दौसा/टोंक: फटेहाल कपड़े पहने 72 वर्षीय शंभू लाल बेघर हैं. वह 25 वर्षीय गिग वर्कर हरीश कुमार के साथ भोजन कर रहे हैं. उन्हें कढ़ी, आलू गोभी, अचार और छह रोटियों से भरी एक थाली परोसी गई है.
इसी बीच कुमार और खाना मांगता है. जबकि लाल थाली बिलकुल साफ कर देता है.
दोनों दोस्त नहीं हैं, और होने की संभावना नहीं है. लेकिन 20 मिनट के लिए वे राजस्थान में दौसा की बांदीकुई तहसील की इंदिरा रसोई में एक साथ खाना खाने के लिए बैठे और फिर वे अलग हो गए.उन्हें एक थाली की कीमत 8 रुपये ही देनी पड़ी. कुमार ने उस दिन की कमाई से भुगतान किया, लेकिन लाल के पास पैसे नहीं थे. इसलिए इंदिरा रसोई के मालिक ने उसके खाने का पैसा अपनी जेब से दिया.
यह सेमी-रूरल रसोई या कैंटीन, जो हर दिन लगभग 400 लोगों को कम कीमत पर पौष्टिक भोजन प्रदान करती है, अगस्त 2020 में अशोक गहलोत सरकार द्वारा शुरू की गई थी. 100 करोड़ रुपये की प्रमुख योजना इंदिरा रसोई योजना का हिस्सा है और लाखों शहरी लोगों को खाना खिलाती है. राजस्थान में गरीब लेकिन ढाई साल के ऑपरेशन में वे नगर पालिकाओं के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों, प्रवासियों, गिग वर्कर्स और यहां तक कि पुलिस कांस्टेबलों के लिए भी लाइफलाइन बनकर उभरी है.
विपक्ष इसे लोकलुभावन योजना कहता है लेकिन गहलोत सरकार एक मिशन पर है – कोई भूखा ना सोए. उनकी दर्जनों प्रमुख कल्याणकारी योजनाओं में, इंदिरा रसोई सबसे ऊपर है, जो प्रतिदिन लाखों लोगों के जीवन में अपनी पहुंच रखती है.
मुकेश कुमार (44) दौसा शहर में दो इंदिरा रसोई चलाते हैं और उन्होंने अपनी बेटी के जन्मदिन पर वहां आने वालों को मुफ्त खाना दिया. उनका कहना है कि यह एक चलन बनता जा रहा है।
उन्होंने कहा, “मैंने 200 कूपन के लिए भुगतान किया है. दूसरे लोग भी विशेष अवसरों पर आने लगे हैं और विशेष दिन मनाने के लिए गरीबों के लिए कूपन खरीदने लगे हैं. यहां तक कि राजनेताओं ने भी इसे अपने परोपकारी कार्य और मतदाताओं तक पहुंचने के के लिए कूपन खरीदना शुरू कर दिया है. अंत में, यह उन लोगों तक खाना पहुंचाना है जो भोजन के लिए कमा नहीं पा रहे है.
एक लोकतांत्रिक विचार
गरीबों के लिए स्टेट-फंडेड कैंटीन उन लोकलुभावन योजनाओं में से एक है, जिसे भारत भर के राजनीतिक दलों ने सफलता के विभिन्न स्तरों के साथ लागू किया है.
2013 में तत्कालीन तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जे जयललिता ने अम्मा कैंटीन की शुरुआत की थी. छत्तीसगढ़ और झारखंड ने दाल-भात योजनाओं को लागू किया है और कर्नाटक ने 2018 में इंदिरा कैंटीन शुरू की. दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सरकार ने भी 2015 में कांग्रेस की जन आहार परियोजना को बदलने के लिए आम आदमी कैंटीन लाने की घोषणा की, लेकिन यह कभी शुरू नहीं हुई.
गहलोत सरकार ने 20 अगस्त 2020 को 213 शहरी स्थानीय निकायों में 358 कैंटीन के साथ इंदिरा रसोई की शुरुआत की. आज, 950 कार्यात्मक इंदिरा रसोई हैं। प्रत्येक थाली में 100 ग्राम दाल, 100 ग्राम मौसमी सब्जियां और अचार के साथ छह चपातियां होती हैं. इसकी कीमत 17 रुपये है, लेकिन एक संरक्षक 8 रुपये का भुगतान करता है; सरकार शेष राशि को सब्सिडी देती है.
2022 के बजट में, सरकार ने कहा कि वह रसोई की संख्या बढ़ाकर 1,000 करने की योजना बना रही है. 2023 के बजट में, गहलोत सरकार ने इस पहल को ग्रामीण इलाकों में भी ले जाने की योजना की घोषणा की थी.
और जबकि ये योजनाएं आम जनता के बीच लोकप्रिय हैं, वे खराब खाद्य गुणवत्ता, कीमतों में वृद्धि, और सत्ता परिवर्तन होने पर राजनीतिक भरोसे की कमी की कभी-कभी रिपोर्ट से भी त्रस्त रही हैं।
गहलोत ने पिछले साल सांसदों, विधायकों और अन्य जनप्रतिनिधियों से अनुरोध किया था कि वे महीने में कम से कम एक बार कैंटीन में परोसे जाने वाले और खाने वाले भोजन की गुणवत्ता की निगरानी करें. लेकिन अपील के तुरंत बाद, राजस्थान के भरतपुर का एक वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसमें एक इंदिरा रसोई में सूअर बर्तन चाटते नजर आ रहे थे. विपक्षी दल के नेताओं ने बुनियादी स्वच्छता सुनिश्चित करने में विफल रहने के लिए कांग्रेस सरकार की आलोचना करने के लिए इसका इस्तेमाल किया.
विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक रूप से सक्रिय कर्नाटक में, कांग्रेस ने भाजपा पर फंड आवंटित न करके इंदिरा कैंटीन को ‘नष्ट’ करने का आरोप लगाया है,
अर्थशास्त्री और सामाजिक वैज्ञानिक ज्यां द्रेज इन योजनाओं को प्रकृति में लोकतांत्रिक कहते हैं और इस तरह की और कैंटीन स्थापित करने की आवश्यकता के लिए तर्क देते हैं. उन्होंने दिप्रिंट को बताया, “इस प्रकार की योजनाएँ दीर्घकाल में व्यवहार्य हो सकती हैं; उन्हें केवल राजनीतिक समर्थन की आवश्यकता है.”
केंद्र सरकार पिछले साल सब्सिडी वाली फूड कैंटीन शुरू करने की व्यवहार्यता पर भी विचार कर रही थी.
लेकिन इंदिरा रसोई की लोकप्रियता ने छोटे विक्रेताओं और रेस्तरां मालिकों को प्रभावित किया है जिनका खाना बेचने का सामर्थ्य है. वे 8 रुपये में पूरा भोजन नहीं दे सकते, बढ़ती खाद्य और गैस की कीमतों के साथ.
टोंक जिले के कोटवा हाईवे पर ‘बॉबी दा ढाबा’ चलाने वाले वसीम बॉबी (40) ने कहा, “योजना के कारण हमारे 20-25 प्रतिशत ग्राहक कम हो गया है.” चावल-दाल या बिरयानी के लिए 30-50 रुपये देने वाले इंदिरा कैंटीन गए हैं. सरकार आठ रुपये में एक व्यक्ति को खाना खिला सकती है, हम नहीं दे सकते.”
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महिलाओं के लिए बढ़े रोजगार
इंदिरा रसोई उन महिलाओं के लिए रोजगार पैदा करने का अवसर बन गई हैं, जिन्होंने पहले औपचारिक कार्यस्थलों पर काम नहीं किया है.
दौसा शहर की इंदिरा रसोई संख्या 487 की रीढ़ हैं बीना देवी, सुनीता साहू, गुलाब देवी, वर्षा और पूनम बंसीवाल. 22 साल की वर्षा और 30 साल की बीना सबसे कम उम्र की हैं, जबकि बाकी की उम्र 40 के आसपास है.
ये सभी गरीब या निम्न-आय वर्ग से हैं. जिन्हें अपने बच्चे पढ़ाने हैं जिन्हें शिक्षित करना है या शादी करनी है या किसी का पति ऐसा है जिन्हें महामारी के दौरान अपनी नौकरी खोने के बाद अभी तक रोजगार नहीं मिला है. वे जो आय अर्जित करती हैं, उससे उन्हें अपने परिवारों के लिए निर्णय लेने की शक्ति मिलती है.
कैंटीन दो पालियों में चलती हैं – सुबह 8:30-दोपहर 2 बजे और शाम 5-9 बजे -जिसमें नाश्ता, दोपहर का भोजन और रात का खाना शामिल होता है.
दौसा में 487 व 1064 कैंटीन चलाने वाले मुकेश कुमार कहते हैं, “एक शिफ्ट के लिए, एक कर्मचारी को 4,000 रुपये का भुगतान किया जाता है. कई कैंटीन प्रबंधक उन्हें डबल शिफ्ट के लिए 7,000-8,000 रुपये का भुगतान करते हैं.
हर दिन 400 लोगों को खाना खिलाना एक बहुत बड़ा काम है, लेकिन महिलाओं का कहना है कि उनका दिन बन जाता है जब ग्राहक उन्हें बताते हैं कि उन्हें खाना कितना पसंद है.
सब्जियां धोते हुए बीना देवी ने दिप्रिंट को बताया, “जब वे कहते हैं कि यह उन्हें घर के खाने की याद दिलाता है, तो हमें खुशी होती है.”
कुमार, जो एनजीओ गणनायक विकास संस्थान से जुड़े हैं, का कहना है कि वह परोसे जाने वाले भोजन की गुणवत्ता के प्रति सचेत हैं. संरक्षकों के पास अपने स्थानीय प्रतिनिधियों और यहां तक कि राज्य की राजधानी में अधिकारियों के पास शिकायत दर्ज कराने का विकल्प है.
कुमार ने गर्व के साथ कहा, “मेरी कैंटीन में से एक [487] का आयुक्त और जिला मजिस्ट्रेट ने दौरा किया है. यहां तक कि जयपुर के प्रतिनिधि और राजनेता भी यहां आए हैं और खाना खाया है. ”
दिप्रिंट ने दौसा और टोंक जिलों में जिन अधिकांश रसोइयों का दौरा किया, वे बस स्टैंड, रेलवे स्टेशनों, सरकारी अस्पतालों या नगर निगमों के आसपास के इलाकों में स्थित थे.
कुमार की एक कैंटीन रणनीतिक रूप से दौसा रेलवे स्टेशन के बगल में स्थित है, जबकि दूसरी एक झुग्गी और नगर निगम के करीब है.
“हम वास्तव में कैंटीन के आसपास एक कुलीन वातावरण नहीं रख सकते,” उन्होंने समझाया लेकिन जोर देकर कहा कि स्वच्छता सर्वोपरि है. “सुअर की घटना एक अलग मामला था, आमतौर पर कैंटीन को स्वच्छ रखा जाता है.”
यह सुनिश्चित करने के लिए कि स्वच्छता मानकों को पूरा किया जाता है, सभी कैंटीन सीसीटीवी निगरानी में हैं.
गोविंद सिंह डोटासरा, कांग्रेस के राजस्थान अध्यक्ष और स्कूली शिक्षा राज्य के पूर्व मंत्री ने कहा, “यह सुनिश्चित करने के लिए भोजन की गुणवत्ता बनी रहे और प्रत्यक्ष प्रतिक्रिया हो चेक और बैलेंस का नियम भी अपनाया जाता है. एक जिला-स्तरीय समिति के साथ, हमने एक राज्य-स्तरीय समिति का भी गठन किया है.”
एक केंद्रीकृत डेटाबेस परोसी गई प्लेटों की संख्या पर नज़र रखता है. मोबाइल फोन वाले संरक्षक डेटाबेस में अपना नंबर दर्ज कर सकते हैं और जब भी वे भोजन के लिए टोकन निकालेंगे तो उन्हें एक संदेश प्राप्त होगा.
लाभार्थियों को उनके नाम, पिता का नाम, मोबाइल नंबर और एक तस्वीर जैसे विवरण प्रदान करने के लिए कहा जाता है ताकि लोगों की संख्या पर नज़र रखी जा सके और यह सुनिश्चित किया जा सके कि योजना का दुरुपयोग तो नहीं हो रहा है. जो यह जानकारी नहीं दे सकते उन्हें ऐसा करने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है.
बांदीकुई में कैंटीन चलाने वाले आरडी मीणा ने कहा,”यह भ्रष्टाचार को रोकने का एक तरीका भी है. आप गलत तरीके से रसीदें नहीं बना सकते और सब्सिडी का दावा नहीं कर सकते जैसा कि कई योजनाओं के साथ होता है. इसके अतिरिक्त, निविदा ठेकेदारों (ठेकेदारों) को नहीं दी जाती है, बल्कि उन लोगों को दी जाती है जो पहले से ही समाज कल्याण क्षेत्र में काम कर रहे हैं. ”
अब तक, इंदिरा रसोईयों ने 9.3 करोड़ से अधिक थालियां सर्व कर चुकी है.
दौसा जिले के सुमेल खुर्द निवासी हरि सिंह दर्जनों बार रसोई में खाना खा चुके हैं. जनवरी में उसका अपनी पत्नी से झगड़ा हुआ और वह गांव छोड़कर चले गए बांदीकुई तहसील में रेलवे स्टेशन पर घूमते हुए उनकी नजर इंदिरा रसोई पर पड़ी थी.
उन्होंने रिव्यू किताब में लिखा, “मैं दो दिन से भूखा मर रहा था. यहां खाने के बाद मैं अपनी पत्नी के हाथ के बने खाने का स्वाद भूल गया हूं. धन्यवाद, इंदिरा रसोई और सरकार.” कैंटीन प्रबंधक ने बताया कि सिंह ने अंततः अपनी पत्नी के साथ समझौता किया और घर चले गए हैं.
(संपादन- पूजा मेहरोत्रा)
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