रोहतक: कारौर गांव में दिवाली की दोपहर मुर्दा शांति पसरी हुई थी. रविवार, 12 नवंबर को बाइक पर सवार दो लोगों ने एक मंदिर के सामने हवाई फायरिंग की. मौके पर मौजूद एक शख्स के अनुसार उनके वहां से गायब होने से पहले उन्होंने सुना, “छज्जू का परिवार अभी भी जिंदा है. हम अभी खत्म नहीं हुए हैं. हम तुम सबको देख लेंगे. कुछ ही क्षण पहले, प्रतिद्वंद्वी छिप्पी गिरोह के मुखबिर मोहित कुमार को बमुश्किल 150 मीटर की दूरी पर गोली मार दी गई थी.
करीब 30 साल पहले हरियाणा में शराबबंदी, पंचायत कब्जे और जमीन पर कब्जे जैसी घटनाओं से उभरा एक खूंखार जाट गिरोह इस महीने फिर से उभर आया है. और अब, हत्याएं फिर से शुरू हो गई हैं क्योंकि छज्जू और छिप्पी गिरोहों के बीच खूनी संघर्ष वहीं से शुरू हो गया है जहां रुका था.
इसके संस्थापक छज्जू राम का निधन हो गया है. प्रतिद्वंद्वी संगठन के प्रमुख अनिल छिप्पी जेल में हैं. लेकिन गैंग ऑफ वासेपुर-शैली का पीढ़ीगत क्राइम ड्रामा, जो 1998 से दस वर्षों से अधिक समय तक चला, उसकी फिर से वापसी हो गई है. और इस बार पोते कमान संभालते नजर आ रहे हैं.
खून-खराबा वाले क्राइम ड्रामा के बारे में सब कुछ एक रहस्य है. क्यों कारौर, रोहतक में अंतहीन हिंसा का एक अकेला द्वीप बन गया, कैसे यह दशकों तक अनियंत्रित रहा और कैसे स्मार्टफोन और वायरल वीडियो के इस युग में यह देश और यहां तक कि बॉलीवुड की नजर से बचा रहा.
पीड़ित मोहित कुमार के पड़ोसी राजेंद्र ने कहा, “वह अपनी जान बचाने के लिए भागा लेकिन गिरोह ने अंधाधुंध गोलीबारी की. उन पर कम से कम एक दर्जन गोलियां चलाई गईं और आखिर में वे गिर पड़े.”
किसान से गैंगस्टर बने छज्जू राम के आतंक के समय के दौरान, उसके सात बेटों समेत कारौर में 19 लोग मारे गए. कुमार 20वें हैं. छज्जू राम के सबसे छोटे बेटे की 2018 में हत्या के मामले में गिरफ्तार होने के बाद वह जमानत पर बाहर था.
और फिर दिवाली आई और आतिशबाजी के त्योहार ने एक नई करवट ले ली. अब, ग्रामीण खतरे में हैं, पुलिस तनाव में है, विशेष टीमें तैनात की गई हैं और हर कोई रक्तपात के एक और युग से डर रहा है.
छज्जू राम द्वारा बनाया गया विशाल तीन मंजिला घर गांव पर उनकी पकड़ की याद दिलाता है. यह वीरान पड़ा है, इसकी दीवारों से रंग उतर रहा है. उनके सात बेटों में से पांच को छिप्पी गिरोह ने मार डाला, एक की प्राकृतिक कारणों से मौत हो गई और एक जेल में है. उनके पोते भी वहां नहीं रहते लेकिन उन्होंने परिवार की खूनी विरासत संभाल ली है.
कारौर एक पीढ़ीगत ड्रामा का हिस्सा बन गया है जो गैंग्स ऑफ वासेपुर की वो सबसे लोकप्रिय लाइन ‘बाप का, दादा का, सबका बदला लेगा ‘ की याद दिलाता है.
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रक्तपात से भरी दिवाली की ‘परंपरा’
एफआईआर के मुताबिक, छह बाइक सवार हत्यारों ने इस बात की परवाह नहीं की कि उन्हें किसने देखा, जब वे दहाड़ते हुए मोहित कुमार के पड़ोस में पहुंचे और 40 गोलियां चलाईं, जिनमें से 12 उन्हें लगीं. इसके बाद दो हमलावरों ने गांव के मंदिर में अपनी घातक उपलब्धि की घोषणा की.
कारौर की एक महिला ने आरोप लगाया, “छज्जू राम के पोते ने ही गोलियां चलाईं.” वह अपने घर के बरामदे में मंदिर के पास बैठी थी तभी दो बाइक सवार अंदर आये.
वह और अन्य लोग अपने-अपने घरों में भाग गए जबकि पुरुष भयभीत होकर खिड़कियों से झांक रहे थे. एक अन्य महिला लंबे समय से मृत छज्जू राम के चार पोते में से दो का नाम लेते हुए कहती है, “दीपक और मलकित थे.” एक तीसरी महिला का कहना है, “यह बदले की भावना से की गई हत्या थी.”
पीड़ित मोहित कुमार पर आरोप है कि उसने छज्जू राम के सबसे छोटे बेटे आनंद मलिक के ठिकाने के बारे में जानकारी दी थी, जिसकी 2018 में कथित तौर पर छिप्पी गिरोह द्वारा गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. पुलिस ने छज्जू राम के दो पोते, जतिन और मलकित को ‘मुख्य आरोपी’ के रूप में नामित किया है लेकिन वे भाग फिर रहे हैं. एफआईआर में नामित चार अन्य लोगों में से दो लोगों को गिरफ्तार कर लिया गया है.
52 वर्षीय ग्राम प्रधान महिपाल सिंह कहते हैं, “मैंने गृह मंत्री और जिला प्रशासन को लिखा है. इन अपराधियों का सामाजिक बहिष्कार काम नहीं करेगा क्योंकि उन्हें इसकी परवाह नहीं है.”
उन्होंने मोहित की हत्या के बाद गिरोह की ‘वापसी’ पर चर्चा करने के लिए मलिक गोत्र के चार गांवों की एक पंचायत बुलाई – 1990 के दशक के मध्य के बाद पहली बार जब 84 गांवों ने एक जाट किसान से जबरन जमीन लेने के लिए गिरोह को जिम्मेदार ठहराने के लिए एक महापंचायत में इकट्ठा हुए थे.
छज्जू राम के परिवार ने दस वर्षों तक ग्रामीणों को आतंकित रखा. उन पर और उनके बेटों पर सेवानिवृत्त सैनिकों से उनकी पेंशन लूटने, लोगों को उनके पैतृक घरों से भगाने, बंदूक की नोक पर जमीन पर कब्जा करने, पंचायत चुनावों पर कब्जा करने, प्रतिद्वंद्वियों की हत्या करने, अन्य गिरोहों को हथियार मुहैया कराने और दलितों को बंधुआ मजदूरी के लिए मजबूर करने का आरोप लगाया गया था.
कारौर गांव, जो कि रोहतक से आधे घंटे से भी कम की दूरी पर है, बढ़ती हिंसा के कारण नो-गो जोन में बदल गया है. खरावर, पहरावर, चुलियाना दुहान, डीघल और खेड़ी साध जैसे आसपास के गांवों के लोग दूर चले गए.
रोहतक रेंज के पूर्व आईजी वी कामराज ने कहा, “सड़क पर रास्ता न देने जैसी छोटी सी बात भी हत्या का कारण बन सकती है. गैंग-लॉर्ड का यह घमंड मर्दानगी को लेकर है और वे इसे छोटी-छोटी घटनाओं में अंजाम देते हैं.”
दिवाली तब होती थी जब गिरोह अक्सर अपनी ताकत दिखाने का विकल्प चुनता था. 2008 में, उन्होंने त्योहार के दिन कथित तौर पर गोलीबारी की और दो महिलाओं की हत्या कर दी. तभी राज्य की कानून एवं व्यवस्था मशीनरी की नजर कारौर पर पड़ी.
सेवानिवृत्त आईपीएस अधिकारी वी कामराज, जिन्होंने 2008 और 2011 के बीच रोहतक रेंज के महानिरीक्षक (आईजी) के रूप में कार्य किया, ने गिरोह को खत्म करने के लिए 15 पुलिसकर्मियों की एक पूरी चौकी को काम सौंपा.
कामराज ने कहा, “धमकी और डर के कारण इस परिवार के खिलाफ पर्याप्त लामबंदी नहीं हुई थी, इसलिए हमें इस गांव में एक पूरी टीम बिठानी पड़ी, जो अपराध से घिरा हुआ था.” उन्होंने कहा कि रोहतक रेंज “बहुत सारी हत्याओं” से घिरी हुई है.
लेकिन ताज़ा हत्या के बाद बदलाव आया है. ग्रामीण जवाबी कार्रवाई कर रहे हैं. डरने के बजाय, वे पुलिस कार्रवाई की मांग कर रहे हैं, पंचायतें आयोजित कर रहे हैं और पीड़ित परिवार के साथ लामबंद हो रहे हैं.
महिपाल सिंह ने गैंगवार के चरम के दौरान गांव को हुए नुकसान को देखा है. वह कहते हैं, “मैं इसे दोबारा नहीं होने दूंगा.”
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छज्जू राम का अपराध की दुनिया में उदय
छज्जू राम एक समय एक साधारण किसान था, जिसके पास केवल आठ बीघे जमीन थी – जो उनके सात बेटों और दो बेटियों के लिए पर्याप्त नहीं थी. फिर 1990 के दशक के मध्य में, हरियाणा में शराबबंदी का संक्षिप्त प्रयोग उनके लिए एक आकर्षक अवैध शराब कारोबार का कारण बन गया. इन वर्षों में उसने अपने आपराधिक पोर्टफोलियो का विस्तार किया.
पूर्व ग्राम प्रधान चौधरी जगदीश मलिक कहते हैं, “एक बड़े गिरोह का सरगना बनने से पहले भी वह एक उपद्रवी था.”
वह कहते हैं, “जब बंसी लाल सरकार 1996 में पूर्ण शराबबंदी की नीति लेकर आई तो उनका परिवार अवैध शराब के कारोबार में उतर गया.” “इसे 1998 में हटा लिया गया था लेकिन दो वर्षों में, छज्जू राम एक स्थानीय शक्ति के रूप में उभर गया.”
कुछ ग्रामीणों का दावा है कि चुनावी मौसम के दौरान- पंचायत, विधानसभा और यहां तक कि लोकसभा चुनाव- सभी दलों के राजनेता हमेशा छज्जू राम से मिलने जाते हैं.
एक किसान कुलदीप मलिक ने कहा कि सच तो यह है कि गिरोह एक पूरे परिवार का सफाया कर सकता है.
खेड़ी साध गांव के निवासी 52 वर्षीय समुंदर गहलावत 2005 के विधानसभा चुनाव की एक घटना को याद करते हैं, जब भाजपा के नरेश मलिक और कांग्रेस के चक्रवर्ती शर्मा रोहतक की हसनगढ़ सीट के लिए लड़ रहे थे.
गहलावत का दावा है, “छज्जू गिरोह चक्रवर्ती के पक्ष में था. इसलिए, जब नरेश मलिक चुनाव प्रचार के लिए कारौर के चौपाल (पंचायत भवन) पहुंचे, तो छज्जू गिरोह ने दरवाजे बंद कर दिए और नरेश को गांव से बाहर निकाल दिया.”
80 साल के हो चुके जगदीश मलिक उस समय को याद करते हैं जब उनके परिवार को, कई अन्य लोगों की तरह, गिरोह द्वारा आतंकित किया गया था और ब्लैकमेल किया गया था. गांव के एक अन्य बुजुर्ग, संत मलिक, 1990 के दशक के मध्य में बुलाई गई तीन महापंचायतों को याद करते हैं, जब छज्जू के बेटों ने कथित तौर पर एक जाट किसान की जमीन पर कब्जा करने के बाद उसे 2.65 लाख रुपये देने से इनकार कर दिया था.
संत मलिक कहते हैं, “छज्जू परिवार से रकम चुकाने को कहा गया, नहीं तो उन्हें जाति से बाहर निकाल दिया जाएगा.”
लेकिन उनके मुताबिक इस धमकी से परिवार पर कोई फर्क नहीं पड़ा. “उन्होंने जवाब देते हुए कहा, ‘जात से बाहर फेंको, या छत से नीचे, हम पैसा नहीं देंगे.”
पड़ोसी गांवों के निवासियों ने कारौर से दूरी बनाना शुरू कर दिया, इस डर से कि उन्हें पीटा जा सकता है. भम्बेवा के ग्रामीणों ने खरावर रेलवे स्टेशन तक पहुंचने के लिए कारौर से जाना बंद कर दिया और इसके बजाय लंबा रास्ता अपनाया या दूसरे रेलवे स्टेशन जाने लगे.
लोग यह कहने लगे कि कारौर के लोग इतने कायर थे कि छज्जू और उसके गिरोह का सामना नहीं कर सके. लेकिन खरावर के 42 वर्षीय किसान कुलदीप मलिक स्वीकार करते हैं कि लड़ना कोई विकल्प नहीं था. वह कहते हैं, “सच्चाई यह है कि गिरोह पूरे परिवार को खत्म कर सकता है.”
लगभग 5,000 निवासियों की आबादी, जिनमें अधिकतर जाट हैं और गेहूं की खेती करते हैं, कारौर कोई गरीब गांव नहीं है. लेकिन इसके चारों ओर पराजय का माहौल है. सभी घर सीमेंट से बने हैं लेकिन अधिकांश अलग-अलग जर्जर अवस्था में हैं, उनमें बमुश्किल नया पेंट नजर आता है. पंचायत भवन जर्जर है और गलियों में अक्सर पानी भरा रहता है.
संत मलिक कहते हैं, “कारौर गांव में 1998-2008 के बीच कोई घर नहीं बनाया गया या मरम्मत नहीं की गई.”
गांव वाले इस डर से नई इमारतें बनाने या स्पष्ट रूप से खर्च करने से बचते थे कि इससे वे छज्जू राम की नज़र में आ जाएंगे.
डर की भावना न केवल छज्जू के कारण, बल्कि उसके बेटों के कारण भी गहरी थी, जो प्रशिक्षित पहलवान थे और उन्हें चुनौती देने वाले ग्रामीणों पर अपने अखाड़े के कौशल का उपयोग करने में संकोच नहीं करते थे.
जगदीश कहते हैं, “इतने बाहुबल वाले परिवार को कोई चुनौती देने की हिम्मत नहीं करेगा.”
संत मलिक याद करते हैं कि भाइयों में से एक फूल ने खुद को 1996 की सनी देओल की हिट फिल्म घातक के बॉलीवुड खलनायक कातिया के जैसा बनाया था – एक ऐसा चरित्र जिसने अपने छह भाइयों के साथ मुंबई में एक कॉलोनी को आतंकित किया था.
जगदीश का कहना है कि पुलिस ने 1990 के दशक के दौरान कई मौकों पर छज्जू और उसके बेटों को गिरफ्तार किया गया लेकिन फिर 2008 की भयानक दिवाली तक उन्होंने बार-बार आना बंद कर दिया, जब गिरोह ने कथित तौर पर गांव के सबसे बड़े जमींदार की पत्नी और बेटी की हत्या कर दी.
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20वीं हत्या
50 वर्षीय अजीत मलिक और उनकी पत्नी गीता देवी के लिए, दिवाली की तैयारी हमेशा व्यस्त रहती है. यह गेहूं बोने और मंडी में गन्ना बेचने का समय है लेकिन वे खुश थे. भले ही उनका 25 वर्षीय बड़ा बेटा मोहित कुमार हत्या की साजिश (आईपीसी की धारा 120बी) के आरोप से लड़ रहा था, वह उनके साथ घर पर था.
दिवाली से एक हफ्ते पहले जब मोहित को जान से मारने की धमकी मिली तो सब कुछ बदल गया. गीता देवी का आरोप है कि यह छज्जू राम गिरोह से था, हालांकि वह इस बात पर जोर देती हैं कि उनके बेटे का स्थानीय गिरोहों और प्रतिशोध से कोई लेना-देना नहीं है.
हालांकि, मोहित यह कहानियां सुनकर बड़ा हुआ कि कैसे उसके पिता और दादा को छज्जू गिरोह ने परेशान किया था. और रोहतक में खरावर पुलिस चौकी के उप-निरीक्षक जय भगवान के अनुसार, उसे छिप्पी गिरोह के सहयोगी के रूप में देखा जाता था.
दोपहर को खेत से लौटते समय छह लोगों ने मोहित को छज्जू के सूने तीन मंजिला मकान के सामने गोलियों से भून दिया.
85 वर्षीय पड़ोसी राजेंद्र कहते हैं, “वह अपनी जान बचाने के लिए भागा लेकिन गिरोह ने अंधाधुंध गोलीबारी की. उस पर कम से कम एक दर्जन गोलियां चलाई गईं और वह आखिरकार गिर गया.” राजेंद्र मोहित के घर से कुछ ही मीटर की दूरी पर रहता है और दावा किया कि उसने देखा है कि क्या हुआ था.
कारौर में, जहां आंख के बदले आंख और दांत के बदले दांत लगभग एक आदर्श वाक्य है, ग्रामीण हत्याओं का एक और दशक नहीं चाहते हैं. वे शांति चाहते हैं.
मोहित के पिता अजीत मलिक कहते हैं, “पूरा गांव मेरे पीछे एकजुट हो रहा है. यह एक चमत्कार है.” वह इस बात पर जोर देता है कि वह बदला नहीं, बल्कि न्याय चाहता है और इस बात पर जोर देता है कि उसे उसके गृहनगर से बाहर नहीं निकाला जाएगा. लेकिन उन्होंने अधिकारियों से अपने परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार रखने की इजाजत मांगी है.
अजीत कहते हैं, “हमारी तीन मांगें हैं. सबसे पहले हमारे परिवार को हथियार का लाइसेंस दें ताकि हम अपनी सुरक्षा कर सकें. दूसरा, गांव में एक स्थायी पुलिस चौकी स्थापित करना और तीसरा, मेरे बेटे की हत्या में शामिल सभी लोगों को गिरफ्तार करना.”
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1998 में पहला मर्डर केस
छज्जू और उसके बेटों का पहली बार 1998 में एक हत्या के मामले में नाम आया था लेकिन इसके बाद की परिस्थितियों के बारे में अलग-अलग कहानियां हैं.
गांव वालों के अनुसार, एक थप्पड़ और अहंकार के कारण हत्या हुई. एक अन्य कहानी के अनुसार चेतावनियों के बावजूद छज्जू के घर के सामने नृत्य करने के लिए एक व्यक्ति को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा.
लेकिन पूर्व ग्राम प्रधान राजेश मलिक, जिन्हें यहां पुरु सरपंच के नाम से जाना जाता है, इन कहानियों को खारिज करते हैं.
53 वर्षीय पुरु कहते हैं, “इसकी शुरुआत एक बारात से हुई.” उनके अनुसार, जब बारात छज्जू राम के घर पहुंची, तो उनके एक बेटे, श्री भगवान ने हवा में गोलीबारी की और दूल्हे के चचेरे भाई की गोली मारकर हत्या कर दी. उस पर हत्या का मामला दर्ज किया गया था लेकिन गवाह मुकर गए.
उत्साहित होकर गिरोह ने कथित तौर पर अगले ग्राम पंचायत चुनावों पर कब्ज़ा कर लिया.
पुरु कहते हैं, “उन्होंने अपने प्रॉक्सी उम्मीदवारों के साथ चुनाव पर कब्जा कर लिया. 2005 के चुनाव में एक भी व्यक्ति इस गैंग के खिलाफ खड़ा नहीं हुआ. वर्षों तक बंदूक की नोक पर ऐसा होता रहा.”
उन्होंने आगे आरोप लगाया कि गिरोह ने सेवानिवृत्त सेना के लोगों से उनकी पेंशन का 25 प्रतिशत हिस्सा मांगकर जबरन वसूली की. वह कहते हैं, “जिन लोगों को दिल्ली में नौकरी मिलती थी, उन्हें अपनी कमाई का 15 फीसदी हिस्सा देना पड़ता था.”
लेकिन क्षेत्र में एक और आपराधिक शक्ति केंद्र था- छिप्पी गिरोह, जिसका नेतृत्व एक ओबीसी परिवार कर रहा था, जो अवैध शराब के व्यापार में भी शामिल था.
ग्रामीणों का दावा है कि छज्जू गिरोह ने छिप्पी के मुखिया रामे कुमार के भाई अंबू की गोली मारकर हत्या कर दी और उसका शव रेलवे ट्रैक पर फेंक दिया.
पुरु कहते हैं, “उन्होंने अंबु और बाकी छिप्पी भाइयों का सफाया कर दिया.” हालांकि एफआईआर दर्ज की गईं, लेकिन कोई कार्रवाई नहीं हुई. 2002 में रामे की पत्नी अपने दो बेटों अनिल और सोमवीर के साथ रात के अंधेरे में गांव से भाग गई.
पुरु कहते हैं, “युवा लड़के दिल्ली के किसी हिस्से में पले-बढ़े और जब तक वे बदला लेने के लिए वापस नहीं आए, तब तक किसी ने उनकी बात नहीं सुनी.”
2009 में छिप्पी लड़कों ने कथित तौर पर छज्जू राम के पोते राकेश उर्फ बिंटू की हत्या कर दी और फिर 2012 में उनके दो बेटों की हत्या कर दी.
कारौर एक पीढ़ीगत ड्रामा का मंच है जो गैंग्स ऑफ वासेपुर की पंक्ति ‘बाप का, दादा का, सबका बदला लेगा’ की तरह दिखलाई पड़ता है. यह एक हरियाणवी गॉडफादर है जिसका घिनौना सीक्वेल कभी न खत्म होने वाला है.
इस गाथा में पुरु सरपंच की एक केंद्रीय भूमिका है.
एसआई जय भगवान कहते हैं, “यह पुरू सरपंच ही था जो बदला लेने के लिए छिप्पी लड़कों को लाया था.”
2009 में बिंटू के बारे में छिप्पी गिरोह को जानकारी देने के लिए पुरु पर हत्या की साजिश का मामला दर्ज किया गया था और 2011 में जमानत मिलने तक वह जेल में रहा. उसे आपराधिक साजिश के लिए 2012 की हत्याओं के लिए भी गिरफ्तार किया गया था और जमानत मिलने से पहले उसने आठ साल जेल में बिताए थे.
जहां तक छिप्पी बेटों का सवाल है, सोमवीर को 2009 में गिरफ्तार किया गया था और वर्तमान में वह जमानत पर बाहर है और अनिल 2011 तक फरार था और वर्तमान में सलाखों के पीछे है. हत्या के दोनों मामलों की सुनवाई चल रही है.
पुरु हत्याओं में किसी भी भूमिका से इनकार करता है लेकिन अगर कोई प्रतिशोध की भावना से प्रेरित था तो वह, वह था. उनकी पत्नी और चाची की 2008 में दिवाली पर हत्या कर दी गई थी.
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रक्तपिपासु
पुरु ने अपनी भूमि की रक्षा के लिए पहले छज्जू गिरोह से लड़ाई की लेकिन अंत में उसे खून से इसकी कीमत चुकानी पड़ी.
वह याद करते हैं, 2006 में, छज्जू के बेटों ने उनकी 105 बीघे में से 40 बीघे जमीन की मांग की और उन्होंने इनकार कर दिया.
उनका कहना है कि इसके चलते गिरोह ने उन्हें दो साल तक परेशान किया लेकिन उनके पास उन्हें रोकने के लिए ताकत और धन था. 2008 में गिरोह ने एक भयावह घोषणा की: पुरु परिवार उस वर्ष दिवाली नहीं मनाएगा.
ऐसी धमकियों का आदी होने के कारण उसने इस पर ध्यान नहीं दिया.
उस वर्ष 28 अक्टूबर को दिवाली एक उत्सव के रूप में शुरू हुई. पुरु की पत्नी और चाचियां पूजा की तैयारी कर रही थीं, उत्साहित बच्चे खुशी से झूम रहे थे और बुजुर्ग खुशी से हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे. तभी शाम करीब 6 बजे गोलियां चलने लगीं. भयभीत परिवार के सदस्यों के सामने पुरु की पत्नी और चाची की मौके पर ही मौत हो गई.
आखिरकार, पुलिस की नज़र कारौर गांव पर पड़ी, उस समय रोहतक रेंज के आईजी वी कामराज ने गिरोह को खत्म करने के लिए 15 सदस्यीय टीम तैनात की.
1987-बैच के अधिकारी कामराज 2015 में सेवानिवृत्त हुए और अब अपने गृह राज्य तमिलनाडु में रहते हैं. वह झज्जर जिले के एक और गांव, मांडोठी को याद करते हैं, जो इसी तरह से एक पारिवारिक गिरोह द्वारा आतंकित था.
कामराज बताते हैं, “सड़क पर रास्ता न देने जैसी छोटी सी बात भी हत्या का कारण बन सकती है. कामराज बताते हैं, “गैंग-लॉर्ड का यह घमंड मर्दानगी के बारे में है और वे इसे छोटी-छोटी घटनाओं में अंजाम देते हैं.”
2008 की दिवाली वाले दिन हुई हत्याओं में छज्जू के तीन बेटे मुख्य आरोपी थे. लेकिन मुकदमा खत्म होने से पहले, उनमें से दो- दिलबाग और श्री भगवान को 2012 में बेधड़क गोलियों से भून दिया गया, जब उन्हें पुलिस वैन में अदालत ले जाया जा रहा था.
मोहित कुमार के पिता अजीत याद करते हैं, “जब दिलबाग और श्री भगवान को छिप्पी गिरोह ने मार डाला, तो कोई भी ग्रामीण अंतिम संस्कार में नहीं गया. कुछ पुलिसकर्मियों ने उनका अंतिम संस्कार कर दिया. जब पुलिस चली गई, तो लोगों ने जश्न मनाने के लिए हलवा बनाया.”
जहां छज्जू गिरोह नफरत फैलाता है, वहीं गांव वाले, यहां तक कि जाट भी, छिप्पी परिवार के प्रति सहानुभूति रखते हैं.
पुरु एक स्थानीय गांव का नायक है लेकिन वह ‘श्रेय’ नहीं लेना चाहता. वह कहते हैं, “मैं उन्हें (छिप्पी बेटों को) वापस नहीं लाया.” “मेरे खिलाफ मामले अभी भी लंबित हैं क्योंकि छज्जू गिरोह से किसी ने भी अदालत में मेरे खिलाफ गवाही नहीं दी है.”
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विरासत अब अगली पीढ़ी के हाथों में
गांव में डर का माहौल 2010 के बाद ही बदलना शुरू हुआ. इसी अवधि के आसपास छज्जू की प्राकृतिक कारणों से मृत्यु हो गई और ग्राम पंचायत में सत्ता परिवर्तन हो गया.
पत्नी और चाची की हत्या के बाद पुरु सरपंच ने छज्जू गिरोह को खत्म करना अपने जीवन का मिशन बना लिया.
जब वह 2009 में छज्जू के पोते की हत्या में कथित भूमिका के लिए जेल में थे, तब उन्होंने 2010 में पंचायत चुनाव लड़ने का फैसला किया.
वह कहते हैं, “मैंने जेल से अपना नामांकन दाखिल किया. मैंने अपने दो बेटों और एक बेटी को उनकी सुरक्षा के लिए 2008 में ही अपनी बहन के घर भेज दिया था.”
परिणाम आश्चर्यजनक थे. पिछले चुनाव में छज्जू गिरोह का उम्मीदवार निर्विरोध चुना गया था, किसी और ने नामांकन दाखिल करने की हिम्मत नहीं की थी. लेकिन 2010 के चुनाव में 1,436 वोट पड़े और पुरु ने भारी मतों से जीत हासिल की.
पुरु कहते हैं, “छज्जू गिरोह को केवल 20 वोट मिले.”
2011 में जमानत मिलने के बाद पुरु सरपंच का पहला कदम उन परिवारों को वापस लाने की कोशिश करना था, जिन्हें छज्जू गिरोह ने कारौर से बाहर निकाल दिया था. उन्होंने मदद के लिए राजनीतिक नेताओं की ओर रुख किया.
वे कहते हैं, “दीपेंद्र हुड्डा (कांग्रेस नेता और जिनके पिता भूपिंदर उस समय सीएम थे) की मदद से मुझे अपनी और परिवार की सुरक्षा के लिए हथियार का लाइसेंस मिल गया.”
पुरु ने छज्जू गिरोह द्वारा किए गए 39 दर्ज अपराधों का दस्तावेजीकरण करते हुए एक व्यापक फाइल तैयार की और इसे 2011 में सीएम कार्यालय में जमा कर दिया. उनके रिकॉर्ड के अनुसार, गिरोह ने परिवार की महिलाओं के नाम पर छह हथियार लाइसेंस प्राप्त किए थे. इन लाइसेंसों को बाद में विभिन्न डीसी द्वारा रद्द कर दिया गया था.
लेकिन एक दशक से अधिक समय बीत जाने के बाद भी, जो लोग भाग गए उनमें से अधिकांश अभी भी वापस नहीं लौटे हैं.
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‘छज्जू के हो क्या?’
एनएच-10 से कुछ ही किलोमीटर दूर कारौर की कोई अलग पहचान नहीं है. धानक एससी समुदाय के लोकप्रिय गायक जगबीर काकोरिया और मशहूर पहलवान सुमित मलिक की प्रसिद्धि के अलावा, यह गांव मुख्य रूप से आतंक की कहानियों से जुड़ा रहा है. यह बुरी यादों से पटी बंजर भूमि है.
पुरु का आरोप है, “दस वर्षों तक, सभी अनुसूचित जाति के निवासियों ने या तो अपने खेतों में या छज्जू गिरोह के डेयरी व्यवसाय में काम किया. वे बंधुआ मजदूर थे. उन्होंने बिना एक पैसे के काम किया.”
उनकी अधिकांश ऊर्जा अब अपने बेटों पर केंद्रित है – एक वकील है और एक वुशु में चार बार का राष्ट्रीय स्वर्ण पदक विजेता है.
कारौर अभी भी हाई अलर्ट पर है. एक पुलिस बंदूकधारी मोहित के घर के बाहर पहरा देता है और गांव के प्रतिनिधि अपडेट के लिए डीएसपी और जिला प्रशासन के साथ लगातार बैठकें करते हैं. वहां 24 घंटे पुलिस की मौजूदगी रहती है. हर कुछ घंटों में एक पुलिस वैन गांव का चक्कर लगाती है.
लेकिन कारौर में, जहां बीते दिनों की यादें अभी तक लोगों के जहन में है और बदले की भावना से हत्याएं की जाती हैं, वहां ग्रामीणों को पुलिस के चले जाने पर अंजाम का डर रहता है.
फिलहाल, छज्जू राम का घर शांत है. 2011 में आईपीएस अधिकारी कामराज की टीम द्वारा इसे सील करने के बाद से यह धीरे-धीरे जर्जर हो रहा है. लेकिन गिरोह की कुख्याति इन भौतिक सीमाओं से परे है. छज्जू की जमीन हड़पने की रणनीति आज भी हरियाणा के विभिन्न हिस्सों में गूंजती है. जब भी कोई भूमि विवाद होता है, तो एक परिचित कहावत अभी भी सुनी जा सकती है: थम लायोगे कब्ज़ा, छज्जू के हो क्या.
(संपादन: कृष्ण मुरारी)
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