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Sunday, 23 November, 2025
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बॉलीवुड बावर्ची नंबर 1 — दिलीप का सफर, फराह खान के कुक से स्टार बनने तक

दिलीप की कहानी पुराने माइग्रेंट वाले स्टीरियोटाइप को तोड़ती है, एक अनदेखे मजदूर से मुंबई के एलीट का इंटरनेट सेलिब्रिटी बनने तक.

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मधुबनी: वे असली बॉलीवुड बावर्ची हैं, एक ऐसा शख्स जो एक दिन मुंबई के बंगलों में सब्ज़ियां काटता है और अगले ही दिन फिल्मी सितारों के साथ फोटो खिंचवाता है, लेकिन 1990 के दशक के अंत में वह सिर्फ 16 साल का बिहार का एक गांव का लड़का था. पिता ने उसे सिर्फ 250 रुपये दिए थे, इतने कि वह एक तरफ का ट्रेन टिकट लेकर महानगरों की गुमनाम मजदूरी की दुनिया में उतर सके. दो दशक बाद, वही लड़का,अब 42 साल का दिलीप मुखिया, दरभंगा के अपने गांव और मल्लाह टोला मोहल्ले में एक ऐसी शख्सियत बनकर लौटा, जिसे गांववालों ने अब तक सिर्फ मोबाइल स्क्रीन पर देखा था: फराह खान का कुक-टर्न-इंटरनेट स्टार.

वे इंसान जिसे श्रुति हासन “द रियल स्टार” कहती हैं, जिसे जैकी श्रॉफ “बीड़ू” कहने पर टोकते हैं. जिसे राजस्थान के राजा-रजवाड़े भी उत्साह से मिलते हैं. जिसे फराह खान चिढ़ाती हैं—“अब इतना फेमस हो गया कि ऑरी को पहचानता ही नहीं.”

ब्रांड्स ने उन्हें तुरंत पहचान लिया. सिर्फ एक साल में दिलीप Myntra, Amazon, Urban Company, Flipkart, स्किनकेयर ब्रांड्स, वॉशिंग मशीन, प्रेशर कुकर, ऑर्गैनिक फूड सबके विज्ञापनों में दिख चुके हैं. शाहरुख खान के साथ एक एड में कैमियो भी किया. वे यूट्यूब फेनफेस्ट के मंच पर चले, महलों में शूट किए, इन्फ्लुएंसर्स के साथ फोटो खिंचवाई और विदेश भी गए.

दिलीप की यात्रा वही आम यात्रा है जो हर साल लाखों बिहारी पुरुष करते हैं, शहरों के घरों, खेतों और फैक्ट्रियों में घुल-मिल जाने वाली मजदूरी की दुनिया, लेकिन उनका पलटना इस सोच को तोड़ता है: बिहार के माइग्रेंट अदृश्य भी होते हैं.

पाली गांव के साइनबोर्ड पर 1,500 मतदाता और 15 वार्ड लिखे हैं. गांव जाति-आधारित टोला सिस्टम पर चलता है, जैसे बिहार के कई दूसरे गांव | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
पाली गांव के साइनबोर्ड पर 1,500 मतदाता और 15 वार्ड लिखे हैं. गांव जाति-आधारित टोला सिस्टम पर चलता है, जैसे बिहार के कई दूसरे गांव | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

दिलीप की कहानी वह नहीं है जहां कोई बिहारी लड़का सपनों के साथ मुंबई आता है.यह ब्लू-कॉलर इन्फ्लुएंसर बनने की कहानी भी नहीं है. यह एक ग्रामीण मल्लाह लड़के के जातिगत ढांचे से निकलने की कहानी भी नहीं है.

दिलीप की कहानी किसी भी तय बॉक्स में नहीं आती, उन्होंने खुद अपना अलग बॉक्स बनाया है. उनकी ज़िंदगी न किसी तय किस्मत से बनी, बल्कि किस्मत, टाइमिंग और “कर लेंगे” वाले एटीट्यूड से.

वे मुंबई में शूट के बीच में थे और अभी-अभी फराह खान के साथ न्यूजीलैंड से लौटे थे, जब उन्होंने दिप्रिंट से फोन पर बात की.

उन्होंने हंसते हुए कहा, “बात ये है कि अपना बिहारी मेहनती है और कमा लेता है.”

वीडियो में वे फराह खान जैसी तेज़, चुलबुली, थोड़ी सख्त मुम्बईया बोली बोलते हैं, लेकिन फोन पर उनकी आवाज़ नरम पड़ गई. मैथिली लौट आई. वाक्य लंबे हो गए. शहर की खुरदरी आवाज़ गायब हो गई—घर की मिठास लौट आई. मानो ज़िंदगी दो भाषाओं और दो पहचानों के बीच खिंची हो.

मुंबई सालों से यूपी-बिहार के मजदूरों पर चलती है—कुक, क्लीनर, ड्राइवर, मज़दूर…लोगों की नज़र में वे बस एक ही पहचान में सिमट जाते हैं, गरीब, थके हुए, अनदेखे, लेकिन दिलीप इस छवि को उलट देते हैं.

वे दुर्लभ शख्स बन गए हैं जिसे मुंबई के सेलिब्रिटी सर्किल में भी उनकी बिहारियत, माइग्रेंट की मेहनत और देसी ह्यूमर के लिए सराहा जाता है. वे एक साथ एक आम बिहारी माइग्रेंट भी हैं और एकदम अनोखी कहानी भी.

एक आम आदमी भी और एक वन-इन-ए-मिलियन स्टोरी भी.

करीब एक करोड़ बिहारी राज्य के बाहर काम करते हैं. पाली जैसे गांवों में 80% पुरुष रोज़गार के लिए बाहर जाते हैं. परिवार खेत में काम करता है और वे शहरों से आधी कमाई भेजते हैं. दिलीप की तरह, वे साल में एक बार घर आते हैं.

ऐसे गांव में, दिलीप की वापसी किसी फिल्म जैसी लगती है.

बॉलीवुड को मिला नया दिलीप

दिलीप का कैमरे और इंटरनेट से पहला सामना पिछले साल 15 अप्रैल को हुआ, जब वे फराह खान के “वर्ल्ड-फेमस” यखनी पुलाव वीडियो में कैमियो करते दिखे.

वीडियो में फराह नाटकीय अंदाज़ में चाकू रख देती हैं और उन्हें बुलाती हैं: “मैं क्यों काटूं? दिलीप करेगा.” वह जोर देकर कहती हैं कि सब्ज़ी काटने का काम सिर्फ मर्दों का है.

फिर शुरू होती है चुहलबाज़ी: “तुझे एक्टिंग नहीं आती ना? सिर्फ पगार लेने के टाइम एक्टिंग करता है!”

फराह बताती हैं कि दिलीप से खरीदारी में गलती हो गई, वह मटन की जगह चिकन ले आया. वीडियो के अंत में वह उन्हें “फायर” कर देती हैं. एक हफ्ते बाद, दूसरे वीडियो में, वे उन्हें आरती, तिलक और पूरी बॉलीवुड-स्टाइल ड्रामा के साथ वापस रख लेती हैं.

यहीं से कमेंट्स आने लगे: “दिलीप और फराह — वो जोड़ी जिसकी हमें ज़रूरत थी और हमें पता भी नहीं था.”

दिलीप का अंदाज़ लोगों को पसंद आया. जोड़ी चल निकली.

इसके बाद शुरू हुआ उनका चलता-फिरता मस्ती का ब्रह्मांड, सैलरी कट के चुटकुले, बालकनी की जलन, मुंबई के महंगे घर (“हम दोनों बहुत गरीब हैं”), कहीं भी स्विमिंग पूल देखकर दिलीप का उसमें नहाने का मन और फराह का कहना कि दिलीप की स्टारडम ने “उनके चैनल को हाइजैक” कर लिया है.

कुछ दर्शकों ने फराह के लहज़े को वर्गभेदी कहा; कुछ ने इसे सीधी-सादी दोस्ती बताया.

जिन सेलिब्रिटी किचन में आज दिलीप आराम से घूमते हैं, वहां उन्हें अक्सर घर जैसी आवाज़ें मिल जाती हैं. सोनाली बेंद्रे के घर में कुक लक्ष्मण, जो मधुबनी के अरेर गांव से हैं, उन्हें मैथिली में मिलते हैं और कैमरा किचन के मार्बल काउंटरटॉप्स की तरफ मुड़े, उससे पहले दोनों गांव की बातें कर लेते हैं. यह पैटर्न हर जगह दोहराता है.

इन घरों में काम करने वाले ज़्यादातर कुक और घरेलू कर्मचारी उसी माइग्रेशन बेल्ट से आते हैं, दरभंगा, मधुबनी, सीतामढ़ी, नेपाल बॉर्डर के गांव. उनके बीच अपनापन तुरंत झलक उठता है, मातृभाषा-बोली में दो बातें, एक हल्की सी मुस्कान, शहर को संभालने वाले मज़दूरों की पहचान भर, इससे पहले कि मालिक का अगला मज़ाक उन पर आ जाए.

लेकिन गांव के मल्लाह टोला में, जहां ज़्यादातर घर टिन की छत वाले हैं और इतने पास-पास बने कि दो लोग मुश्किल से साथ गुज़र सकें, फराह के दिलीप पर किए मज़ाक सिर्फ मनोरंजन की तरह लगते हैं.

मल्लाह टोला में दिलीप के घर तक जाने वाली तंग गली | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
मल्लाह टोला में दिलीप के घर तक जाने वाली तंग गली | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

गांव में सेलिब्रिटी बनकर लौटे

दिलीप के अधूरे बने घर में, भूसे के ढेर के पास ज़मीन पर बैठी कुछ महिलाएं बातें कर रही हैं.

कुछ ने फूलों वाले पॉलिएस्टर के साड़ी पहन रखी हैं, कुछ ने साधारण कॉटन, लेकिन एक बात सबमें कॉमन है, वे सब दिलीप की फैन हैं.

उनकी एक भाभी प्रमिला देवी ने कहा, “देवर जी के देखे से हंसी लागे रहै (देवर को देखते ही हंसी आ जाती है).”

अनीता देवी और जीविका समूह की महिलाएं, जो राज्य की महिलाओं पर आधारित प्रमुख योजना का हिस्सा हैं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
अनीता देवी और जीविका समूह की महिलाएं, जो राज्य की महिलाओं पर आधारित प्रमुख योजना का हिस्सा हैं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

वे हंसते हुए एक वीडियो की लाइन याद करती हैं.

प्रमिला देवी ने ठंहाका लगाते हुए कहा, “मैडम जी पूछली कि चाय बनाता है दिलीप? तो बोललन, हाँ, हम पी लिहले रही (मैडम ने पूछा दिलीप ने चाय बनाई? दिलीप ने कहा, हां, मैंने पी ली).” बाकी महिलाएं, कई उनकी भाभियां, कुछ जीविका समूह की पड़ोसनें, भी हंसी में शामिल हो गईं.

“शूट”, “व्यूज़”, “मिलियन”, और “बॉलीवुड” जैसे शब्द अब यहां आम हैं. यहां तक कि उन महिलाओं में भी, जो कभी ज़िला छोड़कर बाहर नहीं गईं.

एक अलग तरह की प्रवासी कहानी

दिलीप की अपनी यात्रा उन लाखों लोगों जैसी ही है जो हर साल उत्तर बिहार से बाहर जाते हैं.

फोन पर उन्होंने बताया, “ट्रेन टिकट और खाने पर 50 रुपये खर्च किए थे. बाकी के 200 रुपये मनी ऑर्डर से घर भेज दिए थे.” उनके पिता दूसरों के खेतों में मजदूरी करते थे और मां पांच बच्चों को पाल रही थीं.

दिलीप ने कहा, “मुझे ये ज़िंदगी देखी नहीं जाती थी, तो जब मैं दिल्ली में कमाने लगा, मैंने उनके लिए बैल और हल खरीद दिया, लेकिन वो फिर भी काम करते रहे, उन्हें वही ज़िंदगी आती थी.”

दिल्ली के शाहदरा और राजौरी गार्डन में उन्होंने 10 साल बिताए, झाड़ू लगाना, पोंछा करना, सब्ज़ी काटना, खाना बनाना. तब तनख्वाह 300 रुपये महीना मिलती थी, जिसे वो पूरा घर भेज देते थे.

दिलीप के 80 वर्ष से ज्यादा उम्र के पिता, पक्के घर के अंदर खड़े हुए, वही घर जो उनके बेटे ने बनवाया. धनश्वर मुखिया ने पूरी ज़िंदगी दूसरों के खेतों में मेहनत की | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
दिलीप के 80 वर्ष से ज्यादा उम्र के पिता, पक्के घर के अंदर खड़े हुए, वही घर जो उनके बेटे ने बनवाया. धनश्वर मुखिया ने पूरी ज़िंदगी दूसरों के खेतों में मेहनत की | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

उन्होंने याद किया, “तब कोई आईडी नहीं मांगता था. जो भी यूपी-बिहार से आता, उसे काम मिल जाता.” नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के बाहर मारुति 800 खड़ी दिखना आम बात थी, शहर के अमीर लोग इन्हें भेजकर नए आए प्रवासियों को लेकर जाते थे. एजेंसियां तब नहीं थीं.

तीन अलग-अलग प्रवासी ज़िंदगियां, गांव, दिल्ली और फिर मुंबई, जीने के बावजूद, दिलीप को उन सालों की बहुत कम यादें हैं, जो उन्हें गढ़ती रहीं. अब उनकी ज़िंदगी इंटरनेट की रफ्तार से चलती है, जैसे 5X स्पीड पर. फोन पर बात करते समय वे कई बार रुककर लोगों के नाम या बीती मुश्किलें याद करने की कोशिश करते.

गांव में, जैसे पूरे ग्रामीण बिहार में, माइग्रेशन एक व्यवस्था बन चुका है. लगभग हर घर का पुरुष बाहर कमाने जाता है. दिलीप के मोहल्ले में ज्यादातर पुरुष पंजाब के खेतों या गुजरात के कपड़ा मिलों में 10-15 हज़ार रुपये महीने में काम करते हैं. कुछ मुंबई और दिल्ली जाते हैं. मल्लाह परिवार अब मछली पकड़ने का अपना पारंपरिक काम छोड़ रहे हैं क्योंकि खर्चे बढ़ गए और काम अब टिकाऊ नहीं रहा. गांव की महिलाएं खेतों में 150-200 रुपये रोज कमाती हैं और बच्चे पढ़ाई से ज्यादा बाहर कमाने का सपना देखते हैं.

दिलीप ने भी यही रास्ता अपनाया, जब तक कि अचानक उनकी ज़िंदगी बदल न गई.

मुंबई: किस्मत से

दिल्ली में सात-आठ साल बिताने के बाद, बिना किसी योजना के वे मुंबई आ गए. कई अमीर घरों में खाना बनाया. कभी नौकरी चली गई, कभी खुद छोड़ दी. दिल्ली में उन्होंने ड्राइविंग भी सीख ली थी, “अगर कभी खाना बनाने का काम नहीं चला तो” बैकअप के तौर पर.

फिर आया वो मौका. फराह खान की एक दोस्त, जिनका बॉलीवुड से कोई लेना-देना नहीं था, उन्होंने दिलीप को काम के लिए फराह खान को रेफर किया क्योंकि घर में एक अतिरिक्त कमरा था. दिलीप हमेशा से रहने के लिए अलग कमरा चाहते थे, मुंबई में लंबा सफर और महंगा किराया उन्हें पसंद नहीं था. फराह के घर 20,000 रुपये तनख्वाह पर उन्होंने काम शुरू किया. 13 साल बाद भी दिलीप उसी किचन में हैं.

उन्हें पता नहीं था कि फराह खान यूट्यूब चैनल शुरू करने वाली हैं. उन्होंने बस ऐसे ही पूछा कि वीडियो में आओगे? दिलीप ने हां कह दिया. उन्हें क्या पता था कि एक छोटा सा कैमियो उनकी ज़िंदगी बदल देगा.

घर जो दूर से ही अलग दिखता है

शोहरत आने से काफी पहले दिलीप ने अपने परिवार के लिए पक्का घर बनवाना शुरू कर दिया था.

जहां पहले घास-फूस और प्लास्टिक शीट का झोपड़ा था, वहां अब बिना प्लास्टर वाला तीन मंज़िला ईंटों का घर है. खिड़कियों पर पुराने साड़ी के पर्दे लटकते हैं. दूसरी मंज़िल पर बकरियां बंधी हैं.

उन्होंने हंसते हुए कहा, “अगर मैं फराह मैम को बुलाऊं तो कहां ठहरेंगी?”

घर बनाने में करीब 3 लाख रुपये लगे, कुछ उन्होंने उधार लिए, कुछ सालों में जोड़कर रखे थे. पूरा परिवार साथ रहता है. भतीजी की शादी का सारा खर्च भी दिलीप ने उठाया.

घर में कोई बचपन की तस्वीर नहीं, न कोई पुराना सामान, कुछ भी नहीं जो बताए कि दिलीप कौन थे माइग्रेशन से पहले. यह उन बॉलीवुड के घरों से बिल्कुल उलट है जहां वे अब शूट करते हैं, जहां दीवारों पर परिवार की फोटो और इतिहास सजा रहता है.

दिलीप के तीन मंज़िला घर से दिखते प्लास्टिक-छप्पर वाले पड़ोस के घर | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
दिलीप के तीन मंज़िला घर से दिखते प्लास्टिक-छप्पर वाले पड़ोस के घर | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

मल्लाह टोला में, जहां ज़्यादातर लोग मिट्टी के घरों में रहते हैं, दिलीप का घर दूर से ही अलग दिखाई देता है. टोला से बाहर, हालांकि, सबको इससे क्या, एक राजपूत बुजुर्ग बस साइकिल चलाते हुए बोले, “अच्छा है उसके लिए.”

लेकिन उनके मोहल्ले में, दिलीप के वीडियो रोज़मर्रा का हिस्सा बन गए हैं.

उन्होंने गांव में मिले मिले-जुले रिएक्शनों पर बस इतना कहा, “देखिए, मुझे बुरा नहीं लग सकता.”

जहां बाकी पुरुष बड़े शहरों से वही पुराने, थके हुए आदमी बनकर लौटते हैं, दिलीप इस बार अपने साथ एक कैमरामैन लेकर लौटे, जो उनका हर कदम रिकॉर्ड कर रहा था.

प्रवासन

पैसे की कमी की वजह से दिलीप को पढ़ाई छोड़नी पड़ी थी. पांच रुपये की कॉपी पूरे साल चलानी होती थी; एक पेन पचास पैसे का आता था.

वे बताते हैं, “क्लास चार तक तो मैंने कभी किताब नहीं खरीदी. पहली बार किताबें क्लास पांच में खरीदी थीं, वो भी सेकंड-हैंड. उन्हीं से जैसे-तैसे पांचवीं पास की.”

लेकिन वे चाहते थे कि उनके बेटे वह मौका पाएं जो उन्हें कभी नहीं मिला. पिछले साल उन्होंने अपने छोटे दो बेटों को इंग्लिश मीडियम स्कूल में दाखिल कराया. फीस 1,400 रुपये थी, 800 ट्यूशन और 600 मिनीवैन ‘मैजिक’ से आने-जाने के.

दिलीप ने कहा, “पढ़ाई नहीं होगी तो सपना कैसे होगा.”

सरकारी स्कूल जहां दिलीप पढ़ते थे. पांचवीं के बाद यही स्कूल छोड़कर वे प्रवासी मजदूर बन गए | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
सरकारी स्कूल जहां दिलीप पढ़ते थे. पांचवीं के बाद यही स्कूल छोड़कर वे प्रवासी मजदूर बन गए | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

लेकिन उनका बड़ा बेटा, 18 साल का चंदन, क्लास 10 के बाद ही स्कूल छोड़ चुका है और अब मुंबई में दिलीप के साथ ही काम कर रहा है. फराह ने उनके छह महीने के कुकिंग डिप्लोमा की मदद की, करीब 2.5 लाख रुपये. दूसरा बेटा गणेश भी पढ़ाई छोड़ चुका है.

सबसे छोटा बेटा 8 साल का है और अभी किंडरगार्टन में पढ़ता है. उनकी मां खुश होकर बताती हैं कि वह अंग्रेज़ी की A-Z पूरी सुना देता है.

ड्रॉपआउट होना बहुत आम बात है. बिहार की सेकेंडरी स्कूल ड्रॉपआउट दर 20.86% है, जो पूरे देश में सबसे ज़्यादा है. कई लड़कों के लिए दिलीप की तरह प्रवासन, पैसा और खुद कमाने की आज़ादी, पढ़ाई के लंबे वादों से कहीं ज़्यादा पास और सच्ची लगती है.

8-साल का महेश मुखिया, सबसे छोटा बेटा, प्राइवेट स्कूल में पढ़ता है. 2024 में UKG में दाखिला हुआ. फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
8-साल का महेश मुखिया, सबसे छोटा बेटा, प्राइवेट स्कूल में पढ़ता है. 2024 में UKG में दाखिला हुआ. फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

अनीता और मुंबई की दूरी

दिलीप की पत्नी अनीता कभी मुंबई नहीं गई, यहां तक कि पटना भी नहीं. उन्हें इतना मोशन सिकनेस है कि मायके तक 5 किमी की यात्रा भी उन्हें उल्टी करा देती है.

दिलीप ने कहा, “इसे सिटी ले जाना मुश्किल है. ये तो घर की रानी है, घर पर ही रहेगी.”

नीली साड़ी में अनीता देवी और मोहल्ले की दूसरी महिलाएं दिलीप के घर की छत पर बैठकर उनके नए वीडियो देखती हुईं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट
नीली साड़ी में अनीता देवी और मोहल्ले की दूसरी महिलाएं दिलीप के घर की छत पर बैठकर उनके नए वीडियो देखती हुईं | फोटो: ज्योति यादव/दिप्रिंट

अनीता के सपने बहुत छोटे-साधारण हैं, एक सही बाथरूम, शायद कभी टाइल्स लग जाएं और उम्मीद कि बड़ा बेटा शादी करे तो फराह खान उसमें आएं.

अभी उनका बाथरूम बस एक अस्थायी ढांचा है, न दरवाज़ा, न खिड़की और फर्श मिट्टी की.

लेकिन अनीता मुस्कुराकर कहती हैं, “छत तो है.” दिलीप थोड़ा और पैसा जोड़ लेंगे तो बाथरूम ठीक कर देंगे.

फिलहाल अनीता सिर्फ अपने छोटे से खेत में काम करती हैं, दूसरों के खेत में नहीं.

वायरल, लेकिन अमीर नहीं

दिलीप को पता है कि लोग उनकी कमाई को लेकर अलग-अलग बातें कर रहे हैं. इस पर उनका साफ जवाब है कि अगर वे लाखों कमा रहे होते, तो उनका घर अभी तक कच्चा-अधूरा नहीं होता.

फिर हल्की हंसी के साथ कहते हैं, “जो है, उसी में तो खुश हैं हम.”

वे उम्मीद करते हैं कि कभी वह दिन आएगा जब वे वाकई इतना कमा पाएंगे, जैसा सोशल मीडिया की चर्चाओं में कहा जाता है.

फिलहाल दिलीप बस इस चमक, इस प्यार और बिहारियों की तालियों का मज़ा ले रहे हैं, जो उन्हें देखकर अपने जैसा महसूस करते हैं, लेकिन उन्हें भी पता है कि इंटरनेट का भरोसा नहीं, अल्गोरिद्म कभी भी पलट सकता है.

पर मल्लाह टोला के लोग मान चुके हैं कि दिलीप ने कुछ नया कर दिखाया है, एक संभावना, एक रास्ता, एक कहानी जिसे सुनाया जा सकता है.

अभी के लिए दिलीप का ध्यान एक और चीज़ पर है, दरभंगा के उस एजेंट को ढूंढना, जिसने एक बार LIC की इंस्टॉलमेंट के नाम पर उनसे 25,000 रुपये ले लिए थे.

दिलीप ने कहा, “सुना है उसने अपनी बेटी की शादी में मेरा पैसा उड़ा दिया. ढूंढेंगे उसे…शायद पैसा मिल जाए.”

(इस ग्राउंड रिपोर्ट को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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