अयोध्या: मई की धधकती गर्मी में, सोहराब खान एक खाली जमीन के बीच में खड़े थे. वह मस्जिद ट्रस्ट के सदस्य के माध्यम से अयोध्या के जिलाधिकारी तक बात पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे. वह जमीन पर लगे दो बिजली के खंभों को लेकर डरे हुए थे.
दूसरे ग्रामीण भले इस पर खुशी मनाते लेकिन गिराई गई बाबरी मस्जिद की जगह नई मस्जिद बनाने के लिए मुसलमानों को आवंटित की गई जमीन पर ये बिजली के खंभे किसी नई मुसीबत से कम नहीं थी.
इसकी सूचना डीएम तक पहुंच गई और अधिकारी हरकत में आ गए. 9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक अयोध्या फैसले के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को मस्जिद बनाने के लिए दिए गए 5 एकड़ के भूखंड से दो घंटे के भीतर बिजली के खंभे हटा दिए गए.
जब तक अयोध्या मस्जिद नहीं बन जाती, तब तक सब फूंक फूंक कर कदम रख रहे हैं.
लेकिन सरकार से जमीन मिले तीन साल से अधिक का समय बीत चुका है और अयोध्या में राम जन्मभूमि से करीब 25 किमी दूर लखनऊ-अयोध्या हाईवे पर स्थित धन्नीपुर गांव में मस्जिद के लिए एक भी ईंट नहीं गड़ पाई है.
जबकि राम मंदिर का निर्माण 50 प्रतिशत से अधिक हो चुका है. मंदिर निर्माण के लिए पूरे भारत से पैसा आ रहा है. मंदिर निर्माण पूरा करने की समय सीमा जनवरी 2024 में समाप्त हो रही है, जबकि मस्जिद सरकार और प्रशासनिक बाधाओं के जाल में फंसी हुई है.
मस्जिद प्रोजेक्ट के लिए बनाए गए ट्रस्ट इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन (आईआईसीएफ) के एक सदस्य ने कहा, “प्रधानमंत्री से लेकर सीएम तक ने राम मंदिर स्थल का दौरा किया लेकिन कोई भी मस्जिद की जमीन देखने तक नहीं आया.”
उन्होंने कहा, “जैसे सरकार राम मंदिर के लिए काम करवा रही है, वैसे ही मस्जिद के लिए भी किया जाना चाहिए. स्थानीय प्रशासन के हाथ में बहुत कुछ नहीं है.”
मस्जिद की योजना और डिजाइन बनकर तैयार है. सबकुछ स्टैंडबाय पर है और मुस्लिम समुदाय राम जन्मभूमि मंदिर निर्माण पर लंबे समय से नजर रखे हुए है. लेकिन अयोध्या मस्जिद की कहानी देरी, निराशा और संदेहों में भरी हुई है.
पिछले तीन वर्षों में, मस्जिद ट्रस्ट एनओसी राज के लालफीताशाही के खिलाफ एक कठिन लड़ाई लड़ रहा है. वे फायर, प्रदूषण और भूमि उपयोग के लिए अधिकारियों से अनापत्ति प्रमाण पत्र (एनओसी) पाने के लिए अभी तक संघर्ष कर रहे हैं.
फिर भी, यह अभी भी खत्म नहीं हुआ है.
कई बड़ी चुनौतियां आगे हैं. अयोध्या विकास प्राधिकरण ने मस्जिद का अंतिम नक्शा अभी तक फाइनल नहीं किया है. साथ ही मस्जिद निर्माण के लिए ट्रस्ट को अभी पैसे भी जुटाने है. अब तक ट्रस्ट ने कुल 50 लाख रुपए ही जुटाए हैं.
पूरी परियोजना पर 300 करोड़ रुपये खर्च होने का अनुमान है और इसमें न केवल मस्जिद बल्कि एक अस्पताल, सामुदायिक रसोई और अनुसंधान केंद्र भी शामिल है. आईआईसीएफ के सचिव और ट्रस्टी अतहर हुसैन ने कहा कि सिर्फ मस्जिद के निर्माण में लगभग 5-7 करोड़ रुपये लगेंगे.
मस्जिद की जमीन की देखभाल के लिए ट्रस्ट द्वारा नियुक्त सोहराब खान ने कहा, “फीस का मुद्दा अभी भी लंबित है और नक्शा स्वीकृत होने के बाद ही निर्माण कार्य शुरू होगा.”
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‘सुलह एक दिन में नहीं होगी’
9 नवंबर 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में केंद्र या राज्य सरकार को अयोध्या में किसी “प्रमुख स्थान” पर मस्जिद निर्माण के लिए 5 एकड़ जमीन देने को कहा था.
फैसले के तीन महीने के भीतर, उत्तर प्रदेश सरकार ने धन्नीपुर में सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड को जमीन आवंटित करने की घोषणा की. एक महीने बाद, मार्च 2020 में, बोर्ड ने इंडो इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन नामक एक ट्रस्ट का गठन किया.
दिसंबर 2020 में, ट्रस्ट ने एक मस्जिद परिसर के लिए अपनी महत्वाकांक्षी योजना पेश की लेकिन इसे जमीन पर उतारना मुश्किल हो गया है.
मस्जिद ट्रस्ट का कार्यालय लखनऊ के अशोक सिंघल चौराहा पर स्थित है. इस चौराहे का नाम विश्व हिंदू परिषद के दिवंगत नेता के नाम पर रखा गया है, जो राम मंदिर आंदोलन के सबसे प्रमुख चेहरों में से एक थे.
अयोध्या मस्जिद ट्रस्ट
यह कार्यालय लखनऊ के बर्लिंगटन स्क्वायर नाम की एक इमारत की चौथी मंजिल पर एक कमरे से चलता है. इस इमारत के ठीक सामने अशोक सिंघल के नाम वाला साइनबोर्ड लगा है. हालांकि, बहुत कम ही लोग दोनों चीज़ों को जोड़कर देखते हैं.
इस कमरे में बैठे ट्रस्ट के सचिव अतहर हुसैन ने पुष्टि की कि अयोध्या विकास प्राधिकरण (एडीए) ने मार्च में भूमि उपयोग की मंजूरी दी थी लेकिन विकास शुल्क एक बड़ी बाधा बन गया है.
उन्होंने कहा कि अगर सरकार विकास शुल्क से छूट नहीं देती है, तो ट्रस्ट केवल मस्जिद के लिए एक नया डिजाइन प्रस्तुत करेगा, न कि प्रस्तावित परिसर में अन्य इमारतों की.
उन्होंने कहा, “अभी तक केवल 50 लाख रुपए ही जमा हो सके हैं. हम सरकार से विकास शुल्क माफ करने की मांग कर रहे हैं, जिसका अनुमान कुछ करोड़ रुपये तक है. अगर ऐसा नहीं होता है तो पहले हम मस्जिद बनाएंगे. उसके बाद हम एडीए को अस्पताल और अन्य इमारतों का डिजाइन फिर से सौंपेंगे.”
दूसरी समस्या यह है कि नई अयोध्या मस्जिद के लिए आवंटित भूमि मुख्य शहर से 25 किमी से अधिक दूर है. और वहां पहले से ही कई अन्य कार्यशील मस्जिदें हैं.
राम मंदिर-बाबरी मस्जिद मामले में मुद्दई रहे इकबाल अंसारी ने कहा, “जहां जमीन दी गई है, वहां मस्जिद की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि वहां पहले से ही कई मस्जिदें हैं. मस्जिद नुमाइश के लिए नहीं बल्कि इबादत के लिए बनाई जाती है. ट्रस्ट की मंशा साफ नहीं रही है, इसलिए आज तक उनका नक्शा भी पास नहीं हो पाया है.”
इकबाल अंसारी ने कहा कि मस्जिद के लिए दी गई जमीन का इस्तेमाल पहले खेती के लिए किया जाता था और इसके मूल उद्देश्य में बदलाव नहीं किया जाना चाहिए.
उन्होंने कहा, “वहां खेती होनी चाहिए. फसल को हिंदुओं और मुसलमानों में बांटा जाना चाहिए ताकि पूरी दुनिया में यह संदेश जाए कि सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद मस्जिद के लिए दी गई जमीन का इस्तेमाल गरीबों के कल्याण के लिए किया जा रहा है.”
लेकिन जमीन, फीस, एनओसी और लंबी देरी के सभी मुद्दों को एक तरफ रखते हुए, यहां के कई मुसलमानों का कहना है कि मस्जिद बनाने का प्रयास शहर को फिर से एक फ्लैशपॉइंट और राष्ट्रीय सुर्खियों का विषय नहीं बनाना चाहिए.
उन्होंने कहा, “अयोध्या में हिंदू-मुस्लिम संबंध कभी खराब नहीं हुए. 1992 में जो स्थिति बनी वह बाहर के लोगों के कारण बनी थी. सभी को यह समझना होगा कि धर्म से किसी का भला नहीं हुआ है.”
हालांकि, हुसैन ने कहा कि भूमि को स्वीकार करना सुलह की दिशा में उठाया गया प्रयास था.
उन्होंने कहा, “2019 के फैसले के बाद कुछ सामाजिक और राजनीतिक मुस्लिम नेताओं और मौलानाओं ने मस्जिद के लिए दी गई जमीन का विरोध किया लेकिन हमने इसे खुले दिल से स्वीकार किया.”
हुसैन ने कहा, “सुलह एक सतत प्रक्रिया होती है. यह एक दिन में नहीं होगा. यह मामला 150 साल से चल रहा था. आपसी विश्वास बहाल करने में समय लगेगा.”
2011 की जनगणना के अनुसार, अयोध्या शहर में 84.75 प्रतिशत हिंदू और 14.80 प्रतिशत मुस्लिम हैं. 2018 में, योगी आदित्यनाथ सरकार ने फैजाबाद जिले का नाम बदलकर अयोध्या कर दिया था.
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चार बोर्ड, एक मकबरा और एक कटहल का पेड़
जिस जगह मस्जिद के लिए जमीन आवंटित की गई है वहां कभी गेहूं और चावल की फसलें लहलहाती थीं. यह जमीन कभी राज्य के कृषि विभाग के अधिकार क्षेत्र में था.
2020 में भूमि अधिग्रहण के बाद से, यहां खेती बंद हो गई है. अब केवल कुछ सिंचाई नालियां बताती है कि जमीन पर पहले खेती होती थी.
अयोध्या की सोहावल तहसील में धन्नीपुर और रौनाही गांव के बीच ही ये जमीन है और ट्रस्ट द्वारा लगाए गए बोर्ड इस जमीन की तस्दीक करते हैं.
26 जनवरी 2021 को ट्रस्ट द्वारा कुछ पौधे लगाने जैसे प्रतीकात्मक कार्यों के बावजूद, पिछले 3.5 वर्षों में मस्जिद निर्माण को लेकर कुछ काम नहीं हो पाया है.
अयोध्या मस्जिद भूमि
इंडो-इस्लामिक कल्चरल फाउंडेशन ने अभी तक पूरी तरह से जमीन को चारों ओर से बाड़ से नहीं घेरा है. आसपास के क्षेत्र में केवल चार ट्रस्ट के बोर्ड लगे देखे जा सकते हैं. इनमें से एक पर किसी घुड़दौड़ प्रतियोगिता का पोस्टर लगा है. चारों ओर कचरे का ढेर है. एक बोर्ड के सामने एक बड़ा सा कटहल का पेड़ है और एक बोर्ड एक खराब हो चुके हैंडपंप के पास लगा है.
इसके बीच में मुस्लिम संत हजरत शाहगदा शाह का सफेद रंग का आलीशान मकबरा है.
मस्जिद के लिए मिली जमीन पर हर साल अप्रैल में मकबरे पर वार्षिक उर्स का आयोजन किया जाता है. इसमें पड़ोस के गांव के लोगों की भीड़ आती है. इसके अलावा यहां ज्यादा कुछ नहीं होता है.
स्थानीय लोगों का कहना है कि ट्रस्ट के अधिकारी 15 अगस्त और 26 जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज फहराने आते हैं और उसके बाद बालूशाही और समोसे बांटते हैं. इस दौरान ग्रामीण राष्ट्रगान गाने के लिए यहां एकत्र होते हैं.
जब दिप्रिंट ने मई के अंत में मस्जिद की जमीन का दौरा किया, तो बगल के आम के बगीचे के श्रमिकों ने फलों को पैक करने के लिए अस्थायी तंबू लगा रखे थे. शाम को ईंटों का विकेट बनाकर बच्चे यहां क्रिकेट खेलते हैं.
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प्रशासनिक और ‘राजनीतिक बाधाएं’
अयोध्या के राम मंदिर के लिए निर्माण पूरी तेजी से चल रहा है. इसके जनवरी 2024 तक पूरा होने की उम्मीद है. यहां तक कि मंदिर के आसपास के क्षेत्र का भी कायाकल्प हो रहा है. घाटों और तालाबों का सौंदर्यीकरण किया जा रहा है. जन्मभूमि क्षेत्र के पास के घरों को एक जैसा रूप दिया जा रहा है और नए पार्किंग स्थल और एक शानदार नया रेलवे स्टेशन जैसे बुनियादी ढांचे को तेजी से स्थापित किया जा रहा है.
लेकिन मस्जिद स्थल के आसपास कोई भी विकास कार्य आपको देखने के लिए नहीं मिलेगा. पूरे क्षेत्र में धन्नीपुर गांव में सिर्फ एक बोर्ड लगा है.
आईआईसीएफ के ट्रस्टी और सचिव अतहर हुसैन ने कहा कि राम मंदिर और इस मस्जिद की तुलना नहीं की जा सकती.
उन्होंंने कहा, “राम मंदिर के लिए दशकों की तैयारी रही है. मस्जिद के लिए जमीन सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ही दी गई थी. पहले, कोविड ने इस परियोजना को पटरी से उतार दिया और फिर कुछ एनओसी प्राप्त करने में देरी हुई.”
अब तक ट्रस्ट की 10-12 बैठकें हो चुकी हैं, जिनमें ज्यादातर ऑनलाइन ही हुई है. ट्रस्ट में अधिकतम 15 सदस्य हो सकते हैं लेकिन अभी इसमें केवल 12 सदस्य हैं.
ट्रस्ट ने पिछले साल जुलाई में वरिष्ठ पत्रकार बॉबी नकवी को अपना रणनीतिक सलाहकार नियुक्त किया था. सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के अध्यक्ष जफर फारूकी ट्रस्ट के मुख्य ट्रस्टी हैं.
ट्रस्ट की अब तक अयोध्या विकास प्राधिकरण (एडीए) के साथ दो बैठकें हो चुकी हैं.
हुसैन ने कहा, “एडीए के साथ अब तक हमारी बातचीत अच्छी रही है.”
लेकिन एक ठोस परिणाम अभी तक देखा जाना बाकी है. इस बात की सुगबुगाहट है कि कागजी कार्रवाई ही एकमात्र समस्या नहीं है.
मस्जिद ट्रस्ट के एक सदस्य ने आरोप लगाया कि प्रशासनिक देरी से ज्यादा, राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी परियोजना में बाधा बन रही है.
उन्होंने कहा, “राजनीतिक बाधाओं के कारण, मस्जिद का काम शुरू से ही आगे नहीं बढ़ा है.”
इस ट्रस्टी ने यह भी आरोप लगाया कि मंदिर और मस्जिद के लिए एनओसी आवेदन प्रक्रिया में काफी असमान आवश्यकताएं थीं.
उन्होंने कहा, “राम मंदिर के लिए एनओसी के लिए ऑफलाइन आवेदन करने की सुविधा दी गई थी लेकिन हमें यूपी सरकार के निवेश मित्र पोर्टल के माध्यम से ऑनलाइन आवेदन करने के लिए कहा गया. ऑनलाइन प्रक्रिया में दर्जनों एनओसी की जरूरत होती है.”
हालांकि, एडीए सचिव सत्येंद्र सिंह ने इस आरोप का खंडन किया कि मस्जिद ट्रस्ट को ऑफलाइन आवेदन करने की सुविधा नहीं दी गई थी.
उन्होंने कहा, “मस्जिद ट्रस्ट के पास ऑनलाइन और ऑफलाइन दोनों विकल्प हैं. वे केवल विकास शुल्क जमा नहीं करना चाहते हैं.”
ये अतिरिक्त शुल्क और कर, विवाद का विषय बन गए हैं. ट्रस्ट के सदस्यों का कहना है कि वे दो कारणों से छूट की मांग कर रहे हैं- धन की कमी और मुसलमानों को “गलत संदेश” देने से बचने के लिए.
ट्रस्ट के सचिव हुसैन ने तर्क दिया कि मुस्लिम पक्ष ने कभी भी जमीन के वैकल्पिक टुकड़े की मांग नहीं की थी लेकिन अब जब इसे मंजूर कर लिया गया है, तो इस पर इतना कर देना चीजों की भावना के खिलाफ जाना प्रतीत होता है.
उन्होंने कहा, “लोगों को लगेगा कि उस पैसे से मस्जिद बनाने के बजाय, यह सरकार के पास जा रहा है. यह समुदाय के मनोबल को कम करेगा.”
हालांकि, एडीए सिंह ने कहा कि विकास शुल्क का भुगतान किए बिना मस्जिद निर्माण मुश्किल है.
उन्होंने कहा, “अगर ये लोग विकास शुल्क का भुगतान करते हैं, तभी हम वहां विकास करवाएंगे. मस्जिद क्षेत्र मास्टरप्लान के अंदर नहीं आता है बल्कि एडीए के अधिकार के विस्तारित क्षेत्र में आता है.”
उन्होंने आगे कहा, “इस पैसे से अथॉरिटी का खर्चा निकलता है. बिना डेवलपमेंट चार्ज के काम कैसे होगा? अगर वे सारी चीजें हमें सौंप देते हैं तो हम 24 घंटे में उनका नक्शा पास कर देंगे.”
सिंह ने कहा कि ट्रस्ट सरकार से संपर्क करने की कोशिश कर सकता है लेकिन इसमें छूट संभव नहीं होगा. उन्होंने कहा कि कोई भी सरकार राजस्व का नुकसान नहीं उठाना चाहेगी.
उन्होंने कहा कि मंदिर ट्रस्ट ने अपना सारा बकाया समय पर एडीए को जमा किया है.
उन्होंने आगे कहा, “हर कोई जानता है कि मंदिर सरकार के लिए कितना महत्वपूर्ण है. अगर छूट दी जाती है, तो हर कोई छूट मांगने लगेगा. मस्जिद ट्रस्ट केवल राजनीति कर रहा है. वे कहते हैं कि हमें सब कुछ कराके उन्हें देना चाहिए. उनमें बिल्कुल भी प्रोफेशनलिज्म नहीं है.”
मस्जिद के निर्माण में हो रही देरी के बारे में पूछे जाने पर राम जन्मभूमि ट्रस्ट के महासचिव चंपत राय ने खुद को अलग कर लिया. उन्होंने कहा, “यह मेरा विषय नहीं है.”
उन्होंने कहा कि बाबरी मस्जिद को 6 दिसंबर 1992 को “सामाजिक बल” द्वारा ढहा दिया गया था, लेकिन एक नई मस्जिद के निर्माण का दायित्व मस्जिद ट्रस्ट पर था.
राय ने कहा, “आपको अपना घर (मस्जिद) बनाना है. आप इसे कब बनाएंगे, यह आप तय करें.”
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अतीत का बोझ, शरीयत विवाद
मस्जिद ट्रस्ट ने फैसला किया है कि धन्नीपुर की नई मस्जिद का नाम बाबरी मस्जिद नहीं होगा. ट्रस्ट का दावा है कि वह अतीत के बोझ को हटाकर आगे बढ़ना चाहती है.
ट्रस्ट के सदस्य भूमि के प्रतीकात्मक “महत्व” पर प्रकाश डालते हैं. वे कहते हैं कि यह कोई साधारण संपत्ति नहीं है बल्कि इसकी हैसियत बाकी जमीनों से काफी ज्यादा है.
उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट ने एक विशेष प्रावधान का उपयोग करते हुए राम मंदिर के पक्ष में फैसला दिया. जाहिर तौर पर मुस्लिम पक्ष के साथ नाइंसाफी हुई है. कोर्ट टाइटल सूट का फैसला नहीं कर सका. यह देश की पहली मस्जिद है जो सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर बन रही है.”
उन्होंने कहा कि मुस्लिम समुदाय 2019 के फैसले से “हैरान” था लेकिन उन्होंने जमीन स्वीकार करने और धैर्य रखने का फैसला किया था.
उन्होंने कहा, “सरकार को अब खुले तौर पर मस्जिद के निर्माण का समर्थन करना चाहिए. बाबरी मस्जिद को 1992 में सरकार के संरक्षण में रहते हुए गिराया गया था जबकि इसका अब मुआवजा दिया जाना चाहिए.”
हालांकि, अयोध्या के मुस्लिम समुदाय के अन्य लोग न तो भूमि के महत्व से और न ही मस्जिद के लिए नए नामकरण से प्रभावित हैं.
जमीयत उलेमा-ए-हिंद की अयोध्या ईकाई के अध्यक्ष बादशाह खान ने कहा, “न तो यह अयोध्या के केंद्र में है और न ही अब इसका नाम बाबरी मस्जिद है. यहां तक कि अगर इसका नाम बाबरी मस्जिद रखा गया होता, तो लोग इसे देखने जरूर आते. सरकार ने मुसलमानों को धोखा दिया है.”
बादशाह खान और अयोध्या के वादी इकबाल अंसारी दोनों ने यूपी सरकार से जमीन स्वीकार करने पर आपत्ति जताई.
अंसारी ने कहा कि कई मुसलमानों का मानना है कि यूपी सरकार के तहत आने वाले सुन्नी वक्फ बोर्ड को जमीन देने का सुप्रीम कोर्ट का फैसला अन्यायपूर्ण था. कई मुसलमान इस फैसले से इतने नाराज हैं कि वह आज तक मस्जिद की जमीन देखने भी नहीं गए.
अंसारी ने दावा किया कि कई मुस्लिम ट्रस्ट के समर्थक नहीं हैं और उन्होंने मस्जिद के “विदेशी नक्शे” (विदेशी डिजाइन) की भी आलोचना की.
मस्जिद को लेकर शरीयत विवाद भी है.
सुप्रीम कोर्ट के फैसले के तुरंत बाद, अखिल भारतीय मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के सदस्यों ने चिंता व्यक्त की कि प्रस्तावित नई मस्जिद का निर्माण वक्फ अधिनियम का उल्लंघन करता है और शरीयत कानून के तहत अवैध है.
बाबरी मस्जिद मामले में वादियों में से एक मौलाना महफुजुर रहमान के नोमिनी खालिक अहमद ने समझाया, “शरियत कानून के मुताबिक, न तो मस्जिद को बेचा जा सकता है और न ही इसका इस्तेमाल बदला जा सकता है. मस्जिद का प्रतिस्थापन अवैध है. मुसलमानों ने इसे स्वीकार नहीं किया.”
लेकिन विवाद के बारे में पूछे जाने पर एआईएमपीएलबी के सदस्य खालिद रशीद फिरंगी महली ने कहा कि इस मुद्दे को उठाने से कुछ हासिल नहीं होगा.
महली ने कहा, “इस पर बोलना अपने आप को परेशानी देना है. यह मुद्दा अब खत्म हो गया है. हम बस इतना चाहते हैं कि जो मस्जिदें पहले से हैं, वे सुरक्षित रहें.” एआईएमपीएलबी के सूत्रों ने बताया कि बोर्ड की बैठक में अब बाबरी मस्जिद का मुद्दा नहीं उठाया जाता है.
अहमद ने कहा कि सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड यूपी सरकार के अधीन काम करता है.
उन्होंने कहा, “मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने मंदिर का प्रचार किया लेकिन मस्जिद का प्रचार नहीं किया. वह अपना वोट बैंक देख रहे हैं. मस्जिद बनाकर वह अपने वोट बैंक को नकारात्मक रूप से प्रभावित नहीं होने देंगे.”
इस बीच हुसैन ने कहा कि हर कोई शरीयत की अलग-अलग व्याख्या करता है. उन्होंने कहा, “सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के तहत जमीन आवंटित की गई है, यह अवैध नहीं हो सकता है.”
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‘मस्जिद की जरूरत नहीं’ लेकिन ‘विकास’ के सपने
मस्जिद की जमीन के कारण धन्नीपुर का काफी नाम हो चुका है. बहुत से निवासियों को अब उम्मीद है कि एक बार मस्जिद बन जाने के बाद, पूरे क्षेत्र में व्यवसाय फलने फूलने लगेगा. साथ ही अस्पताल बनने के बाद वहां लोगों को चिकित्सा सुविधा भी मिलेगी.
मोहम्मद शफीक, जो मस्जिद की जमीन के पास एक किराने की दुकान चलाते हैं, ने कहा, “मैं पूरे दिन में मुश्किल से 300-400 रुपये कमा पाता हूं. मस्जिद बनने के बाद यहां काफी संख्या में लोग आएंगे. हमारे व्यापार में वृद्धि होगी. पूरे इलाके की चांदी हो जाएगी.”
धन्नीपुर, 2,000 लोगों का गांव है और इसके आस-पास के गांव रौनाही में लगभग 10,000 की आबादी रहती है और दोनों को मिलाकर यहां 14-15 मस्जिदें हैं.
स्थानीय लोगों का कहना है कि उन्हें वास्तव में एक नई मस्जिद की आवश्यकता नहीं है लेकिन प्रस्तावित अस्पताल और अनुसंधान केंद्र को लेकर स्थानीय लोग काफी उत्साहित हैं.
मस्जिद की जमीन के पास किराना दुकान चलाने वाले मोहम्मद शफीक ने कहा कि धन्नीपुर का नाम पहले कौन जानता था और आज पूरी दुनिया में लोग जानते हैं. उन्हें उम्मीद है कि मस्जिद बनने से इस पूरे इलाके का विकास होगा और उनके काम में भी तेजी आएगी.
इस इलाके की एक मस्जिद की देखरेख का काम करने वाले अब्दुल अहदा ने कहा, “यहां कई मस्जिद और अन्य पूजा स्थल है लेकिन एक अस्पताल की बहुत आवश्यकता है. अभी लोग इलाज के लिए लखनऊ या फैजाबाद जाते हैं.”
धन्नीपुर के रहने वाले किसान श्रीनाथ यादव भी कुछ ऐसे ही आशान्वित हैं.
वो कहते हैं, “कहा जा रहा है कि यहां एक अस्पताल बनाया जाएगा. इससे लोगों में खुशी है. आम लोगों को ही सुविधा मिलेगी.”
इसके अलावा धन्नीपुर के आसपास की जमीनों के दाम भी बढ़ने लगे हैं.
श्रीनाथ कहते हैं, “यहां हमारी जमीनों का दाम बहुत बढ़ गया है.” यादव ने कहा कि कीमतें पहले की तुलना में 5-7 गुना बढ़ गई हैं.
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एक महत्वाकांक्षी योजना
19 दिसंबर 2020 को ट्रस्ट के सदस्य और आर्किटेक्ट प्रो. एस.एम. अख्तर ने मस्जिद परिसर के डिजाइन का अनावरण किया.
इसकी इमारतों की दृष्टि भविष्यवादी है, न केवल नवाचार और आधुनिकता का बल्कि अतीत को पीछे छोड़ने का प्रतीक है.
उदाहरण के लिए, मस्जिद अंडे के आकार की होगी और इसमें गुंबद या मीनार जैसे पारंपरिक तत्व नहीं हैं. संरचना में सौर और पवन ऊर्जा जैसे नवीकरणीय ऊर्जा स्रोत शामिल होंगे, और आईआईसीएफ ग्रीन मैसेज को एक कदम आगे ले जाने के लिए दुनिया भर से पौधे लगाने की योजना बना रहा है.
प्रस्तावित परिसर 4,500 वर्ग मीटर में फैला है, जिसमें एक शोध केंद्र, संग्रहालय, 200 बिस्तरों वाला अस्पताल और सामुदायिक किचन शामिल है.
दिप्रिंट द्वारा देखे गए आईआईसीएफ योजना के अनुसार, अस्पताल (24,150 वर्ग मीटर) मस्जिद (350 वर्ग मीटर) से छह गुना बड़ा होने की उम्मीद है.
मस्जिद परियोजना को डिजाइन करने वाले प्रोफेसर अख्तर ने कहा कि योजना का मसौदा तैयार करने से पहले उन्होंने दो बार जमीन का दौरा किया. उन्होंने कहा, ‘यह बेहद समकालीन और आधुनिक डिजाइन है, जिसे नई सोच के साथ बनाया गया है.’
परियोजना के लिए प्रस्तावित सामग्री के बारे में पूछे जाने पर उन्होंने कहा कि स्टील और पत्थर का इस्तेमाल किया जा सकता है.
उन्होंंने कहा, “एकमात्र उद्देश्य यह है कि संरचनाएं लंबे समय तक चलनी चाहिए. बाकी चीजें मस्जिद का काम शुरू होने के बाद ही तय की जाएंगी.”
आईआईसीएफ का उद्देश्य इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों का अभ्यास करने के लिए मस्जिद परिसर का उपयोग करना है. साथ ही मस्जिद परिसर में भारत के मुस्लिम नायकों की कहानियों और उपलब्धियों पर प्रकाश डालते हुए संग्रहालय और अनुसंधान केंद्र में सांप्रदायिक सद्भाव का संदेश देने की भी योजना है. ऐसे ही एक हैं फैजाबाद के 19वीं सदी के स्वतंत्रता सेनानी मौलवी अहमदुल्लाह शाह, जिन्हें इस क्षेत्र में धार्मिक एकता और गंगा-जमुनी तहज़ीब के प्रतीक के रूप में देखा जाता है.
आईआईसीएफ के सचिव हुसैन ने दिप्रिंट से कहा, “पूरे अवध को धर्म के नाम पर विभाजित नहीं किया गया था. हम इन चीजों को लोगों तक पहुंचाना चाहते हैं.”
मौलवी अहमदुल्लाह शाह का शहीदी दिवस 5 जून को मनाया जाता है और ट्रस्ट ने पिछले साल अपने लखनऊ कार्यालय में 1857 की क्रांति में उनकी भूमिका को याद करने के लिए एक कार्यक्रम आयोजित किया था.
ट्रस्ट के एक अन्य सदस्य ने कहा कि अनुसंधान केंद्र राष्ट्र निर्माण में मुसलमानों की भूमिका को भी प्रदर्शित करेगा.
उन्होंने आगे कहा, “यह आरएसएस द्वारा फैलाए गए प्रचार का जवाब होगा. पूरी परियोजना यह बताएगी कि इस्लाम मानवता का धर्म है और यह मानवता के लिए एक नया द्वार खोलेगा.”
ट्रस्ट के सदस्यों ने कहा कि इसके अलावा, एक सामुदायिक रसोई आगंतुकों को दिन में लगभग 12 घंटे मुफ्त भोजन उपलब्ध करवाएगी जिसमें हर दिन का मेन्यू अलग होगा. मशहूर फूड इतिहासकार पुष्पेश पंत अवध के जायके से प्रेरणा लेकर मेन्यू तैयार करेंगे.
हुसैन ने कहा, “लेकिन हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता अस्पताल है.”
उन्होंने कहा, “यह परियोजना एक चैरिटी मॉडल पर चलाई जाएगी. हालांकि, अगर हम धन की कमी के कारण इसे शुरू करने में असमर्थ रहते हैं, तो भी हम हर साल इस क्षेत्र से 100 लोगों का चयन करेंगे और उन्हें मुफ्त इलाज मुहैया कराएंगे. यह उपचार कैंसर और हृदय रोग जैसी गंभीर स्थितियों के लिए होगा.”
न्यासियों के मुताबिक, अस्पताल के लिए धन बड़े व्यावसायिक घरानों से जुटाया जाएगा लेकिन इसमें योगदान देने से पहले अंतिम रोडमैप तैयार किया जाएगा.
आईआईसीएफ मस्जिद और चैरिटेबल अस्पताल के लिए ऑनलाइन फंड जुटा रहा है लेकिन अभी तक सिर्फ 50 लाख रुपए ही जमा हो पाए हैं. यह राम मंदिर के लिए जुटाए गए 3,200 करोड़ रुपये के मुकाबले न के बराबर है.
उन्होंने कहा, “मुस्लिम समुदाय इतने समृद्ध नहीं हैं कि वे बड़ी मात्रा में दान कर सकें. हमने कुछ जगहों से फंडिंग जुटाई थी लेकिन एक बार नक्शा पास हो जाने के बाद हम बड़े पैमाने पर फंड जुटाने की कोशिश करेंगे.”
मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, मस्जिद के लिए चंदे का एक बड़ा हिस्सा हिंदू समुदाय से आया है.
हालांकि, मस्जिद परिसर के विजन को साकार करने के लिए लंबा इंतजार करना पड़ रहा है.
प्रोफेसर अख्तर कहते हैं, “तीन साल बीत चुके हैं. यह आधुनिक वास्तुकला में एक लंबा अंतराल है. जब काम शुरू होगा तो डिजाइन में और भी कई स्ट्रक्चरल बदलाव करने होंगे ताकि आर्किटेक्चर समय के हिसाब से लगे.”
इस बीच केयरटेकर सोहराब खान निराश मन से किस्मत को दोष दे रहे हैं.
खान कहते हैं, “एक तरफ, अयोध्या में मंदिर के चारों ओर विकास की गंगा बह रही है. काश उस गंगा की एक बूंद मस्जिद के आसपास भी गिरी होती.”
(संपादन: ऋषभ राज)
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