प्रयागराज: 65 वर्षीय बाबा अवस्थी प्रयागराज के मनमोहक कथाकार हैं. एक नेहरूवादी कांग्रेसी के पुराने दिनों और शहर के तौर-तरीकों के बारे में उनकी कहानियों को सुनने के लिए हमेशा श्रोताओं की उत्सुक भीड़ खड़ी रहती है. कुछ दिन पहले ही एक सुबह, वह शहर के एक कैफे में बैठे अपनी हथेली में तम्बाकू पीस रहे थे और भारत-पाकिस्तान क्रिकेट मैच और हिंदू महासभा के एक नेता के भाषण को याद कर रहे थे.
यही वह क्षण था जब प्रयागराज में संगठित अपराध की शुरुआत हुई.
उनके चारों ओर, युवाओं और महिलाओं की एक टोली, उनके द्वारा कहीं जा रही हर शब्द पर पूरी तरह कान गराई हुई थी और उन पर सवालों की झड़ी लगा रही थी.
अवस्थी 16 साल के थे. यह 1970 का दशक था. वह स्कूल से लौट रहे थे तब उन्होंने सेवई मंडी में हिंदू महासभा के सचिव महेंद्र कुमार शर्मा का भाषण सुना था. जब इमरान खान ने गेंदबाजी की तो पड़ोस के मस्जिद से लाउडस्पीकर में उग्र भाषण दिए जाने लगे. भीड़ तय नहीं कर पा रही थी कि क्या अधिक शानदार था- लाउडस्पीकर से दिया जा रहा भाषण या रेडियो पर क्रिकेट कमेंट्री.
उन्हें याद आया कि अचानक किसी ने बम फेंका. एक मिनट के भीतर दूसरा बम फेंका गया. अफरातफरी मच गई और लोग इधर-उधर भागने लगे.
अवस्थी ने कहा, ‘वह बम केवल आवाज करने वाला बम था, लेकिन इस घटना के साथ शुरू हुई इलाहाबाद में संगठित अपराध को बढ़ावा देने वाली राजनीतिक-अपराधी गठबंधन.’ कैफे में अन्य बुजुर्गों ने 1970 के दशक की इस कहानी में अपने अनुभवों को भी जोड़ा.
कैफे में बैठे एक अन्य व्यक्ति, जो अपने पुराने दौर को याद कर रहे थे, जिन्होंने यह सब देखा है, कहते हैं, ‘बम अभी भी इलाहाबाद में बनते हैं. कुछ मोहल्लों [इलाहों] में जाओ तो तुम कूड़ेदान में बम पाओगे.’
उस बम से लेकर गैंगस्टर से राजनेता बने अतीक अहमद की दो हफ्ते पहले हुई नाटकीय हत्या तक, पश्चिम प्रयागराज की सड़कों और कहानियों को प्रतिस्पर्धी डॉनों के बीच हिंसा से जोड़ा गया है.
इलाहाबाद का आपराधिक इतिहास, जो अब प्रयागराज है, राजीव गांधी युग से शुरू हुआ, जब सभी बड़े बुनियादी ढांचे के लिए ठेके डालने शुरू हुए. यहां के गंगा बेसिन में पत्थरों का अवैध खनन शुरू हुआ और धीरे-धीरे यह समय के साथ-साथ शहर में प्रवेश कर गया. धीरे-धीरे इसका जाल पूरे शहर फैल गया.
सबसे पहले, मौला बुकान और जवाहर पंडित सहित कई हिंदू गिरोह के नेता शहर के दक्षिणी हिस्से में फले-फूले. 1980 के दशक के मध्य में पश्चिमी इलाहाबाद में अतीक का शहर में बोलबाला था. अमीरों को लूटना और गरीबों पर छोटे-छोटे एहसान करना, रॉबिन हुड जैसी पौराणिक कथाओं के अनुसार चलना, यही इन माफियाओं का काम था. उसकी क्राइम कैपिटल ने गद्दी मुस्लिम, ओबीसी, पाल और पासी बहुल इस क्षेत्र में शूटर, बम स्पेशलिस्ट और कई छोटे अपराधियों को तैयार किया.
इलाहाबाद, जो पहले संगम तीर्थयात्रा, मोतीलाल और जवाहरलाल नेहरू, आनंद भवन और अमिताभ बच्चन के लिए जाना जाता था, बाद में अपराध, माफियाओं और बंदूक की चकाचौंध के लिए जाना जाने लगा.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर पंकज कुमार श्रीवास्तव कहते हैं, ‘पट्टे की भूमि के नवीनीकरण ने माफिया के उभरने में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उन्होंने सिविल लाइंस जैसे पॉश इलाकों पर ‘कब्जा’ कर लिया, जहां पहले अमीर लोग रहते थे. इसके लिए अवैध खनन के जरिए इकट्ठा किए गए पैसे का इस्तेमाल किया गया.’
श्रीवास्तव कहते हैं, ‘शहर का सामाजिक-सांस्कृतिक पारिस्थितिकी तंत्र बदल गया. यदि आप इंडियन कॉफी हाउस गए हैं, तो आपको अमीर लोग जैसे- सेवानिवृत्त न्यायाधीश, राजनेता आदि मिलेंगे. लेकिन अब आप किसी से पूछेंगे तो कहेंगे कि अतीक का बेटा असद भी वहां जाकर बैठेगा. वे आपको यह भी बताएंगे कि कुछ दिनों पहले अप्रैल में झांसी में पुलिस मुठभेड़ में असद को गोली मार दी गई थी और उसके पिता और चाचा की पुलिस और टीवी कैमरों के सामने हत्या कर दी गई थी.’
नेहरू से अतीक तक सफर
बदलाव इतना नाटकीय था कि शहर की पहचान ही बदल गई. जो कभी जवाहरलाल नेहरू और वी.पी. सिंह का लोकसभा क्षेत्र था, वह 2004 में माफिया डॉन अतीक का चुनावी युद्धक्षेत्र बन गया.
पश्चिमी इलाहाबाद के चुनावी बंटवारे ने शहर की राजनीतिक रंगत तय कर दी है- 30 फीसदी मुस्लिम, 15 फीसदी कुर्मी और 15 फीसदी पाल ओबीसी. ऐतिहासिक रूप से, गद्दी मुसलमान यादव समुदाय से धर्मान्तरित थे, जिसने अतीक और समाजवादी पार्टी (सपा) के मुखिया मुलायम सिंह यादव के बीच संबंध को प्रभावित किया.
फिर भी, राजनीतिक विश्लेषकों को आश्चर्य नहीं हुआ जब इलाहाबाद पश्चिम से पांच बार के विधायक अतीक 2004 में सपा के टिकट पर फूलपुर से चुनाव जीते. तब तक, नेहरू युग के बाद के लगातार कांग्रेस नेताओं ने इस निर्वाचन क्षेत्र पर अपनी पकड़ खो दी थी. कांग्रेस ने यहां मजबूती के साथ रहने के लिए कुछ किया भी नहीं. कई मुहल्लों में अपराध का दबदबा था.
श्रीवास्तव ने कहा कि जब भी हिंदू-मुस्लिम तनाव होता था, शहरवासी पश्चिमी इलाहाबाद के आस-पास से नहीं गुजरते थे. यह संदेह और भय के साथ देखा जाने वाला स्थान था और लोग यहां जाने से बचते थे.
1989: जब चुनावों में गैंगस्टरों का बोलबाला था
प्रयागराज का पॉश इलाका सिविल लाइंस स्थित इंडियन कॉफी हाउस में बैठे अवस्थी ने इलाहाबाद को ‘ट्रेंडसेटर’ बताया. और फिर उन्होंने वोटिंग वरीयताओं के बारे में मजाक किया.
उन्होंने कहा, ‘पश्चिम इलाहाबाद के इलाकों को माफियाओं द्वारा नियंत्रित किया जाता था, और लोगों को विभाजित किया जाता था कि चुनाव के दौरान किस माफिया को वोट देना है.’
1989 के विधानसभा चुनावों ने पश्चिम इलाहाबाद के राजनीतिक ताने-बाने को लगभग अपरिवर्तनीय तरीके से बदल दिया. यह पहली बार था जब यहां के निवासियों ने दो गैंगस्टर उम्मीदवारों को एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया था- अतीक और शौक-ए-इलाही, जिन्हें चांद बाबा के नाम से जाना जाता है. दो गैंगलॉर्ड्स के स्थानीय गुंडे अपने आकाओं के लिए घर-घर जाकर प्रचार करते थे. ऐसे चुनावों में मतदाता वोट डालने से भी बहुत डरते थे.
एक समय था जब कुख्यात डॉन चांद बाबा अपराध में अतीक का गुरु था. आस-पास के सभी ग्रामीण इलाकों में भी उसका सिक्का चलता था. अतीक ने अपने गुरु के लिए लोगों को डराने-धमकाने, रंगदारी वसूलने और छोटे-मोटे अपराधों पर काम किया. लेकिन बॉस के जेल जाने के बाद चीजें बदल गईं. अतीक ने अपना साम्राज्य शुरू कर दिया. जब तक बाबा रिहा हुए तो उन्होंने एक अलग अतीक को देखा.
रेलवे के एक स्क्रैप टेंडर ने अतीक की किस्मत बदल दी और वह राजनीति में करियर बनाने का सपना देखने लगा.
1989 एक ऐसा चुनाव था जैसा पहले कभी नहीं हुआ था. यह बराबरी का युद्ध था, लेकिन यह विश्वासघात और बदले की लड़ाई का एक अभियान भी था.
इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले इतिहासकार हेरंब चतुर्वेदी याद करते हुए कहते हैं, ‘अतीक के नामांकन दाखिल करने तक चांद बाबा महत्वाकांक्षी नहीं थे. लेकिन जैसे ही अतीक ने नामांकन दाखिल किया, बाबा ने कोहराम मचाना शुरू किया. उसने कोतवाली और स्थानीय पुलिस स्टेशन मुख्यालय पर बम फेंकना शुरू कर दिया.’
यूपी पुलिस के एक सेवानिवृत्त वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि बाबा के जेल में रहने के दौरान अतीक ने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा विकसित की.
चतुर्वेदी कहते हैं, ‘जब बाबा जमानत पर बाहर आए, तो उन्होंने अतीक को चुनाव न लड़ने की चेतावनी दी और खुद चुनाव लड़ना चाहते थे. इसीलिए मतभेद पैदा हुए और बाबा और अतीक, दोनों के अलग-अलग गुट बन गए.’
परिणाम घोषित होने के एक दिन पहले बाबा की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. अगले दिन वोटरों को पता चला कि अतीक ने उन्हें भारी अंतर से हरा दिया है. आज तक, हत्या का मामला हल नहीं हुआ है, हालांकि पुलिस में कई लोगों को संदेह है कि उसकी मौत में अतीक का हाथ था.
उसके बाद अतीक पश्चिम इलाहाबाद का निर्विवाद राजा बन गया, जहां राजनीति अपराध की दासी थी. उसने 1991 और 1993 में भी इसी सीट से चुनाव जीता. 1996 में अतीक सपा में शामिल हो गया.
यह भी पढ़ें: कैसे मध्य प्रदेश का ‘चमत्कारी बाबा’ बन गया धीरेंद्र शास्त्री, तर्कवादियों की चुनौती मुकाबले के लिए काफी नहीं
एक ‘बंबाज’ संस्कृति का जन्म हुआ
अतीक के उदय ने शहर के युवाओं के बीच और अपराध की संस्कृति को बढ़ाया.
अवस्थी कहते हैं, ‘यह इतना लोकप्रिय हो गया कि जब आप बम फेंकते हैं, तो आप रातोंरात हीरो बन जाते हैं. उस समय कोई सोशल मीडिया नहीं था, इसलिए लोगों के मुंह से जानकारी दी जाती थी. आपका नाम स्थानीय लोगों के बीच चर्चा का विषय बन जाता था और लोग आपके सामने हाथ जोड़ने लगते थे.’
उन्होंने कहा, ‘शुरू में युवा चाकूबाज़ रहते थे जो रात को शहर की सड़कों पर चाकू लेकर घूमते थे लेकिन बाद में वही बंबाज बन गए.’
इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कॉलेजों में, उपद्रवी लड़कों की रंगबाज़ संस्कृति थी, जो छात्रों में डर पैदा करते थे, और उन्हें हमेशा दूसरों द्वारा ‘भैया जी’ कहा जाता था. वे वर्षों तक छात्र राजनीति में हावी रहे, जैसा कि हासिल (2003) जैसी फिल्मों में दिखाया गया है.
चतुर्वेदी 1970 के दशक में अपराध में बढ़ोतरी के बारे में बताते हैं. सैद्यपुर में एक ‘राजू नक्सली’ का आना संकटग्रस्त पश्चिमी इलाहाबाद के लिए एक चिंगारी थी. राजू एक नक्सली था, जो बम बनाने के लिए जाना जाता था.
प्रोफेसर ने कहा, ‘पुलिस से छिपने के लिए वह इलाहाबाद आया था और यहां आकर अपराधियों को क्रूड बम बनाना सिखाता था.’
अवस्थी याद करते हुए कहते हैं, ‘कई बार युवा जेब में ही बम रखते थे और बम उसके जेब में फट जाता था. इसके कारण कई बार युवाओं की जान भी जा चुकी है और वह गंभीर रूप से घायल भी हो जाते थे.’
कच्चे बम बनाने वालों को उनके द्वारा बनाए जाने वाले बमों के नाम से जाना जाता था, जैसे ‘चिप्पा’ और ‘बाबू जी डिब्बा’ आदि.
अवस्थी कहते हैं, ‘इतने सारे बम फेंके गए कि पुलिस को गोले इकट्ठा करने में एक सप्ताह का समय लगेगा. वे सड़कों पर इस तरह की बातें करते थे. हर मोहल्ले में बंबाज़ पनपने लगे. जिसमें प्रसिद्ध थे- मनोज पासी और गुड्डू मुस्लिम [अतीक का सहयोगी]. ज्यादातर ओबीसी और मुस्लिम गद्दी समुदायों से ताल्लुक रखते थे.’
चतुर्वेदी के अनुसार, पूर्वी इलाहाबाद के दारागंज के बंटी गुरु ने 1974 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय में पहला बम फेंका था. चतुर्वेदी ने कहा कि बंटी विश्वविद्यालय में सिर्फ ‘भौकाल’ (हंगामा) टाइट करने के लिए बम फेंका था.
चतुर्वेदी कहते हैं, ‘मैं इतिहास की कक्षा में था जब मेरे प्रोफेसर बीच रास्ते में ही रुक गए क्योंकि बहुत शोर था. तब पता चला कि बम फेंका गया है. छात्रों के दौड़ने के साथ ही इसका बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा.’
इसके बाद से इलाहाबाद में क्रूड बम के कुटीर उद्योग ने उड़ान भरी. आज, शहर का एक नया नाम मिल गया है- प्रयागराज, लेकिन इसने अभी तक अपना बंबाज़ वाला टैग नहीं छोड़ा है. बमुश्किल चार साल पहले इलाहाबाद यूनिवर्सिटी के हॉस्टल से देसी बम और बनाने वाला कच्चा माल बरामद हुआ था. बम को लेकर यह नियमित रूप से सुर्खियों में रहता है. इस तरह की हेडलाइंस खुब सुनने को मिलती है- ‘भाजपा नेता कच्चे बम के हमले से बाल-बाल बचे’, ‘अतीक के वकील के घर के पास देसी बम फटा’ और इसके साथ ही यहां के युवाओं ने अपने जीवन को जोखिम में डालना जारी रखा है.
अभिनेता-निर्देशक-निर्माता तिग्मांशु धूलिया, जो अब 55 वर्ष के हो गए हैं, इसी शहर में बड़े हुए, उन्होंने कहा कि इसे सेवानिवृत्ति के लिए उपयुक्त माना जाता है. लेकिन आफ्टरलाइफ ओएसिस की इन छवियों के माध्यम से, वह विश्वविद्यालय परिसरों में फेंके गए बमों की कहानियां भी सुनते थे. उनका इलाहाबाद एक बौद्धिक केंद्र था, जिस पर थिएटर और सिनेमा का प्रभुत्व था, फिर भी उसे अपने औपनिवेशिक नशे से उभरना बाकी था.
उन्होंने आगे कहा, ‘इलाहाबाद को सेवानिवृत्ति के लिए एक शहर के रूप में देखा जाता था. जैसा कि हम सब जानते हैं कि पहले संगठित अपराध नहीं था. बहुत सारी सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधियां हुआ करती थीं. अपराध था, लेकिन उतना खुला और दृश्यमान नहीं था. मुझे चांद बाबा और परशुराम पाण्डेय की याद आती है. हम उनके अपराध की कहानियां सुनते थे.’
वह अब साल में एक बार अपने गृहनगर जाते हैं, लेकिन अब इस शहर में थिएटर का कोई नामोनिशान नहीं है.
जाति विभाजन ने दरारों को और गहरा किया
एक कठोर और लचीली जाति पदानुक्रम ने भयावह स्थिति को और बढ़ा दिया.
अर्थशास्त्री जॉन द्रेज़ ने 2015 के पेपर की जांच करते हुए लिखा, ‘यह नोटिस करने में बहुत समय नहीं लगता है कि सार्वजनिक संस्थानों में शर्मा, त्रिपाठी या श्रीवास्तव जैसे विशिष्ट उत्तर भारतीय उच्च-जाति के उपनाम वाले लोगों (मुख्य रूप से पुरुषों) का वर्चस्व है.’ प्रमुख संस्थानों में उच्च जाति समुदायों का प्रभुत्व.
इन डिवीजनों को आवासीय लेआउट में दिखाया गया था. समाज विज्ञानी और प्रोफेसर बद्री नारायण के अनुसार, दलित और ओबीसी ज्यादातर शहर के कसारी मसारी, चकिया और राजपुर जैसे इलाकों में रहते हैं. सुरक्षा के लिए वे खुद को चाकू और तलवार से लैस करते हैं.
पश्चिम इलाहाबाद में, पासी – यूपी के सबसे बड़े दलित समुदायों में से एक – ने ताकत और बदले की प्रतिष्ठा हासिल की है. उन्होंने बताया, ‘उन्होंने हमेशा राजनीति के सही स्पेक्ट्रम का पक्ष लिया है, और अगर मुस्लिम समुदाय के किसी व्यक्ति द्वारा उन पर हमला किया जाता है, तो वे चाकू और तलवारें अपने पास रखते हैं.’
एक गिरोह के सरगना की मौत के बाद शून्य को भरने के लिए सत्ता के लिए हाथापाई होती है. फिलहाल अतीक के बाद पश्चिम इलाहाबाद का कुख्यात गैंगस्टर बच्चा पासी भी यूपी के मोस्ट वांटेड गैंगस्टर्स की लिस्ट में शामिल है.
अपराध अपने साथ धार्मिक शत्रुता लेकर आया और आस-पड़ोस बदलने लगे. लोग सुरक्षित स्थानों पर जाने लगे. कई इलाके महिलाओं के लिए असुरक्षित होता जा रहा था. मध्यवर्गीय माता-पिता अपने बच्चों को इन क्षेत्रों में नहीं रखना चाहते थे. इन मोहल्लों से ताल्लुक रखना लगभग एक कलंक था.
गोविंद बल्लभ पंत सामाजिक विज्ञान संस्थान की प्रोफेसर अर्चना ने कहा, ‘जब मैं उस इलाके में रहा करता थी तब मैं दीवाली और ईद पर दो समुदायों के बीच तनाव देखती थीं. लाउडस्पीकर को लेकर झगड़े होते थे. वकील उमेश पाल की हत्या के बाद दुश्मनी और बढ़ गई है.’
पाल, जिसकी हत्या की साजिश कथित तौर पर अतीक द्वारा रची गई थी, 2005 में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) के विधायक राजू पाल की हत्या के मामले में गवाह थे. इलाहाबाद (पश्चिम) विधानसभा सीट से अतीक के भाई अशरफ को हराने के बमुश्किल तीन महीने बाद उनकी हत्या कर दी गई थी.
प्रयागराज में जो मुठभेड़ के कारण मौतें और हत्याएं हुई हैं, वे 18 साल पहले हुई घटनाओं का नतीजा हैं. इसने मौजूदा दोषों को बढ़ाया और शहर की राजनीति को आगे बढ़ाया.
‘अतीक को वही मिला जिसके वो हकदार थे’
शादी के नौ दिन बाद ही पूजा पाल ने अपने पति राजू पाल को खो दिया था.
पूजा पाल कहती हैं, ‘अतीक अहमद को वह मिला जिसका वह हकदार था.’ आज पूजा कौशाम्बी से सपा विधायक हैं. वह याद करते हुए कहती हैं, ‘मेरे पति काम के बाद घर आ रहा थे. अतीक उन्हें मरवाना चाहता था. वह हर जगह अपने ‘निशानेबाजों’ को रखता था. वह उसे निर्देश देता था. और फिर एक दिन उनकी हत्या हो गई. उनकी हत्या के वक्त मैं नौ दिन की दुल्हन थी.’ धूमनगंज में अपने कार्यालय में बैठी पूजा याद करते हुए कहती हैं.
वह कहती हैं कि उनके पति की हत्या उनके शुरू हो रहे राजनीतिक करियर को खत्म करने के लिए कर दी गई थी.
राजू की हत्या का मकसद विधानसभा चुनाव था. और एक कारण यह भी था कि राजू का कोई भाई-बहन नहीं था, सिर्फ एक बूढ़ी मां थी. पूजा कहती हैं, ‘अतीक ने सोचा होगा कि वह उनकी हत्या करवाकर उनकी राजनीति को ही खत्म करवा सकता है. उसे नहीं पता कि उसकी पत्नी इसे जिंदा रखेगी.’
राजू और पूजा की अरेंज्ड मैरिज हुई थी. पूजा कहती हैं, ‘मुझे राजू के बारे में उनकी मृत्यु के बाद पता चला कि वह कैसे व्यक्ति थे. उनके निर्वाचन क्षेत्र के लोगों और उनके परिवार के सदस्यों के माध्यम से मैंने उन्हें जाना. मैं शादी से पहले उनसे केवल एक बार मिली थी.’
उनकी दाहिनी कलाई पर ‘RP’ लिखा हुआ है. वह बोलते ही टैटू को छू लेती है. वह कहती हैं, ‘मैंने यह टैटू 2011 में बनवाया था. लड़ाई खत्म नहीं हुई है. राजू के शूटर अभी बाहर हैं. मैं उन्हें सलाखों के पीछे पहुंचा कर ही आराम करूंगी.’
प्रयागराज अब एक नया शहर बनने का वादा करता है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इस सप्ताह सहारनपुर में ‘ना कर्फ्यू, ना दंगा, यूपी में सब चंगा’ की घोषणा करने के लिए मुठभेड़, हत्याओं को खत्म करने का आह्वान किया.
गाजीपुर का खूंखार डॉन मुख्तार अब्बास अंसारी 29 अप्रैल को अपहरण और हत्या के मामले में फैसला सुनने इलाहाबाद हाईकोर्ट पहुंचेगा.
जैसा कि हमेशा कहा जाता है: ‘पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त’.
(संपादन: ऋषभ राज)
(इस ख़बर को अंग्रेज़ी में पढ़नें के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: उन्नाव में रेपिस्ट ने पीड़िता का घर जलाया, बच्चे को आग में फेंका; सामने गांव में मनाया जमानत का जश्न