अंकित* जब दिल्ली यूनिवर्सिटी के अपने कॉलेज पहुंचे तो उन्हें अपनी आजादी का अहसास होने लगा था. उन्हें लगता था कि भले ही कुछ घंटों के लिए, लेकिन वह अपने दमघोंटू, होमोफोबिक माता-पिता, अपमानजनक पड़ोसियों और स्कूल के दोस्तों के घेरे से बाहर निकल गये हैं. यहां उन्हें अपने गले में सुंदर मोतियों की माला लटकाने और अपनी पतली उंगलियों पर चमकदार अंगूठियां पहनने से रोकने वाला कोई नहीं है. यह वह जगह है जहां वह वास्तव में ‘स्वयं’ हो सकता है. यानी उन्हें यहां अपनी पहचान छिपाने या अपने भावों को दबाने की जरूरत नहीं पड़ेगी.
लेकिन अब कॉलेज लाइफ भी धीरे-धीरे वहीं पहुंचती जा रही है, जिससे वह बचने का प्रयास कर रहे थे.
क्वीयर यानी समलौंगिक के रूप में पहचान रखने वाले अंकित श्री गुरु गोबिंद सिंह कॉलेज ऑफ कॉमर्स (SGGCC) के सेकंड ईयर के छात्र हैं. पिछले दो सालों से दिल्ली यूनिवर्सिटी के कई कॉलेज क्वीयर छात्रों के लिए संघर्ष का एक मैदान बने हुए हैं. दरअसल ये छात्र आधिकारिक तौर पर मान्यता प्राप्त क्वीयर कलेक्टिव और अपने विचारों, इवेंट एवं कन्वर्सेशन के लिए एक सेफ स्पेस की मांग कर रहे हैं. जिस तरह से कॉलेजों में वुमन स्टडी सेंटर, डिबेटिंग, ड्रामा, डांस और फिल्म सोसाइटी होती है, ठीक उसी तरह का स्पेस वह अपने लिए चाहते हैं.
कुछ कॉलेज इस मामले में आगे नहीं बढ़ पा रहे हैं. कॉलेज प्रशासन को छात्रों की तरफ से दिए गए ज्ञापन, विरोध और फैकल्टी मेंबर्स के जरिए आगे भेजी गईं फाइलें प्रिंसिपल के कार्यालयों में धूल फांक रही हैं. कैंपस में जाने पर दिप्रिंट को पता चला है कि ज्यादातर कॉलेजों में क्वीयर छात्रों को अपनी मांगों के बदले में विरोध, जहालत, बेरुखी और यहां तक कि अधिकारियों की ओर से मिलने वाली धमकियां झेलनी पड़ रही हैं.
हिंदू कॉलेज की छात्रा गीता* कहती हैं, ‘अपने ही लोगों द्वारा स्वीकार नहीं किए जाने के कारण क्वीयर-ट्रांस लोगों के रूप में हमें समाज से अलग-थलग होने का सामूहिक दर्द झेलना पड़ता है. हमें पूरी दुनिया अपने लिए एक असुरक्षित जगह की तरह लगती है. हमें यह सुनिश्चित करने के लिए लगातार अपनी दीवारों को थामना होगा कि कोई हमें नुकसान पहुंचाने के लिए नहीं आ रहा है. यही कारण है कि कॉलेज में एक क्वीयर कलेक्टिव की जरूरत है. यहां हमें किसी चीज के खिलाफ नहीं लड़ना है. हम बस खुद जैसे हैं, उसके लिए इसकी जरूरत है.’
कॉलेज लाइफ युवाओं को उस आजादी का अहसास कराती है, जिसकी तलाश उन्हें हमेशा से रहती है. यह खासतौर पर उन क्वीयर छात्रों के लिए महत्वपूर्ण हो जाती है जो पहली बार अपने परिवारों और स्कूलों की अनचाही दुनिया से निकल कर यहां आते हैं. कैंपस उनके लिए एक पोर्टल की तरह काम करता है जहां वे बिना डरे अपनी पहचान को गले लगा सकते हैं. लेकिन यहां भी जिंदगी बदल रही है. शोषण, अपमानजनक छींटा-कशी, यहां तक कि आत्महत्याएं अब उन्हें सोचने के लिए मजबूर कर रही हैं.
क्वीयर स्टूडेंट के मुताबिक, कॉलेज कैंटीन और क्लास, फेस्टिवल और इवेंट, इन सभी जगहों पर समलैंगिक पहचान को अनदेखा, उपेक्षित और खारिज कर दिया जाता है.
क्वीयर छात्र अपने कॉलेज से जुड़े अनौपचारिक सोशल मीडिया ग्रुप से जुड़े हुए हैं, ताकि अपने लुक्स, गलत सर्वनामों, अपने डेडनेम (जन्म के समय दिए गए नाम) को सुनने और होमोफोबिक मिस इन्फोर्मेशन से बच सकें.
दिप्रिंट ने कई कॉलेजों के प्रिंसिपल से संपर्क करने की कोशिश की थी, लेकिन सिर्फ SGGCC के प्रिंसिपल जतिंदर बीर सिंह ने जवाब दिया. उन्होंने समझाया कि नई सोसाइटीज (या कलेक्टिव) पर रोक है क्योंकि कॉलेज में पहले से ही 40 क्लब और सोसाइटीज हैं. दिप्रिंट की ओर से भेजे गए सवालों का किसी अन्य कॉलेज ने जवाब नहीं दिया.
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संघर्ष देखने को मिलेगा
लगभग 3 महीने के इंतजार के बाद, जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज के दूसरे वर्ष के छात्र अर्नब अधिकारी को जेंडर सेंसेटिजाइशन कमेटी ने मीटिंग के लिए बुलाया गया था. एक क्वीयर कलेक्टिव के लिए प्रिंसिपल के ऑफिस को दिया गया उनका ज्ञापन आखिरकार आगे बढ़ रहा था. वह काफी खुश थे, उन्हें उम्मीद की एक किरण नजर आ रही थी, लेकिन मीटिंग रूम में पहुंचते ही उनकी खुशी काफूर हो गई.
उनके सामने बैठे पांच फैकल्टी सदस्यों के रवैये को एक शब्द में बयां किया जा सकता है- विरोधी. ‘उन्होंने मुझसे अपना फोन एक तरफ और साइलेंट मोड पर रखने को कहा. उसके बाद मुझ पर आरोपों की झड़ी लगा दी.’
कॉलेज के गैर-मान्यता प्राप्त क्वीयर कलेक्टिव के अध्यक्ष अर्नब ने बताया, ‘कमेटी के सदस्यों ने कहा कि मैं एक क्वीयर कलेक्टिव की मांग करके कॉलेज को गंदा कर रहा हूं और इसकी संस्कृति पर नकारात्मक असर डाल रहा हूं. उन्होंने मुझ पर दुष्प्रचार फैलाने का आरोप लगाया और कहा कि मुझे निलंबित किया जा सकता है.’
समिति के सदस्यों ने कथित तौर पर अर्नब से कहा कि अगर वे इस ‘बकवास’ (क्वीयर कलेक्टिव बनाने) को स्वीकार करते हैं, तो उनके कॉलेज की फंडिंग रुक सकती है. जब अर्नब अपनी मांग से नहीं हटे, तो उन्होंने कथित तौर पर कहा कि उनका एक धार्मिक अल्पसंख्यक कॉलेज है और एक समलैंगिक सामूह को स्वीकार करने से मुस्लिम समुदाय से प्रतिक्रिया आ सकती है.
कॉलेज के एक लोकप्रिय छात्र अर्नब पहले अकेले थे, लेकिन एक साल से भी कम समय में 80 से ज्यादा छात्र उनके साथ जुड़ चुके हैं. ये सभी अलग-अलग कोर्स और धार्मिक अल्पसंख्यकों से आए हैं और कैंपस में एक क्वीयर कलेक्टिव के लिए उनके वजह का समर्थन करते हैं. मैनेजमेंट के सामने उन्होंने एक सरल सा प्रस्ताव रखा था: क्वीयर छात्रों को एक मंच प्रदान करें जहां वे क्वीयरनेस से संबंधित सेमिनार और कार्यक्रम आयोजित कर सकें.
जेंडर सेंसेटिजाइशन कमेटी के सदस्यों के खंडन ने उनके प्रस्ताव को कुचल दिया. कॉलेज से सस्पेंड किए जाने और माता-पिता को खबर दिए जाने के डर से उनका समर्थन करने वाले आधे से ज्यादा मेंबर्स ने उनका साथ छोड़ दिया.
मैनेजमेंट के साथ अर्नब का मनमुटाव यहीं खत्म नहीं हुआ. 15 जुलाई को जेंडर सेंसेटिजाइशन कमेटी ने ‘एलजीबीटी मुद्दे पर जागरूकता पैदा करने’ पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया था. लेकिन इसमें किसी भी क्वीयर छात्र को नहीं बुलाया गया. और बस यहीं फिर से एक चिंगारी भड़क उठी. इसने अर्नब के कैंपस में एक समलैंगिक कलेक्टिव बनाने के संकल्प को और भी मजबूत कर दिया.
LGBTQ में Q शब्द का वर्णन इस तरह से किया: ‘यह वे लोग होते हैं, जो अपने बारे में तय नहीं कर पाते कि उनका आकर्षण पुरुष की ओर है या फिर स्त्री की ओर. उनके अंदर स्त्री वाले गुण हैं या फिर पुरुष वाले.’
जब अर्नब ने इस पर आपत्ति की तो कथित तौर पर उन्हें चुप रहने और कमरे से बाहर जाने के लिए कहा गया.
उन्होंने कहा, ‘आयोजकों ने कहा कि वे लोगों की ‘असामान्यताओं’ को स्वीकार करना सीख रहे हैं. उन्होंने गलत सर्वनामों का इस्तेमाल किया (जैसे किसी महिला के जन्म के लिए ‘वह’, ‘उसका’ का इस्तेमाल करना, लेकिन उनकी पहचान के लिए कोई सर्वनाम नहीं है.) प्रेजेंटेशन के बाद जब मैंने सवाल किया तो उन्होंने कहा कि मैं बहुत ज्यादा सोच रहा हूं.’
क्वीयर कलेक्टिव के लिए प्रिंसिपल के पास अगस्त में भेजे गए उनके आखिरी पत्र पर अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं मिली है. जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज के प्रिंसिपल ऑफिस ने दिप्रिंट के सवालों का जवाब नहीं दिया.
अन्य कॉलेजों में क्वीयर कलेक्टिव को मान्यता देने के समान अनुरोधों को भी या तो रोक दिया गया है या पूरी तरह से खारिज कर दिया गया है.
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क्वीयरनेस, एक ‘खतरा’
साउथ कैंपस में जीसस एंड मैरी कॉलेज (जेएमसी) में क्वीयर कलेक्टिव को 2018 में अनौपचारिक रूप से शुरू किया गया था. छात्रों ने बैठकें आयोजित करना और अपने अनुभव साझा करना शुरू कर दिया. लेकिन फिर कथित तौर पर इसे कैंपस के बाहर करने के लिए कहा गया.
जेएमसी की एक क्वीयर छात्रा प्रिया* ने कहा, ‘कलेक्टिव के सदस्यों को बताया गया था कि वे कॉलेज में ये ‘राजनीतिक चीजें’ नहीं कर सकते. हमसे कहा गया कि हमारे माता-पिता को बुलाया जाएगा.’
छात्रों को कथित रूप से हिरासत में लेने की धमकी दी गई थी. जिस तरह से जाकिर हुसैन कॉलेज ने बहाना बनाया था कि यह एक धार्मिक अल्पसंख्यक कॉलेज है. ठीक वैसा ही यहां भी किया गया. उन्हें इस तरह के सवालों के घेरे में रखा गया था, ‘क्या आपको लगता है कि आपके माता-पिता इन पश्चिमी विचारों को स्वीकार करेंगे? यह हमारे सामाजिक ढांचे के खिलाफ है.’
जेएमसी के छात्रों ने कहा कि क्वीयरनेस को मैनेजमेंट एक खतरे के तौर पर देखता है.
2020 तक जेएमसी क्वीयर कलेक्टिव ने अधिकारियों से मान्यता की मांग शुरू कर दी. लेकिन उनकी आवाज को कभी वापस नहीं सुना गया. छात्रों का दावा है कि जेएमसी में अन्य सोसाइटीज, मसलन कॉमर्स डिपार्टमेंट की ‘फाइनेंस सेल’ को उसी समय के आसपास अनुमोदित किया गया था. लेकिन क्वीयर कलेक्टिव को जगह नहीं दी गई.
वो समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर वे क्या गलत कर रहे हैं. जेएमसी के छात्र नॉर्थ और साउथ कैंपस के क्वीयर कलेक्टिव के पास पहुंचे, ताकि वह जाने सकें कि उनके प्रस्तावों को कैसे मजबूत बनाया जा सकता है. उन्होंने परिसर में एक हस्ताक्षर अभियान चलाया और 500 से ज्यादा छात्रों से समर्थन प्राप्त किया. उन्होंने सितंबर में एक नया प्रपोजल प्रिंसिपल को सौंपा. लेकिन वह भी एक ठंडे बस्ते में चला गया.
प्रिया ने कहा, ‘हर बार जब भी हमने अपने प्रपोजल के बारे में जानने की कोशिश की, तो हमें बताया गया कि प्रिंसिपल व्यस्त हैं.’
इंतजार से तंग आकर छात्रों ने चुपचाप विरोध करने का फैसला किया. तय किया गया कि दो सप्ताह तक, हर दिन, एक ग्रुप प्रिंसिपल के ऑफिस के बाहर ही बैठा रहेगा. आखिरकार प्रिंसिपल ने उन्हें अंदर आने के लिए कहा, प्रिया के मुताबिक, जब हम उनके पास गए तो उन्होंने कथित तौर पर कहा कि उनके पास इस तरह के कलेक्टिव को मंजूरी देने का कोई अधिकार नहीं है.
जेएमसी के प्रिंसिपल ऑफिस ने दिप्रिंट के सवालों का जवाब नहीं दिया.
छात्रों के लिए एक अकेली लड़ाई
2 साल पहले जब निखिल* SGGCC में अधिकारियों के पास एक क्वीयर कलेक्टिव के प्रस्ताव के साथ पहुंचे, तो उनसे कथित तौर पर कैंपस में क्वीयर छात्रों की एक सूची मांगी गई थी. उस समय वह एक फ्रेशर थे. इसे अनैतिक बताते हुए उन्होंने लिस्ट जमा नहीं की. दूसरी बार, छात्रों ने एक प्रोफेसर को अपने साथ पाया. लेकिन वह प्रोफेसर फिर कभी कॉलेज में नहीं दिखे. निखिल ने कहा, ‘ये एक ऐसा डर है.’
अपने विरोध को सामने लाने के लिए SGGCC के क्वीयर छात्र एक नया विचार लेकर आए. उन्होंने टॉयलेट और कैंटीन में कागज के छोटे-छोटे टुकड़े छोड़ दिए, जिन पर हिंदी में लिखा था: ‘आप इस छोटे से कागज के टुकड़े को देख सकते हैं, लेकिन आपको कॉलेज में होमोफोबिया नहीं दिखाई देता है?’
अंकित कहते हैं, ‘सबने उस चिट को देखा.’
इंस्टाग्राम पर तो हमारी हमारी ट्रिक काम कर गई, जहां इन चिट्स की रील को 10,000 से ज्यादा बार देखा गया था. लेकिन कैंपस में होमोफोबिया को संबोधित करने के बजाय चिट को फाड़ दिया गया और मामला शांत हो गया.
SGGCC के प्रिंसिपल ने एक इनडिपेंडेंट क्वीयर कलेक्टिव की जरूरत को खारिज कर दिया. जतिंदर बीर सिंह ने कहा, ‘देश के कई कॉलेजों में मैंने सिर्फ कुछ ही सोसाइटीज को ढेर सारे कार्यक्रम करते देखा है. उदाहरण के तौर पर आप NSS को लें. इसके अंतर्गत सभी सामाजिक और जागरूकता कार्यक्रम किए जा सकते हैं और किसी काम को सामने लाने के लिए अलग क्लब की जरूरत नहीं है. क्वीयर समुदाय एनएसएस की छत्रछाया में अपने प्रोग्राम कर सकता है.’
NSS यानी नेशनल सर्विस स्कीम, कॉलेजों में युवा मामलों और खेल मंत्रालय द्वारा संचालित एक पब्लिक सर्विस प्रोग्राम है. सिंह ने आगे कहा, ‘कॉलेज में ज्यादा सोसाइटी और क्लब का मतलब है ज्यादा काम और इसके लिए ज्यादा पैसों की जरूरत.’
कई अन्य कॉलेजों में क्वीयर छात्रों को लगातार पुराने, वुमेन ग्रुप या जेंडर सोसाइटी के साथ सहयोग करने के लिए कहा जाता है. इनमें से अधिकांश में क्वीयर छात्रों का कोई प्रतिनिधित्व नहीं है या वे क्वीयर मुद्दों के बारे में अनभिज्ञ हैं. छात्रों का कहना है कि दोनों को आसानी से मिलाया नहीं जा सकता है.
हिंदू कॉलेज की गीता ने दिप्रिंट को बताया कि प्रिंसिपल के कार्यालय में उनके कई पत्र या तो गायब हो जाते हैं या प्रिंसिपल उन्हें देखने की जहमत नहीं उठाते.
उन्होंने कहा, ‘अब हमने मान्यता नहीं लेने का फैसला किया है. कॉलेज में क्वीयर-ट्रांस लोग अब थक चुके हैं. उनमें लड़ने का जज्बा नहीं बचा है. वे बस एक जगह चाहते हैं जहां वे आराम कर सकते हैं और सहज महसूस कर सकते हैं और बस एक दूसरे के लिए हो सकते हैं.’
कैंपस में समावेशिता की इस लड़ाई में दुर्भाग्य से क्वीयर छात्र अकेले हैं. समर्थन करने वालों को कई तरह से सजा दी जाती है.
साउथ कैंपस के एक कॉलेज के एक प्रोफेसर ने नाम न छापने की शर्त पर विस्तार से बताया कि क्वीयर कलेक्टिव का समर्थन करने पर कैसे उन्हें स्थायी फैकल्टी से अलग-थलग कर दिया जाता है और कैसे एडहॉक शिक्षकों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ सकता है.
प्रोफेसर ने कहा, ‘क्वीयर छात्रों का समर्थन करने वाले शिक्षकों को अन्य तरीकों से पुशबैक मिलता है. उनके प्रोजेक्ट्स को पास नहीं किया जाएगा, उन्हें कुछ समितियों से बाहर रखा जाएगा. उन्हें बाहरी लोगों की तरह महसूस कराया जा सकता हैं. उन्हें एक खास नजरिए से देखा जाता है.’
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‘अपमानित करने वाली टीका-टिप्पणी’ कॉलेज लाइफ का हिस्सा
परिसरों में अलग से एक क्वीयर कलेक्टिव की मांग एकमुश्त होमोफोबिया की घटनाओं और उन तरीकों की वजह से बढ़ी है, जिसमें क्वीयर छात्रों पर विषमलैंगिक संस्कृति थोपी जाती है.
कैंपस में छात्र के ज्वैलरी पहनने और मेकअप करने वाले पुरुषों या ढीले-ढाले कपड़े पहने वाली महिलाओं की ओर अजीब तरीके से इशारा किया जाता है.
जब जेएमसी में एक क्वीयर छात्रा ने एक शिक्षक की को सही करते हुए कहा कि वह एक महिला के रूप में पहचान नहीं करती है. तब शिक्षक ने कथित तौर पर कहा, ‘अगर आप अलग हैं, तो आपको मुझे बताना होगा. आप सभी लड़कियां हैं.’
निखिल ने कहा, ‘लोग इस हद तक उदासीन हैं कि वे आपको उपेक्षित महसूस कराते हैं. जब मैंने पहली बार कॉलेज ज्वाइन किया तो इस निष्क्रिय आक्रामकता ने मुझे इतना पागल बना दिया. मैंने सवाल करना शुरू कर दिया – मैं इस कैंपस में ‘खुद’ क्यों नहीं हो सकता हूं?’
मानसिक स्वास्थ्य के लिए मुंबई स्थित क्वीयर सकारात्मक संगठन मारीवाला हेल्थ इनीशिएटिव की कंसल्टेंट थेरेपिस्ट पूजा नायर कहती हैं, ‘दुनिया छात्रों के लिए एक शानदार कॉलेज लाइफ का वादा करती है, जहां कोई एक क्वीयर व्यक्ति के रूप में स्वतंत्र रूप से रह सकता है. लेकिन जब कैंपस उनकी इस विविधता को स्वीकार नहीं करता है और इसका जश्न नहीं मनाया जाता है, तो छात्रों को एक गहरा झटका लगता है.’
नायर ने कहा, ‘जरूरी नहीं है कि भेदभाव की बड़ी घटनाएं ही हों. हर दिन बहुत छोटी-छोटी घटनाएं हो सकती हैं. मसलन कोई उनके बगल में बैठना पसंद न करे या कोई ग्रुप प्रोजेक्ट में कोई किसी समलैंगिक व्यक्ति के साथ नहीं रहना चाहता हो. लोग उनकी पीठ पीछे तो कभी उनके सामने ही उनका मजाक उड़ाते हैं. क्वीयर लोग जैसे ही अपनी पहचान सामने रखते हैं तो हो सकता है कि वे अपने दोस्तों को खो दें.’
लड़कियों के कॉलेज जेएमसी में कुछ प्रोफेसरों को कई बार सही किए जाने या जेंडर-न्यूट्रल शब्दों मसलन ‘छात्र’ कहे जाने का अनुरोध करने के बावजूद क्वीयर छात्रों को अनसुना कर दिया गया या उन्हें गुमराह किया.
जब जेएमसी में एक क्वीयर छात्र ने कक्षा में सर्वनामों की व्याख्या करने की कोशिश की, तो उन्हें ऐसे व्यक्ति के रूप में चिन्हित किया गया जो हर समय सिर्फ लैंगिक मुद्दों के बारे में बात करता है.
एक छात्र ने बताया, ‘मैंने एक बार कुछ कहने के लिए अपना हाथ उठाया, तो मेरे शिक्षक ने कहा, ‘यहां कोई जेंडर एंगल नहीं है. अपना हाथ नीचे करो’. छात्र अपनी पहचान बताने के लिए तैयार नहीं हुआ.
क्वीयर छात्रों को अक्सर उनके साथी यह कहते हुए मजाक उड़ाते हैं कि कुछ चुटकुले उनके सामने नहीं सुनाए जा सकते क्योंकि वे हंसेंगे नहीं. या लड़कियों के कॉलेज में लेस्बियन या बाई-सेक्सुअल होना तो मजे की बात है, क्योंकि वे यहां लड़कियों से घिरे हुए हैं.
नायर बताते हैं कि फैकल्टी को क्वीयर छात्रों की परेशानियों से कोई लेना-देना नहीं है. लेकिन फिर भी वह कॉलेजों में आयोजित सेंसीटिजाइशन वर्कशॉप में भाग लेने से बाज नहीं आते हैं.
नायर कहते हैं, ‘वे क्वीयर-ट्रांस लोगों के मानसिक स्वास्थ्य को जिंदगी और मौत के मामले के तौर पर नहीं देखते हैं. वे एक कॉलेज में एक क्वीयर युवा छात्र होने की गंभीरता को नहीं समझते हैं, वे नहीं जानते कि उन्हें किस तरह के संघर्षों से गुजरना पड़ रहा है. वे तो बस इसे एक सनक के रूप में देखते हैं.’
होमोफोबिया को दूर करने के लिए कॉलेजों में बना शिकायत निवारण मैकेनिज्म टूटा हुआ है और इससे निपटने के लिए तैयार नहीं है. ऐसी शिकायतों का समाधान एंटी-रैगिंग सेल और आंतरिक शिकायत समितियां करती हैं. लेकिन ज्यादातर क्वीयर छात्र अतीत की अनसुलझी शिकायतों के चलते इस रास्ते पर चलना पसंद नहीं करते हैं. और दुर्व्यवहार जब व्हाट्सएप और इंस्टाग्राम जैसे सोशल मीडिया में होता है, तो यह कॉलेज के अधिकारियों के दायरे से बाहर हो जाता है.
जब प्रिया ने कैंपस में यौन शोषण की एक घटना की सूचना दी, तो प्रशासन ने कथित तौर पर उनसे कहा कि उनका शोषण करने वाला खतरनाक है, इसलिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जा सकती है. जाकिर हुसैन दिल्ली कॉलेज में, क्वीयर कलेक्टिव द्वारा लगाए गए पोस्टर अक्सर फटे होते हैं और क्वीयर छात्रों का उनकी पोशाक, पियर्सिंग, बालों के रंग और कपड़ों, ज्वैलरी या मेकअप के चलते लगातार मज़ाक उड़ाया जाता है.
छात्रों का कहना है कि वर्चुअल स्पेस में गाली और गाली देने वाले गुमनामी की आड़ में छिप सकते हैं. यहां स्थिति काफी बदतर है.
कथित तौर पर हिंदू कॉलेज के छात्रों की तरफ से शुरू किए गए एक इंस्टाग्राम पेज पर क्वीयर व्यक्तियों को ‘ब्रेनवॉश’ और ‘मानसिक रूप से बीमार’ कहा गया. SGGCC के छात्रों के एक ग्रुप में एक मैसेज सर्कुलेट किया गया था. इसमें लिखा था, ‘इस इंद्रधनुषी बकवास को रोकें’ और साथ ही ट्रांस व्यक्ति की एक तस्वीर भी डाली जिसका कैप्शन था ‘हम किन जोकरों की दुनिया में रह रहे हैं.’ एक अन्य मैसेज में लिखा था कि क्वीयर लोगों को एचआईवी-एड्स होने की संभावना ज्यादा होती है.
अक्टूबर में जाकिर हुसैन कॉलेज में दो Google फॉर्म (जो अनौपचारिक क्वीयर कलेक्टिव के इंस्टाग्राम पेज पर सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हैं) क्वीयर कलेक्टिव में शामिल होने के लिए गुमनाम लोगों द्वारा भरे गए थे. अर्नब कहते हैं, ये होमोफोबिक स्लर्स से भरे हुए थे और सामूहिक रूप से शर्मसार कर रहे थे.
2020 में एक अनौपचारिक कॉलेज व्हाट्सएप ग्रुप में जब निखिल ने इसके मेंबर्स से अभद्र भाषा का इस्तेमाल नहीं करने का अनुरोध किया, तो वह उनका सॉफ्ट टारगेट बन गया.
निखिल ने बताया, ‘मैं अभी भी उस भयावतता को भूला नहीं हूं, जो मुझे उस ग्रुप के मैसेज पढ़ने के लिए खोलने पर होती थी. 69 नंबर को अलग ही तरीके से पेश किया गया था और इसमें मुझे अश्लील तरीके से टैग किया गया था. मैं उस ग्रुप से जुड़े 256 लोगों के मजाक का पात्र बन गया था. मैं उस समय अपनी सेक्सुअलिटी के साथ बाहर भी नहीं आया था. मुझे बॉर्डर लाइन पैनिक अटैक आ रहे थे. यह तब की बात है जब मैंने कॉलेज ज्वाइन किया ही था. यह मेरे लिए एक बड़ा झटका था.’
अंकित ने बताया, ‘निखिल की शिकायत महिला विकास प्रकोष्ठ में गई. उन्होंने कहा कि वे इसके बारे में कुछ नहीं कर सकते क्योंकि यह महिलाओं से जुड़ा मसला नहीं है.’
जब अंकित ने कॉलेज ज्वाइन किया तो उसे लगा कि यहां माहौल अलग होगा. हाई स्कूल में वह अक्सर मानसिक रूप से टूट जाता था. वह स्कूल और पड़ोस में लगातार होने वाली धमकियों से थककर खुद को अपने बाथरूम में बंद कर लेता था और घंटों रोता था. जो उसे चिढ़ाते और परेशान करते थे, उन लड़कों से बचने के लिए वह अपना रास्ता बदल लेता था और गंदी, खराब रोशनी वाली गलियों को पार करके जाया करता था.
उसका घर भी उसके लिए आरामदेह नहीं था. उसे अपने कमरे का दरवाजा बंद करने या अपने लैपटॉप की स्क्रीन को बंद करके काम करने की अनुमति नहीं है. पिछले साल उसके पड़ोस की एक लड़की ने उसके माता-पिता को बताया कि वह एक प्राइड परेड में शामिल हुआ था. उसके पिता दिल्ली में एक पुलिसकर्मी हैं और यह उनकी चेतावनी थी.
उसके पिता ने उन्हें समलैंगिक व्यक्तियों का जिक्र करते हुए कहा, ‘हम ‘ऐसे लोगों’ को जिंदा दफना देते हैं.’ तब उसकी मां ने उससे कहा कि अगर वह समलैंगिक के रूप में बाहर आता है तो वह उसे अस्वीकार कर देंगी.
उन्हें उम्मीद थी कि कॉलेज अलग होगा.
अपने पहले दिन उन्हें एक दोस्त ने एक ग्रुप से बाहर कर दिया था. जब उसने माना कि वह समलैंगिक है, तो उसके बगल में बैठा लड़का उसके पैरों पर कूदा और कहने लगा, ‘मुझे मारने की कोशिश मत करना’
अंकित ने याद करते हुए कहा, ‘जिस पल मुझमें खुद को स्वीकार करने की हिम्मत थी, तब एक आदमी आया और उसने मेरी भावनाओं को कुचल दिया.’
जब अंकित को उसके पिता ने चेतावनी दी तो वह अपने कमरे में बंद हो गया. निखिल और ग्रुप के अन्य समलैंगिक सदस्यों ने इसे देखा और उसे उसके अवसाद से बाहर आने में मदद की.
इसके बाद अंकित और निखिल ने कैंपस में बदलाव लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. अनौपचारिक कलेक्टिव के हिस्से के रूप में वे कैंपस में क्वीयर छात्रों को मजबूत समर्थन देते हैं. वो छात्र जो अभी भी अपनी पहचान के बारे में भ्रमित हैं या खुले तौर पर बाहर आने से डरते हैं. क्वीयर छात्रों ने न सिर्फ उन पर पर्सनली विश्वास किया बल्कि उनके सोशल मीडिया खातों पर भी भरोसा किया.
कॉलेजों के लिए क्वीयर कलेक्टिव का होना जरूरी नहीं है. विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) के दिशा-निर्देश भी इन कलेक्टिव को लेकर मौन हैं. ट्रांसजेंडर पर्सन्स (अधिकारों का संरक्षण) एक्ट 2019 बताता है कि ट्रांसजेंडर व्यक्तियों के लिए शिक्षण संस्थानों को नॉन-डिस्क्रिमिनेटरी होना चाहिए. कोई भी कार्य जो उन्हें मानसिक, शारीरिक या भावनात्मक तौर पर नुकसान पहुंचाता है, उसके लिए कारावास और जुर्माने की सजा होगी. लेकिन छात्रों ने दिप्रिंट को बताया कि उनके पास इन लंबी कानूनी लड़ाई को अकेले लड़ने का साहस या संसाधन नहीं है.
‘हमारे साथ जाने वाला कोई नहीं है. हम ज्यादा से ज्यादा यह कर सकते हैं कि अपनी इंस्टाग्राम स्टोरीज पर शोषित लोगों को सबके सामने लेकर आएं’
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एक मंच
दिल्ली यूनिवर्सिटी के कॉलेजों में अनौपचारिक समलैंगिक कलेक्टिव की संख्या बढ़ रही है. जब इनका बनना शुरू हुआ तो उस समय मुट्ठी भर लोग थे, उनमें से कुछ के पास अब 100 से अधिक सदस्य हैं. हालांकि क्वीयर कलेक्टिव कैंपस में होमोफोबिया को खत्म नहीं कर सकते हैं, लेकिन वे क्वीयर छात्रों को एक सपोर्ट सिस्टम मुहैया करा सकते हैं.
उदाहरण के लिए, अप्रैल में मिरांडा हाउस क्वीयर कलेक्टिव ने एक क्वीयर छात्र के लिए 8,000 रुपये इकट्ठा करने के लिए एक फंडरेजर ऑर्गेनाइज किया था. वह छात्र अपने घर में हमेशा से गलत व्यवहार के इतिहास के कारण चिंता, अवसाद और आघात से जूझ रहा था. इससे पहले भी इसी तरह के एक फंडरेजर ने उनके लिए 14,000 रुपये इकट्ठा किए थे और उसका इलाज कराया था. कॉलेज के क्वीयर कलेक्टिव इस तरह के कई और फंडरेजर आयोजित करते रहते है.
हिंदू कॉलेज के सहयोग से मिरांडा हाउस क्वीयर कलेक्टिव ने भी पिछले महीने क्वीयर-ट्रांस छात्रों की कानूनी क्षमता पर एक कार्यशाला का आयोजन किया था. चर्चा में शैक्षणिक संस्थानों में समलैंगिक व्यक्तियों के लिए उपलब्ध अधिकारों, विकल्पों और सुविधाओं को शामिल किया गया.
हालांकि मिरांडा कॉलेज क्वीयर कलेक्टिव को मान्यता दी गई है, लेकिन अन्य लोग बिना किसी संस्थागत समर्थन के अपनी गतिविधियों का संचालन करते हैं. वे कहते हैं, मान्यता मिलने से उन्हें परिसर में एम्फीथिएटर और सभागार बुक करने की अनुमति मिल जाएगी और उन्हें रसद और अन्य उपकरणों की व्यवस्था करने की चिंता नहीं करनी होगी. कॉलेजों में मान्यता प्राप्त सोसाइटीज को मैनेजमेंट से भी फंड मिलता है और कुछ कॉलेजों में छात्रों को कलेक्टिव में भाग लेने के लिए क्रेडिट और अटेंडेंस से छूट मिलती है.
लेडी श्री राम कॉलेज क्वीयर कलेक्टिव को फरवरी में आधिकारिक रूप से मान्यता दी गई थी. इसकी वरिष्ठ समन्वयक मौली कौशिक ने कहा, ‘कैंपस में बहुत सारे छात्र यह जानकर बहुत उत्साहित हुए कि यहां एक क्वीयर कलेक्टिव है, क्योंकि उन्हें लगा कि ये एक ऐसा संगठन है जो उनकी इच्छाओं और जरूरतों और हितों का प्रतिनिधित्व कर सकता है. अगर वे अपनी लैंगिक पहचान या अपनी कामुकता के संबंध में किसी भी मुद्दे या किसी कठिनाई का सामना करते हैं तो वे इस पर भरोसा कर सकते हैं.’
एलएसआर में छात्रों के निकाय ने एक क्वीयर कलेक्टिव की जरूरत का आकलन करने के लिए एक बड़ा ऑन-कैंपस सर्वे किया और उन्हें जो प्रतिक्रिया मिली वह जबर्दस्त थी. लगभग 90 फीसदी छात्रों ने महसूस किया कि कॉलेज को एक क्वीयर सेल की जरूरत है. जहां 21 प्रतिशत छात्रों ने खुद को LGBTQIA+ समुदाय के हिस्से के रूप में पहचाना, वहीं 52 प्रतिशत से ज्यादा ने कलेक्टिव में शामिल होने की रुचि दिखाई. 68 फीसदी छात्रों का मानना था कि अगर कैंपस में क्वीयर कलेक्टिव है तो वे या जिन्हें वे जानते हैं, ज्यादा बेहतर महसूस करेंगे.
एलएसआर क्वीयर कलेक्टिव, वरिष्ठ समन्वयक, वंशिका गुर ने कहा, ‘अब जब हमें मान्यता मिल गई है, तो बस हमें एक जगह बुक करने के लिए एक फॉर्म भरने की जरूरत है. हमें स्पीकर मिल जाएगा. अब हमारे पास स्वीकृत बजट है. अगर हमारे पास यह नहीं होता, तो हमें काफी नुकसान का सामना करना पड़ता था.’
छात्रों का दावा है कि जिन कॉलेजों में क्वीयर कलेक्टिव को मान्यता दी जाती है, वहां क्वीयर मुद्दों के प्रति लोगों में संवेदनशीलता बढ़ी है.
नॉर्थ कैंपस में मिरांडा हाउस 2018 में एक मान्यता प्राप्त क्वीयर कलेक्टिव होने वाले पहले कॉलेजों में से एक था. ओरिएंटेशन और फेस्ट में, वे अन्य लोगों की तरह ही खुद को पेश करते हैं.
लेकिन हर रोज उन्हें अलग मानने का सिलसिला अभी थमा नहीं है.
मिरांडा हाउस क्वीयर कलेक्टिव की कोषाध्यक्ष श्रेया श्रीकोटी कहती हैं, ‘कभी-कभी जब हम कलेक्टिव कार्य के लिए वहां जाते हैं तो प्रशासन विभाग के लोग हमें अजीब ढंग से देखते हैं. कानाफूसी करते हैं. यह हमें असहज कर देता है.’
साउथ कैंपस के प्रोफेसर का कहना है कि धीरे-धीरे समावेशिता की ओर बढ़ने वाले कॉलेजों का श्रेय कैंपस में क्वीयर छात्रों को जाता है.
प्रोफेसर ने कहा, ‘पांच साल पहले परिसर में कुछ अलग दिखने वाले लोगों को आमंत्रित करना, या उनके लिए कार्यक्रमों को आयोजित करना असंभव था. वह अब बदल गया है. यह सब छात्रों की एनर्जी, उनका संघर्ष और उस दर्द के कारण है, जिससे वे गुज़रे हैं.’
एक बार जब क्वीयर कलेक्टिव काम करना शुरू करते हैं तो उनकी पहचान को स्वीकार करने और उनकी विविधता पर गहराई से सोचना भी शुरू हो जाता है.
मिरांडा हाउस क्वीयर कलेक्टिव के अध्ययन और चर्चा वर्टिकल के प्रमुख ओशीन दहीवाले बताते हैं, ‘एक बार मैंने प्रपोजल दिया कि दो अध्यक्ष होने चाहिए और एक हाशिए की जाति से होना चाहिए. कलेक्टिव सदस्य यह नहीं समझ पाए कि हमें इसकी जरूरत क्यों है. लेकिन किसी भी अन्य कलेक्टिव की तरह, क्वीयर कलेक्टिव को और अधिक परिष्कृत होने में समय लगेगा.’
एक दुखद अंत
4 अप्रैल को, जीसस एंड मैरी कॉलेज ने क्वीयर अधिकारों के अपने अग्रदूत सैम को खो दिया. वह महज 20 साल के थे.
सैम को उनके परिवार ने अपने से अलग कर दिया था. वह नॉर्थ कैंपस के एक कमरे में अकेले रहते थे. रात में कुछ घंटे ही सोता और गुजारा चलाने के लिए छोटे-मोटे काम करता था. अपने दुखद अंत से एक हफ्ते पहले, वह ब्रश करने और नहाने के लिए मुश्किल से खुद को बिस्तर से उठा पाता था. उसकी मानसिक हालत ठीक नहीं थी. उनके दोस्तों का आरोप है कि सैम के प्रोफेसरों ने भी इस पर अपनी आंखें मूंद रखीं थीं.
जेएमसी में सैम के एक दोस्त ने कहा, ‘उन्होंने एक असाइनमेंट के लिए एक्सटेंशन मांगा था. वह इसे लिखने की मानसिक स्थिति में नहीं थे. लेकिन यह उसे नहीं दिया गया था.’ दोस्त को शक है कि उसका अनिच्छुक परिवार ही उसकी इस स्थिति के लिए जिम्मेदार था.
सैम की मौत ने न सिर्फ जेएमसी में समलैंगिक समुदाय को तोड़ कर रख दिया, बल्कि इससे उसके डीयू के दोस्तों को भी जबर्दस्त झटका लगा था.
सैम के दोस्त ने कहा, ‘उसके पास खाने के लिए पैसे नहीं थे, लेकिन वह दूसरों की मदद करने वाला पहला व्यक्ति था. वह लोगों के पालतू जानवरों को पालता था, जरूरतमंद छात्रों के लिए फंड रेजिंग करता था, वह साउथ कैंपस में एक क्वीयर कलेक्टिव बनाना चाहता था.’
लेकिन कम्युनिटी ने सैम को विफल कर दिया. उनकी पहचान को उनके परिवार, समाज और उनके शैक्षणिक संस्थान ने अमान्य करार दिया था.
सैम के दोस्तों में से एक ने गुस्से में कहा, ‘सैम जिस डिपार्टमेंट में पढ़ता था, उसके शिक्षक एक हफ्ते तक अपने कमरे से बाहर नहीं निकले. एक शिक्षिका क्लास में रोने लगी. उन्होंने छात्रों से पूछा कि वह कैसे मदद कर सकती है. लेकिन जब सैम को उनकी जरूरत थी तो क्या वे कभी उपलब्ध थे?’
जब जेएमसी के छात्र सैम के लिए एक मेमोरियल का आयोजन करना चाहते थे और बाद में एक मीटिंग रखना चाहते थे, तो प्रिंसिपल ने उन्हें बुलाया और कथित तौर पर सिर्फ मेमोरियल रखने के लिए कहा.
एक छोटे से पिन बोर्ड पर सैम के दोस्तों ने उसकी मुस्कुराती हुई तस्वीरों के चारों ओर नोट्स छोड़े. एक नोट पर लिखा था, ‘मैं अपने आप पर बहुत शर्मिंदा हूं. हमने आपको विफल कर दिया.’
पिन-बोर्ड पर नियोन रंगों में सजा पोस्टर कैंपस में क्वीयर छात्रों की आवाज को सुनाने का एक और प्रयास था – ‘दुर्व्यवहार करना बंद करो’, ‘ऑल गर्ल्स कॉलेज का मतलब यह नहीं है कि हम सभी लड़कियां हैं.’
लेकिन जिस डिपार्टमेंट में सैम का दाखिला हुआ था वहां की फैकल्टी ने इसमें शिरकत तक नहीं की.
नोट: स्टार (*) निशान वाले छात्रों के नाम बदले गए हैं. ऐसा छात्रों की पहचान सुरक्षित रखने के अनुरोध पर किया गया है.
(अनुवाद: संघप्रिया मौर्या | संपादन: इन्द्रजीत)
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