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Friday, 10 January, 2025
होमफीचरUPSC पास करने के बावजूद 15 साल का संघर्ष — ब्लाइंड एस्पिरेंट ने कैसे लड़ी सिस्टम के खिलाफ कानूनी लड़ाई

UPSC पास करने के बावजूद 15 साल का संघर्ष — ब्लाइंड एस्पिरेंट ने कैसे लड़ी सिस्टम के खिलाफ कानूनी लड़ाई

कानूनी प्रावधानों में ब्लाइंड एस्पिरेंट्स के लिए 1% सीटें आरक्षित हैं, सिलेक्शन प्रोसेस में दिव्यांगता के लिए पदानुक्रम का पालन करना पड़ता है — चलने-फिरने में अक्षम लोगों को अक्सर अधिक सिफारिशें मिलती हैं.

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नई दिल्ली: “कॉन्ग्रैचुलेशन्स पापा”. 2008 में संघ लोक सेवा आयोग (यूपीएससी) पास करने वाले 100 प्रतिशत दृष्टिबाधित एस्पिरेंट के लिए जो कभी सेवा में नहीं आ सके थे, उनकी बेटी के शब्द याद दिलाते हैं कि सिस्टम के साथ उनकी 15 साल की कानूनी लड़ाई सार्थक रही है. अब, 46 साल की उम्र में आखिरकार वे भारतीय सूचना सेवा (आईआईएस) में शामिल होने के लिए तैयार हैं.

दिल्ली के रोहिणी-वेस्ट इलाके में अपने थ्री-बीएचके घर में सोफे पर बैठे कुमार ने कहा, “ज्यादातर एस्पिरेंट्स की लड़ाई यूपीएससी के नतीजों के साथ खत्म हो जाती है, लेकिन मेरे लिए यह अलग था. फाइनल रिजल्ट के बाद, मेरी सिफारिश के लिए अदालतों में एक और लड़ाई शुरू हुई और यह कोई सीधी लड़ाई नहीं थी.”

शिवम कुमार भारत के कई दृष्टिबाधित एस्पिरेंट्स में से एक हैं, जो सिविल सेवा परीक्षा पास करने के बावजूद कभी नियुक्ति नहीं देख पाए क्योंकि विकलांगता आरक्षण प्रावधानों को प्रभावी ढंग से लागू नहीं किया गया. उनका मामला केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण, दिल्ली हाई कोर्ट और अंत में सुप्रीम कोर्ट से गुज़रा.

आठ जुलाई 2024 को शीर्ष अदालत ने अनुच्छेद-142 का हवाला देते हुए केंद्र सरकार को निर्देश दिया कि वह शिवम कुमार और पंकज श्रीवास्तव जैसे एस्पिरेंट्स को आरक्षित रिक्तियों के बैकलॉग के विरुद्ध आईआरएस या किसी अन्य सेवा में नियुक्त करे. अदालत ने विकलांगता आरक्षण कानूनों को लागू करने में विफल रहने और योग्य एस्पिरेंट्स को अनावश्यक रूप से संघर्ष करने के लिए केंद्र की भी आलोचना की.

जब मैंने परीक्षा दी थी, तब मेरी उम्र 30 साल थी और अब मैं 46 साल का हूं. इस अवधि के दौरान मैं केस के कारण ज्यादा प्लानिंग नहीं कर सका और मैंने इस पर लाखों रुपये खर्च किए. हालांकि, कई वकीलों ने सहानुभूति के कारण मेरी मदद की, लेकिन यह जीत आसान नहीं थी

— शिवम कुमार

कुमार का मामला 2009 से 2013 के बीच कैट में रहा, 2013 में ही हाई कोर्ट में आया और 2014 से 2024 के बीच 10 साल तक सुप्रीम कोर्ट में इसकी सुनवाई हुई.

कुमार ने काले रंग का स्वेटर और बेज कलर की पैंट पहने और अपनी दो साल की बेटी को गोद में लिए हुए कहा, “जब मैंने एग्जाम दिया था, तब मेरी उम्र 30 साल थी और अब मैं 46 साल का हूं. इस दौरान मैं केस की वजह से ज्यादा सोच नहीं पाया और मैंने इस पर लाखों रुपये खर्च कर दिए. हालांकि, कई वकीलों ने सहानुभूति के चलते मेरी मदद की, लेकिन यह जीत आसान नहीं थी.”

शिवम कुमार की 15 साल तक चली कानूनी लड़ाई भारत के स्टील फ्रेम में प्रवेश करने की कोशिश कर रहे ब्लाइंड एस्पिरेंट्स के सामने आने वाली प्रणालीगत चुनौतियों को उजागर करती है. हालांकि, कानूनी प्रावधानों में ब्लाइंड एस्पिरेंट्स के लिए 1 प्रतिशत सीटें आरक्षित हैं, सिलेक्शन प्रोसेस में दिव्यांगता के लिए पदानुक्रम का पालन करना ज़रूरी है — चलने-फिरने में अक्षम लोगों को अक्सर ब्लाइंड एस्पिरेंट्स की तुलना में सेवा में शामिल होने के लिए अधिक सिफारिशें मिलती हैं और जब सिस्टम आरक्षण प्रावधानों के दुरुपयोग का सामना करता है, जैसा कि पूर्व ट्रेनी आईएएस पूजा खेडकर के मामले में हुआ, तो कड़ी जांच से ब्लाइंड एस्पिरेंट्स का मामला बेहद मुश्किल हो जाता है. विकलांग व्यक्ति (PwD) अधिनियम, 1995 ब्लाइंड एस्पिरेंट्स को UPSC में समान अवसरों का अधिकार देता है, लेकिन इसके कार्यान्वयन में महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

कुमार ने कहा, “उन्हें लगता है कि हम काम नहीं कर पाएंगे, लेकिन आज की तकनीक के साथ, हम बाकी एस्पिरेंट्स की तरह प्रभावी ढंग से काम कर सकते हैं.”

पूर्णिमा जैन यूपीएससी सीएसई 2008 में शामिल होने के बाद भारतीय रेलवे सेवा में चयनित हुईं. उन्होंने ज़िंदगी भर यह अनुभव किया कि लोग उन्हें किस तरह से अलग नज़रिए से देखते हैं, जब उन्होंने यूपीएससी पास किया और सिलेक्ट हुईं, तो भेदभाव शुरू हो गया.

भारतीय रेलवे के उप मुख्य कार्मिक अधिकारी जैन ने कहा, “यह लोगों की सोच है, इसमें बहुत सारे पूर्वाग्रह हैं. हर किसी की क्षमताएं अलग-अलग होती हैं. हमें यह पहचानना होगा कि हर कोई किसी न किसी तरह से अलग है. मैंने वही काम किया है, मेरे काम करने का तरीका अलग है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि यह प्रभावी नहीं है. मेरी गति कम हो सकती है, लेकिन गुणवत्ता भी देखी जानी चाहिए. कुछ पहलुओं में सुधार भी हुआ है. ब्लाइंड एस्पिरेंट्स को एक प्रतिशत भी सीटें नहीं दी जाती हैं; अधिसूचित पदों पर भी भर्ती नहीं की जाती है. कई सेवाओं को ब्लाइंड एस्पिरेंट्स के लिए बाद में पहचाना जाता है, जैसा कि आईआरएस ने 2014 में किया था. 2014 से नौकरी की प्रकृति में कोई बदलाव नहीं आया है.”

कुमार ने 2008 में यूपीएससी की परीक्षा दी थी. आज जब उन्होंने आईआईएस की ट्रेनिंग शुरू की, तब वे शादीशुदा और दो बेटियों के पिता हैं | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट
कुमार ने 2008 में यूपीएससी की परीक्षा दी थी. आज जब उन्होंने आईआईएस की ट्रेनिंग शुरू की, तब वे शादीशुदा और दो बेटियों के पिता हैं | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट

भारत की पहली ब्लाइंड आईएएस अधिकारी, महाराष्ट्र की प्रांजल पाटिल ने 2016 में सभी बाधाओं को पार करते हुए ऑल इंडिया लेवल पर 157वीं रैंक हासिल की और उन्हें आईएएस चुना गया. उन्होंने कहा कि कुमार के मामले से एक मिसाल कायम होनी चाहिए.

आईएएस अधिकारी प्रांजल पाटिल ने कहा, “यह वास्तव में निराशाजनक है. परीक्षा पास करने के बावजूद, इन एस्पिरेंट्स को अपनी सिफारिशों के लिए अनुचित रूप से 15 साल तक इंतज़ार करना पड़ा. नियम मौजूद हैं, लेकिन सिस्टम अक्सर उन्हें प्रभावी ढंग से लागू करने में विफल रहता है. दुर्भाग्य से, यह कोई अकेली घटना नहीं है – कई एस्पिरेंट्स को इसी तरह की देरी का सामना करना पड़ता है. मुझे उम्मीद है कि यह मामला ऐसे मुद्दों को संबोधित करने के लिए एक मिसाल कायम करेगा. इन व्यक्तियों ने जो अपार समय, प्रयास और पैसा लगाया है, उसे देखते हुए वे अपने नुकसान के लिए उचित मुआवजे के हकदार हैं.”


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संकोच

शिवम कुमार ने अभी तक अपने परिवार के साथ अपनी जीत का जश्न नहीं मनाया है. लंबी कानूनी लड़ाई के बाद, वह हर चीज़ से डरने लगे हैं. इतने सालों में वे खुलकर जी नहीं पाए हैं. उन्हें बहुत डर था कि कुछ भी हो सकता है. नियुक्ति रुक ​​भी सकती थी, जैसा कि अलग-अलग अदालतों में जीतने के बाद होता था.

कुमार ने कहा, “मैंने कभी अपनी ज़िंदगी खुलकर नहीं जी. मेरा दिल-दिमाग हमेशा कानूनी लड़ाई में लगा रहता था. मुझे पता था कि मुझे न्याय मिलेगा, लेकिन यह बहुत देर से मिला. मैं 14 साल तक सेवा कर पाऊंगा. मेरे बैच के लोग संयुक्त सचिव बनने जा रहे हैं और मुझे नए सिरे से शुरुआत करनी होगी.”

इस फैसले से 11 अन्य ब्लाइंड एस्पिरेंट्स को मदद मिली, जिन्हें यूपीएससी द्वारा अनुशंसित नहीं किया गया था. अब, उनमें से चार को भारतीय सूचना सेवा में सिलेक्ट किया गया है.

कुमार ने अपनी नियुक्ति का प्रिंटआउट दिखाते हुए कहा, “अभी भी कुछ समस्याएं हैं जो मेरे रास्ते में आ सकती हैं. जब फैसला आया, तो मुझे डर था कि वह (यूपीएससी) इसे लागू करेंगे या नहीं. अदालत ने उन्हें तीन महीने का समय दिया था, लेकिन हमें दिसंबर में नियुक्ति मिल गई.”

कुमार का अविश्वास व्यवस्थागत अन्याय के कारण है जिसका उन्होंने वर्षों तक सामना किया.

उनकी ब्लाइंडनेस का पता लगाने के लिए उनकी मेडिकल जांच एम्स और सफदरजंग में चार दिनों तक चली. पहले यह एक अस्पताल में एक दिन में होती थी. नतीजा वही रहा — 100 प्रतिशत ब्लाइंड. इसके बाद मंत्रालय और उनके वर्तमान कार्यस्थल पर भी बहुत सारी कागज़ी कार्रवाई हुई.

मैंने कभी अपनी ज़िंदगी खुलकर नहीं जी. मेरा दिल-दिमाग हमेशा कानूनी लड़ाई में लगा रहता था. मुझे पता था कि मुझे न्याय मिलेगा, लेकिन यह बहुत देर से मिला. मैं 14 साल तक सेवा कर पाऊंगा. मेरे बैच के लोग संयुक्त सचिव बनने जा रहे हैं और मुझे नए सिरे से शुरुआत करनी होगी

— शिवम कुमार

वे 2008, 2010 और 2014 में यूपीएससी मेडिकल बोर्ड के सामने पेश हुए — ये तीनों मौके थे जब वे इंटरव्यू के लिए योग्य हुए. कुमार ने कहा, यह कभी इतना गहरा नहीं था.

रोहिणी में दिल्ली जिला न्यायालय में वरिष्ठ न्यायिक सहायक के रूप में काम करने वाले कुमार ने कहा, “मैं तुरंत सेवा में शामिल नहीं हो सकता क्योंकि मैं सरकारी नौकरी में हूं. मुझे यहां से भी रिलीविंग ऑर्डर लेना होगा.”

44-वर्षीय पंकज श्रीवास्तव ने भी कानूनी लड़ाई लड़ी. फैसला उनके नाम पर आया. वे अब एसबीआई में काम करते हैं और ट्रेनिंग के लिए दिल्ली में आईआईएस में शामिल होने के लिए रिलीव हैं.

श्रीवास्तव ने 2008 में सिविल सेवा परीक्षा भी पास की, लेकिन चूंकि सरकार ने 1995 के विकलांग व्यक्ति अधिनियम के तहत आरक्षण नीति को लागू नहीं किया था, इसलिए उन्हें नियुक्त नहीं किया गया.

श्रीवास्तव कानूनी लड़ाई को जारी रखने में सक्षम थे क्योंकि उनके पास नौकरी थी.

उन्होंने कहा, “एसबीआई परीक्षा ने मुझे अपने कम्युनिकेशन स्किल्स को बेहतर बनाने में मदद की और मुझे न्याय पाने का आत्मविश्वास दिया. मामले के दौरान, मैंने आरटीआई के माध्यम से उन पदों और सिफारिशों के बारे में सारी जानकारी एकत्र की जिनका अनुपालन नहीं किया गया था. 2005 में, पीएम मनमोहन सिंह ने खुद डीओपीटी को रिक्तियों के बैकलॉग को संबोधित करने का निर्देश दिया था. इससे अदालत में मेरा तर्क मजबूत हुआ.”

इस महत्वपूर्ण पल को याद करते हुए उन्होंने कहा, “मुझे 19 दिसंबर को नियुक्ति पत्र मिला और सभी के समर्थन से बैंकिंग क्षेत्र से बाहर निकलना बहुत आसान हो गया.”


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‘मेरा एक सपना था’

पंकज श्रीवास्तव और शिवम कुमार ने कई साल कोर्ट रूम और वकीलों के साथ हलफनामे दाखिल करने में बिताए हैं. उन्होंने चार नेत्रहीन लोगों का एक व्हाट्सएप ग्रुप बनाया.

कुमार ने कहा, “चार लोग थे, लेकिन पंकज और मैं उन सभी सालों में कॉल पर बात करते थे. अब यह सामूहिक जीत है. हालांकि, यह उन लोगों के लिए हैरानी की बात है जो कानूनी पचड़ों में शामिल नहीं थे.”

कुमार और श्रीवास्तव ने दिव्यांग लोगों के लिए 1996 से 2009 के बीच खाली रह गए पदों पर उनकी नियुक्ति नहीं किए जाने को चुनौती दी थी.

2012 में केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण ने उनके पक्ष में फैसला सुनाया. केंद्र ने इस फैसले को दिल्ली हाई कोर्ट में चुनौती दी, जिसने 2013 में श्रीवास्तव और कुमार के मामले को बरकरार रखा. इसके बाद केंद्र इस चुनौती को सुप्रीम कोर्ट में ले गया.

उन्होंने कहास “मैंने बचपन में सपना देखा था, मैंने स्कूल में हमेशा टॉप किया और अब मुझे लगता है कि मेरी सारी मेहनत सफल रही है. फिर भी यह वह नहीं जो मैं चाहता था, पर मैं खुश हूं.”

शिवम कुमार ने 17 साल की उम्र में अपनी आंखों की रोशनी खो दी थी, जब वे बारहवीं कक्षा में थे. उन्होंने कई डॉक्टरों से मुलाकात की, लेकिन जवाब एक ही था — वे अब कभी देख नहीं पाएंगे. उन्होंने कई घंटों ध्यान भी लगाया.

कुमार ने कहा, “मैं भगवान से प्रार्थना करता था. मुझे यकीन था कि मेरी आंखों की रोशनी लौट आएगी. मैं 10 मिनट से लेकर 7 घंटे तक ध्यान लगाता था.”

अपनी आंखों की रोशनी वापस पाने के लिए लगभग पांच साल तक संघर्ष करने के बाद, कुमार ने आखिरकार इस सच्चाई को स्वीकार कर लिया कि उन्हें आगे बढ़ना होगा. वे दिल्ली आए और आत्मनिर्भर बनने के लिए स्किल्स सीखने के लिए एक नेत्रहीन विद्यालय में गए.

कुमार ने बताया कि उन्होंने रात-रात जागकर पढ़ाई की. किताबें इकट्ठा कीं, उन्हें स्कैन किया और वर्ड फाइल बनाई. उन्होंने पढ़ाई के लिए GAWS और NVDA जैसे सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट
कुमार ने बताया कि उन्होंने रात-रात जागकर पढ़ाई की. किताबें इकट्ठा कीं, उन्हें स्कैन किया और वर्ड फाइल बनाई. उन्होंने पढ़ाई के लिए GAWS और NVDA जैसे सॉफ्टवेयर का इस्तेमाल किया | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट

कुमार ने वॉयस सॉफ्टवेयर दिखाते हुए कहा, “मैंने एक नेत्रहीन विद्यालय में दाखिला लिया जिसे एक एनजीओ चलाता था. मैंने वहां अलग-अलग स्किल्स सीखे और दिल्ली यूनिवर्सिटी में बीए पत्राचार कोर्स में दाखिला लिया और साथ ही, मैं कंप्यूटर स्किल सीखने के लिए देहरादून गया. मैंने शॉर्टहैंड भी सीखा.”

2003 में कुमार को दिल्ली के जिला कोर्ट में नौकरी मिल गई.

कुमार ने कहा, “मैं पूरे दिन कोर्ट में काम करता था और रात में पढ़ाई करता था. किताबें इकट्ठा करता था, उन्हें स्कैन करता था और वर्ड फाइल बनाता. GAWS और NVDA सॉफ्टवेयर के ज़रिए पढ़ाई करता था.”

पूर्णकालिक नौकरी का मतलब था कि कुमार किसी कोचिंग में नहीं जा सकते थे. उनकी आंखों की रोशनी चली जाने के बाद उन्हें सिरदर्द होने लगा था और वे जो दवा लेते थे, उससे उन्हें नींद आती थी.

उन्होंने कहा, “इससे मेरी सोचने की क्षमता थोड़ी कम हो जाती थी. इसलिए मुझे पढ़ाई करते समय बहुत मुश्किल होने लगी थी.”

2008 में उन्होंने दो अटेम्प्ट के बाद परीक्षा पास की और मेन्स के बाद इंटरव्यू दिया. अपने आठ साल के यूपीएससी सफर में उन्होंने पांच प्रीलिम्स पास किए, तीन मेन्स लिखे और तीन इंटरव्यू दिए.

कुमार ने कहा, “हमें परीक्षा लिखने के लिए लेखक मिलते हैं. पहली मेन्स परीक्षा में मुझे लगा कि मेरा लेखक धीमा है, इसलिए अगली परीक्षा में मैंने खुद ही लिखने का फैसला किया. चूंकि मैं जन्म से अंधा नहीं था और मुझे लिखना आता था, इसलिए मैंने परीक्षा दी.”

2016 में कुमार की शादी हुई और अब उनकी दो बेटियां हैं.

दिल्ली स्थित अपने घर में अपने परिवार के साथ कुमार | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट
दिल्ली स्थित अपने घर में अपने परिवार के साथ कुमार | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट

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बचपन के सपने को पूरा करना

हर सुबह कुमार के घर के बाहर एक ऑटोरिक्शा खड़ा रहता है जो उन्हें उनके दफ्तर — रोहिणी में दिल्ली जिला कोर्ट तक ले जाता है. कोर्ट परिसर में कुमार कोई आम कर्मचारी नहीं हैं. वे लगातार वर्कप्लेस को दिव्यांगों के लिए बेहतर बनाने की दिशा में काम कर रहे हैं.

पिछले 21 साल में कुमार ने वहां बहुत सारे काम किए हैं.

कुमार ने कहा, “मुझे विशेष योग्यता वाले लोगों के लिए चार स्पेशल इमरजेंसी लीव की स्वीकृति मिली. मैंने दिल्ली जिला कोर्ट में 15 ब्लाइंड लोगों की भर्ती में मदद की और मैं अपने काम में बहुत अच्छा हूं.”

उनके सहकर्मी इस बात से परेशान हैं कि कुमार जा रहे हैं और वे उनका समर्थन नहीं कर पाएंगे.

कुमार की पत्नी पुष्पांजलि रानी ने 2016 में उनकी शादी के बाद उनके कुछ संघर्षों को करीब से देखा है. वे अपना अधिकांश समय कुमार और उनके दो बच्चों की देखभाल में बिताती हैं.

“वे उस मामले में बहुत गहराई से थे. उन्होंने हमेशा कहा कि उन्हें एक दिन वह नौकरी मिल जाएगी. मैंने हर बार उन पर विश्वास किया और आखिरकार, यह सच हो गया.”

अब कुमार और उनका परिवार सोच रहा है कि क्या उन्हें अपना घर बदलकर भारतीय जनसंचार संस्थान के पास कहीं और चले जाना चाहिए — यही वह जगह है जहां कुमार का आईआईएस के तौर पर प्रशिक्षण शुरू होगा. वे फिलहाल रोहिणी में रहते हैं, जो वहां से काफी दूर है.

रानी ने कहा, “हम अभी भी सोच रहे हैं कि हमें क्या करना है और कैसे करना है. हम इस फ्लैट को किराए पर दे सकते हैं और वहां जगह ले सकते हैं, लेकिन बच्चों का स्कूल यहीं है और हम बड़ी बेटी की पढ़ाई से समझौता नहीं कर सकते.”

कुमार की बड़ी बेटी आशी को सामान्य ज्ञान में गहरी दिलचस्पी है. वे अक्सर यूट्यूब पर ऐसा कंटेंट देखती हैं | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट
कुमार की बड़ी बेटी आशी को सामान्य ज्ञान में गहरी दिलचस्पी है. वे अक्सर यूट्यूब पर ऐसा कंटेंट देखती हैं | फोटो: शरणवीर सिंह/दिप्रिंट

कुमार ने कहा, “हमने उसे कभी पढ़ाई के लिए मजबूर नहीं किया, लेकिन वह जिज्ञासु बच्ची है.”

सात साल की आशी अपने पिता के करियर में इन्वेस्ट करती हैं. वे जानती हैं कि आईएएस अधिकारी की नौकरी देश में सबसे प्रतिष्ठित है और उनके पिता भी आईएएस बनना चाहते थे.

लेकिन शिवम कुमार ने अपनी किस्मत से समझौता कर लिया है और आईआईएस में ही संतुष्ट हो गए हैं. आईएएस अधिकारी बनने का उनका बचपन का सपना अभी मरा नहीं है. उन्होंने इसे अपनी बेटी को सौंप दिया है.

उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “मेरी बेटी भी बहुत होशियार है.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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