नई दिल्ली: लगभग 40 साल पहले पी.के. नायर ने अलकनंदा स्थित डीडीए यमुना अपार्टमेंट्स में तीसरी मंज़िल का फ्लैट खरीदा था. उस समय जवान फौजी के लिए 48 सीढ़ियां चढ़ना कोई मुश्किल काम नहीं था, लेकिन आज, 84 साल की उम्र में, वही सीढ़ियां उनके लिए जंग बन चुकी हैं — कमज़ोर हड्डियां, सांस फूलना और 2016 से मांग के बावजूद लिफ्ट न होना, हर कदम को धीमा कर देता है.
नायर ने कहा, “अब हम बूढ़े हो गए हैं. अगर कल को हममें से कोई बीमार पड़ गया या कुछ और हो गया तो ऊपर-नीचे कैसे जाएंगे? मेरी पत्नी तो किसी तरह संभालती हैं, मुझे भी बहुत दिक्कत होती है.”
दिल्ली में 1970 और 80 के दशक में बने लो-राइज़ फ्लैट्स में यह नहीं सोचा गया था कि एक दिन यहीं रहने वाले लोग बूढ़े भी होंगे. जैसे-जैसे उम्र बढ़ी और लोगों की चलने-फिरने की क्षमता घटी, लिफ्ट का मुद्दा RWA ग्रुप्स में झगड़ों, कोर्टरूम की लड़ाइयों और अफसरशाही के पेंच में फंस गया. कभी पार्किंग सबसे बड़ा झगड़े का कारण हुआ करती थी, आज लिफ्ट लगाने की लड़ाई है. डीडीए की हाउसिंग ने न तो हर घर में कार होने की स्थिति की कल्पना की थी और न ही हर मंज़िल पर बूढ़े घुटनों की. कुछ बिल्डिंग्स में सिर्फ स्कूटरों के लिए बेसमेंट पार्किंग है और लिफ्ट लगवाना अब भी ज़्यादातर के लिए दूर की कौड़ी बना हुआ है, भले ही अब पॉलिसी इसकी इजाज़त देती है.
विडंबना देखिए — नायर ने जैसे ही दस्तक दी, सिस्टम ने दरवाज़ा खोला. सितंबर 2015 में, लिफ्ट के लिए एनओसी जारी करने का अधिकार डीडीए से निकालकर स्थानीय नगर निगमों को दे दिया गया. साउथ कॉर्पोरेशन ने तो सिंगल-विंडो सिस्टम भी शुरू किया. अधिकारियों ने बताया कि साझा सीढ़ी इस्तेमाल करने वाले सिर्फ 50 फीसदी निवासियों की सहमति है — ग्राउंड फ्लोर को इसमें गिना ही नहीं जाता. फरवरी 2016 में विस्तृत पॉलिसी गाइडलाइन्स जारी हुईं.
मान लीजिए किसी ऊपरी मंज़िल पर कोई मर जाए तो शव नीचे कैसे लाया जाएगा? अगर कोई घायल हो जाए, कोई गर्भवती हो, कोई दिव्यांग हो — वो लोग ऊपर-नीचे कैसे आएंगे-जाएंगे? ये इंसानी हक का मामला है
— अनिल देवान, सेवानिवृत्त डीन (रिसर्च), एसपीए
नायर ने वक्त ज़ाया नहीं किया. कागज़ात भरे गए, हस्ताक्षर जुटाए गए, अनुमतियां ली गईं. एनओसी भी मिल गई और निर्माण के लिए गड्ढा खोदा गया, लेकिन तभी ग्राउंड फ्लोर के निवासियों ने आपत्ति उठा दी. काम अचानक रुक गया और तब से अब तक ठप पड़ा है.
ऐसे ही झगड़े दिल्ली के डीडीए और कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसाइटियों में हर जगह देखने को मिल रहे हैं.
कई लोगों के लिए यह लड़ाई लक्ज़री की नहीं, बल्कि ज़िंदगी की ज़रूरत की है — ऐसे घुटने जो साथ नहीं देते, सांस जो आधी सीढ़ी पर ही जवाब दे जाती है और वह बेबसी जब पड़ोसी साइन करने में टालमटोल करते हैं. कुछ सोसाइटियों ने लिफ्ट जल्दी लगवा ली, लेकिन कई जगह बुज़ुर्ग और चलने-फिरने में अक्षम लोग फंसे रह गए हैं.

लगभग एक दशक पहले एमसीडी ने ‘कोऑपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसाइटी (सीजीएचएस) फ्लैट्स और डीडीए लो राइज़ फ्लैट्स में लिफ्ट और कनेक्टिंग ब्रिज लगाने की पॉलिसी’ बनाई थी, जिसे उपराज्यपाल ने मंज़ूरी दी और जो डीडीए के पुराने ढांचे पर आधारित थी. इसमें अनुमति, एनओसी और स्ट्रक्चरल सेफ्टी के लिए प्रक्रिया तय की गई थी ताकि राजधानी की इस गंभीर हाउसिंग चुनौती को आसान बनाया जा सके.
लेकिन ‘लिफ्ट पॉलिसी’ को ज़मीन पर उतारना इतना आसान नहीं रहा. ग्राउंड फ्लोर के निवासी कड़ा विरोध करते हैं, उन्हें डर है कि बिल्डिंग को नुकसान होगा, रोशनी और हवा रुक जाएगी, प्राइवेसी खत्म होगी और ऊपर के फ्लैट्स की वैल्यू बढ़ जाएगी. कई मामले कोर्ट तक पहुंच गए हैं.
दिल्ली हाईकोर्ट ने बार-बार बुज़ुर्गों और दिव्यांगों की सुविधा के हक में फैसला सुनाया है, यह कहते हुए कि प्राइवेसी या दिखावट से ज़्यादा ज़रूरी है एक्सेसिबिलिटी. कई मामलों में उसने सुरक्षा और नियमों के तहत लिफ्ट लगाने की अनुमति दी है, लेकिन कई सोसाइटियों में संघर्ष अब भी जारी है.
दिप्रिंट ने एमसीडी से शहरभर में कितनी रिहायशी सोसाइटियों, इमारतों और डीडीए फ्लैट्स में लिफ्ट नहीं है, इसका डेटा मांगा, लेकिन सटीक आंकड़े नहीं मिले. महेंद्र रुसतगी, जो दिल्ली की लिफ्ट पॉलिसी तैयार करने में शामिल एक सेवानिवृत्त एलिवेटर एग्ज़ीक्यूटिव हैं, के मुताबिक शहर में करीब 500 कोऑपरेटिव ग्रुप हाउसिंग सोसाइटियां और 45,000 डीडीए फ्लैट्स हैं. 2018 में, पूर्वी दिल्ली की 75 में से सिर्फ 8 सोसाइटियों को लिफ्ट की मंज़ूरी मिली थी, जबकि उत्तरी दिल्ली में करीब 125 में से केवल 10 को.
निवासियों का कहना है कि पॉलिसी में जल्द सुधार की ज़रूरत है — झगड़ों को सुलझाने की बेहतर व्यवस्था, आपत्तियों के लिए तय समयसीमा और जागरूकता बढ़ाने की ज़रूरत है ताकि विरोध कम हो सके. कई लोग भ्रष्टाचार और प्रशासनिक कमी की ओर भी इशारा करते हैं — आरोप है कि एमसीडी अधिकारी, आर्किटेक्ट और लिफ्ट ऑपरेटरों का गठजोड़ पैसे लेकर काम जल्दी करवाता है.
कुछ लोग तो इसे मानवाधिकार का मामला मानते हैं.
नई दिल्ली स्थित स्कूल ऑफ प्लानिंग एंड आर्किटेक्चर के सेवानिवृत्त डीन (रिसर्च) अनिल देवान ने कहा, “हर पॉलिसी को लगातार सुधारा जाना चाहिए. खामियों को पहचानकर दूर करना ज़रूरी है. ग्राउंड या पहली मंज़िल के निवासियों को एक्सेसिबिलिटी में रुकावट डालने का अधिकार नहीं होना चाहिए क्योंकि अपने घर तक पहुंचना इंसान का हक है. बुज़ुर्गों, गर्भवती महिलाओं और दिव्यांगों के लिए सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित की जानी चाहिए किसी को भी अपने ही फ्लैट में प्रवेश से वंचित नहीं किया जा सकता.”
जब ‘सहूलियत’ बनी झगड़े की वजह
रोहिणी के कोज़ी अपार्टमेंट्स में, जो लिफ्ट ज़िंदगी को आसान बनाने के लिए लगाई गई थी, वह सीमा गर्ग और उनकी 84-वर्षीय मां संतोष के लिए मुश्किलें बढ़ा रही है.
सीमा सुबह 9 से शाम 4 तक बाहर रहती हैं, लेकिन लिफ्ट का काम चलने की वजह से उन्हें हमेशा चिंता रहती है कि उनकी मां घर पर अकेली हैं. उनके विरोध के बावजूद, ब्लॉक में लिफ्ट लगा दी गई. अब उनके सेकंड फ्लोर की बालकनी सीधा लिफ्ट शाफ्ट के बगल में खुलती है.
उन्होंने कहा, “सबसे पहले तो वहां रोशनी नहीं है. अंधेरा रहता है. अगर कोई आता है तो मुझे दिखता ही नहीं कि कौन खड़ा है. लिफ्ट शाफ्ट ने खुली बालकनी को बंद कर दिया है और कोई भी लिफ्ट के दरवाज़े से हमारे घर के अंदर झांक सकता है — सब कुछ दिखता है.” प्राइवेसी जाने को लेकर उनकी परेशानी साफ दिख रही थी.

थोड़ी प्राइवेसी बचाने के लिए बिल्डरों ने एक कमज़ोर सी हरी फाइबर शीट लगा दी, जो बाद में गिर गई और उनके तुलसी व फूलों के पौधे भी टूट गए.

उनकी परेशानी अकेली नहीं है. कई रेज़िडेंट्स को चिंता है कि नई लिफ्ट की वजह से धूप और हवा बंद हो जाएगी और उनके घर अंधेरे व घुटन भरे हो जाएंगे.
अपार्टमेंट्स के पूर्व सचिव रमन तुली के अनुसार, पहले की RWA ने सीढ़ियों के अंदर लिफ्ट लगाने का विरोध किया था.
उन्होंने कहा, “सीढ़ियों में तो लिफ्ट लग ही नहीं सकती. हमने साझा जगहों में लिफ्ट लगाने का प्रस्ताव दिया था जिसमें ठीक से रास्ता होता, लेकिन नई कमेटी ने उसे नज़रअंदाज़ कर अवैध तरीके से इंस्टॉलेशन शुरू कर दिया.”
तुली ने कहा कि लोगों ने ये घर अपनी पूरी ज़िंदगी की कमाई से बनाए हैं. कुछ ने तो ग्राउंड फ्लोर के फ्लैट्स ज्यादा पैसे देकर या लोन लेकर इसलिए लिए क्योंकि वो बुजुर्गों के लिए सुविधाजनक थे.
उन्होंने शिकायत की, “धूप, हवा, जगह — सब कुछ बर्बाद हो रहा है खराब प्लानिंग की वजह से. अगर लिफ्ट बुजुर्गों के लिए है, तो फिर ग्राउंड फ्लोर पर रहने वाले बुजुर्गों की हवा और रोशनी क्यों छीनी जा रही है?”
लेकिन जो बात उन्हें सबसे ज्यादा परेशान करती है वो है कम्युनिटी पर पड़ता असर.
उन्होंने कहा, “40 साल से हम प्यार से रह रहे थे. अब हम एक-दूसरे के दुश्मन बन गए हैं. इस लड़ाई में प्यार और अपनापन बीच में ही छूट गया.”

लिफ्ट विरोधी गुट
दिल्ली में हज़ारों रेज़िडेंशियल सोसायटीज़ हैं जो उस दौर में बनी थीं जब लो-राइज़ (चार मंज़िल — G+3) बिल्डिंग्स में लिफ्ट अनिवार्य नहीं थी. कुछ रेज़िडेंट्स का मानना है कि यह स्थिति वैसे ही बनी रहनी चाहिए.
लिफ्ट लगवाने की प्रक्रिया में बहुत कागज़ी काम होता है, लेकिन पॉलिसी के तहत साइट इंस्पेक्शन के नियम उतने सख्त नहीं हैं.
पॉलिसी के अनुसार, आवेदकों को प्रमाणित ड्रॉइंग, विस्तृत प्लान और इंजीनियरिंग सर्टिफिकेट एमसीडी को देने होते हैं, जिसे एमसीडी “स्क्रूटनाइज़” करती है, लेकिन एमसीडी “अपने अधिकार” में रखती है कि वो साइट पर जाकर निरीक्षण करे या नहीं. यानी निरीक्षण ज़रूरी नहीं है, सिर्फ एक विकल्प है. इससे एक खामी पैदा होती है जहां कई बार बिना सटीक जांच के ही मंजूरी दे दी जाती है.
कई रेज़िडेंट्स का तर्क है कि जिन सीढ़ियों को लिफ्ट के लिए डिज़ाइन ही नहीं किया गया, उनमें रेट्रोफिटिंग से सेहत, सुरक्षा और प्राइवेसी पर खतरा बनता है.
कोज़ी अपार्टमेंट्स के रेज़िडेंट सुमित पंत ने फायर डिपार्टमेंट से साइट इंस्पेक्शन की मांग की थी. अधिकारियों ने माना कि प्रस्तावित लिफ्ट की जगह उपयुक्त नहीं है, लेकिन चूंकि, बिल्डिंग 15 मीटर से कम ऊंची है, इसलिए उन्होंने कहा कि ये उनकी सीमा में नहीं आता — जिससे रेज़िडेंट्स फिर से बिना समाधान के रह गए.

पंत ने कहा, “प्रस्तावित लिफ्ट्स दिल्ली के यूनिफाइड बिल्डिंग बाई लॉज़ 2016 का उल्लंघन कर रही हैं और सीढ़ियों और इमरजेंसी रास्तों की न्यूनतम चौड़ाई की अनदेखी हो रही है. सुरक्षा सबसे महत्वपूर्ण है.”
उनके अनुसार, लिफ्ट इंस्टॉलेशन पर लोकतांत्रिक प्रक्रिया की कमी भी झगड़ों को बढ़ा रही है.
उन्होंने कहा, “आठ फ्लैट्स में से सिर्फ तीन ने सहमति दी — 37.5 प्रतिशत. क्या 60 प्रतिशत से ज्यादा असहमति को अनदेखा करना सही है? फायर सेफ्टी, वेंटिलेशन और लाइटिंग की चिंताओं को इतना हल्के में कैसे लिया जा सकता है? अगर ऊपरी मंज़िलों के लोगों की सहूलियत इतनी ज़रूरी है, तो नई G+3 बिल्डिंग्स के नक्शों में लिफ्ट अनिवार्य क्यों नहीं है? पुराने घरों पर जबरदस्ती क्यों?”
दिप्रिंट ने कोज़ी अपार्टमेंट्स के उन रेज़िडेंट्स से बात करने की कोशिश की जो लिफ्ट के पक्ष में थे, लेकिन उन्होंने इस मामले पर बात करने से मना कर दिया. कई लोग पॉलिसी के ‘वन-साइज़-फिट्स-ऑल’ तरीके से नाराज़ हैं, जो बिल्डिंग्स के लेआउट, जगह, धूप और वेंटिलेशन के फर्क को नज़रअंदाज़ करता है.
तुली और बाकी रेज़िडेंट्स ने कई बार एमसीडी के रोहिणी ज़ोन के डिप्टी कमिश्नर को चिट्ठी लिखी, चेतावनी दी कि रास्ते सिकुड़कर सिर्फ 3.5 फीट रह जाएंगे, जिससे इमरजेंसी एक्सेस और फायरफाइटिंग प्रभावित होगी. उन्होंने लिफ्ट शाफ्ट के पास बिजली की लाइनें होने को भी खतरा बताया, लेकिन कोई खास असर नहीं हुआ.
समझौते की कोशिशें भी बेकार गईं.
रेज़िडेंट योगेश सेठ ने खुद 20,000 रुपये खर्च कर एक आर्किटेक्ट से तीन वैकल्पिक लिफ्ट प्लान बनवाए, जिनमें ब्लाइंड वॉल और बिल्डिंग के पीछे की तरफ जगहें सुझाई गईं, लेकिन मैनेजिंग कमेटी ने इन्हें खारिज कर दिया क्योंकि इनकी लागत ज़्यादा थी.
ग्राउंड फ्लोर के रेज़िडेंट राजेश सेठ ने कहा, “हम लिफ्ट के खिलाफ नहीं हैं, लेकिन यह आपसी सहमति से होना चाहिए. एमसीडी कुछ भी मॉनिटर नहीं कर रही. लोग अपनी मनमानी कर रहे हैं. कुछ सोसायटीज़ में तो विरोध में समानांतर कमेटियां बन रही हैं और इससे गहरे मतभेद पैदा हो रहे हैं. मुझे डर है कि हमारे यहां भी ऐसा होगा.”

कई निवासियों ने आरोप लगाया कि प्रॉपर्टी ब्रोकरों, मैनेजिंग कमेटियों, एमसीडी अधिकारियों और लिफ्ट ठेकेदारों के बीच मिलीभगत है. बताया गया कि ऊपरी मंज़िल के निवासियों को लिफ्ट लगाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और कहा जाता है कि लिफ्ट लगने के बाद फ्लैट की रीसेल वैल्यू बढ़ेगी और अगर पैसे दिए जाएं तो मंज़ूरी भी जल्दी मिल सकती है.
सेठ ने दावा किया, “वो आपको लिफ्ट के लिए आवेदन करने को कहते हैं, ऑपरेटर के कॉन्टैक्ट देते हैं और बाकी सारा काम खुद संभालते हैं. एमसीडी के अधिकारी बिना निरीक्षण के अनुमति दिलवाने के लिए 2.5 लाख रुपये तक की मांग करते हैं.”
एमसीडी के बिल्डिंग विभाग में सहायक असिस्टेंट इंजीनियर मनोज कुमार ने इन आरोपों को पूरी तरह खारिज कर दिया.
उन्होंने कहा, “ये दावे पूरी तरह बेबुनियाद हैं. एमसीडी के पास हज़ारों रजिस्टर्ड आर्किटेक्ट हैं और संबंधित अधिकारी उनमें से किसी एक को रैंडम तरीके से असाइन करते हैं. प्रक्रिया में किसी मिलीभगत या गठजोड़ की कोई गुंजाइश नहीं है, जहां भी निरीक्षण ज़रूरी होता है, एमसीडी उसे करती है और अगर कहीं ऐसा नहीं हो रहा है तो उसे ज़रूर होना चाहिए.”
राजनीति में फंसी लिफ्ट?
पीके नायर की ज़िंदगी आज भी एक्टिव है कभी अलमारी बनाना, कभी दरवाज़ा ठीक करना, हमेशा कुछ न कुछ काम करते रहते हैं. सिर पर आर्मी कैप, गाड़ी चलाते हैं (WagonR), पुराने हिंदी गाने गुनगुनाते हैं और मुस्कुराना नहीं भूलते, लेकिन जब बात तीसरी मंज़िल पर अपने अलकनंदा फ्लैट तक चढ़ने की आती है, जिसे वो अपनी पत्नी और बेटे के साथ साझा करते हैं, तो ये सफर शारीरिक और मानसिक दोनों ही तरह से थकाने वाला हो जाता है.
थके हुए अंदाज़ में वो अपनी कुर्सी से उठे और एक मोटी फाइल निकाली जो वो 2016 से संभाल रहे हैं — लिफ्ट पॉलिसी के दस्तावेज़, कोर्ट के फैसले, कमेटी की मीटिंग्स के मिनट्स और एनओसी के प्रस्ताव, सब कुछ करीने से फाइल किया हुआ.
उन्होंने कहा, “आठ में से छह मालिकों ने लिफ्ट के पक्ष में साइन किया था, फिर भी मैनेजिंग कमेटी ने मना कर दिया. ग्राउंड फ्लोर के लोगों ने विरोध किया, क्योंकि उन्हें डर था कि लिफ्ट लगने से ऊपर के फ्लैट्स की कीमत बढ़ जाएगी. अब मैं 84 साल का हूं, सीढ़ियां चढ़ना बहुत थकाने वाला हो गया है. मैं बस अपनी बाकी की ज़िंदगी चैन से बिताना चाहता हूं.”
रुस्तगी, जो दिल्ली की लिफ्ट पॉलिसी बनाने में शामिल थे, इस बात से सहमत हैं कि यह पॉलिसी अब तक ज़मीन पर पूरी तरह लागू नहीं हो पाई है, ओटिस एलेवेटर्स में दो दशक काम करने के बाद, अब वो अपनी खुद की कंपनी चलाते हैं जो ज़्यादातर बुजुर्ग ग्राहकों के लिए लिफ्ट लगाती है.

उन्होंने कहा, “दिल्ली के ज़्यादातर SFS फ्लैट्स 1982 से 1990 के बीच सौंपे गए थे. ये इमारतें ग्राउंड प्लस थ्री के हिसाब से बनी थीं, और तब न लिफ्ट थी न ही लिफ्ट के लिए कोई व्यवस्था — या जगह.”
जैसे-जैसे रेज़िडेंट्स बुजुर्ग होते गए, कई RWAs ने उपराज्यपाल और डीडीए से लिफ्ट इंस्टॉलेशन की इजाज़त के लिए पॉलिसी की मांग की. प्रस्ताव में अलग शाफ्ट बनाने का सुझाव था, जिसे मौजूदा फ्लोर से छोटे कॉरिडोर के ज़रिए जोड़ा जाता.
वो पॉलिसी बाद में बनी और रुस्तगी उस प्रक्रिया का हिस्सा थे.
उन्होंने कहा, “हमने एक कमेटी बनाई, और उपराज्यपाल व डीडीए अधिकारियों के साथ कई बैठकें कीं. आखिरकार, हमने उन्हें यह मानने को मना लिया कि ग्राउंड फ्लोर रेज़िडेंट्स की सहमति की ज़रूरत हटा दी जाए क्योंकि उनका लिफ्ट से कोई सीधा लेना-देना नहीं है. उनका विरोध अक्सर तर्क की बजाय सिर्फ जलन से होता था.”
उनके अनुसार, कोऑपरेटिव हाउसिंग सोसायटीज़ ने इस प्रक्रिया का उपयोग प्रोजेक्ट्स को रोकने के लिए करना शुरू कर दिया है.
पॉलिसी कहती है कि अगर वॉटर, सीवर या बिजली जैसी सामान्य सेवाओं को शिफ्ट करना हो, तो मैनेजिंग कमेटी की मंज़ूरी ज़रूरी है, जब यह मंज़ूरी नहीं मिलती जो अक्सर होता है तो एमसीडी में आवेदन लंबित रह जाते हैं.
इससे एक जटिल स्थिति बन गई है, जहां मैनेजिंग कमेटी, खासकर वे जिनका ग्राउंड फ्लोर में हित है, पूरी इमारत को बंधक बना लेती हैं.
रुस्तगी ने कहा, “ज़रूरी है कि पॉलिसी को बदला जाए ताकि इस खामी को ठीक किया जा सके.”
उन्होंने बताया कि ज़्यादातर कोऑपरेटिव सोसायटी फ्लैट्स अब ‘फ्रीहोल्ड’ में बदल दिए गए हैं, जिसके तहत निवासियों को सामान्य क्षेत्रों में आनुपातिक स्वामित्व मिला है.
उन्होंने कहा, “इसलिए, मैनेजिंग कमेटी से सहमति अब कोई बड़ी बाधा नहीं होनी चाहिए. डीडीए फ्लैट्स की तरह, यहां भी सिविल यूटिलिटीज़ के स्थानांतरण की ज़िम्मेदारी आवेदकों पर होनी चाहिए, जो RWA या कमेटी से समन्वय कर लें.”
उन्होंने कहा कि एक बार ये स्पष्ट हो गया, तो पॉलिसी वास्तव में काम करने लगेगी, लेकिन एमसीडी के मनोज कुमार ने कहा कि ये चेक इसलिए ज़रूरी हैं क्योंकि इनका उद्देश्य स्पष्ट है.
कुमार ने कहा, “अगर किसी को सही मायनों में वेंटिलेशन या धूप बंद होने की चिंता है, तो पॉलिसी स्पष्ट रूप से कहती है कि ऐसी स्थिति में लिफ्ट नहीं लग सकती. लिफ्ट्स को ब्लाइंड वॉल पर लगाना हमेशा बेहतर होता है और ये बात गाइडलाइंस में भी साफ तौर पर दी गई है.”
अलकनंदा का मामला फिलहाल दिल्ली हाई कोर्ट में लंबित है.
सुनवाई लगभग दो साल से रुकी हुई है. आमतौर पर सुनवाई एक छोटी सी प्रस्तुतिकरण से शुरू होती है और फिर बार-बार टल जाती है. कई बार, तय तारीख पर न तो जज मौजूद होते हैं, न वकील — जिससे देरी और बढ़ जाती है. अगली सुनवाई अब इसी महीने के अंत में निर्धारित है.

समाधान की आस में, नायर ने हर मुमकिन कोशिश की, यहां तक कि जनप्रतिनिधियों से भी संपर्क किया.
इस साल की शुरुआत में, उन्होंने बीजेपी सांसद बांसुरी स्वराज से मुलाकात की, जो अलकनंदा क्षेत्र में जन्मी थीं और उन्हें अपनी स्थिति समझाई. उन्होंने उनसे अनुरोध किया कि डीडीए के वाइस चेयरमैन और उपराज्यपाल को एक पत्र भेजें, जिसमें यह बताया जाए कि अपार्टमेंट एक्ट के तहत फ्लैट्स फ्रीहोल्ड हो चुके हैं.

नायर ने कहा, “हालांकि, उन्होंने कहा कि उन्होंने पत्र भेज दिया है, लेकिन छह महीने बाद भी उसकी कॉपी नहीं दिखा सकीं. कई बार आश्वासन देने के बावजूद उन्होंने कोई कार्रवाई नहीं की.”
अब उन्हें उम्मीद है कि जैसे-जैसे और बुजुर्ग रेज़िडेंट्स इस मुद्दे के प्रति जागरूक होंगे, वे अपनी आवाज़ उठाएंगे.
डिज़ाइन से ही असुरक्षित
श्रेष्ठ विहार के घरोंदा अपार्टमेंट्स में, 2022 में स्वीकृत हुई लिफ्ट अब एक आपत्ति के चलते अटकी हुई है.
सब कुछ ठीक लग रहा था जब 75 साल के एसएस चौहान और अन्य बुजुर्ग पड़ोसियों ने दिल्ली पॉलिसी के तहत लिफ्ट लगवाने की प्रक्रिया शुरू की. जगह तय हुई, कागज़ात जमा किए गए और एनओसी भी मिल गई. फिर एक ग्राउंड फ्लोर पड़ोसी ने रोशनी, पहुंच और वेंटिलेशन को लेकर आपत्ति दर्ज कर दी और काम रोक दिया गया. अगस्त 2022 में एक संशोधित एनओसी मिली, लेकिन जगह उन लोगों को मंजूर नहीं थी जिन्होंने शुरू में आवेदन किया था.
चौहान की तरफ से वकील गौरव भारद्वाज ने मामला दिल्ली हाई कोर्ट में उठाया.
उन्होंने तर्क दिया कि पॉलिसी कहती है ग्राउंड फ्लोर की सहमति ‘अनुशंसा योग्य’ है, अनिवार्य नहीं. साथ ही, बदली गई जगह ने मूल वैध मंज़ूरी को कमजोर किया. दिसंबर में, कोर्ट ने कहा कि रोशनी, हवा और पहुंच से जुड़े अधिकार वाजिब हैं, लेकिन मामला एमसीडी के अपीलीय ट्राइब्यूनल को भेज दिया, जहां ये अब भी लंबित है.
इस बहस के बीच एक और सवाल उठता है — किस तरह की लिफ्ट लगाई जाए?
आर्किटेक्ट अनिल देववन ने कहा कि ज़्यादातर रेट्रोफिटेड लिफ्ट्स “खराब लेवलिंग, असुरक्षित मानकों और घटिया इंस्टॉलेशन” से पीड़ित हैं, क्योंकि स्थानीय निर्माता सेफ्टी प्रोटोकॉल को अनदेखा करते हैं.
उन्होंने प्रमाणित लिफ्ट निर्माताओं के लिए सख्त नियम, लंबे समय की वारंटी और पांच साल के मेंटेनेंस कॉन्ट्रैक्ट की वकालत की.
उन्होंने कहा, “अब हाइड्रॉलिक लिफ्ट्स भी आ गई हैं…बहुत अच्छी नई तकनीक है. कुछ आवाज़ भी नहीं करतीं. कुछ नीचे उतरते हुए बिजली भी पैदा कर सकती हैं. मान लीजिए ऊपर कोई मर गया, तो शव को कैसे नीचे लाया जाएगा? कोई घायल हो गया, कोई गर्भवती हो, कोई दिव्यांग हो — वो कैसे ऊपर-नीचे आएंगे? ये मानवाधिकार का मामला है.”
भारद्वाज ने कहा कि बुजुर्गों के लिए लिफ्ट न होना सिर्फ असुविधा नहीं, बल्कि सामाजिक और शारीरिक रूप से उन्हें अलग-थलग कर देता है.
उन्होंने कहा, “उन्हें पार्क जाने, बाज़ार जाने, बिना सोच-विचार के बाहर जाने की आज़ादी मिलनी चाहिए.”
जबकि रेट्रोफिटिंग कुछ हद तक राहत दे सकती है, भारद्वाज का मानना है कि असली समाधान पुनर्निर्माण है.
उन्होंने कहा, “अब के समय के अनुसार नीति ऐसी होनी चाहिए जिसमें इन अपार्टमेंट्स को पूरी तरह से तय समय सीमा में गिराकर, हाई-राइज़ इमारतों के रूप में फिर से बनाया जाए. दो बिल्डिंग्स में चार-चार फ्लोर की जगह, एक आठ मंज़िल का टावर बनाना चाहिए. इससे जगह भी बचेगी और सभी को बेहतर एक्सेस मिलेगा.”
हालांकि, उन्होंने स्वीकार किया कि इतनी बड़ी योजना को लागू करने में राजनीतिक और आर्थिक जटिलताएं भी हैं और सामूहिक सहमति का दलदल भी.
लिफ्ट जो कभी आई ही नहीं
रेनु तोमर अपनी 76 साल की सास के लिए लिफ्ट चाहती थीं, जो वसंत कुंज में डीडीए अपार्टमेंट की सीढ़ियां चढ़ने में कठिनाई महसूस कर रही थीं. तोमर को उम्मीद थी कि लिफ्ट उनकी ज़िंदगी के आखिरी सालों को थोड़ा आसान बना देगी, लेकिन इसके बदले उन्हें एक पांच साल लंबी कानूनी लड़ाई लड़नी पड़ी जो उस महिला से भी ज़्यादा लंबी चली जिसके लिए लिफ्ट बनवाई जानी थी.
तोमर ने कहा, “वो लिफ्ट कभी इस्तेमाल नहीं कर पाईं. पिछले साल इंतज़ार करते-करते वे चल बसीं.”
लिफ्ट तो बन गई, लेकिन सहमति के बिना. तोमर के पड़ोसी विक्रम सिंह ने अकेले ही वो लिफ्ट लगा दी, जिसे तोमर का दावा है कि वह साझा कॉमन एरिया में थी जो कई फ्लैट्स के लिए थी.
तोमर ने कहा, “एक समझ बनी थी कि लिफ्ट सबके लिए होगी और खर्चों पर चर्चा होगी, लेकिन उन्होंने हमसे कोई बात नहीं की, कोई जानकारी साझा नहीं की. बस अपने लिए लिफ्ट बना ली, वो भी चौथी मंज़िल तक अवैध रूप से बढ़ा दी.”
नीति के अनुसार, डीडीए फ्लैट्स में लिफ्ट सिर्फ तीसरी मंज़िल तक ही जा सकती है. इस मामले में, लिफ्ट तीसरी और चौथी दोनों मंज़िलों पर रुकती थी, लेकिन तोमर को एक्सेस नहीं मिला — दरवाज़ा सिर्फ पड़ोसी की ओर खुलता था. हालांकि, दोनों फ्लैट्स एक ही ब्लॉक में हैं, फिर भी उनकी सीढ़ियां अलग-अलग हैं.
एमसीडी ने तोमर के दावे का समर्थन किया. जांच के बाद, उन्होंने सिंह की मंज़ूरी रद्द कर दी, संरचना को अवैध घोषित किया और डीएमसी एक्ट के तहत गिराने और सील करने का आदेश दिया.

तोमर, जिन्होंने पहले सिविल मुकदमा दायर किया था, बाद में उसे वापस लेकर दिल्ली हाई कोर्ट का रुख किया ताकि एमसीडी के आदेश लागू करवाए जा सकें.
कोर्ट ने तोमर के पक्ष में फैसला सुनाया. एमसीडी ने 25 नवंबर 2024 को ढहाने की तारीख तय की है, बशर्ते पुलिस सहयोग करे और GRAP के तहत लगी पाबंदियां हटें.
सिंह ने सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले को चुनौती दी है. उनका कहना है कि उन्हें कभी ढहाने का आदेश मिला ही नहीं और “लिफ्ट में कुछ भी अवैध नहीं है.” लिफ्ट अब भी वहीं है, लेकिन इस्तेमाल नहीं हो रही.
तोमर के परिवार के लिए जो 2006 से वसंत कुंज में रह रहे हैं और वॉटर ट्रीटमेंट प्लांट चलाते हैं ये मामला सम्मान, न्याय और समान पहुंच का है.
उन्होंने कहा, “उस लिफ्ट को लगे हुए पांच साल हो गए हैं. तीन साल से वो सील है. हम अब भी लड़ रहे हैं.”
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