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Thursday, 28 March, 2024
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1987 के मलियाना नरसंहार के प्रमुख गवाह पूछ रहे हैं- क्या मेरे गोली के घाव सबूत नहीं हैं?

36 साल और 800 सुनवाई के बाद, मेरठ जिला अदालत ने मई 1987 में 68 मुसलमानों के नरसंहार के सभी 41 आरोपियों को रिहा कर दिया था.

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मलियाना (मेरठ): मेरठ के बाहरी इलाके में मलियाना गांव की एक संकरी गली में “अहमद टेलर्स” नाम की दुकान के बाहर भीड़ जमा है. 60-वर्षीय वकील अहमद अपनी कमीज़ का कफ मोड़ते हुए अपनी बाजू में लगे गोली के घाव को दिखा रहे हैं और इसके बाद अपनी कमीज़ उठाकर पीठ में एक और घाव दिखा रहे हैं.

भीड़ में से एक व्यक्ति ने टिप्पणी की, “सुबह से यह चौथी बार है जब अहमद ने अपने घाव दिखाए हैं, लेकिन किसलिए?”

Maliana massacre
मेरठ के मलियाना गांव में अपनी दुकान पर दर्जी वकील अहमद पीठ पर लगी गोलियों के घाव दिखाते हुए | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

23 मई 1987 के नरसंहार के अहमद पहले अभियोजन गवाह हैं, जिसमें 68 मुसलमानों को एक भीड़ द्वारा मार दिया गया था. इस घटना में उत्तर प्रदेश प्रांतीय सशस्त्र कांस्टेबुलरी (पीएसी) के कर्मी भी कथित तौर पर शामिल थे.

तीन दशकों में 800 से अधिक अदालती सुनवाई के बाद, जब मेरठ जिला अदालत ने नरसंहार के सभी 41 पुरुषों को रिहा कर दिया, तो मलियाना के निवासियों का दिल पसीज गया. 31 मार्च को पारित फैसले में अतिरिक्त जिला और सत्र न्यायाधीश लखविंदर सिंह सूद ने “आरोपियों को दोषी ठहराने के लिए पर्याप्त सबूत” की कमी को कारण बताते हुए सभी को बरी कर दिया.

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मेरठ के मलियाना गांव में दर्जी वकील अहमद अपनी दुकान पर | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

अदालत की एक सुनवाई को याद करते हुए अहमद ने बताया कि घावों को दिखाने के बावजूद जज लगातार उनसे सबूतों की मांग करते रहे.

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अपनी बाजू के कफ को मोड़ते हुए गुस्साए अहमद ने कहा, “मैं और क्या सबूत दे सकता हूं? क्या मेरे ये गोली के घाव और चोट की रिपोर्ट यह दिखाने के लिए काफी नहीं है कि उस दिन क्या हुआ था?

उन्होंने आगे कहा, “अब उन्होंने (अदालत) यह कहते हुए आरोपियों को छोड़ दिया कि कोई सबूत नहीं था. फिर मैं कौन हूं?”

तीन दशकों में नरसंहार में बचे लोगों ने आशा की किरण के तौर पर अदालती दस्तावेज और कैलेंडर पर तारीखों को चिन्हित किया हुआ है. 5 साल पहले दिल्ली हाईकोर्ट द्वारा हाशिमपुरा नरसंहार में पीएसी के 16 कर्मियों को दोषी ठहराए जाने से सुनवाई के बंद होने की संभावना का संकेत मिलते हैं, भले ही देर से ही सही, लेकिन मेरठ कोर्ट के फैसले ने उनकी मुसीबतें फिर से बढ़ा दी हैं. घटिया जांच और जांच समितियों, राजनीतिक उदासीनता और मिलीभगत ने उनके मामले को हर स्तर पर कमज़ोर किया है.


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एक जैसा ब्रीफकेस

63-वर्षीय इस्माइल खान अपने छोटे भाई यूनुस की शादी का कार्ड बांटने के लिए गाजियाबाद में थे, जब उन्हें अपने परिवार के सदस्यों की हत्या के बारे में पता चला. खान के भाई की तीन दिन बाद शादी होनी थी और घर रिश्तेदारों और उत्सवों से भरा हुआ था.

लेकिन फिर कुछ बहुत बुरा हुआ. खान के माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन और एक चचेरे भाई सहित परिवार के 11 सदस्य एक साथ मारे गए.

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63-वर्षीय इस्माइल खान अपनी पत्नी शमिला बेगम के साथ गाजियाबाद में अपने घर पर। खान के ब्रीफकेस में अखबारों की कतरनें, अदालती दस्तावेज और हिंसा में मारे गए उनके परिवार के 11 सदस्यों के मृत्यु प्रमाण पत्र शामिल हैं. मलियाना पीड़ित परिवारों के घरों में इस तरह का ब्रीफकेस मिलना एक आम बात है | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

खान ने याद करते हुए बताया, “एक संध्या अखबार दैनिक हिंट ने नरसंहार में एक परिवार के 11 लोगों की मौत की घोषणा की. जब मैंने उस खबर को पढ़ा, तो मुझे पता चला कि यह मेरा परिवार था.”

कर्फ्यू के कारण उन्हें अपने गांव वापस जाने में एक हफ्ते का समय लग गया; जब वे पहुंचे, तो वह अब सब कुछ पहले जैसा नहीं था. सन्नाटा पसरा था, खान ने याद करते हुए बताया कि किसी ने उनका स्वागत नहीं किया बल्कि, मृत निगाहें हर ओर थीं.

उन्होंने बताया, “मेरा घर लूट लिया गया था. मुझे पड़ोसियों से पता चला कि मेरे दादा और माता-पिता को मार कर कुएं में फेंक दिया गया.”

घटना के तुरंत बाद खान अपनी पत्नी और दो बेटों के साथ गाजियाबाद चले गए. वे तब से कभी वापस नहीं लौटे हैं.

खान एक ब्रीफकेस खोलते हैं, जिसमें उन्होंने बड़े करीने से अखबार की कतरनें और अपने परिवार के सदस्यों के मृत्यु प्रमाण पत्र रखे हैं. मलियाना के पीड़ित परिवारों के घरों में मृत्यु प्रमाण पत्र, दस्तावेज़ और अखबारों की कतरनों के साथ एक ब्रीफकेस एक आम नज़ारा है.

अपनी नम आंखों को मलते हुए खान कहते हैं, “यह सब मेरे पास बचा है. ये वो यादें हैं जिन्हें मैं बहुत प्यार से संजो कर रखता हूं. एक मृत्यु प्रमाण पत्र कभी-कभी किसी रिश्ते की याद दिलाता है.”

एक कपड़े से उस ब्रीफकेस को साफ करके बंद करते हुए वे कहते हैं, “काश मैं अपनी मां को आखिरी बार देख पाता.”

खान अकेले नहीं हैं. मलियाना की संजय कॉलोनी में रहने वाले नवाबुद्दीन भी पास के मुस्लिम मोहल्ले में शिफ्ट हो गये. यह घटना अपने पीछे गहरा अविश्वास छोड़ गई थी. अब वहां रहना सुरक्षित नहीं था.

पेशे से ड्राइवर नवाब, जिन्होंने उस घटना में अपने पित को खो दिया, कहते हैं, “उस दिन तक हम (मुस्लिम) और दलित शांति से रहते थे.”

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मलियाना नरसंहार में अपने पिता को खोने वाले नवाबुद्दीन अली अपने परिवार के साथ | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

‘यह कल की ही बात है’

यामीन मलिक 25 साल के थे जब उन्होंने अपने माता-पिता दोनों को इस नरसंहार में खो दिया था. वे अपनी बहनों के साथ एक दुकान में छिपे थे, जब वर्दी में शामिल लोगों की भीड़ ने मुस्लिम निवासियों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाईं. जब शाम को हिंसा कम हुई और कर्फ्यू लगा दिया गया, तो मलिक और उनकी बहनें अपने घर चली गए. मलिक याद करते हैं कि कैसे दीवारों पर खून के छींटे और सड़कों पर बिखरी लाशें, ऐसे लग रहे थे जैसे तेज हवा के झोंके के बाद बिखरे हुए फल.

उन्होंने कहा, “मैंने अपनी बहनों को घर के अंदर जाने के लिए कहा.” उनका घर अब मलबे का ढेर बन गया था और उनके माता-पिता के जले हुए शरीर वहां पड़े थे.

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मलियाना नरसंहार में यामीन मलिक ने अपने माता-पिता दोनों को खो दिया | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

“वो यादें कभी मेरा पीछा नहीं छोड़ती हैं. यह कल ही की बात लगती है, ” मलिक कहते हैं, जिनके बेटे रियाज़ ने उनका हाथ कसकर पकड़ रखा है.

मलिक का दावा है कि उनके माता-पिता के शवों को पुलिस पोस्टमॉर्टम के लिए ले गई थी, लेकिन उन्हें कभी वापस नहीं किया गया.

मलिक बड़बड़ाते हुए कहते हैं, “मैं महीनों तक शवों के लिए पुलिस स्टेशन जाता रहा लेकिन वे बहाने बनाते रहे. मैं उनका दाह-संस्कार भी नहीं कर सका.”

उनके साथ इरफान सिद्दीकी भी हैं, जो उस समय 16 साल के थे. इरफान अपने दोस्तों के साथ खेल रहे थे तभी उन्होंने हवा में गोलियों की आवाज़ सुनी. वे सभी पनाह तलाशने के लिए भागने लगे.

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मेरठ, उत्तर प्रदेश के बाहरी इलाके में मलियाना गांव का एक नज़ारा | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट
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मेरठ, उत्तर प्रदेश के बाहरी इलाके में मलियाना गांव का एक नज़ारा | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “हम पास के घर में गए और रोते रहे. सभी घरों की खिड़कियां और दरवाजे बंद कर दिए और दंगाइयों के जाने तक सभी को चुप रहने की सलाह दी गई. हम अपनी जान बचाने के लिए डरे हुए थे. मेरा बचपन उसी दिन मर गया था.”

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मेरठ, उत्तर प्रदेश के बाहरी इलाके में मलियाना गांव का एक नज़ारा | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

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‘युवा पीढ़ी’

ब्योरे को याद रखने के लिए 36 साल लंबा समय है लेकिन मलियाना नरसंहार के चश्मदीद गवाह कुछ भी नहीं भूले हैं. शोक लोककथाओं का एक हिस्सा बन गया है. यादों को ज़िंदा रखने के लिए बुजुर्ग अपने छोटों को हिंसा और अपराध की कहानियां सुनाते हैं.

यामीन मलिक के 30-वर्षीय बेटे रियाज का जन्म खूनी नरसंहार के 6 साल बाद हुआ था, लेकिन वे शब्दश: पूरी कहानी जानता है. जब मलिक लड़खड़ाते हैं, तो रियाज़ इसे पूरा करने के लिए बीच में कूद पड़ता है.

रियाज़ मुस्कुराते हुए कहते हैं, “चूंकि मैं एक बच्चा था, मेरी मां और पिता एक डकैत की कहानी सुनाते थे, जिसने मेरे दादा-दादी को मार डाला और इस क्षेत्र से हिंदू-मुस्लिम एकता को मिटा दिया.”

रियाज़ अपने पिता के साथ हर थाने के दौरे और अदालती सुनवाई में गया है और वे हार नहीं मानेगा.

उन्होंने कहा, “अगर हमें न्याय नहीं मिला. मैं कानूनी लड़ाई को आगे ले जाने के लिए पूरी तरह से तैयार हूं.”

मलियाना के एक खोखे पर, युवकों का एक समूह चाय की चुस्की लेते हुए बेंचों पर बैठा है, जबकि महिलाएं अपने घर के बाहर पेड़ों से बकरियों को बांध रही हैं. मेरठ कोर्ट का फैसला यहां चर्चा का मुख्य विषय है.

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मेरठ, उत्तर प्रदेश के बाहरी इलाके में मलियाना गांव में एक चाय की टपरी | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट
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मेरठ, उत्तर प्रदेश के बाहरी इलाके में मलियाना गांव की सड़कें | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

घटना के 10 साल बाद पैदा हुआ 26-वर्षीय अब्दुल उस सड़क की ओर इशारा करता है जहां उसके चाचा को गोली मारी गई थी.

“पापा ने बताया था कि मामू को यहां मार दिया गया था.”

अब्दुल का दोस्त शफी, जो नरसंहार के एक साल बाद पैदा हुआ था, उसने बताया कि कैसे उसकी मां फैसले के बाद से सो नहीं पाई है.

“कल रात, मैंने उन्हें नींद की गोली दी.”

और अचानक सब चुप हो गए.

क्या कहता है कोर्ट का फैसला

न्यायाधीश सूद ने सभी 41 अभियुक्तों को बरी करने से पहले मामले में ‘खामियों’ की एक लिस्ट बनाई.

फैसले में कहा गया, “पुलिस द्वारा दर्ज एफआईआर में आरोपी को वोटर लिस्ट प्राप्त करने के बाद नामजद किया गया था. यह भी देखा गया है कि इस मामले में कुछ अभियुक्तों की घटना से पहले मृत्यु हो गई थी.”

अन्य टिप्पणियों के बीच, न्यायाधीश ने गवाहों की गवाही में “असंगतता” और “विरोधाभास” पर ध्यान दिया और कहा कि पुलिस और अदालत को दिए गए बयान में “परिवर्तन” के लिए कोई सुसंगत स्पष्टीकरण नहीं दिया गया था.

न्यायाधीश ने कहा कि गवाहों द्वारा बताए गए हथियार अभियुक्त के कब्जे में नहीं पाए गए.

फैसले के अनुसार, जिरह के दौरान अभियोजन पक्ष के एक गवाह ने अदालत को बताया कि उसने ट्रांसपोर्ट नगर पुलिस स्टेशन के अधिकारियों के “दबाव में” वोटर लिस्ट से आरोपियों के नाम लिखे और वे “नहीं जानता कि आरोपी कौन हैं.”

न्यायाधीश ने यह भी कहा कि “किसी आरोपी की विशिष्ट भूमिका” के बारे में कोई सबूत नहीं मिला था.

‘मृत तो सिर्फ आंकड़े हैं’

मेरठ जिला अदालत में अपने चैंबर में बैठे वकील अलाउद्दीन सिद्दीकी जो पीड़ित परिवारों का प्रतिनिधित्व कर रहे हैं उनके लिए इलाहाबाद हाईकोर्ट में दायर की जाने वाली अपील लिख रहे हैं. सिद्दीकी के पास वक्त नहीं है वो फाइलों को छांटने में तल्लीन हैं.

उन्होंने बताया, “मैं फैसला सुनने के बाद स्तब्ध रह गया.”

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वकील अलाउद्दीन सिद्दीकी | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

1987 में उत्तर प्रदेश सरकार ने जांच आयोग अधिनियम 1952 के तहत न्यायिक जांच की घोषणा की थी. समिति की अध्यक्षता इलाहाबाद हाईकोर्ट के रिटायर्ड जज न्यायमूर्ति जीएल श्रीवास्तव ने की थी.

सिद्दीकी ने बताया, “आयोग की रिपोर्ट मूक मौत मारी गई क्योंकि दस्तावेज़ कभी भी विधायिका के सामने प्रस्तुत नहीं किए गए थे. कोई नहीं जानता कि रिपोर्ट में क्या था.”

हिंसा के 20 साल बाद, 2008 में पुलिस ने आरोप तय किए. सिद्दीकी का दावा है कि पुलिस द्वारा पीटे गए याकूब अली द्वारा मामले में दर्ज की गई एकमात्र एफआईआर गलत थी, जो वर्षों से इस मामले में रोड़ा बनी हुई है.

उन्होंने कहा, “अदालत में, प्रतिवादी हमेशा यह बात उठाएंगे कि कैसे कोई एफआईआर नहीं थी, इसलिए मामले का पालन नहीं किया जा सकता है. इसके बारे में पूछे जाने पर पुलिस कहती है कि उन्होंने इसे खो दिया है. कोई क्या कर सकता है?”

याकूब, पिछले तीन दशकों में धीमी अदालती लड़ाई का सीधा शिकार हुए हैं, उन्होंने वापस लड़ने का संकल्प लिया है.

उन्होंने कहा, “मैं हाईकोर्ट में अपील दायर करूंगा. अगर हाईकोर्ट हमें निराश करता है तो मैं सुप्रीम कोर्ट जाऊंगा. जब तक मैं ज़िंदा हूं, मैं केस नहीं छोड़ूंगा.”

सिद्दीकी ने पहली एफआईआर दर्ज किए जाने के क्षण से पूरे मामले को “न्याय का उपहास” कहा.

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वकील अलाउद्दीन सिद्दीकी | फोटोः प्रवीण जैन | दिप्रिंट

उन्होंने कहा, “मैंने इस मामले का पीछा करते हुए अपना प्राइम टाइम खो दिया. मेरे भूरे बालों को देखो. उनके लिए, मृतक केवल संख्या हो सकते हैं, लेकिन वो जीवित हैं, जिनकी रक्षा के लिए मैंने अपना पूरा जीवन दे दिया. मैं फिर से लड़ूंगा. ” इसके बाद वो फिर रोने लगते हैं और साथी वकील उन्हें सांत्वना देते हैं.

(संपादन: फाल्गुनी शर्मा)

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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