शहर के बाकी हिस्सों की तरह दिल्ली हाई कोर्ट में भी बंदरों के कारण परेशानी होती है. और कोर्ट इसका समाधान निकालने के लिए बेताब है.
लंच का समय बीत गया है और कैंटीन में भीड़ भी कम हो गई है. अब वक्त बंदरों का शुरू हो गया है. फूड स्टॉल के ऊपर पीवीसी शेड पर एक बड़ा बंदर कूदता है, एक मेटल पाइप से स्लाइड करता हुआ, पूरे साहस से मार्बल टेबल पर कूद पड़ता है. जैसे ही एक वकील गुलाब जामुन का कटोरा नीचे रखता है, बंदर उसे झपटकर निगल जाता है. हैरान वकील तेजी से अपनी फाइल को पीछे कर खुद भी खिसक जाता है. छोटे बंदर तुरंत ही उसका पीछा करने लगते हैं. एक टेबल से दूसरी टेबल पर कूदते हुए, लोगों की थाली और कूड़ेदान से चपाती और दही के कटोरे उठाते हैं.
बंदरों को गुलेल से भगाने के लिए अदालत ने दो आदमियों को काम पर रखा है और लोगों को अदालत परिसर में बंदरों को खाना देने से मना किया है.
समाधान भी कोर्ट रूम के अंदर ढूंढे जा रहे हैं और बंदर भी इसी परिसर में घूमते दिख जाते हैं.
और यह सिर्फ दिल्ली हाई कोर्ट की बात नहीं है. पहले भी, बंदरों ने प्रधानमंत्री कार्यालय को आतंकित किया है, गृह मंत्रालय की फाइलों को फाड़ा है और पूर्व उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू के आधिकारिक आवास पर अफरा-तफरी मचाई है.
बंदरों को नियंत्रित करने के लिए काफी उपाय किए गए हैं. ऐतिहासिक निर्णय दिए गए हैं, विशेषज्ञ समितियों का गठन किया गया और सरकारी निविदाओं के जरिए एजेंसियों को जानवरों की नसबंदी करने का काम सौंपा गया लेकिन कुछ भी फायदा नहीं हुआ. यहां तक कि बंदरों को वन्यजीव अभयारण्यों (वाइल्डलाइफ सेंचुरी) में भेज दिया गया है, लेकिन वे फिर से अपना रास्ता ढूंढ ही लेते हैं. वे ऊंची इमारतों पर कूदते-फांगते हैं, पेड़-पौधों, बगीचों को नुकसान पहुंचाते हैं और भोजन की तलाश में निडरता से लोगों के घरों में घुस जाते हैं.
वन्यजीव विशेषज्ञों और पशु कार्यकर्ताओं के बीच इस बात पर आम सहमति की काफी कमी है कि बंदरों के खतरे का कैसे हल निकाला जाए.
अब, दिल्ली ने हार मान ली है और हाथ उठा लिए हैं कि दिल्ली को बंदरों से मुक्त नहीं किया जा सकता.
बंदर के खतरे पर हाई कोर्ट में चल रहे एक मामले में दिल्ली सरकार का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील संतोष तिवारी कहते हैं, “कोई रास्ता नहीं बचा है. सरकार बेबस है.” “बंदरों की समस्या आवारा कुत्तों, बिल्लियों और पक्षियों से अलग है. बंदरों को पकड़ना मुश्किल होता है. सरकार ने अलग-अलग तरीकों से कोशिश की है लेकिन कुछ भी काम नहीं आया.”
उनकी प्रतिक्रिया जनवरी में वकील शाश्वत भारद्वाज द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर आई थी. भारद्वाज ने इसे “बंदरों के खतरे की गंभीर समस्या” कहते हुए पूछा कि दिल्ली सरकार ने बंदरों की नसबंदी के लिए केंद्र के 5.43 करोड़ रुपये का इस्तेमाल कैसे किया है.
भारद्वाज ने अपने आवेदन में कहा, “दिल्ली के इस क्षेत्र में सिमियन आबादी का खतरनाक संक्रमण और बंदर के काटने के मामलों में लगातार वृद्धि देखी गई है.”
हर कोई बंदरों के खतरे की बात करता है लेकिन इस बात का कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं है कि उनमें से कितने शहर में हैं या उनकी आबादी पिछले कुछ वर्षों में बढ़ी या घटी है. बंदर के काटने के आंकड़े भी अस्पष्ट है. नसबंदी टेंडर कोई लेने वाला नहीं है और बंदरों को दूसरी जगह भेजने असफल रहा है. ऐसे में बहुत सारी अटकलबाजी लग रही हैं.
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पकड़ना और नसंबदी करना मुश्किल
2007 में दिल्ली में बंदरों की समस्या तेजी से उठी. अक्टूबर में, दिल्ली के तत्कालीन डिप्टी मेयर सुरिंदर सिंह बाजवा एक बंदर के हमले के बाद अपनी बालकनी से गिर गए. उसी साल, न्यू फ्रेंड्स कॉलोनी रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन द्वारा दायर एक मामले में, दिल्ली हाई कोर्ट ने बंदरों को खिलाने पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया और नगर निगमों को उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना लगाने का भी अधिकार दिया. बंदरों को पकड़कर असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य में ले जाना था, जहां पीवीसी की दीवारें खड़ी करनी थी और शहर के अलग-अलग जगहों पर फूड कलेक्शन प्वाइंट बनाया जाना था.
लेकिन 15 साल बाद, बंदर पीवीसी दीवार के अवशेषों से निकलकर मानव बस्तियों की तरफ रुख कर जाते हैं.
भारद्वाज कहते हैं, “2007 के बाद, दो मुकदमों के बीच एकदम शून्यता थी. इस मामले में पुराने आदेशों का पालन नहीं किया गया है. यह समस्या फिर से उभरी है क्योंकि 2019 में दिल्ली सरकार को बंदरों की नसबंदी के लिए 5.43 करोड़ रुपये की राशि मिली थी. दो साल बाद वे कह रहे हैं कि वे कुछ नहीं कर सके क्योंकि कोई एजेंसी (बंदरों की नसबंदी के लिए) आगे नहीं आ रही है.”
असोला भट्टी वन्यजीव अभयारण्य में पुनर्वास के आधे-अधूरे प्रयास बुरी तरह विफल रहे हैं. शहर से बंदरों के आने के लिए तथाकथित जंगल तैयार नहीं था.
बंदरों को असोला अभयारण्य ले जाने के लिए सबसे पहले उन्हें पकड़ने की जरूरत है. और शहर में किसी भी प्राकृतिक शिकारियों की अनुपस्थिति में, नसबंदी उनकी तेजी से बढ़ती आबादी को नियंत्रित करने का एक उपाय है. बंदरों के ठीक होने और इलाज के बाद उन्हें अभयारण्य में छोड़ा जा सकता है. लंगूर, लंगूर के कट-आउट शुरू करने जैसे अस्थायी समाधान भी काम नहीं आ रहे हैं.
दिल्ली हाई कोर्ट के वकील तपेश राघव कहते हैं, “बंदरों को जल्द ही एहसास हो जाता है कि लंगूर के कट-आउट असली नहीं हैं. दिल्ली सरकार कभी लंगूरों को लाई थी, लेकिन ये भी संरक्षित प्रजातियां हैं. इसके लिए भी पर्यावरण मंत्रालय की मंजूरी लेनी पड़ती है. फिर सरकार ने लोगों को लंगूरों का भेष बनाने को कहा लेकिन वह भी विफल रहा.”
बंदरों को पकड़ना भी कोई आसान काम नहीं है.
दिल्ली सरकार के उप वन संरक्षक (दक्षिण) मनदीप मित्तल कहते हैं, “कुछ बंदरों को चोट लगना तय है. जब उन्हें पिंजरे में रखा जाता है तो वे उत्तेजित हो जाते हैं और घायल हो जाते हैं.”
नगर निगम इस काम के लिए बंदर पकड़ने वालों को लाता है. लेकिन दिल्ली में ज्यादा पैसे देने की पेशकश के बावजूद कोई आगे नहीं आता है.
एनडीएमसी के पशु चिकित्सालय के चिकित्सा अधीक्षक डॉ. प्रमोद कुमार कहते हैं, “एनडीएमसी क्षेत्र में पिछले तीन सालों से कोई बंदर पकड़ने वाला नहीं है, भले ही दक्षिण एमसीडी प्रति बंदर 2,400 रुपये दे रही है.”
पकड़ने की तरह, नसबंदी के प्रयासों में भी इसी तरह की बाधा का सामना करना पड़ा है- बंदरों की नसबंदी करने वाला कोई नहीं है.
कुमार ने कहा, “मामले पर कई बार चर्चा हुई. एक संस्था शुरू में आगे आई लेकिन जब हमने टेंडर जारी किया तो बोली नहीं लगी. पर्यावरण मंत्रालय ने दिल्ली सरकार को एक पायलट प्रोजेक्ट के लिए 7-8 करोड़ रुपये भी दिए, जहां बंदरों की नसबंदी करके उन्हीं इलाकों में छोड़ दिया जाना था. अनुदान के बाद तीन बार टेंडर जारी किए गए लेकिन किसी ने आवेदन नहीं किया.”
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शहरों की तरफ वापसी
असोला भट्टी मॉडल को डिजाइन करने वाले भारत के पहले प्राइमेटोलॉजिस्ट इकबाल मलिक कहते हैं कि 2007 के आदेश के बाद, लगभग 25,000 बंदरों को असोला अभयारण्य में स्थानांतरित कर दिया गया था लेकिन वहां की स्थिति अनुकूल नहीं थी.
उन्होंने पूछा, “सरकार ने वैसा काम नहीं किया जैसा मैंने कहा था. पीवीसी के एक ठोस टुकड़े के बजाय, लोहे के खंभे से टुकड़े जोड़ दिए गए जो बंदरों के बाहर निकलने के लिए पैदल सीढ़ियां बन गए. फलदार पौधे नहीं लगाए गए. लेकिन उन्होंने इसे बंदर अभयारण्य बना दिया. बोर्ड लगाने से बंदरों की शरणस्थली बन जाती है क्या?”
स्थानांतरित बंदरों को बनाए रखने में विफल रहने के बावजूद, असोला अभयारण्य एकमात्र ऐसा स्थान है जहां दिल्ली में पकड़े गए बंदरों को नगर निगमों द्वारा लाया जाता है.
अभयारण्य के अंदर बंदरों के लिए खराब आवास का परिणाम स्पष्ट है. वे भोजन की तलाश में आसपास के रिहायशी इलाकों की ओर चले जाते हैं.
गांव की गलियों में बंदरों का आतंक है. जब उनके बच्चे गलियों में खेलते हैं तो महिलाएं चारपाई पर लाठी लेकर बैठ जाती हैं.
संगम विहार गांव निवासी सुनील कुमार कहते हैं, “यहां बंदरों ने 25 से ज्यादा लोगों को काटा है. वे बच्चों के पीछे भागते हैं, उनके स्कूलों में घुसते हैं और यहां तक कि हमारा खाना छीनने के लिए रसोई के अंदर भी आते हैं. हम कई बार शिकायत कर चुके हैं लेकिन कोई सुनता ही नहीं.”
चिप्स के खाली पैकेट, जिन्हें बंदर दुकानों से उठाते थे, गांव में बिजली के तारों से लटके रहते हैं. एक बंदर परिवार ने एक मंदिर के बगल में एक खाली पड़े घर को अपना निवास स्थान बना लिया है. मंदिर में चढ़ाए जाने वाला प्रसाद उनके लिए खाने का मुख्य स्त्रोत है.
मंदिर के पुजारी विजय तिवारी ने कहा, “बंदरों ने भोजन के लिए अंदर कूदने के लिए मंदिर के छप्परों को तोड़ दिया है. वे मंदिर की मेटल ग्रिल से भी गुज़रते हैं.” ग्रिल पर बांधी गई रस्सियां भी टूट चुकी हैं.
आक्रामकता और लत
इस बीच, बंदरों की आक्रामकता बनी हुई है.
मलिक ने कहा, “इंसानों से खाना लेने की अपनी शुरुआती झिझक से बाहर आकर बंदर अब इसकी मांग कर रहे हैं.”
उन्होंने कहा, “बंदर पालतू जानवर नहीं हैं. बंदर मनुष्य को देखते हैं और उन्हें भोजन दिखाई देता है. इंसानों की उनकी शुरुआती शर्म खत्म हो गई है. खाना नहीं मिलता तो छीन लेते हैं. इन्होंने अपने जीने का तरीका बदल लिया है. हमने उन्हें बदल दिया है.”
विशेषज्ञों का कहना है कि जैसे-जैसे बंदरों शहर के अनुकूल होते गए, वे पका हुआ और प्रसंस्कृत भोजन खाने लगे हैं, जिसे मनुष्य खाते हैं. चिप्स से लेकर बिस्कुट, ड्रिंक्स से लेकर आइसक्रीम तक, बंदर अब वह सब कुछ खाते हैं जिस पर वे हाथ रख सकते हैं. और इससे उन्हें जंक फूड की लत लग गई है.
पर्यावरणविद और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर एमेरिटस सीआर बाबू कहते हैं, “बंदर अब जो जंक फूड खा रहे हैं, उससे उनकी प्रतिरोधक क्षमता कम हो रही है. और वे टीबी से संक्रमित हो रहे हैं.”
दिल्ली सरकार के बायोडायवर्सिटी पार्क प्रोग्राम के नेचर एजुकेशन ऑफिसर पुलकित शर्मा बताते हैं कि इंसानों के करीब रहने से इंसानों की बीमारियां बंदरों तक पहुंच सकती हैं लेकिन बंदर भी जूनोटिक बीमारियों के वाहक हो सकते हैं.
शर्मा कहते हैं, “बंदर एक और महामारी की संभावना रखते हैं. वे दाद और रेबीज जैसे कई जूनोटिक रोगों के वाहक हैं. शहरों में एक बीमार बंदर की पहचान करना भी मुश्किल है क्योंकि वे शहरी क्षेत्रों में अधिक समय तक जीवित रहते हैं.”
साथ ही, बंदरों को पकड़ना उन्हें उनके परिवारों से दूर कर देता है, जिससे वे आक्रामक हो जाते हैं.
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मनुष्यों की स्वीकृति पैदा कर रही समस्या
बंदर मुख्य रूप से दो कारणों से बड़ी संख्या में शहरों की ओर रुख कर रहे हैं: वनों का क्षरण और मनुष्यों द्वारा सामाजिक स्वीकृति, जिन्होंने उन्हें “धार्मिक संबंधों” के कारण खिलाना शुरू किया.
बाबू बताते हैं, उदाहरण के लिए, मेक्सिको से एक आक्रामक पौधे की प्रजाति, प्रोसोपिस जूलीफ्लोरा, जिसे अंग्रेजों द्वारा बंजर दिल्ली रिज को हरा-भरा बनाने के लिए लाया गया था, ने रीसस मकाक प्रजातियों के प्राकृतिक आवास को नष्ट कर दिया. और जीवित रहने के लिए, जानवर वहां चले गए जहां भोजन था- मनुष्यों के पास.
लेकिन यह प्राकृतिक अनुकूलन प्रक्रिया सहज नहीं थी. जैसे-जैसे बंदर मनुष्यों के बीच रहने लगे, संघर्ष शुरू होता गया.
तेलंगाना में इस महीने एक 70 वर्षीय महिला की उसके घर पर बंदरों के हमले के बाद मौत हो गई. पिछले साल बरेली में एक 40 वर्षीय व्यक्ति अपने घर की छत से गिर गया था और बंदरों द्वारा पीछा किए जाने के बाद उसकी मौत हो गई थी. दिप्रिंट ने पहले बताया था कि कैसे बंदरों ने आगरा में कहर बरपाया है क्योंकि शिशुओं और वयस्कों पर आक्रामक हमले नियमित रूप से रिपोर्ट किए जाते हैं.
पर्यावरण मंत्रालय ने 13 मार्च को लोकसभा में जवाब दिया कि वह बंदरों के हमलों और मौतों पर डेटा एकत्र नहीं करता है. रेबीज के कारण होने वाली मौतों के स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़े भी इस बात को स्पष्ट नहीं करता है कि क्या यह बंदर के काटने के कारण हुआ था.
कार्यकर्ता बनाम संरक्षणवादी
अधिकारियों का कहना है कि बंदरों की समस्या से कैसे निपटा जाए, इस पर वन्यजीव संरक्षणवादियों और पशु अधिकार कार्यकर्ताओं के परस्पर विरोधी हित हैं.
जबकि संरक्षणवादियों का तर्क है कि बंदरों को उनके प्राकृतिक आवास- जंगलों में रहना चाहिए. वहीं पशु कार्यकर्ताओं का दावा है कि पिंजरे में डालना, पकड़ना और नसबंदी करना शोषणकारी है और इसे रोका जाना चाहिए.
एक गैर-लाभकारी संस्था बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के सहायक निदेशक सोहेल मदान कहते हैं, “कोई आम सहमति नहीं है.”
2007 के फैसले के बाद गठित विशेषज्ञ समिति की बैठकों के बारे में जानकारी रखने वाले अधिकारी ने नाम न छापने की शर्त पर कहा कि पशु अधिकार कार्यकर्ताओं की ओर से बंदरों को न पकड़ने, नसबंदी करने या स्थानांतरित न करने का भारी दबाव है. और इसीलिए सरकार कोर्ट के आदेश के मुताबिक ठोस कदम उठाने से कतरा रही है.
विशेषज्ञ समिति के एक सदस्य ने नाम न बताने की शर्त पर कहा, “कार्यकर्ता स्व-घोषित विशेषज्ञ हैं जिन्हें इस विषय पर कोई वैज्ञानिक ज्ञान नहीं है, लेकिन वे हंगामा करते हैं. वे पशु पकड़ने वालों की तस्वीरें लेते हैं और उनके खिलाफ क्रूरता की तुच्छ शिकायतें दर्ज करते हैं. इसलिए पकड़ने वाले नहीं आते. उसी तरह का दबाव उन एजेंसियों पर बनाया जाता है जो बंदरों की नसबंदी करना चाहती हैं, इसलिए वे बोली प्रक्रिया में भाग नहीं लेती हैं.”
दिप्रिंट ने पशु अधिकार कार्यकर्ता मेनका गांधी और दिल्ली सरकार के मुख्य वन्यजीव वार्डन सुनीश बख्शी से संपर्क किया, लेकिन उन्होंने टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
बंदर वन्यजीव संरक्षण अधिनियम की अनुसूची 2 के तहत एक संरक्षित प्रजाति है. शर्मा कहते हैं, वे वन पारिस्थितिकी तंत्र में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं.
“बंदर बीजों का वितरण करते हैं क्योंकि उनका आहार पौधों पर आधारित होता है. एक स्वस्थ जंगल में हमेशा बंदर रहते हैं. और प्राकृतिक परभक्षियों (प्रीडेटर्स) के कारण उनकी आबादी नियंत्रित रहती है.”
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बंदरों को मारना भी आसान नहीं
इस बीच, बंदरों द्वारा फसलों को नष्ट करने और आजीविका को प्रभावित करने से थक चुके हिमाचल प्रदेश जैसे राज्यों ने समस्या को समाप्त करने के लिए कठोर कदम उठाए. 2016 के बाद से चार बार, इसने बंदरों को वर्मिन घोषित किया है – यानी, अगर वे फसलों और संपत्ति को नष्ट करते हैं तो उन्हें मारा जा सकता है. लेकिन राज्य में बंदरों की समस्या फिर से लौट आई है.
वकील राघव कहते हैं, “एक अस्थायी शांति थी, लेकिन ऐसी खबरें थीं कि बंदरों की अगली पीढ़ी कहीं अधिक आक्रामक होंगी.”
मदान बताते हैं कि सारी तरकीबें विफल होने के बाद हिमाचल ने बंदरों को मारने का कदम उठाया.
मदान कहते हैं, “हिमाचल प्रदेश में एक पुनर्वास कार्यक्रम था. साथ ही नसबंदी कार्यक्रम भी था. उन्होंने सब कुछ करने की कोशिश की और फिर मारना तय किया, वो भी काम नहीं आया. इतने सारे जानवरों को मारना भी मुश्किल है. यदि एक क्षेत्र में जानवरों को मार दिया जाता है, तो उस स्थान पर किसी अन्य सोशल ग्रुप का कब्जा हो जाता है. इसलिए, अन्य बंदर उसी स्थान पर कब्जा कर सकते हैं.”
इस बीच, भारद्वाज द्वारा दायर दिल्ली की जनहित याचिका में सरकारी वकील, तिवारी कहते हैं कि वैज्ञानिक अध्ययन की कमी ने सरकार के सामने अबूझ पहेली सी पैदा कर दी है.
त्रिपाठी कहते हैं, “बंदर पकड़ने वालों को प्रशिक्षित करने के लिए कोई प्रशिक्षण कार्यक्रम भी नहीं है. और किसी भी वैज्ञानिक अध्ययन के अभाव में प्रकृति और जानवरों के साथ सामंजस्य बनाए रखना ही एकमात्र विकल्प है. हम हर बार सुधारात्मक उपाय नहीं कर सकते.”
अब आगे क्या किया जाए
मदान कहते हैं कि शहरों में बंदर की समस्या के समाधान के लिए कई स्तरों पर चतुराई से काम करने की जरूरत है.
मदान कहते हैं, “कागज पर एक अच्छी योजना जरूरी नहीं है कि वो सफल तौर पर क्रियान्वित हो जाए. इसलिए, अब तक हमारे पास जितने भी समाधान हैं, ऐसा लगता है कि कुछ भी काम नहीं कर रहा है. और निकट भविष्य के लिए, मुझे कोई योजना नजर नहीं आती.”
वन्यजीव विशेषज्ञों का कहना है कि एकमात्र समाधान जो काम कर सकता है, वह है बंदरों के प्राकृतिक आवास को पुनर्जीवित करना और फिर उन्हें उनके पूर्ण सामाजिक समूहों (या परिवारों) में स्थानांतरित करना, एक ऐसा काम जिसमें प्रत्येक बंदर परिवार के विस्तृत अवलोकन की आवश्यकता होती है. पूरे समूह को एक साथ स्थानांतरित करना कोई आसान काम नहीं है.
बाबू कहते हैं, “दूसरा तरीका नसबंदी है, जो परभक्षी (प्रीडेटर) अनुपस्थिति में आवश्यक है क्योंकि बंदर इतनी बड़ी संख्या में बढ़ते हैं और यह एक खतरा बन जाता है.”
बंदरों को खाना देना बंद करने के लिए, शर्मा धार्मिक नेताओं को शामिल करने का सुझाव देते हैं जो लोगों को बंदरों को सीधे भोजन न देने के लिए कह सकते हैं.
और आखिर में, अदालतों को मजबूती से कदम उठाना चाहिए.
बाबू कहते हैं, “ऐसे लोग हैं जो कहते हैं कि बंदरों के खतरे को नियंत्रित किया जाना चाहिए और अदालतें और असहाय हैं. इसलिए खतरा जस का तस बना हुआ है. लेकिन अब समय आ गया है कि अदालतें आगे आएं और अपने द्वारा बनाए गए कानूनों को इस तरह लागू करवाएं कि सरकार इससे बच न सके. यही एकमात्र समाधान है.”
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
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