नई दिल्ली: दिल्ली के ग्रीन पार्क स्थित लोधी कालीन छोटी गुमटी को देखने शायद ही कोई जाता होगा. हालांकि इससे लगभग दो किलोमीटर दूर ही हौज खास है जो कि राजधानी के युवाओं की पसंदीदा जगहों में से एक है. लेकिन यहां रहने वाले लोगों के लिए ये ‘छोटा गुंबद’ है जो यहां का लैंडमॉर्क है. इसके छोटे से परिसर में लोग ताश खेलते हैं और शाम होते ही यहां बच्चे खेलने लग जाते हैं.
आजादी के बाद से ही भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) छोटी गुमटी को राष्ट्रीय महत्व के स्मारक के तहत संरक्षण कर रहा है. इसकी सूची में ऐतिहासिक तौर पर महत्व रखने वाले 3,695 स्मारक हैं. छोटी गुमटी परिसर में धूल खाते बोर्ड पर लिखा है कि यह स्मारक प्राचीन संस्मारक तथा पुरातात्विक स्थल और अवशेष अधिनियम 1958 (एएमएएसआर) के अंतर्गत राष्ट्रीय महत्व का है.
लेकिन अब इस सूची को नए सिरे से तैयार करने पर बातचीत चल रही है. और ग्रीन पार्क स्थित छोटी गुमटी का नाम उस रिपोर्ट में शामिल किया गया है, जिसे इसी साल जनवरी में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आर्थिक सलाहकारों ने तैयार की है. रिपोर्ट में नई सूची तैयार करने के साथ ही भौगोलिक विविधता को शामिल करने पर भी जोर दिया गया है.
और इस सब बहस के केंद्र में एक ही सवाल है: आखिर ‘राष्ट्रीय महत्व’ किसे कहा जाए? एएसआई को लंबी सूची से स्मारकों को डी-नोटिफाई करना है और राज्य और केंद्र के बीच साझा करना है.
दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज कॉलेज से इतिहास की पढ़ाई कर रहे युवराज सिंह को पुराने स्मारकों को देखना पसंद है. वे अक्सर ऐसी जगहों पर जाते रहते हैं, जो ऐतिहासिक महत्व की होती है. उन्होंने बताया, “जब मैं कुछ समय पहले हौज खास के जगन्नाथ मंदिर आया था तब मैंने फैसला किया था कि एक दिन छोटी गुमटी और आसपास के स्मारकों को देखने जरूर आऊंगा. हमें अपने भविष्य की पीढ़ी के लिए इन जगहों को बचाकर रखना चाहिए.”
प्रधानमंत्री की आर्थिक मामलों पर सलाहकारों के काउंसिल (पीएम-ईएसी) ने 61 पन्नों की रिपोर्ट में विस्तार से स्मारकों की लंबी सूची पर अपनी बात रखी है. रिपोर्ट का शीर्षक है: “मोन्युमेंट्स ऑफ नेशनल इम्पोर्टेंस- द अर्जेंट नीड फॉर रेशनेलाइजेशन”. रिपोर्ट में कहा गया है कि अब तक स्मारकों के राष्ट्रीय महत्व को लेकर ‘कोई चर्चा नहीं’ हुई है और इन्हें राष्ट्रीय महत्व का क्यों माना जाए, इस पर भी बात नहीं हुई है.
रिपोर्ट के अनुसार, “छोटे और महत्वहीन स्मारकों को भी एमएनआई घोषित किया गया है. इसलिए, वर्तमान सूची में व्यापक रेशनेलाइजेशन को लेकर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है.”
लेकिन मंत्रालय के पास इस व्यापक बदलाव को लेकर अपने कारण हैं.
संस्कृति मंत्रालय के एक सूत्र ने कहा, “ब्रिटिश और मुगल, जिन्होंने हम पर राज किया, उनके स्मारक राष्ट्रीय महत्व के कैसे हो सकते हैं.”
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राष्ट्रीय महत्व के स्मारक पर बहस तेज
रिपोर्ट प्रकाशित होने से कुछ हफ्ते पहले मोदी सरकार के दो बुद्धिजीवियों संजीव सान्याल और बिबेक देबरॉय ने अखबार में लेख लिखकर राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों को लेकर बहस तेज कर दी. दोनों ही लेखों का लब्बोलुआब यही था कि स्मारकों की लंबी सूची का ‘रेशनेलाइजेशन’ किया जाए.
हिंदुस्तान टाइम्स के लिए लिखे लेख में सान्याल ने कहा कि इस सूची की समस्या यह है कि इसमें राष्ट्रीय तौर पर महत्वहीन स्मारकों की लंबी सूची है.
पीएम-ईएसी के सदस्य सान्याल ने लिखा, “हमारा अनुमान है कि सूची में एक चौथाई हिस्सा ऐसा ही है. उदाहरण के लिए, सूची में ब्रिटिश कालीन सैनिकों और अधिकारियों की 75 कब्रे हैं जिनका कोई महत्व नहीं है.”
बिबेक देबरॉय ने भी 24 स्मारकों की पहचान न हो पाने को मुद्दा बनाकर एएसआई की भूमिका पर सवाल उठाया. पिछले साल दिसंबर में परिवहन, पर्यटन और संस्कृति पर राज्य सभा की स्टैंडिंग कमिटी की 324वीं रिपोर्ट में कहा गया था कि केंद्र सरकार द्वारा संरक्षित 24 स्मारकों का पता नहीं चल पा रहा है. संसदीय समिति ने पाया कि संस्कृति मंत्रालय ने इसके लिए कुछ खास कोशिश भी नहीं की.
इंडियन एक्सप्रेस में उन्होंने लिखा, “क्या हम केवल ऐतिहासिक और मनमाने फैसलों को आगे बढ़ा रहे हैं? क्या हमें उन्हें डी-नोटिफाई नहीं कर देना चाहिए जिनके लिए कोई उम्मीद नहीं बची? क्या एएसआई राष्ट्रीय स्मारकों की सुरक्षा के लिए सुसज्जित है या यह प्रक्रिया में बाधा डालता है?”
दिप्रिंट ने सान्याल और बिबेक देबरॉय से संपर्क करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने इस मुद्दे पर कोई भी बयान देने से इनकार कर दिया. सान्याल ने कहा, “मुझे जो भी कहना है वो इस रिपोर्ट में शामिल है.”
एएसआई ने उन 24 स्मारकों का पता लगाने के लिए जनवरी में एक समिति का गठन किया था, जो नहीं मिल रहे हैं. लेकिन अगर वे नहीं मिले, तो उन्हें संसदीय कार्यवाही के माध्यम से डी-नोटिफाई किया जाएगा. अगर ऐसा होता है, तो यह 1978 के बाद पहली बार होगा. एएमएएसआर अधिनियम के लागू होने के बाद, लगभग 170 स्मारकों और स्थलों को एएसआई द्वारा 1978 तक डी-नोटिफाई किया गया था.
सान्याल ने फरवरी 2023 में किए ट्वीट में कहा था, “एएसआई ने 3,695 राष्ट्रीय स्मारकों के रेशनेलाइजेशन की प्रक्रिया शुरू कर दी है. सबसे पहले, समिति मिसिंग मोन्युमेंट्स (ट्रेस नहीं हो पा रहे स्मारकों) का पता लगाएगी और उन्हें डी-नोटिफाई करेगी.”
वरिष्ठ पुरातत्वविद केके मुहम्मद रेशनेलाइजेशन के पक्ष में हैं क्योंकि सूची में कई “छोटे” स्मारक शामिल हैं.
मोहम्मद ने कहा, “इन्हें हटाने के लिए आज तक कोई काम नहीं हुआ है क्योंकि यह नीतिगत मुद्दा है जिसके लिए संसद की मंजूरी लेनी पड़ती है. पहले के लोगों ने इस बारे में नहीं सोचा.”
लेकिन अब इस बारे में सोचा जा रहा है. संस्कृति मंत्रालय के सूत्र के अनुसार, “यह भारतीय इतिहास को उजागर करने के बारे में है, जिसे आज तक बाहर नहीं आने दिया गया.”
पुरातत्वविद और एएसआई के प्रवक्ता वसंत स्वर्णकार ने बताया, “दिल्ली में ऐसे कई मकबरे हैं जिनके बारे में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है. इसके आसपास रहने वाले लोग परेशान रहते हैं क्योंकि उन्हें कोई भी निर्माण कार्य करने से पहले राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण (एनएमए) से इजाजत लेनी पड़ती है.”
ठीक ऐसा ही छोटी गुमटी के ठीक पास स्थित सकरी या बड़ी गुमटी के बगल में हो रहा है. सकरी गुमटी के ठीक बगल में स्थित जमीन पर सालों तक कोर्ट में मामला चला, जिसमें आखिरकार जमीन के मालिक को जीत मिली. लेकिन 1992 के नोटिफिकेशन के कारण वो यहां पर कोई भी निर्माण कार्य नहीं कर सकता. इस नोटिफिकेशन के अनुसार राष्ट्रीय महत्व के स्मारक के 100-200 मीटर के दायरे में निर्माण कार्य करने पर प्रतिबंध है. इसलिए जमीन होते हुए भी घर का निर्माण करने में मुश्किलें आ रही हैं.
ग्रीन पार्क आरडब्ल्यूए के अध्यक्ष ललित कुमार ने कहा, “जिनके घर 300 मीटर के दायरे में आते हैं उन्हें भी एनओसी नहीं मिल रही है. यहां न केवल मकान बनाने में दिक्कतें आ रही हैं बल्कि इन स्मारकों के कारण कई प्लॉट तक खाली पड़े हैं.”
उन्होंने कहा, “अगर ये डी-नोटिफाई होते हैं तो न केवल यहां की संपत्ति की कीमत बढ़ेगी बल्कि लोगों के लिए घर बनाना भी आसान हो जाएगा.”
एएसआई के पूर्व पुरातत्वविद इस कदम का समर्थन करते हैं, यह तर्क देते हुए कि रेशनेलाइजेशन ही अब आगे का रास्ता है. कई पुरावशेषों जैसे कि तोपों, बंदूकों और मूर्तियों के साथ-साथ शिलालेखों को भी राष्ट्रीय महत्व का माना गया है. लेकिन आप लाल किले की तुलना किसी शिलालेख से नहीं कर सकते.
एएसआई के पूर्व अतिरिक्त महानिदेशक बीआर मणि ने कहा, “राष्ट्रीय महत्व इतिहास, वास्तुकला मूल्य, पुरातत्व और संस्कृति के आधार पर तय किया जाना चाहिए. मौजूदा सूची में कई कब्रें हैं, जो राष्ट्रीय महत्व की नहीं हैं, इसलिए सूची को संशोधित करने की आवश्यकता है और काउंसिल की रिपोर्ट एक स्वागत योग्य कदम है.”
2010 में एएमएसएआर अधिनियम में संशोधन के बाद, संस्कृति मंत्रालय ने राष्ट्रीय स्मारक प्राधिकरण (एनएमए) का गठन किया था. निकाय को अन्य जिम्मेदारियों के साथ-साथ स्मारकों की सुरक्षा और उनमें से प्रत्येक के आसपास निर्माण गतिविधि के संबंध में बॉय-लॉज (उप-कानून) तैयार करने का काम सौंपा गया था.
हालांकि बीते 11 सालों में सिर्फ 126 राष्ट्रीय महत्व के स्मारक (एमएनआई) के लिए ही बॉय-लॉज बने हैं, जिनमें से ज्यादातर को अभी एएसआई की तरफ से मंजूरी नहीं मिली है. संसद में अब तक केवल सात स्मारकों के बॉय-लॉज पेश किए गए हैं.
हालांकि राष्ट्रीय महत्व के स्मारक (एमएनआई) देश भर में फैले हुए हैं लेकिन भौगोलिक तौर पर काफी असंतुलन देखने को मिलता है. ऐसे स्मारकों में से 60 प्रतिशत से अधिक (3,695 में से 2,238) सिर्फ पांच राज्यों में हैं: उत्तर प्रदेश, कर्नाटक, तमिलनाडु, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र. अकेले दिल्ली में 173 एमएनआई हैं, जबकि तेलंगाना जैसे बड़े राज्य में केवल आठ हैं.
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कैसे शुरू हुई पूरी बहस
लेकिन ज्यादातर इतिहासकार और पुरातत्वविद इस बात से सहमत हैं कि सूची को तर्कसंगत बनाया जाना चाहिए, लेकिन सभी संजीव सान्याल के तर्क से सहमत नहीं हैं जिसे उन्होंने अपने अखबार के कॉलम में उठाया था. कईयों ने अलग-अलग संगठनों और हितधारकों से बात करने की मांग की और कई लोगों ने इस कदम के मकसद पर सवाल भी उठाया है.
इतिहासकार नारायणी गुप्ता बताती हैं, “इस मुद्दे पर सिर्फ एएसआई और सरकार को फैसला नहीं लेना चाहिए. ऐतिहासिक संरचनाएं केवल घटनाओं या व्यक्तियों की याद नहीं दिलाती हैं. वे अब इस लैंडस्केप का हिस्सा बन चुके हैं. शहरी डिजाइनरों और वास्तुकारों की जिम्मेदारी है कि वे अपने शहर की सुंदरता के लिए काम करें- दिल्ली शहरी कला आयोग का भी यही मत रहा है.”
पीएम-ईएसी रिपोर्ट की उस बात पर गुप्ता का ध्यान गया जिसमें कहा गया कि कई सारे कोस मीनारें हैं. गुप्ता के अनुसार, इसका तात्पर्य यह है कि सिर्फ एक या दो को नमूने के रूप में रखा जा सकता है.
गुप्ता ने कहा, “उस तर्क से, ‘स्मारकों’ की सभी श्रेणियों में से सिर्फ एक या दो को बनाए रखा जा सकता है. यदि आप उन्हें नजरअंदाज करते हैं, तो हमारे स्मारक हॉल ऑफ नेशंस और आईजीएनसीए की तरह खत्म हो जाएंगे.” हॉल ऑफ नेशंस प्रगति मैदान के भीतर दुनिया की पहली और सबसे बड़ी अवधि वाली अंतरिक्ष-फ्रेम संरचना थी, जिसका उद्घाटन 1972 में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत की आजादी के 25 साल पूरे होने के उपलक्ष्य में किया था. लेकिन 2017 में इसे ध्वस्त कर दिया गया था.
लेकिन केके मोहम्मद इन चिंताओं को खारिज करते हैं. उन्होंने कहा, “कोस मीनार कई जगहों पर सड़क के पास या बीच में हैं. यह राष्ट्रीय महत्व का नहीं है. और उनकी उपस्थिति के कारण 100 मीटर क्षेत्र के भीतर निर्माण गतिविधि प्रतिबंधित है.”
उन्होंने एएसआई को “पूरी तरह पेरेलाइज्ड” बॉडी बताया है. इस बीच, दिल्ली में हेरिटेज वॉक कराने वाले फिल्ममेकर और लेखक सोहेल हाशमी का मानना है कि एएसआई इस तरह के फैसले लेने के लिए तैयार नहीं है.
हाशमी ने कहा, “दशकों से एएसआई को वे लोग चला रहे हैं कि जो आर्कियोलॉजी के पैरामीटर तक नहीं जानते हैं.” उन्होंने कहा, “ब्रिटिश समय के पैरामीटर पर एएसआई अब तक चल रही है. लेकिन विडंबना है कि उन आधार पर भी स्मारकों को बचाया नहीं जा रहा है.”
उन्होंने दिल्ली में खिड़की मस्जिद के संरक्षित स्मारक के आसपास निषिद्ध क्षेत्र के भीतर भूमि पर अतिक्रमण का हवाला दिया, जहां एक मंदिर बना दिया गया है.
हाशमी ने कहा, “ये लोग (केंद्र सरकार) इतिहास को तोड़-मरोड़ कर पेश करना चाहते हैं और हर चीज का भगवाकरण करना चाहते हैं. एक राष्ट्र इस तरह नहीं टिक सकता. यदि रेशनेलाइजेशन करना है, तो एक ऐसी प्रक्रिया बनाने की जरूरत है जिसमें प्रतिष्ठित पुरातत्वविद, इतिहासकार और विशेषज्ञ शामिल हो.” उन्होंने कहा कि उन सभी स्मारकों को सूची में शामिल किया जाना चाहिए जिन्हें भुला दिया गया.
इतिहासकार स्वप्ना लिड्डल ने कहा, “1947 के बाद संरक्षित स्मारकों की सूची बड़ी नहीं हुई है लेकिन हैरानी की बात है कि हमने ऐसा किया भी नहीं.”
पीएम-ईएसी की रिपोर्ट में कहा गया है, “वर्तमान सूची में शामिल ज्यादातर एमएनआई 1947 से पहले औपनिवेशिक काल के कानूनों के तहत की गई थी. आश्चर्यजनक रूप से, स्वतंत्रता के बाद 1951 या 1958 के अधिनियमों के तहत सूची पर पुनर्विचार करने का कोई प्रयास नहीं किया गया. इसके बजाय, अंग्रेजों द्वारा चुने गए 2584 स्मारकों को पूर्ण रूप से मान लिया गया और आज भी लगभग दो-तिहाई एमएनआई उन्हीं में से हैं.”
हाशमी ने कहा कि 2014 में दिल्ली को हेरिटेज सिटी का दर्जा देने का प्रस्ताव था. यह अंतिम चरण में पहुंच गया था लेकिन मोदी सरकार द्वारा इसे वापस ले लिया गया.
कर्मियों और धन की कमी वाले एएसआई के लिए रेशनेलाइजेशन की प्रक्रिया आसान नहीं होगी. मध्य प्रदेश के सागर में डॉ हरिसिंह गौर विश्वविद्यालय में प्राचीन भारतीय इतिहास, संस्कृति और पुरातत्व विभाग के प्रोफेसर नागेश दुबे ने कहा, “जिस तरह से विरासत स्थलों को संरक्षित किया जा रहा है वह चिंताजनक और दयनीय है. राज्यों में एएसआई के पास लोगों की भारी कमी है.”
2019-20 में सरकार ने 3,695 स्मारकों की देखरेख के लिए जो पैसे खर्च किए , वो पर्याप्त नहीं था. पीएम-ईएसी की रिपोर्ट में भी इसका जिक्र किया गया है.
रिपोर्ट में कहा गया है, “धन के आवंटन में तेजी से वृद्धि करने की तत्काल आवश्यकता है और यह स्मारक के महत्व और आवश्यक संरक्षण कार्यों के मूल्यांकन पर आधारित होना चाहिए.”
लेकिन यह तब तक संभव नहीं है जब तक इस बात पर आम सहमति नहीं बन जाती कि किन स्मारकों को संरक्षित किया जाना है.
गुप्ता ने कहा, ” ‘हमारा’ और ‘उनका’ की बहस से आगे बढ़ना चाहिए. वरना आज से कुछ दशकों बाद अतीत के वे सारे साक्ष्य तबाह हो जाएंगे जो आज हमें दिखाई देते हैं.”
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इतिहास की ढहती दीवारें
कई इतिहासकारों को डर है कि एक बार डी-नोटिफाई होने के बाद कब्रिस्तान, मकबरे दिल्ली के उपेक्षित और भुला दिए गए स्मारकों की श्रेणी में शामिल हो जाएंगी. पुराना हिंदू कॉलेज, कश्मीरी गेट स्थित कर्नल जेम्स स्किनर का घर था, आज खंडहर बन चुका है. इसकी ढहती हुई भूरी दीवार पर बिना किसी विडंबना के बड़े करीने से लिखा है- “एबेंडंड”.
पीएम-ईएसी रिपोर्ट इसे महत्वपूर्ण नहीं मानती है. रिपोर्ट में कहा गया है, “छोटी गुमटी की छवि और विवरण को देखते हुए, यह निष्कर्ष निकालना उचित है कि संरचना में राष्ट्रीय महत्व के लिए पर्याप्त वास्तुशिल्प महत्व नहीं है.”
लेकिन इतिहास की छोटी-छोटी बातों को नज़रअंदाज़ करके, बड़ी घटनाओं को छोड़ना संभव है. बीआर मणि ने उत्तर प्रदेश के बस्ती जिले में एक मैदान में एक ब्रिटिश कप्तान की कब्र का उदाहरण दिया. उन्होंने कहा कि पता लगाया गया तो पता चला कि आजादी की लड़ाई वहीं लड़ी गई थी. “इसलिए कभी-कभी छोटी कब्रें भी ऐतिहासिक रूप से महत्वपूर्ण हो जाती हैं. इसलिए जरूरी है कि सभी बातों को ध्यान में रखते हुए सूची बनाई जाए.”
मणि की राय है कि लोधी रोड के पास मुगल और सल्तनत काल के स्मारक अब राष्ट्रीय महत्व के नहीं हैं. उन्होंने कहा, “दिल्ली में तुर्कमान गेट के पास रजिया सुल्तान की कब्र को ही ले लीजिए. इसके चारों तरफ बड़े-बड़े घर बन चुके हैं. इसे संरक्षित स्मारकों की सूची में भी रखा गया है. इसका कोई ऐतिहासिक महत्व नहीं है. इसे राज्य सूची में डाल दिया जाना चाहिए.”
लेकिन ये हमें फिर उसी सवाल पर ले जाता है कि कौन फैसला करेगा कि क्या महत्व का है और क्या नहीं.
महरौली की एक संकरी गली में, सूफी संत ख्वाजा बख्तियार काकी की दरगाह के बगल में, अंतिम मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की अचिह्नित कब्र है. वह अपने पूर्ववर्तियों के बगल में दफन होना चाहते थे लेकिन इसके बजाय, म्यांमार के यांगून में निर्वासन के दौरान उनकी मृत्यु हुई.
स्वप्ना लिड्डल कहती हैं, “यह इतिहास देश का इतिहास है. हम सबका इतिहास है. इन जगहों की देखभाल की जानी चाहिए.”
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