसोसिएशन के एक सदस्य ने कहा, “अगर शिक्षकों को अपने वेतन से इतनी समस्या है, तो वे हमारी नौकरी को स्वीकार ही क्यों करते हैं?”
ग्रेटर नोएडा के एक अन्य निजी स्कूल की पूर्व टीचर वंदना गुप्ता इस डिफेंसिव रवैये या चुप्पी से हैरान नहीं हैं. उनका दावा है कि उनका आखिरी वेतन 8,000 रुपये था, हालांकि उनके बैंक स्टेटमेंट से पता चलता है कि स्कूल से हर महीने 25,000 रुपये जमा किए गए थे. हताशा में उन्होंने नौकरी छोड़ दी. वह अब गाजियाबाद में नौकरी के अवसर तलाश रही है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “गाजियाबाद के स्कूलों में वेतन बेहतर है और काम के घंटे भी बेहतर हैं. मैं अब ग्रेटर नोएडा में काम नहीं करना चाहती.”
इन आरोपों को सत्यापित करने के लिए दिप्रिंट ने दो स्कूलों- ब्लू डायमंड पब्लिक स्कूल और एमसी गोपीचंद इंटर कॉलेज के शिक्षकों की पासबुक भी ऐक्सेस की.
एमसी गोपीचंद के पूर्व शिक्षक सिंह ने कागज पर एक महीने में 45,000 रुपये कमाए. हालांकि, उनके एचडीएफसी बैंक के स्टेटमेंट से पता चलता है कि उनके खाते में पैसा जमा होने के तुरंत बाद, तीन लेन-देन में 25,000 रुपये निकाले गए.
वे कहते हैं, “मैंने पैसे निकाले और स्कूल के कैशियर को लौटा दिए.” एमसी गोपीचंद इंटर कॉलेज में सामाजिक अध्ययन पढ़ाने वाले सिंह का आरोप है कि उन्हें बिना नोटिस या कारण बताए नौकरी से निकाल दिया गया. इसी तरह का दावा हामिद खान द्वारा किया गया था, जो एमसी गोपीचंद में अर्थशास्त्र और बिजनेस स्टडीज़ पढ़ाते थे, लेकिन कथित तौर पर सितंबर 2022 में उन्होंने नौकरी छोड़ दी.
स्कूल का आकार मायने नहीं रखता. सेनथूड कॉन्वेंट जैसी कुछ साधारण मामूली इमारतें दादरी की गलियों में छिपी हुई हैं. एमसी गोपीचंद जैसे अन्य स्कूलों में प्लेग्राउंड और बसों के लिए पार्किंग स्थल सहित बड़े परिसर हैं.
टेक्निकल यूनिवर्सिटी टीचर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष और समाजवादी पार्टी के प्रवक्ता धर्मेंद्र यादव जोर देकर कहते हैं कि यह घोटाला ग्रेटर नोएडा के स्कूलों तक ही सीमित नहीं है.
उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “शिक्षकों को कम वेतन देने की स्कूलों में यह सामान्य प्रथा है. यह निजी विश्वविद्यालयों के साथ-साथ ग्रेटर नोएडा और देश के बाकी हिस्सों में भी हो रहा है.”
किन दिक्कतों का सामना कर रहे टीचर्स
बिजनेस स्टडीज और इकोनॉमिक्स पढ़ाने वाले हामिद खान को कथित तौर पर सितंबर 2022 में एमसी गोपीचंद इंटर कॉलेज छोड़ने के लिए मजबूर किया गया था, तब तक उन्होंने 4 लाख रुपये का कर्ज ले लिया था.
उन्होंने सात साल तक स्कूल में काम किया. इस मामले में पूछे जाने पर न तो प्रबंधन और न ही प्रिंसिपल ने दिप्रिंट के ईमेल का जवाब दिया.
एमबीए, बैचलर ऑफ कॉमर्स और बैचलर ऑफ एजुकेशन की डिग्री रखने वाले खान कहते हैं, “मुझे उस दिन का अफसोस है जब मैं शिक्षक बन गया.” लेकिन ये बातें प्रतिस्पर्द्धी एजुकेशन इंडस्ट्री में बहुत कम मायने रखते हैं.
उन्होंने अक्टूबर 2022 में गौतम बुद्ध नगर के जिलाधिकारी सुहास एलवाई को पत्र लिखकर शिकायत की कि उनके पूर्व एंप्लॉयर ने उनके दो महीने के पिछले बकाया का भुगतान नहीं किया है. लेकिन उनकी शिकायत में अपनी सैलरी के 10 हजार रुपये वापस करने के लिए मजबूर किए जाने का कोई जिक्र नहीं है.
21 वर्षीय एक युवा शिक्षक, हिमालय शर्मा कहते हैं कि उन्होंने अतीत में इसके खिलाफ शिक्षकों को लामबंद करने की कोशिश की है, लेकिन कहीं नौकरी न मिलने का डर उन्हें ऐसा करने से रोक लेता है.
शर्मा कहते हैं, “शिक्षक डरे हुए हैं कि उन्हें दूसरे स्कूलों में नौकरी नहीं मिलेगी, या जो उनके पास है उसे भी खो देंगे. ऐसे में स्कूल प्रबंधन बेखौफ होकर काम करता है. शिक्षकों कहीं नहीं जा सकते हैं.”
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न्यूनतम मजदूरी
शिक्षकों का दावा है कि इसके खिलाफ न बोलने की वजह से उनकी नौकरी के हर पहलू में घर कर गई है.
शिक्षिका वंदना गुप्ता कहती हैं, “कोई भी आगे आने और विरोध करने को तैयार नहीं है क्योंकि शिक्षकों के बीच कोई जुड़ाव और सामंजस्य नहीं है. हमारे अंदर नौकरी खोने का एक सामान्य डर बैठा हुआ है.”
ग्रेटर नोएडा के एक गांव में सिंह के घर को मरम्मत की सख्त जरूरत है. पैरट ग्रीन रंग की दीवारों की पपड़ी पूरी तरह से उखड़ गई है, फर्श भी कच्ची है.
पूरे 2020 और 2021 के कुछ महीने में, जब महामारी के कारण स्कूल बंद थे, उन्होंने एमसी गोपीचंद इंटर कॉलेज में सामाजिक अध्ययन पढ़ाते हुए अपने वेतन का केवल आधा हिस्सा- 10,000 रुपये ही कमाया. वह कड़वाहट से कहते हैं, “स्कूल ने दो नई बसें खरीदीं और शिक्षकों को उनके वेतन से वंचित करते हुए नए इन्फ्रास्ट्रक्चर का निर्माण किया.”
बादलपुर के एक प्राथमिक विद्यालय के एक स्कूल प्रिंसिपल, जो अपना नाम नहीं बताना चाहती थीं, उन्होंने स्वीकार किया कि शिक्षकों को न्यूनतम वेतन से कम पर काम पर रखा जा रहा है.
“मैंने 3,000 रुपये प्रति माह की सैलरी पर प्री-प्राइमरी सेक्शन में दो शिक्षकों को काम पर रखा है.” वह कहती हैं, “मैं सफाई कर्मचारियों को अधिक भुगतान करती हूं.”
जबकि वह कथित कैशबैक वेतन घोटाले से अनभिज्ञ होने का दावा करते हैं. डिप्टी इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स धर्मेंद्र यादव कम वेतन के बारे में जानते हैं.
वे कहते हैं, “स्कूलों को 7वें वेतन आयोग के अनुसार भुगतान करना आवश्यक है, लेकिन दादरी क्षेत्र में, निम्न-आय वाले स्कूल, जो छात्रों से प्रति माह 2-4 हजार फीस लेते हैं, उनके पास संसाधनों की कमी है. निजी स्कूलों के पास मानदंडों का पालन करने के लिए जरूरी पैसे नहीं हैं.”
कैसी है एक टीचर की लाइफ
प्राइमरी और सेकेंडरी सेक्शन में ज्यादातर टीचर्स महिलाएं हैं. आखिरकार, भारत में टीचिंग एक ऐसा पेशा है जिसे ‘सुरक्षित’ माना जाता है और माना जाता है इस पेश में पर्सनल लाइफ और प्रोफेशनल लाइफ में बैलेंस बनाना आसान होता है.
उन्हें गैर-शिक्षण कार्य करते हुए लंबे समय तक काम करना पड़ता है और मातृत्व अवकाश के लिए संघर्ष करना पड़ता है. एचआर प्रेक्टिस का नामो-निशान नहीं है. तीन शिक्षकों का दावा है कि जब उन्होंने अपने संबंधित स्कूल प्रबंधन को सूचित किया कि वे गर्भवती हैं तो उनसे इस्तीफा देने के लिए कहा गया. दूसरों का कहना है कि उन्हें बिना वेतन के छुट्टी लेने के लिए मजबूर किया गया था.
एक शिक्षिका मिस शर्मा कहती हैं, “स्कूल प्रशासन पुरुष कर्मचारियों का उतना शोषण नहीं करता जितना कि वे महिला शिक्षकों से करते हैं. गुरुओं का अपमान करना इस देश की संस्कृति बन गई है.”
20 साल के अनुभव वाली वाली गणित टीचर, जिन्हें बच्चे प्यार से गुप्ता मैम कहते हैं – उन्हें घर पर माता-पिता को स्कूल की फीस का भुगतान करने के लिए याद दिलाने के लिए भी जाना पड़ता है. यह अनौपचारिक रूप से उनके कार्य का एक हिस्सा है.
गुजारा करने के लिए वह घर पर भी ट्यूशन पढ़ाती हैं. इसलिए, वह हर दिन सुबह 4:30 बजे उठ जाती हैं. सिर्फ सुबह की चाय ही इनके लिए एक सुकून वाला पल है, और फिर दरवाजे की घंटी बजती है, एक और व्यस्त दिन की शुरुआत होती है. कलम, कागज और गणित के सवालों के साथ जम्हाई लेती छात्राएं स्कूल शुरू होने से पहले कक्षा के लिए उनके घर आती हैं.
सीबीएसई के नियमों के अनुसार, 30 छात्रों की कक्षा में 1.5 शिक्षक होने चाहिए. बच्चों को मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार (आरटीई) अधिनियम की धारा 27 भी गैर-शिक्षण उद्देश्यों के लिए शिक्षकों की तैनाती पर भी रोक लगाती है. लेकिन हमेशा ऐसा नहीं होता.
एक शिक्षक संकेत भाटी कहते हैं, “मैंने सेंटहुड स्कूल केवल इसलिए छोड़ा क्योंकि मुझे स्कूल की फीस लेने के लिए महामारी के बीच अपने छात्रों के घर जाने के लिए मजबूर किया गया था. सीबीएसई स्पष्ट रूप से कहता है कि यह शिक्षक का काम नहीं है, फिर भी हमें इस काम को करने के लिए महामारी के बीच में स्कूलों से बाहर भेज दिया गया था.”
शिक्षकों ने इस बात की भी शिकायत की कि उन्हें इस्तीफा देते वक्त रिलीविंग लेटर और नियुक्ति के समय नियुक्ति पत्र भी नहीं दिया जाता है. कंप्यूटर शिक्षक प्रमोद कुमार, जो भारत शिक्षक संघ के सदस्य भी हैं, कहते हैं, “अधिकांश स्कूल शिक्षकों से खाली पन्ने पर हस्ताक्षर करवाते हैं.”
यदि माता-पिता मानते हैं कि शिक्षण प्रणाली के टूटने से ट्यूशन संस्कृति का उदय हुआ है, तो शिक्षक कहते हैं कि इसने शिक्षा प्रणाली को विफल कर दिया है.
अंग्रेजी पढ़ाने वाले मदन कहते हैं, “मेरे पास एमए की चार डिग्रियां हैं. शिक्षक होने के कारण लोग मुझ पर हंसते हैं- वे कहते हैं कि मेरी पढ़ाई बेकार चली गई.”
(संपादनः शिव पाण्डेय)
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