जगदीश कुन्ते बेलगावी के एक मराठी अखबार ‘तरुण भारत’ में काम किया करते थे. फिलहाल वह एक रिटायर्ड कार्टूनिस्ट हैं. उनकी ज्यादातर रचनाएं बाल ठाकरे से प्रेरित होती हैं. बेलगावी कर्नाटक का वह इलाका है, जो लंबे समय से महाराष्ट्र में शामिल होने की मांग कर रहा है. वैसे तो यह एक असहज करने वाला मसला है लेकिन कुन्ते के लिए इसके अलग मायने हैं.
कुन्ते ने नौजवान लड़कों की तरह खिलखिलाते हुए कहा, ‘मैं एक मराठी लड़का हूं और मेरी पत्नी कर्नाटक के अंदरूनी हिस्से हावेरी से आती है. उसने कन्नड़ भाषा में पढ़ाई की है, लेकिन वह दोनों भाषाएं बोल सकती है. यहां ऐसी कई शादियां होती आईं हैं.’
वहां से कुछ किलोमीटर पूर्व में एक जाने-माने नाटककार, कलाकार और लेखक डीएस चौगले का घर है. वह मराठी और कन्नड़ दोनों भाषाओं में तख्तियों से सजे अपने हॉल में बैठे हैं. वह जिस सहजता से दोनों भाषाओं में बातचीत करते हैं, इससे उनकी मातृभाषा का पता लगा पाना मुश्किल है. दोनों संस्कृतियों में समानता बताते हुए वह कन्नड़ और मराठी में अपनी बात रखते हैं. अपने जवानी के दिनों को याद करते हुए उन्होंने बताया, ‘मेरी मां सिर्फ कन्नड़ में बात करती थीं, लेकिन उनके सभी दोस्त मराठी थे. वे एक-दूसरे की भाषा नहीं बोलते थे, लेकिन एक-दूसरे को समझते थे.’
कर्नाटक के बेलगावी और उसके सीमावर्ती गांवों के हलचल भरे शहर में ऐसी सौ कहानियां मिल जाएंगी जो मराठी और कन्नड़ की मिली-जुली संस्कृतियों के इतिहास की गवाह है, जो एक हज़ार वर्षों से भी अधिक पुरानी है. इन हिस्सों में लोगों ने बड़ी ही आसानी से दोनों संस्कृतियों को अपनाया है. नाक की नथ हो या साड़ी पहनने की शैली, या गांधी टोपी, ‘तमाशा’ (मराठी थिएटर) के लिए प्यार या फिर सावजी भोजन. सब कुछ उन्हें पसंद है. इस हाइब्रिड कल्चर की और भी बहुत समानताएं हैं, जो कर्नाटक के दक्षिणी जिलों की तुलना में महाराष्ट्र के साथ ज्यादा जुड़ी हुई हैं.
1956 में राज्यों के पुनर्गठन के बाद से इनमें से कईं गांवों ने महाराष्ट्र में शामिल किए जाने की मांगों को बनाए रखा. उनका तर्क है कि यहां मराठी बोलने वालों की संख्या कन्नड़ बोलने वालों से अधिक है.
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‘कन्नड़ आई, मराठी मौसी’
आप भाखरी का ऑर्डर करें, आपको जोलड़ा रोटी मिलेगी. आप इसे पूरन पोली कहें या हर्नड होलीगे, यह इस बात पर निर्भर है कि आप किस घर में रहते हैं, लेकिन पकवान का स्वाद मीठा ही होगा. यकीनन, पर्यटकों के लिए यहां का सबसे लोकप्रिय व्यंजन साओजी खानावली (सावजी) है. इस एक ही खाने में इतने मसाले होते हैं कि कई लोगों ने तो इतने मसालों का स्वाद पूरे जीवन में नहीं चखा होता और खाने की कटोरी में ऊपर तैरता तेल इसकी खासियत है. यह महाराष्ट्र के एक छोटे से समुदाय के साथ यहां पहुंचा था.
बेलगावी से लगभग 30 किलोमीटर दूर खानापुर के एक पूर्व लाइब्रेरियन शिवानंद हिरेमथ कहते हैं, ‘दोनों पक्षों ने खाने की आदतों को साझा किया है और यह उनके मुख्य आहार का हिस्सा है, भले ही इसे अलग-अलग नामों से जाना जाता हो.’
बेलगावी के खासबाग में क्षत्रिय सावजी होटल में विष्णु सुभाष लटकन और उनके भाई फुर्सत मिलने पर ग्राहकों को कन्नड़, हिंदी या मराठी में हर खाने के बारे में बताते हैं. लटकन ने कहा, ‘मोदल लाल करी थिन्नी मठ हरी करी. इलांद्रा माजा बरुदिल री (पहले लाल करी खाएं और फिर हरी करी खाएं या आप इसे खाना नहीं चाहेंगे.’ दरअसल लटकन कन्नड़, मराठी, अंग्रेजी और हिंदी को छोटे-छोटे शब्दों से मिक्स थाली को खाने का सही तरीका बता रहे थे.
कुन्ते ने बताया कि सीमा के पास के इलाकों में, यहां तक कि कन्नड़ भाषी भी मराठी के इन मिले-जुले शब्दों का इस्तेमाल करते हैं, जैसे ‘डेढ़’, ‘आदि’, ‘पौने’. यह उनकी आदत में शुमार हो गया है क्योंकि सभी खाते पहले सिर्फ मराठी में बनाए जाते थे. शोभा शिवप्रसाद नायक ने ‘ए रिफ्लेक्शन ऑन दि कल्चर सिंथेसिस ऑफ कर्नाटका-महाराष्ट्रा बॉर्डर रिजन’ नामक अपने शोध पत्र में इसे सीमा संस्कृति कहा है. यह मिली-जुली संस्कृति समय के साथ अपने आप में जीवन में समाती चली गई और जीने का एक तरीका बन गई. हिरेमथ कहते हैं, ‘कन्नड़ आई, मराठी मौसी (कन्नड़ मां है, मराठी उसकी बहन है).’
महाराष्ट्र के सांगली के जठ तालुका में मूल कन्नड़ भाषी धाराप्रवाह मराठी बोलते हैं, लेकिन वे बेहतर शिक्षा और रोज़गार के अवसरों के लिए कर्नाटक में शामिल होने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. कन्नईगाओं और मराठियों के बीच ये संघर्ष काफी समय से चला आ रहा है. कर्नाटक के येल्लुरू में जो लोग महाराष्ट्र में शामिल होना चाहते हैं वे भाषाई कारणों से ऐसा कर रहे हैं. उन्होंने इस क्षेत्र की राजनीति और तर्क को आकार दिया है.
कुन्ते कहते हैं, ‘लगभग 30-40 साल तक एक प्रथा थी. यहां मराठी घरों के लड़कों को कन्नड़ में पढ़ाया जाता था और सभी लड़कियों को मराठी शिक्षा मिलती थी. लड़कियों को मराठी में शिक्षा देने का कारण उनकी शादी महाराष्ट्र में किसी परिवार किए जाने से जुड़ी थी.’
उनका कहना है, लेकिन अब बच्चों को इंग्लिश मीडियम स्कूलों में पढ़ाने का चलन बढ़ गया है. इससे कन्नड़ और मराठी दोनों शिक्षा में गिरावट आई है.
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‘कला सिर्फ अच्छाई लेती है’
यहां एक कहानी काफी प्रचलित है. डेढ़ सदी पहले विष्णुदास भावे नामक एक युवा कलाकार श्रीमंत राव पटवर्धन के साथ ‘कार्की मेला’ की एक परफॉर्मेंस को देखने के लिए गए थे. यहां ट्रुप यक्षगान के रूप में जानी जाने वाली लोक कला का प्रदर्शन किया करता था. यक्षगान संगीतमय कहानी कहने का एक पारंपरिक ढंग है. इसकी शुरुआत कर्नाटक के तटीय जिलों से हुई थी. माना जाता है कि तत्कालीन बंबई प्रेसीडेंसी के दक्षिणी जिले सांगली में आंखों को लुभाने वाले चेहरे के रंग और संगीतमय कहानी सुनाने के ढंग ने दोनों पर काफी असर डाला था.
एक कहानी ये भी है कि वे इसे बीच में ही छोड़कर चले गए क्योंकि यह बहुत ओबद-धोबद था, मराठी भाषा में इसके मतलब बेहद साधारण और अकुशल हैं. एक दूसरी कहानी है कि उन्होंने प्रदर्शन को देखा और वापस चलते समय पटवर्धन ने भावे से पूछा कि क्या वह समान तर्ज पर नाटक लिख सकते?
1843 में जल्द ही भावे ने सीता स्वयंवर लिखा, जिसे आधुनिक मराठी रंगमंच का जन्म माना जाता है. तब से यह विश्व स्तर पर दृश्य कला के सबसे पसंदीदा रूपों में से एक बन गया है. भावे को इस कला को आगे लाने वाली शख्सियत के तौर पर जाना जाता है.
चौगले कहते हैं कि भावे के नाटक आज भी कर्नाटक और महाराष्ट्र में दर्शकों का मनोरंजन करते हैं.
चौगले कई कहानियां कहने वाले व्यक्ति हैं. जब वह मराठी और कन्नड़ रंगमंच के बारे में बात करते हैं तो उनकी आंखें चमक उठती हैं क्योंकि उनका डॉक्टरेट शोध कला के इन विशिष्ट रूपों पर एक तुलनात्मक अध्ययन था.
उन्होंने कहा, ‘कला हमेशा से किसी भी चीज की एक अच्छाई को ही पकड़ती है.’
मराठी संगीत नाटक के जनक अन्ना साहेब किर्लोस्कर बेलगावी के गुरल होसूर में पैदा हुए थे और इन हिस्सों के साथ-साथ उत्तरी राज्यों में भी एक प्रसिद्ध हस्ती हैं.
चौगले ने बताया, किर्लोस्कर कृष्ण पारिजात नाटक के बहुत बड़े प्रशंसक थे और उन्होंने कई बार इसे फिर से बनाने का प्रयास किया था. इसके बाद उन्होंने संगीता शकुंतला और संगीता सौभद्र लिखा.
सांस्कृतिक आदान-प्रदान सिर्फ मराठी तक ही सीमित नहीं है. यह पारसी तक फैला हुआ है. चौगले का कहना है कि ऐसी कई संस्कृतियां हैं जिन्होंने कन्नड़ में नाटकों को प्रभावित किया. बेलगावी में गोकक की सिद्धेश्वर नाटक मंडली जैसे समूह अक्सर प्रदर्शन करने और पारसी थिएटर के मजबूत प्रभावों को वापस लाने के लिए पुराने समय के बॉम्बे की यात्रा किया करते थे.
उनका कहना है कि ‘तालुका’ और ‘जिला’ शब्द दोनों पारसी हैं और अब आधिकारिक कन्नड़ रिकॉर्ड का हिस्सा हैं.
इतिहासकार सरजू काटकर के अनुसार, सबसे पुराना मराठी शिलालेख या शिला शासना कर्नाटक के श्रवणबेलगोला में पाया गया था, जो गोमतेश्वर की मूर्ति के लिए भी प्रसिद्ध है. गोमतेश्वर बाहुबली की दुनिया की सबसे बड़ी अखंड मूर्ति है.
उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा था, ‘बाहुबली की मूर्ति के चरणों में एक शिलालेख है- श्री चावुंदाराजे करवीयाले’ और ‘गंगाराजे सुत्तले करवीयाले’. माना जाता है कि ये अब तक मिले सबसे पुराने मराठी शिलालेख हैं. चावुंडराय (भारतीय वास्तुकार) का संबंध 9वीं शताब्दी सीई से है. इसलिए हो सकता है कि तब तक मराठी अस्तित्व में आ गई होगी.’
चौगले कहते हैं, यहां तक कि 12वीं सदी के समाज सुधारक बसवन्ना के वचनों में भी मराठी और मराठी संत तुकाराम और संत ज्ञानेश्वर की शिक्षाओं में कन्नड़ का जिक्र है.
लेकिन अब, जब राजनीति ने इसमें दखलंदाजी कर दी है तो इन समानताओं को एक बहुत ही अलग तरह और संदर्भ में बतौर ‘तमाशा’ देखा जाता है. विवाद करीब सात दशक पुराना है. लेकिन दो संस्कृतियों का ये मिलाप इससे काफी ज्यादा पुराना है.
(अनुवादः संघप्रिया | संपादनः फाल्गुनी शर्मा)
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